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चौथा भाग दूसरा कोष्ठक
६. नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइयन्वं । सम्मत्तचरिताई, जुगवं पुब्बं तु सम्मत्त । नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुति वरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निब्बाण' ।
- उत्तराध्ययन] २८/२६-३०
उप:
सम्यक्त्व के त्रिभा चारित्र न तो कभी था, न वर्तमान में है और न कभी होगा । सम्यवत्य में चारित्र की भजना है। सम्यक्त्व चारित्र कदाचित् साथ उत्पन्न हों तो भी पहले सम्यक्त्व होगा और बाद में चारित्र होगा ।
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८.
सम्यक्त्व के बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के बिना पाँच महाव्रत रूप चारित्र के (करण चरण सप्ततिरूप - पिण्डविशुद्धि आदि) गुण प्राप्त नहीं होते। चारित्रगुणों के बिना कर्मों का मोक्ष नहीं होता और अमुक्त को निर्वाण शाश्वत मुक्तिसुख नहीं मिलता ।
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७. दंसणभट्ठो भट्ठो, दंसण भट्टस्स नथि निव्वाणं । सिज्झति चरणरहिया, दंसणरहिया न सिज्यंति ।। -भक्तिपरिता गाथा ६६ सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति वस्तुत' 'भ्रष्ट है, उसको मोक्ष नहीं मिलता । द्रव्यचारित्र - रहित सिद्ध हो जाते है, किन्तु दर्शन रहित नहीं होते ।
नाणभट्ठा दंसणलू सिणो ।
-- आचारांग ६.४
सम्यग्दर्शन से पतित सम्यग्ज्ञान से भी भ्रष्ट हो जाता है । ६. जीवविमुक्का सबओ, दंसणमुक्को य होइ चलसवओो । सबओ लायअपुज्जो, लोउत्तरयम्मि चलसओ ||
- भाव १४३