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पांचवा भाग दूसरा कोष्टक
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तो आहार को पर देना चाहिए। चाहे मुंह में हो, हाथों में हो या पात्र में हो। न परटनेवाले साधु-साध्वी को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है ।
- निशीय १०।३१-३२
८. जे भिक्खु रा भोवतास्स वन्नं बदई बदनं वा साइज्जई ।
११॥७६
जो
साधु रात्रिभोजन की प्रशंसा करें एवं प्रशंसा करते हुए का अनुमोदन करे तो उसे मासिक-प्रायश्चित आता है ।
६. कि जैनः रजनीभोजनं भजनीयम् !
क्या जैनलोगों को रात्रिभोजन करना चाहिए ? नहीं नहीं, कदापि नहीं ।
१०. नोदकमपि पातव्यं, रात्रौ नित्यं युधिष्ठिर ! तपस्विनां विशेषेण गृहिणां च विवेकिनाम् ||
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है युधिष्ठर ? रात के समय पानी भी नहीं पीना चाहिए, फिर भोजन का तो बहना ही क्या ? यह बात साधुओं को और विवेकी गृहस्थों को विशेष ध्यान देने योग्य है ।
११. मृते स्वजनमात्रेऽपि सूतकं जायते किल । अरतं गतं दिवानाथे, भोजनं क्रियते कथम् ? अस्तं गते दिवानाथे, आप रुधिरमुच्यते । अन्नं माससमं प्रोक्तं मार्कण्डेयमहर्षिणा ।। रक्सीभवन्ति तोमानि अनानि शतानि च । रात्रौ भांजनसक्तस्य ग्रासे तन्मांसभक्षणात् ॥