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गुणग्राहक बनो! १. कसे गणे जाव शरीरभेउ ।
--उसराध्ययन ४११३ अन्त समय तक गुणों की आकांक्षा करते रहो।। २. गुगाः क्रियतां यत्नः, किमाटोपः प्रयोजनम् । विक्रीयन्ते न घण्टाभि - गांवः क्षीरविजिताः ।।
-प्रसङ्गरत्नावली गुणों के लिए प्रयत्न करो । आडम्बर में क्या है ? दूध न देनेषालो
गायें केवल घंटियां बांधने से नहीं बिका करतीं। ३. गुणेष्वनादरं भ्रातः, पूर्णश्रीरपि मा कृथाः ।
संपूर्णोऽपि घटः क्पे, गुणच्छेदात् पतत्यधः ॥ अरे भाई ! पूर्ण श्रीमान् होकर भी गुणों का अनादर मत कर 1 देख !
भरा हुआ घड़ा भी गुण (डॉरी) के कट जाने से कुंए में गिर जाता है। ४. सन्धयेत् सरला सूचि-ब का छेदाय कर्तरी ।
अतो विमुच्य बकरने, गुणानेव समाश्रय ॥ सीधी-सरल मूई फटे-टूटे को जोड़ती है और वक्र-केंनी अखण्ड को काटती है । अतः वक्रता को छोड़कर गुणों को धारण कर !
(मूई गुण अर्थात् धागे) को धारण करके ही वस्त्र आदि को सोती है)। ५. ज्ञान गरीबी गुरग धरम, नरम वचन निरदोष ।।
तुलसी कबहुं न छाँड़िये, शील सत्य सन्तोष ॥ ६. गुण जब मिले, जहां से मिले, जिस कदर मिले, ले लो।