Book Title: Vaktritva Kala ke Bij
Author(s): Dhanmuni
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 817
________________ २२ जितेन्द्रिय १. जोयन्तां दुर्जया दह, रिपवश्चक्षुरादयः । जितषु ननु लोकोऽय, तेषु कृत्स्नस्त्वया जितः ॥ --किरातार्जुनीय ११।३२ अपने शरीर में रहे हुए वक्ष आदि इन्द्रियाँ दुजंय शत्रु हैं। इन्हें भर्वप्रथम जीतना चाहिए । इन्हें जीत लेने पर समझो कि तुमने मारा संसार जीत लिया। २. सुच्चिय सूरो सो चेव पडिओ, से पसंसिमो नि । इन्दियचोरेहि सया, न लुटिटयो जस्स चरणधनं ।। -प्रकरणरनाकर वही शूर है, बही पण्डित है, हम सदा उसी की प्रशंगा करते हैं, जिसका चरण-घन इन्द्रियाप घोरों द्वारा नहीं लूटा गया ।। ३. श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च, भुक्त्वा धात्वा च यो नरः । न हृष्यति ग्लायति वा, स विज्ञ यो जितेन्द्रियः ।। -मनुस्मृति २६८ निन्दा-स्तुति मुनकर, सुखद-दुखद वस्त्रादि को छूकर, गुरूप-कुरूप कों देखकर, सरस-नीरस वस्तु को खाकर एवं सुगन्ध-दुर्गघ वस्तु को संघकर जिसे हर्ष-विषाद नहीं होता, उसे जितेन्द्रिय समभाना चाहिए।

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