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न्यायाजित धन
१. शुद्भर्ध विवन्ते, सतामपि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्बुभिः पुरा, कदाचिदपि सिन्धवः ।।
- अगला नगन ४५ मज्जनों के भी शुद्ध धन से सम्पदार नहीं बढ़तीं। जमे-स्वच्छजलों से नदियां कमी पूर्ण नहीं होती। २. रमन्तां पृण्या लक्ष्भीर्याः, पापीस्ता अतीनशम् ।
-अथर्ववेद ७११५४ गुप्यकारिणी लक्ष्मी मेरे घर की शोभा बढ़ाए तथा पापकारिणी लक्ष्मी
नष्ट हो जाए। ३. न्यायागतस्य द्रव्यस्य, बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ । अपात्रे प्रतिपत्तिश्च, पाये चाप्रतिपादनम् ।।
–विदुरनीति ॥६४ न्याय गे अजित धन के व्ययसम्बन्धी दो अतिकम हैं अर्थात् दुरुपयोग हैं- अपात्र को देना और पात्र को न देना ।