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सोसरा कोष्ठक
१. यतः सवैप्रयोजनमिद्धिः सोऽर्थः ।
--मोतिवाझ्यामृत २०१ जिससे सब प्रयोजनों की सिद्धि हो, वह अर्थ (धन) है । २. अलब्ध कामो, लब्धपरिरक्षरणं, रक्षित परिवर्धन नार्थानुबन्धः ।
-नीतिवाक्यामृत २।३ अर्थ के तीन अनुबन्ध अर्थात् किये जाने वाले काम हैं-(१) अप्राप्त की
कामना, (२) प्राप्त की रक्षा, (३) रक्षित को बढ़ाना। ३. अर्थस्य पुरुषो दासो, दासस्त्वों न कस्यचित् ।
-महाभारत-भीष्मपर्व मनुष्य धन का दास है. किन्तु धन किसी का दास नहीं । ४. अर्थषणा व्यसनेषु न गण्यते ।
-कौटिलीय अर्थशास्त्र धन की गवेषणा व्यसनों में नहीं गिनी जाती । ५. को न तृप्यति वित्तन ?
-सभाषितरत्नसामंजूषा धन से कौन तृप्त नहीं होता? ६. दुन्दुभिस्तु सुतरामचेतन-स्तन्मुखादपि धन-धन-धनम् । इत्थमेव निनदः प्रवर्ततं, कि पुनदि जनः सचेतनः ।।
-सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ६७ अचेतन दुन्दुभि के मुख से भी धन-धन-धन ऐसा शब्द निकलता है, तो फिर सचेतन मनुष्य धन-धन की रटना लगाये-इसमें क्या आश्चर्य है ?
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