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पक्तत्वकला के बोल
६. कोर्थान् प्राप्य न मविन: ?
—पञ्चतंत्र एन पाकर कौन गवित नहीं हुआ ? ७. स्तेयं हिसानृते दम्भः, कामः क्रोधः स्मयो मदः ,
भेदो वैरमविश्वासः, संम्पर्द्धा व्यसनानि च । एते पञ्चदशानर्था, ह्यर्थमूला मता मृणाम् । तस्मादनर्थमाख्यं, अंयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत् ॥
–श्रीमदभागवत ११।२३।१८-१९ . . १. चोरी, २. हिंसा, ३. झूठ, ४. दम्भ, ५. काम; ६. पोष, ७. चित्तोप्रति, ८. अहंकार, ६. भेदधुद्धि, १०. वर, ११, अविश्वास, १२. संस्पर्दा, १३. व्यसन अर्थात् व्यभिचार, १४. धूमा, १५. शराबये पन्द्रह अनर्थ मनुष्यों में धन के कारण से ही माने गये हैं। अतः कल्याणकामी पुरुष को अघ नामधारी इस अनर्थ का पूर से ही परित्याग
कर देना चाहिए। ८. धन से नर्म बिछौना मिल सकता है, नींद नहीं; मन्दिर-मस्जिद बन सकते
हैं, भगवान नहीं; भौतिकसुख मिल सकते हैं, आत्मिकसुख नहीं; प्रशंसक मिल सकते हैं, हितचिन्तक नहीं; दिलाव का मान मिल सकता है, हार्दिक सम्मान नहीं; पुस्तक खरीद सकते हैं. विद्या नहीं; नौकर रखा जा सकता है, सच्चा सेवक नहीं।
--महेन्द्रकुमार वशिष्ठ ६. धन के लिए लाखों-करोड़ों व्यक्ति मुर्द-से होकर घूम रहे हैं, मगीनों की
तरह दिन-रात खाट रहे हैं, जेलों में (चोर-डाकू आदि) सड़ रहे हैं, सघवा, विधवा, कुमारी स्त्रियां वेश्या बन रहो हैं, तोपर्यों में पंडे-पुजारी लोग लोगों को ठग रहे हैं, भाई-भाई लड़-झगह रहे हैं तथा सरकार प्रजा को लूट रही है और प्रजा सरकार को धोखा दे रही है ।
-संकलित