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छुठा भाग : चौथा कोष्ठक
५. मुक्तद्वीन्द्रियोमुक्तो, बद्ध-कमन्द्रियोऽपि हि । बबुद्धीन्द्रियो बद्धो, मुक्तकर्मेन्द्रियोऽपि हि !!
-योगवाशिष्ठ बुद्धीन्द्रियों के विषयों में अनासक्त मनुष्य मुक्त हो हैं, फिर वह चाहे कत्रियों से शुकश क्यों न हो ? तथा जो कन्द्रियों से मुक्त होकर भी यदि बुद्धीन्द्रियों के विपनों में आसक्त है तो वह वास्तव में बंधा