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छठा भाग : चौथा कोष्ठक
६. आत्मरक्षायां कदाचिदपि न प्रमाद्यत ।
-नीतिवाक्यामृत २५१७२ मनुष्य को आत्मरक्षा करने में कभी आलस्य नहीं करना चाहिए। ७. त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।
-चाणक्यनीति ३।१० कुल रक्षा के लिए एक व्यक्ति का, ग्राम रक्षा के लिए एक कुल का और देशरक्षा के लिए एक ग्राम का त्याग कर देना चाहिए । किन्तु आत्मरक्षा के लिए यदि समूची पृथ्वी का भी त्याग करना पड़े, वह भी
कर देना चाहिए। ८. यज्जीवस्योपकाराय, तहस्यापकारकम् । यह हस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम् ।।
–इष्टोपदेश १९ जो कार्य आत्मोपकारी है, वह शरीर का अपकार करनेवाला है एवं जो कार्य शरीरोपकारी है, वह आत्मा का अपकार करनेवाला है।
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