________________
छठा भाग : चौथा कोष्ठक
२४७
१०. आत्मज्ञान के लिए इन्द्र को १०१ वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालना पड़ा।
-छान्दोग्योपनिष ११. कहं सो घिप्पइ अप्पा ? पपगाए सो उ घिप्पए अप्पा
-समयसार २६६ यह आरमा किस प्रकार जानी जा सकती है ? आत्म-प्रज्ञा अर्थात भेदविज्ञानरूप बुद्धि से ही जानी जा सकती है। वात्माविद्या ब्राह्मणों में क्षत्रियों से आई हो-ऐसा संभव है । छान्दोग्योपनिषद् (१३७) में अपने पुत्र 'श्वेतकेतु' से प्रेरित होकर 'आरुणि' 'पंचाल के राजा प्रवाहण' के पास गया। आत्मविद्या देते हुए राजा ने कहा--मैं तुम्हें जो आत्मविधा और परलोकविद्या दे रहा हूं, उस पर आज तक क्षत्रियों का अधिकार रहा है, आज पहली बार वह ब्राह्मणों के पास जा रही है। भागवत-११।२।१६ में ऋषभप्रभु को सर्थक्षत्रियों का पूर्वज कहा है । (ऋषभं पार्थिव श्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम्) यही ऋषभप्रभु मरतक्षेत्र
में जनधर्म के आदिकर्ता हैं । इन्हीं से आत्मविद्या का प्रारम्भ हुआ है । १३. षड्दर्शन ना जुआ-जुआ मता, माहों माही खाधा खता,
एक नों थाप्यो बीजो हणे, अन्यगी ओपने अधिको गणें । अक्खा । एज अंधारो कुओ, झगड़ो मांगी में कोई न मुओ ॥१|| देहाभिमान हतो पा सेर, विद्या भगतां बाध्यो सेर, चर्चा बधतां अधमरण थयो, गुरु थयां थी मण मां गयो। अक्खा ! एम हलका थी भारी होय, आत्मज्ञान मूल गो खोय।।२।।
-अक्षा भगत के गुजराती पध