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आत्मा का दर्शन
• १. आत्मा व अरे द्रष्टव्यः, श्रोतव्यो, मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।
आत्मनो वा अरे दर्शनेन, श्रवगेन, मत्या, विज्ञानेन इदं सर्वविदितम् ॥
-बहदारण्यक उपनिषट्-२।४।५ आत्मा का हो दर्शन करना चाहिए, आत्मा के सम्बन्ध में ही सुनना चाहिए, मनन-चिन्तन करना चाहिए और आत्मा का ही निदिध्यासनध्यान करना चाहिए । एकमात्र आत्मा के ही दर्शन से, श्रमण से, मनन-चिन्तन से और विज्ञान से-सम्यक् जानने से सब कुछ जान लिया
जाता है। २. आत्मावलोकने यत्नः, कर्त्तव्यो भूतिमिच्छता।
--पोगवाशिष्ठ ५॥७१।४६ कल्याण की इच्छा रखनेवाले को आत्मदर्शन करने का प्रयल करना
चाहिए। ३. पुष्पे गन्धं तिले तैलं, काष्ठेऽग्नि पयसि घृतम् । इक्षौ गुडं तथा देहे, पश्यात्मानं विवेकतः ॥
—चाणक्यनीति २१ (जैसे--पुष्प में गन्च, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि और ईख में गुड़ विद्यमान है, वैसे हो देह में आत्मा विद्यमान है। उसे विवेकपूर्वक देखो।
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