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आत्मा का कर्तृत्व
१. अप्पा नई वेयरपी, अप्पा में कूद सामली।
अप्पा कामदुहाधेणू, अप्पा मे मन्दणं वणं ॥३६।। अप्पा कत्ता विकत्ता य. दुहारा प सूहाण य । अणा मित्तममिनच, दुप्पट्ट्यि सुपट्ठिओ ।।३७॥
___ - उत्तराध्ययन २० मेरी (पाप में प्रवृत्त) आत्मा ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष के समान (कष्टदायी है । और (सत्कार्म में प्रवृत्त) कामधेनु गरी आत्मा ही एवं नन्दनवन के समान (मुखदायी) भी है ।३६॥ आत्मा ही सुख-दुःख की कर्ता और भोक्ता है। सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र के तुल्य है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही
शत्रु है ।१७। २. आत्मानमेव मन्येत, कारं सुख-दुःखयोः ।।
-चरकसंहिता मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी आत्मा को ही सुख-दुःख की कर्ता
माने । ३. स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तरफलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते ।।
___-चाणक्यनीति ६९ आत्मा स्वयं कर्म करती है और स्वयं उसका फल भोगती है। स्वयं संसार में भ्रमण करती है और स्वयं उससे मुक्त होती है ।