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गमका तीन
४. से सुयं च मे अज्झरिययं च मे, बंध-पमोस्रो तुज्झ अज्झत्थेव ।
--आचारसंग-शर मैंने सुना है और अनुभव भी किया है कि बन्धन की मुक्ति आरमा के
अन्दर ही है। ५. उद्धरेदात्मनात्मान, नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धु-रात्मैव रिपुरारमनः ॥५॥ बंधुरात्मात्मनस्तस्य, येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे, बर्रातात्मैव शत्रुवत् ॥६॥
-गीता-म. आत्मसंयम द्वारा आत्मा का उद्धार करो। कुत्सित प्रवृत्तियों द्वारा आत्मा को विवाद-दुःख मत पहुँचाओ। आत्मा ही आत्मा को बन्धु है और आत्मा ही आत्मा की शत्रु है ॥५॥ जिसने आत्मा को अर्थात मन-इन्द्रियों को आत्म-संयम द्वारा जीत लिया है, उसके लिए उसकी आत्मा मन्षु है और जिसके मन-इन्द्रियो अपने
वश में नहीं है, उसके लिए उसकी आत्मा शन है ॥६॥ ६. एगप्पा अजिए सत्त ।
-सराध्ययम-२०१८ स्वयं की अविजित-असंयत आत्मा ही स्वयं का एक शत्र है। ७. न त अरी कंठछिता करेई, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा ।
--उत्तरम्पयम-२०४८ गर्दन काटनेवाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं करता, जितनी हा दुराचार में प्रवृत्त अपनी आत्मा कर सकती है।