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धन को निन्दनीयता १. अविश्वासनिधानाय, महापातकदेतदे,
पिता-पुत्र विरोधाय, हिरण्याय नमोऽस्तुते । है घन ! तू अविश्वास का निधान है, महापाप का हेतु है और पिता
पुत्र को लड़ाघाला है अतः तुझे दूर से ही नमस्कार है । २. अर्थानामजने द:ख-मजितानां च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं विगर्थाः कप्टसंश्रयाः ॥
--पञ्चतन्त्र १७४ घन का संग्रह करने में दुःख है और संपहीतधन की रक्षा करने में भी दुःख है। धन की आय में दुःख है एवं उसके श्यय में भी दुःख है।
अतः दु:ख के संश्रयरूप धन को विवकार है। ३. अर्थस्य साधने सिद्ध, उत्कर्षे रक्षणे व्यये । . नाशोपभोग आयास-स्त्रासश्चिन्ता भयं नृणाम् ॥
__..-सागवत १११२३९७ धन कमाने में, कमाकर उसे बढ़ाने में, रखने में, खर्च करने में, उसके नाश में या उपभोग में, जहां भो देखो, वहाँ परिश्रम है, पास है, चिन्ता
है और मय है। ४. माया में भय है, काया में भय कोनी।
-राजस्थानी कहावत ५. दौलत को दो लात है, "तुलसी" निश्चय कीन्ह ।
आवत अन्धा करत है, जावत करे अधीन ।