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छठा भाग : दूसरा कोष्ठक
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६. नहीं चम्पा नहीं केतकी, भंवर ! देख मत भूल ।
रूपरूड़ो गुणवाहिरो, रोहीड़ा रो फूल । ७. डूंगर दूरासू रलियामरणा, दीस ईसरदास । ___नेड़ों जाकर देखिए, (तो) पत्थर पाणी धास ।। ८. पाषाणः परिपुरिता वयुमती बनो मरिण दुर्लभः ।
पत्थरों से पृथ्वी भरी पड़ी है, किन्तु वञमणि मिलना कठिन है । ऐसे
ही निमुंग-व्यक्ति बहूत हैं, किन्तु गुणी दुर्लभ हैं । ६. गुग्णहीन मृतकतुल्य ।
शालिवाहन राजा एवं कालिकाचार्य का संवादराजा-कौन जोक्ति है ? आचार्य-जो गुणी एवं चारित्रशील है, वही पीवित है। राजा-क्यों ? आचार्य ---मैंने एक दिन शिष्यों से कहा-निगुण एवं चारित्रहीन पुरुष पशु-मुग आदि के समान है । तब मृग आदि सभी ने इस मंतव्य का विरोध करते हुए इस प्रकार कहामृगादि पशु-हम मरने के बाद भी अमं मादि के रूप में लोगों के काम आते हैं। गजएँ-हुम पास खाकर भूध देती हैं । कुत्ते-हम नमकहलाल हैं। वृक्ष-हम छाया फल-फूल आदि देते हैं । पास-मैं पशुओं का जीवन टिकाता हूँ। राण-मैं वर्तन साफ करती हूँ। राजन् ! उसी दिन से यह निर्णय किया गया कि निगुण-चारित्रहीन
व्यक्ति मृतक के तुल्य है।