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दृष्टिदोष एवं उसके आश्चर्य १. किसी वस्तु को देखकर सहर्ष आश्चर्य प्रकट करने से जो विकार होता
है, उसे दृष्टिवोष या नजर कहते हैं । युथकारा डालने से इसका विकार शान्त हो जाता है। ऐसी भी दन्तकथा है कि जिसकी अनामिका और कनिष्ठा-ये दो नगलियाँ सहजरूप में मिलती हों, उसका युथकाग पलता है। ग्वाले की माता खीर बनाकर पानी भरने गमी। पीछे से मासोपवासी मुनि पधारे । बालबाल ने सारी खीर बहरा दी । मुनि चले गये, बालक थाली चाट रहा था । माता पानी भरके आयी और देखकर मन में कहने लगी- अहो ! पुत्र सारी खीर खा गया। बस, नजर लगी एवं बालक बीमार होकर थोड़ी ही देर में मर गया। भावना पवित्र भी अतः वह मरकर सेट शालिभद्र बना । (अचानक मरना नजर के दोष से माना जाता है।) वि० सं० १९८४ छापर में मुनि जशकरणजी आदि की दीक्षा हुई । सेठ गोविन्दरामजी नाहटा नवदीक्षितमुनि का सुन्दर चेहरा और गौरवर्ण देखकर मन में कहने लगे-साधु तो बहुत फूटरो बन्यो है। बस, कहने की ही देरी यी । दीक्षा लेकर स्थान पर आते ही मुनिजी के भयंकर उदरपीड़ा होने लगी। दिनभर अनेक उपचार किये पर कोई लाभ नहीं हुआ । रात पड़ गयी, क्रमशः जीने की आशा कम होने लगी। रोटजी को पता नगा, दौड़कर आये एवं शुथकारा डाला । युयकारा क्या डाला, बुझाने दीपक में तेल ही डाल दिया। नवदीक्षित मुनि तत्काल स्वस्थ हो गये । देखनेवाले सभी आश्चर्य मुग्ध थे ।
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