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छठा भाग : दूसरा कोष्ठक
विधान लोग किसी वचन के विषय में यह नहीं देखते कि उसका कहने
वाला कौन है । ये तो केवल गुण के पक्षपाती होते हैं। १८, गुग्गी इन गुणा को लेना है, हमें दृगुगा से क्या मतलब ?'
कुएँ से नीर पीना है, हमें कचरे से क्या मतलब ? ॥ध्रव।। हम तो ग्राहक हैं चन्दन के, भले ही साँप लिपटे हो ! मुग्ध है पुष्प-सुरभी पर, हमें कांटों से क्या मतलब ? गुणी॥१॥ छाछ खट्टी भले ही हो, हम तो मक्खन के भूखे हैं। इक्ष रस के पिपासु हैं, हमें छिलकों से क्या मतलब ? गुणी।।२।। न खल से काम है बिल्कुल, हमें तो तेन लेना है। आम खाने के इच्छुक हैं, हमें गुठली से क्या मतलब? गुणी।।३।। मणी के हम तो ग्राहक हैं, सांप जहरी भले ही हो । गोल मोती के गर्जी हैं, सीप बोकी से क्या मतलब ? गुणी।।४।। रूप कोयल का काला है, तो भी मिठास ल लेंगे। काम तकिये की रू से है, हमें खोली से क्या मतलब ? गुग्णी।।५।। मिले गुण जिस कदर जिससे, हम तो तैयार हैं लेने । चाहे किमही मजन का हो, हमें मजहब से क्या मतलब ? गुगी।।५। ऐव बिन आज दुनियाँ में, नजर कोई नहीं आता । सभी अन्दर से नगे हैं, कहे 'धन' हमको क्या मतलब ? गुरगी।।७।।
-उपदेश-सुमनमाला १६. गुरिंगण गण नारम्भे, नापतति कठिनी मुसंभ्रमाद् यस्य । तेनाम्बा यदि सुतिनी, वद 1 बन्ध्या कीदृशी नाम ।।
--हितोपदेश प्रास्ताविका १६ १. सर्ज-कव्वाली