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मुक्ति के सुख
१. आत्मायतं निराबाध-मतीन्द्रियमनीश्वरम् । घातिकर्मक्षयोद्भूतं यत्तन्मोक्षसुखं विदुः ॥
- तस्वानुशासन २४२
जो मुख स्वाधीन है, बाधारहित है, इन्द्रियों से परे है-आत्मिक है, अविनाशी है और ज्ञानावरणीय आदि चातिक कर्मों के क्षय होने से प्रकट हुआ है, उसे मुक्ति कहा जाता है
२. वि अत्थि मगुस्सारणं तं सोक्ख या विय सष्वदेवारणं । जं सिद्धाणं सोक्शं अव्वाबाहं उवगयाणं ॥
जं देवारणं सांक्ख, सन्नद्धा पिंडियं अनंतगुणं । रंग य पावइ मृप्तिसुहं ताहि वग्ग-वहिं ॥
- औपपातिक सिद्धवर्णन, गाया१३-१४ निराबावयवस्था को प्राप्त सिद्धों को जो मुख हैं, वैसे न तो मनुष्यों के पास है एवं न सभी प्रकार के देवों के पास हैं । देवताओं के तीनों (भूत, भविष्यत् वर्तमान) काल के सुखों को एकत्रित किया जाय, फिर उन्हें अनन्तवार वर्ग अर्थात् गुणित किया जाय तो भी वे क्षण-भर मुक्तिसुखों के बराबर नहीं हो सकते ।
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