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संसार १. संसरणं संसारः भवाद् भवगमनं. नरकादिषु पुनभ्रंमणं वा ।
--विशेषावश्यक-भाष्य
मंसरण करना एवं एक भव से दूसरे भव में जाना अथवा नरकादि चार गतियों में पुनः गुनः भ्रमण करना संसार कहलाता है ।
जीवा चेत्र अजीवा य, एस लाए वियाहिए । अजीवदेसमापो अलोट में विवादिर:
--उत्तराध्ययन ३६।२ जिस आकाश के भाग में जीव-अजीव दोनों रहते हों, उसे लोक कहते हैं 1 जहाँ केवल आकाश ही हो, धर्म-अधर्म आदि न हों, उसे अलोक कहते हैं। धम्मो अहम्मो आगास, कालो पुग्गल-जन्तवा । एस लोगोत्ति पनत्तो, जिगोहिं बरदसिहि ।।
--उत्तराध्ययन २८७
धर्म, अधर्म, आकाश, काल, गुद्गल -ये पांच अजीव और छठा जीव-पे छः द्रव्य लोक की आत्मा हैं । अतः जो यह पउद्ध्यान्मक है, यही लीक है..जोमा श्रेष्ठदर्शन के धारक श्रोजिनभगवान ने कहा है।