________________
१६८
वक्तृत्वकला के बीज
फाटो, इसके होंठ काटो, इसका सिर काटो, इसका मुखच्छेदन करो, इसफा लिंगच्छेदन करो, इसका भोजन-पानी रोको, इसे यावज्जीवन के लिए बाँधो ता इसे किसी एक कुमरण से मारो! इस प्रकार आदेश-निर्देश करनेवाला पुरुष मरकर नीचे नरकपृथ्वीतल में जाता है। आशापामशन द्वाः, काम-क्रोधपरायणाः । ईहन्त काम-भोगार्थ मन्यायेनार्थसचयान् ॥१२।। इदमद्य मया लब्ध-मिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । इदमस्तीदमपि मे, भविष्यति पुनर्धनम् ।।१३।। असौ मया हनः शत्रु हनिप्ये चापरानपि । ईश्वरोऽहमह भोगी. सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥१४।। आगोभिजनवानम्मि, कोऽन्योऽस्ति सहशो मया । यो दाम्यामि मोदिज्य, इत्यज्ञानविमोहिताः ।।१५।। अनेक वत्तविभ्रान्ता, मोहजा नसमावृताः । प्रमाताः काम-भागेम, पतन्ति नरकेशुचौ ॥१६।।
--गीता १६ आशारूप, मैकड़ों बन्धनों में बंधे हुए काम-क्रोध में लीन प्राणी काम भोग की प्राप्ति के लिए अन्याय से धन का संचय करना चाहते हैं 1३१॥ वे सोचते हैं यह ना मझे आज मिल गया और आगे यह मिल जागा । मेरे पास यह इतना धन तो है एवं इतना फिर हो जागा ॥१३॥ मैंने इस शत्रु को मार दिया, दूसरों को भी मार दंगा । मैं ईदघर हैं. भामी हूं, सिद्ध हैं, बलवान हूं, सम्ली हुँ ||१४||