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छठा भाग पहला कोष्ठक
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महापुरुष संपत्ति और विपत्ति में एकरूप रहते हैं। देखो ! सूर्य उदय होने के समय भी लाल रहता है और अस्त होने रहता है ।
के समय भी लाल
१०. अहो किमपि चित्राणि विचित्राणि महात्मनाम् । लक्ष्मी तृणाय मन्यन्ते तद्भारेण नमन्त्यपि ॥
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- देवेश्वर
महापुरुषों के चित्र कुछ विचित्र हो होते हैं। वे लक्ष्मी को तृण के समान समझते हैं, पर लक्ष्मी के भार से नम भी जाते हैं ।
१४. हिताय नाहिताय स्याद् महान् संतापितोऽ हि । रोगापहाराय भवेदुष्णीकृतं पयः ॥
पश्य !
महापुरुष संतापित होकर भी हितकारी ही होता है, अहितकारी नहीं होता | देखो ! अग्नि में गर्म कर लेने पर भी दूध रोगनाशक होता है ।
२. दुर्जनवचनाङ्गारं दग्धोऽपि न विप्रियं वदत्यायैः । मानोऽप्यगुरुः, स्वभावगन्धं परित्यजति ॥
नहि
- प्रसङ्गरत्नावली
२३. संपत्सु महता चित्त भवत्युनलम् । आपत्सु च महाशैल - शिला संघातकर्कशम् ||
-
दृष्टों के
अंगारों से जला हुआ भी आर्यपुरुष कभी अप्रिय नहीं बोलता | जैसे - जलता हुआ भी अगर तूप अपनी सुगन्ध नहीं
छोड़ता ।
मतृहरि नीतिशतक ६६ संपत्ति के समय महात्माओं का चित्त कमलवत् कोमल रहता है और आपत्ति के समय महान् पर्वत की शिलाओं के समूहवत् कठोर हो जाता है । तत्त्व यह है कि संपत्ति में से अभिमान नहीं करते और आपति में बबड़ाते नहीं ।