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रखेंगें ? क्या पता, कल ही अलग विहार करने का फरमान करदें ! व्याख्यानादि का मंग्रह होगा तो धर्मोपदेण या धर्म-प्रचार करने में सहायता मिलेगी।
समय-समय पर उपरोक्त सायी मुनियों का हास्य-विनोद चल ही रहा था कि वि० सं० १६८६ में श्री कानुगणी ने अचानक ही श्री केवलमुनि को अग्नगण्य बनाकर रतननगर (थनासर) चातुर्मास करने का हम दे दिया । हम दोनों भाई (मैं और वन्दन भुनि) उनके साथ थे । व्याख्यान आदि का किया जा संग उरा मानना कम माया चं भविष्य के लिए उत्तमोनम ज्ञान संग्रह करने की भावना बलवती बनी। हम कुछ वर्ष तक पिताजी के साध विचरत रहे । उनके दिवंगत होने के पश्चात् दोनों भाई अग्नगण्य के रूप में पृथक्-पृथक् विहार करने लगे।
विशेष प्रेरणा-एक बार मैंने 'वक्ता बनो नाम की पुस्तक पढी। इसमें वक्ता बनने के विषय में खामी अच्छी बातें बताई हुई थीं। पढ़ते-पढ़ते पढ् पंक्ति दृष्टिगोचर हुई कि "कोई भी ग्रन्थ या शारक गढ़ो, उसमें जो भी बात अपने नाम की नगे, उसे तत्काल लिख लो।" इस पंक्ति में मेरी संग्रह करने की प्रवृत्ति को पूत्रपिक्षया अत्यधिक तेज बना दिया । मुझे कोई भी नई युक्ति, सूनि, या कहानी मिलती, जम तुरन्त लिम्न लता । फिर जो उनमे विशेष उपयोगी लगती, उसे औपदेशिक भजन, स्तधन या व्याख्यान के रूप में गूध लेता । इस प्रनि के कारण मेरे पास अनेक भाषाओं में निबद्ध स्वरचित सैकड़ी भजन और सैकड़ो च्याग्डयान इकट्ठे हो गए । फिर जन-कथा साहित्य एवं नात्त्विकसाहित्य की ओर रुचि बड़ी । फलस्वरूप दोनों ही विषयों पर अनेक पुस्तकों की रचना हुई । उनमें छोटी-बड़ी लगभग २० पुस्तके तो प्रकाश में आ चुकीं, शेष ३०-३२ अप्रकाशित ही हैं।।
एक बार संगृहीत सामग्री के विषय में यह सुझाव आया कि यदि प्राचीन संग्रह को व्य त्रस्थित करके एक ग्रन्ध्र का रूप दे दिया जाए, तो यह उत्कृष्ट उपयोगी चीज बन जाए। मैंने इस सुझाव को स्वीकार किया और अपने प्राचीन-संग्रह को व्यवस्थित करने में जुट गया। लेकिन पुराने संग्रह में फौन-सी सूक्ति, श्लोक या हेतु किस ग्रन्थ' या शास्त्र के हैं अथवा किस कषि,