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प्राक्कथन
मानव-जीवन में वाचा की उपलब्धि एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । हमारे प्राचीन आचार्यों की दृष्टि में बाया ही सरस्वती का अधिष्ठान है, वाचा सरस्वती भिषग्वाचा ज्ञान की अधिष्ठात्री होने से स्वयं सरस्वतीरूप है, और समाज के विकृत आचार-विचाररूप रोगों को दूर करने के कारण यह कुशल वैद्य भी है ।
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अन्तर के भावों को एक दूसरे तक पहुँचाने का एक बहुत बड़ा माध्यम चाचा ही है। यदि मानव के पास वाचा न होती तो उसकी क्या दशा होती ? क्या वह भी मूकपणुओंों की तरह भीतर ही भीतर घुटकर समाप्त नहीं हो जाता ? मनुष्य जो गूँगा होता है, वह अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए कितने हाथ-पैर मारता है, कितना छटपटाता है, फिर भी अपना सही आशय कहां समझा पाता है दूसरों को ?
बोलना वाचा का एक गुण है, किंतु बोलना एक अलग चीज है, और वक्ता होना वस्तुतः एक अलग चीज है। बोलने को हर कोई बोलता है, पर वह कोई कला नहीं है, किंतु वक्तृत्व एक कला है । वक्ता साधारण से विषय को भी कितने सुन्दर और मनोहारी रूप से प्रस्तुत करता है कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । वक्ता के बोल श्रोता के हृदय में ऐसे उतर जाते हैं कि वह उन्हें जीवन भर नहीं भूलता
कर्मयोगी श्रीकृष्ण, भगवान् महावीर, तथागत बुद्ध, व्यास और भद्रबाहु आदि भारतीय प्रवचन- परम्परा के ऐस महान प्रवक्ता थे, जिनकी वाणी का
१ यजुर्वेद १९ १२