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पक्तृत्वकला के बीज
कहा जाता है कि इतना कहते ही मुर्दा जीवित होगया । राम-मोक्त में सान महात्मा तुलसीदासजो का देहाववसान नि० संवत् १६५०, श्रावण शुक्ल सप्तमी को काशी के (असीघाट) गंगातट पर हुआ, जिसके विषय में यह दोहा प्रसिद्ध हैसम्बत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर । श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो सरीर ।।
-कल्याण संतअंक एवं श्रुति के आधार से।
१२. सिखगुरु नानकदेवजी
सिखों के दस गुरु हुए हैं। उनमें प्रथम गुरु नानकदेवजी थे। इनका जन्म 'राइभोई की तलवंडी' (ननकाणासाहिब) में देदी कानूचन्द पटवारी के घर माता तुरताजी के उदर से वैशाख सुदी ३ सं० १५२६ को हुआ । गुरु नानक बचपन से ही बड़े शान्त -स्वभाव के थे । एक दिन माता के आग्रह पर ये बच्चों में खेलने गये। वहां इन्होंने बच्चों को पद्मासन से बैठा दिया और कहा.-"सत्य कत्तरि" कहते जाओ। पिता ने इन्हें पढ़ने के लिए दो पंडितों और एक मौलवी के पास भेजा, किन्तु इन्होंने अपने आत्मबल से तीनों उस्तादों को शिष्य बना लिया । एक वार पिता ने इन्हें कुछ सौदा लाने को कहा । इन्होंने सारे रुपये भूखे संतों को खिलाने में खर्च कर दिये । घर आकर अपने पिता से इस सौदे को सच्चा सौदा बताया । पिता को बड़ा क्रोध आधा और इन्हें काफी मारा-पीटा । इनकी बहिन 'नानकी' से यह नहीं देखा गया और यह इन्हें अपने घर (सुलतानपुर) ले गई । यहाँ ये मोदीखाने में। काम करने लगे।