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पाँचवां भाग पहला क
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भावना प्रकट करना प्रतिक्रमण है। हां तो जिस दोष की मात्र प्रतिक्रमण से (मिच्छामिदुक्कडं कहने से ) शुद्धि हो जाए, वह प्रतिक्रमणार्ह दोष एवं उसके लिए प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमणाहं प्रायश्चित है। समिति गुप्ति में अकस्मात् दोष लग जाने पर 'मिच्छामिदुक्कड' कह कर उक्त प्रायवित्त लिया जाता है। फिर गुरु के पास आलोचना करने की आवश्यकता नहीं रहती ।
(३) तदुभयाहं
आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करने से जिस दोष की शुद्धि हो उसके लिए आलोचना-प्रतिक्रमण करना तदुभयाप्रायश्चित है। एकेन्द्रियादि जीवों का संघट्टा होने पर साधु द्वारा उक्त प्रायदिचत्त लिया जाता है, अर्थात् मिच्छामिषकसं बोला जाता है एवं बाद में गुरु के पास इस दोष की आलोचना भी की जाती है।
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(४) विवेकाई
वि.सी वस्तु के विवेक त्याग से दोष की शुद्धि हो तो उसका त्याग करना विवेकाहं प्रायश्चित है। जैसे—आधा कर्म आदि आहार आ जाता है तो उसको अवश्य परठना पड़ता है, ऐसा करने ने ही दोष की शुद्धि होती है।
(2) व्युत्सर्गार्ह-
व्युत्सर्ग करने से जिस दोष की शुद्धि हो, उसके लिए स्मृत्सर्ग करना (शरीर के व्यापार की रोककर ध्येयवस्तु में उपयोग लगाना) व्युत्सगर्ह प्रायश्चित्त है। नदी आदि पार करने के बाद यह प्रायश्चित्त लिया जाता है अर्थात् कायोत्सर्ग किया जाता है ।
(६) तपाई
तप करने से जिस दोष की शुद्धि हो, उसके लिए तप करना