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वक्तृत्वकला के बीज
आचार्य आदि को-१ आहार देना, २ पानी देना, ३ वाय्या देना, ४ आसन देना, ६ उनका पडिलेहण करना, ५ पात्र गंछना, ७ नेत्ररोगी हों तो ओषध-भेषज लाकर देना, ८ मार्ग में (बिहारआदि के समय गदाग देना, ६ राजा के क्रुद्ध होने पर उनकी रक्षा करना, १० चौर आदि से उन्हें बचाना, ११ अनिवार-सेवन कर के आएं हों तो उन्हें दण्ड देकर शुद्ध करना, १२ रोगी हो तो उनके लिए आवश्यक वस्तुओं का संपादन करना, १३ लघुशङ्कानियाणार्थ पान उपस्थित करना । उपर्युक्त १३ प्रकार से आचार्य आदि की वैयाबृत्त्य की की जाती
(४) वेयावच्चेणं तित्थयरनाम गोयं कम्मं निबंधे।।
-उत्तराध्ययन २६॥ ३ आचार्यादि की बयावृत्त्य करने से जीव तीर्थ कर नाम-गोत्रकर्म
का उपार्जन करता है। (५) जे भिक्रवू गिलाणं सोच्चा णच्चा न गवेसई,
न गवसंतं वा साइज्जइ........आवज्जइ चउम्मासियं परिहारठाणं अशुग्धाइयं ।
-मिशीयभाष्य १०३७ यदि कोई समर्थ साधु किसी साधु को बीमार मुनकर एवं जानकर बेपरवाही से उराकी सार-संभाल न करे तथा न करनेवाले की अनुमोदना करे तो उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।