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भोजन के समय दान
१. त्यक्तेन भुञ्जीथाः ।
-यजुर्वेद ४०।१ कुछ त्याग करके 'वाओ ! २. केवलापो भवति केवलादी। -ऋग्वेद १०॥१७१६९
अतिथि आदि को दिये बिना अकेला भोजन करनेवाला केवल पाप का भागी होता है। एकः स्वादु न भुञ्जीत, एकश्चान्न चिन्तयेत् । एको न गच्छेदध्वानं, नैकः सुप्तेषु जागृयात् ॥
___-विदुरनीति १५१ मनुष्य को चाहिए कि कभी भी अवेन्ना स्वादिष्ट भोजन न करे, अकेला किसी विषम का निश्चय न करे, रास्ते में कभी अकेला न
चले और न गत को सरके सो जाने के बाद अकेला जागता ही रहे। ४. अशितवत्यतिथावश्नीयात् । --अथर्व वेद ६७७
अतिथि के खाने के बाद ही खाना चाहिए। बीसमंता इमं चित, हियमट्ठ लाभमट्टिी ! जद में अपगह कुज्जा, साहू हुज्जामि तारिओ ६४।। साहवो तो चित्तणं, निमंतिज जहनकम । जइ तत्थ के इच्छिज्जा, तेहिं सद्धि त भजए ॥६शा विश्राम करता हआ लाभार्थी (मोक्ष पर्थी) मुनि इस हितकर अर्थ
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