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स्वाध्याय ध्यान की प्रेरणा
१. स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत् । ध्यान स्वाध्याय संपत्त्या, परमात्मा प्रकाशते ||१|| यथाभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि सुमहान्त्यपि । तथाध्यानपिस्थैर्य, लभतेऽभ्यासवर्तनाम् ||२||
-तत्त्वानुशासन
स्वाध्याय से ध्यान की अभ्यास करना चाहिए और ध्यान सेल्वाध्याय को चरितार्थ करना चाहिए स्वाध्याय एवं ध्यान की संघप्ति से परमात्मा प्रकाशित होता है-अर्थात् अपने अनुभव में लाया जाता है । अभ्यास से जैसे महान शास्त्र स्थिर हो जाते हैं, उसी प्रकार अभ्यास करने वालों का ध्यान स्थिर हो जाता है । २. जपश्रान्तो विशेद ध्यानं घ्यानश्रान्तो विशेज्जपम् ।
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द्वाभ्यां श्रान्तः पठेत् स्तोत्र - मित्येवं गुरुभिः स्मृतम् ॥ - श्राद्धविषि, पृ०७६, श्लोक-३ ध्यान से श्राव होने पर जाव हो जाने पर स्तोत्र पढ़ना
जाप से थान्त होने पर ध्यान एवं करना चाहिए तथा दोनों से श्रान्त चाहिए। ऐसे ही गुरुदेव ने कहा है ।
३. ओमित्येव घ्यायथ ! आत्मान स्वस्ति वः
पाराय तमसः परस्तात् I
मुण्डकोपनिषद् २२२२६
इस आत्मा का ध्यान ओ३म् के रूप में करो ! तुम्हारा कल्याण
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