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पांचवां भाग : दुसरा कोष्टक
११. ध्यान के आलम्बनरूप बार ध्येय[क] पिण्डस्थं च पदस्थं च, रूपस्थं रूपजितम् । चतुर्धा ध्येयमाम्नातं, ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ।
-योगशास्त्र साम ज्ञानी-पुरुषों ने ध्यान के आलम्बनरूप ध्येय को चार प्रकार का भाना है-१. विलम्थ, २, पदस्थ, ३. रूपस्थ, ४. रूपातीत । [ख] पार्थिवी स्यादथाग्नेयी, मारुती वारुणी तथा । तत्त्वभूः पञ्चमी ति, पिण्डस्थं पञ्चधारणाः ।
-योगशास्त्र ७६ पिण्हस्थ अर्थात शरीर में विद्यमान आत्मा। उसके आलम्बन से जो ध्यान किया जाता है, वह पिण्डस्थध्यान है। उसकी पांच धारणाएं हैं- १. पाशिवी, . आग्नेयी, ३. मारती, ४. वारुणी, ५. तत्त्वभू'। [ग] यत्पदानि पवित्रारिण, समालम्च्य विधीयते । तहादस्थं समाख्यातं, ध्यानं सिद्धान्तपारगैः ।
-योगशास्त्रमा ध्येय में चित्त को स्थिररूप से बाँध लेने का नाम धारणा है । पविधमन्वाक्षर आदि पदों का अवलम्बन करके जो ध्यान किया जाता है, उस सिद्धान्त के पारगामी पुरुष परस्पध्यान कहते हैं । [4] अर्हतो रूपमालम्व्य, ध्यानं रूपस्थमुच्यते ।
-योगशास्त्र हा
१ धारणा तु क्वविद ध्येये, चित्तस्य स्थिरबन्धनम्
--अभिधानचिन्तामणि शर