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सक्तृत्वकला के बीज
अन्तर्मुहुर्त तक मन को स्थिर रघना छ हमस्थयोगियों का ध्यान है। स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन, भ्याले स्त्रस्मै स्वतो यतः । षट्कारकमयस्तस्माद, ध्यानमात्मैव निश्चयात् ।
-तत्त्वानुशासन ७४ आत्मा का आत्मा में, आत्मा द्वारा, आत्मा के लिा. आत्मा में हो ध्यान करना चाहिए । निश्चमनय में षट्कारकमय-यह आत्मा ही ध्यान है। निश्त्रयाद् व्यवहाराच्च, ध्यानं द्विविधमागमे । स्वरूपालम्बनं पूर्व', परालम्बनमुत्तरम् ।
-सत्याभुशासन १६ मिल्लयष्टि से यहाः रिले "या' मार का है । प्रयम में स्वरूप का आलम्बन है एवं दूसरे में परवस्तु का आलम्बन है। ध्यानमुद्राअन्तश्चेतो बहिश्चक्षु-रघःस्थाप्य सुखासनम् । समत्वं च शरीरस्य, ध्यानमुद्रति कथ्यते ।
-ओरक्षामातक-६५ चित्त को अन्तमन्त्री बनाकर, दृष्टि को नीचे की ओर नाशाग्न पर स्थापित करके मुखासन से बैठना तथा शरीर को सीधा रखना
ध्यानमुद्रा कहलाती है। ६. खेचरीमुद्रा:
कपालकुहरे जिह्वा, प्रविष्टा विपरीतगा। भ्र वोरन्तर्गता दृष्टि-मुद्रा भबति खेचरी |