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वक्तृत्वकला के बीज
करनी चाहिए, वे न हों तो अपने सांभोगिक बहुश्रु तसाधु के पास, उनके अभाव में समानरूपवाले बहुश्र तसाधु के पास, उनके अभाव में पच्छाकड़ा (जो संयम से गिरकर श्रावकजत पाल रहा है, किन्तु पूर्वकाल में संयम पाला हुआ होने से उसे प्रायश्चित्तविधि का ज्ञान है-ऐसे) श्रावक के पास एवं उनके अभाव में जिनभक्त बहुश्र त यक्षादि देवों के पास अपने दोनों की आलोचना करनी चाहिए । भावीवश इनमें से कोई भी न मिले तो ग्राम या नगर के बाहर जाकर पूर्व-उत्तरदिशा (ईशानकोरा) में मुख करके विनम्रभाव से अपने अपराधों को स्पष्टरूप से बोलते हुए अरिहन्त सिद्ध भगवान को साक्षी से अपने आप प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाना चाहिए ।
-यबहार ड० १ बोल ३४ से ३६ ५. आलोचना के भेद(क) एक्कंकका चजकन्ना दुवम्ग-सिद्धावसारगा ।
--~ोधनियुक्ति गाथा १२ आलोचना के अमेक भेद हैं—जमें नाका, षट्कर्णा एवं अप्टकणां । यदि साधु-साधु से या साध्वी-साध्वी से आलोचना करे तो वह आलोचना चताकर्णा चार कानोंचाली होती है, क्योंकि तीमरा व्यक्ति उनके पास नहीं होता। यदि मात्री स्थविर साधु के पास आलोचना करे तो उस साध्वी के साथ ज्ञानदर्शन-सम्पन्न एवं प्रौढ़वयवालो एक