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पांचवा भाग : पहला कोष्ठक
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(४) अप्रवीड़क- लज्जावश अपने दोषों को छिपानेवाले शिष्य
की मधुर वचनों से लज्जा दूर करके अच्छी तरह आलोचना करानेवाला हो।
(५) प्रकुर्वक- आलोचित अपराध का तत्काल प्रार्याश्चत्त देकर
अतिचारों की शुद्धि कराने में समर्थ हो। तत्त्व यह है कि प्रायश्चित्तदाता को प्रायश्चित्तविधि पूरी तरह याद होनी चाहिए । अपराधी के मांगने के बाद प्रायश्चित्त देने में
बिलम्ब करना निषिद्ध है । १६) अपरित्रावी-आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के
सामने प्रकट नहीं करनेवाला हो । शास्त्रीय विधान है कि यदि आलोचनादाता नालीचना के दोषों को दूसरों के सामने कह देता है तो उसे उतना ही प्रायश्चित्त आता है, जितना उसने आलोचनाकर्ता को दिया था।
(७) निर्यापक- अशक्ति या और किसी कारणवश एक साथ
पूरा प्रायश्चित्त लेने में असमर्थ साधु को घोड़ा-थोड़ा प्राय__श्मित्त देकर उसका निर्वाह करने वाला हो । (८) अपायदर्शी- आलोचना करने में संकोच करनेवाले व्यक्ति
वो आगमान सार परलोक का भय एवं अन्य दोष दिखा.
कर उसे आलोचना लेने का इक बनाने में निपुण हो । ४. आलोचना किसके पास ?
आलोचना सर्वप्रथम अपने आचार्य-उपाध्याय के पास