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प्रायश्चित्त के भेद
१. पाय दसबिहे पण्णत्ते तं जहा-- आलोयणारिहे परि तदुभयारिह, विवेगारि, त्रिउसग्गारिहे, तवारि, शरि, मूलारिह, अवटुप्पारिहे पारंचियारिहे। स्थानाङ्ग १०।७३० तथा भगवती २५|७७६६
प्रायश्चित्त के दस मेद कहे हैं
१ आलोचना, २ प्रतिक्रमणाहं ५ व्युत्सर्गार्ह, ६ तपाईं, ७ छेदाहं, १० पाञ्चिका ।
तदुभयाहं, ४ विवेकार्ड, मूलाई अनवस्थाप्यार्ह,
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(१) आलोचना
संगम में लगे हुए दोष को गुरु के समक्ष स्पष्ट वचनों से सरलतापूर्वक प्रकट करना आलोचना है। आलोचना मात्र से जिस दोष की शुद्धि हो जाए, उसे आलोचनार्ह दोष कहते हैं । ऐसे दोष की आलोचना करना आलोचना ईप्रायश्चित है। गोवरी - पञ्चमी आदि में लगे हुए अतिचारों की जो गुरु के पास बलोचना की जाती है, वह इसी प्रायश्चित्त का रूप है।
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(२) प्रतिक्रमणा
किए हुए दोष से पीछे हटना अर्थात् उसके पश्चाताप स्वरूप मिच्छामिges "मेरे पाप-मिया (निष्फल ) हों" ऐसी
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