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सकी है। कहीं प्राकृत संस्कृत, पारसी, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषा है तो कही हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, पंजाबी और बंगाली भाषा के प्रयोग हैं, फिर भी कठिन भाषाओं के श्लोक, वाक्य आदि का अर्थ हिन्दी भाषा में कर दिया गया है । दूसरे प्रकार से भी इस ग्रन्थ में भाषा की विविधता है। कई ग्रन्थों, कवियों, लेखकों एवं विचारकों ने अपने सिद्धान्त निरवद्यभाषा में व्यक्त किए हैं तो कई साफ-साफ सावद्यभाषा में ही बोले ६। मुझे जिस रूप में जिसके जो विचार मिले हैं, उन्हें मैंने उसी रूप में अंकित किया है, लेकिन मेरा अनुमादन केवल निर्बंध - सिद्धान्तों के साथ है ।
ग्रन्थ को सर्वोपयोगिता - इस ग्रन्थ में उच्चस्तरीय विद्वानों के लिए जहाँ जैन-बौद्ध आगमों के गम्भीर पद्य हैं, वेदों, उपनिषदों के अद्भुत मंत्र हैं, स्मृति एवं नीति के हृदय नाही श्लोक हैं वहाँ सर्वसाधारण के लिए सीधी-सादी भाषा के दोहे, छन्द, सूक्तियां, लोकोक्तियां, हेतु, दृष्टान्त एवं छोटी-छोटी कहानियाँ भी हैं । अतः यह ग्रन्थ निःसंदेह हर एक व्यक्ति के लिए उपयोगी सिद्ध होगा- ऐसी मेरी मान्यता है । वक्ता, कवि और लेखक इस ग्रन्थ से विशेष लाभ उठा सकंग, क्योंकि इसके सहारे वे अपने भाषण काव्य और लेख को ठोस, सजीव, एवं हृदयग्राही बना सकेंगे एवं अद्भुत विचारों का विचित्र चित्रण करके उनमें निखार ला सकेंगे, अस्तु !
ग्रन्थ का नामकरण – इस ग्रन्थ का नाम 'वक्तृत्वकला के बीज' रखा गया है । वक्तृत्वकला की उपज के निमित्त यहाँ केवल बीज इकट्ठे किए गए हैं। बीजों का वपन किसलिए, कैसे, कब और कहां करना - यह वप्ता (बीच बोनेवालों) की भावना एवं बुद्धिमत्ता पर निर्भर करेगा । फिर भी मेरी मनोकामना तो यही है कि बप्ता परमात्मपदप्राप्ति रूप फलों