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पौवां भाग : पहला कोष्ठक
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मनःप्रसाद : सौम्यत्वं , मौनमात्मयिनिग्रहः । भावमशुद्धिरित्येतत्, तपो मानसत्रुच्यत ।। १६ ॥ श्रद्धया परया तप्तं, तभस्तत्रिविधं नरेंः । अफलाकाइ क्षिभियुक्तः सात्त्विकं परिचक्षते ।।१७।। सत्कारमानपुजार्थ, तपो दम्भेन चैव यत् । क्रियते तदिह प्रोक्त, राजहां चलमध्रुवम् ॥ १८ ।। मुदाग्रहेणात्मनो यत्, पीया क्रियते तपः । परस्योत्सादनार्थ वा, तत्तामसमुदाहृतम् ॥ १९ ॥
-नाता १७ देवता. ब्राह्मण, गुरु एवं ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा--ये शारीरिक तप है । दूसरों को उद्विग्न न करनेवाले सत्य, प्रिय हितकारी वचन और मन्-शास्त्रों का अध्ययन-वाधिका-वाणो का) तप कहलाता है। मन की प्रसन्नता, शांतभाव, मौन, आत्मसंयम और भावों की पवित्रता मानसिक-मन का) सप कहा जाता है। पूर्वोक्त तीनों प्रकार का तप यदि फल की आकांक्षा किए बिना परम श्रद्धापूर्वक किया जाए तो वह सात्विक कहलाता है। यदि वह तप सत्कार, मान एवं पूजा-प्राप्ति के लिए दंभपूर्वक किया जाए तो वह राजस कहा गया है, उसके फलस्वरूप क्षणिकभोतिक मुल मिल जाता है। अविवेकियों द्वारा दुराग्रहवश जो शरीर को पीड़ित किया जाता है अथवा दूसरों का नाश करने के लिए जो तप किया जाता है वह सामस कहा गया है।