________________
चौथा भाग : चौथा कोष्ठक
२६६
गोचरी करके अपने स्थान में प्रवेश करते समय मुनि "मस्थएण वंदामि निस हिया–निसह्यिा" ऐसे सविनय बोले । फिर गुरु के समीप आकर इरियावहिय पडिक्व में एवं गोचरी में लगे
हुए दोषों की आलोचना करे । १२. एककालं चरेद्भक्षा, न प्रसज्जेत विस्तरे ।
भक्षे प्रसक्तो हि यति-विषयेष्वपि सज्जति । विधूम. सन्नमुसले, व्यङ्गारे भुक्तवज्जने । वृत्ते शरावसंपाते, भिल्लां नित्यं यतिश्चेरत् ।
-मनुस्मृति ६।५५-५६ एक बार भिक्षा करे, अधिक न करे। अधिक खाने में लीन साधु स्त्री आदि के विषयों में आसक्त हो जाता है। रसोई का धुओं एवं मुसलों से अन्न कटने का शब्द बन्द हो जाने पर चूल्हे वो आग बुझ जाने पर, गृहस्थों के भोजन कर चुकने पर तथा अवशिष्ट भोजन को पात्र में रख देने पर
मुनि भिक्षा ग्रहण करें। १३. गोचरी सम्बन्धी ४२ दोष
आहाकम्मुद्दे सिय, पूइकम्मे य मीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए, पामओयर कीत पामिच्चे ।।६२॥ परियद्दिय अभिहडे, उभिन मालोहडे इ य । अच्छिज्जे अणिसिळे, अज्झोयरए य सोलसमे ।।३।। धाई दुई निमित्ते,आजीव बणीमगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया, लोभे य हवंति दस एए॥४०८|| पुविवंपच्छासंथव, विज्जा मंते य चुण्ण-जोगे य । उप्पायणाइ-दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य ।।४।।