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वक्तृत्वकला के बीज संकिय मक्खिामितिमा पिहिण शाहक मानियो । अपरिणय लित्त छडिडय, एसणदोसा दस हवंति ।।
-पिण्डनियुक्ति साधु को आहार-पानी को एषणा करते समय गवेषणा व ग्रहणेषणा के बयासील दोषों का वर्जन करना चाहिए । गोषणा के बत्तीस दोष उद्गम और उत्पादन की अपेक्षा में दो भागों में विभक्त हैं। उद्गम के सोलह दोपों का निमित्त गृहस्थ (देनेवाला) होता है और उत्पादन के सोलह दोषों का निमित साधु (लेनेवाला) होता है । सोलह उद्गम दोष :-- (१) आधाकम, (२) औद्देशिक (३) पुतिकर्म,
(४) मिश्रजात (५) स्थापना (६) प्रामतिका (७) प्रादुष्करण (८) क्रीत (E) प्रामित्यक (१०) परिवर्तित (११) अभ्पाहृत (१२) उद्भिन्न (१३) मालापहृत (१४) आच्छेद्य (१५) अनिसृष्ट (१६) अध्यवपूरक । सोलह उत्पादनदोष(१) घात्रीपिण्ड (२) दुतीपिण्ड (३) निमित्तपिण्ड (४) आजीविकापिण्ड (५) बनीपकपिण्ड (६) चिकित्मापिण्ड (७) क्रोधपिण्ड (८) मानपिण्ड (९) मायापिण्ड (१०) लोभपिण्ड (११) पूर्वपश्चात् संस्तव पिण्ड (१२) विद्याप्रयोग (१३) मन्त्रप्रयोग (१४) पूर्णप्रयोग (१५) योगप्रयोग (१६) मूलकमंप्रयोग ।