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वक्तृत्वकला के बीज
शरीर ही नहीं मिला। अस्तु, आधा-आधा वस्त्र लेकर हिन्दुओं और मुसलमानों ने अपनी-अपनी विधि से अंतिमसंस्कार किया।
-कल्याण, संतअंक तथा 'सिखधर्म क्या कहता है ?' के आधार से |
१३. संत श्रीतुकारामजी चैतम्य
इनका परम राज ६६::: ] के पा: बहू नामक ग्राम में हुमा । इनकी माता का नाम कनकबाई और पिता का नाम बोलोजी था। इनके दो विवाह हुए। पहली स्त्री का नाम रक्खूबाई और दूसरी का जीजीबाई था । जीजीबाई का स्वभाव बड़ा चिड़चिड़ा था। माता-पिता के वियोग के कारण १७ वर्ष की अवस्था में ही इनको घर का सारा भार संभालना पड़ा। दुकान में घाटे पर घाटा लगता गया और आखिर दीवाला निकल गया । इधर पहली स्त्री और पुत्र मर गये । अब इनका चित्त गृहस्य-जीवन से बिलकुल उचट गया और ये विरक्त होकर कभी पहाड़ों पर, कमी मंदिरों में भजन-कीर्तन करने लगे। कीर्तन करते समय इनके मुख से अभंगवाणी निकलने लगी। बड़े-बड़े विद्वान् इनके भक्त बन गये, लेकिन वेदान्त के एक प्रकाण्ड पंडित को एक शूद्र के मुख से श्रुत्त्यर्थबोधक अभंग का निकलना बहुत अखरा । आखिर पंडित रामेश्वर भट्ट के दवाव से इन्होंने अपने अभंगों की सारी बहियाँ इन्द्रायणी नदी के दह में डाल दी और खुद अन्न-जल त्यागकर, विट्ठलनाथ के मंदिर के सामने ध्यानमग्न होकर बैठ गये। कहा जाता है कि १३ दिन बाद भगवान ने दर्शन देकर कहा-"उठो और धर्म प्रचार करो।