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चौथा भाग : तीसरा भाग
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५. नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति, न चैकान्तमनश्नतः ।
न चातिस्वप्नशीलस्य. जाग्रतो नैव चार्जुन ! १६ 11 /युक्ताहारविहारस्य, युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तम्तग्नावत धम्म लेगो भवति दुखदा ॥ १७ ॥
- गीता ६ अर्जुन ! न तो अधिवान्द्रानेवाले का योग सिद्ध होता है एवं न बिल्कुल न खानेवाले ना ! न अत्यधिक सोनेवाले का योग सम्पन्न होता है और न अत्यधिक जागनेवाले का ॥१६॥ उसी का योग दुःखनाशक होता है, जिसके आहार-यिहार नियमित हैं, वार्म करने में नेष्टा नियमित है तथा सोना और
जागना नियमित हैं ।। १७ ।। ६. असंयत्तात्मना योगों, दुष्प्राप्य इति मे मतिः । वश्यात्मना तु यतता, क्योऽवाप्तुमुपायतः ।।
-गोता ६।३६ मन को वश में न करनेवाले पुरुष को योग की प्राप्ति बहुत कटिन है। उपाय ने आत्मा वो वश करनेवाला योग को
प्राप्त हो नाकाता है। 1. योगास्त्रयो मया प्रोक्ता, नृणां थेयो विधित्सया । ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च, नोपायोऽन्योस्ति कुत्रचित् ।।
. भागवत ११।२०।६ मनुष्यों के बाल्याण की इच्छा में मैंने तीन योग कहे हैज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। इनके अलावा आत्मकल्माण का कहीं कोई उपाय नहीं है।