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गलतकला के बोष
५.
कि
आत्मौपम्येन सर्वत्र, समं पश्यति योऽर्जुन ! सुखं वा यदि वा दुःखं, स योगी परमो मतः ।।
-पीता० ६३२ दूसरों के सुख-युःख को जो अपने सुख-दुःख के समान' समझता है, हे अजुन ! वह परमयोगी माना जाता है । किमिदं कीदृशं वास्य, कस्मात् क्वेत्यविशेषयन् । स्वदेहमपि नावति, योगी योगपरायणः ।।
–इष्टोपदेश ४२ योग में लीन योगिराज यह क्या है ? किसका है ? वि.स कारण से है ? एवं कहां है ? अपने शरीर के प्रति भी ऐसा विशेष विचार नहीं करता। शुद् यदाचरितं पूर्व, तत् तदज्ञानचेष्टितम् । उत्तरोत्तरत्रिज्ञानाद् योगिनः प्रतिभासते ।।
- आत्मानुशासन २११ उत्तरोत्तर विशेष ज्ञान होने से योगिजनों को पूर्वकाल में जो-जो आचरण किए थे, चै अज्ञान की चेष्टाएँ थी—ऐसे
प्रतीत होने लगता है। ७. निर्भयः शक्रवद् योगी, मन्दत्यानन्दनन्दने ।
-शानसार इन्द्र की तरह निर्भय योगिराज यात्मानन्दरूप नन्दन वन में
मौज करता है। ८. चाण्डाल; किमयं द्विजातिरथवा शद्रोऽथ कि तापसः,
किंवा तत्त्वनिवेशपेशलमतियोगीश्वरः कोऽपि किम् ?