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चौथा भाग : तीसरा कोष्ठक
१६७ ७. हिरोत्तप्पे हि सति सील उप्पज्जति चेव-
तिति च । असति नेव उप्पज्जति, न तिठ्ठति ।
–विसुचिमणो श२२ सजा और संकोच होने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है । लजा और संकोच न होने पर शील न तो उत्पन्न
होता है और न यहरला है। ८. सीलपरिधोता पञ्चा, पमा परिधोतं सील । यत्व सील तत्थ पन्ना, यस्थ पञ्चा तत्थ सील ।।
-दीघनिकाय ११४४ शीन से प्रज्ञा (ज्ञान) प्रक्षालित होती है, प्रज्ञा से पील (आचार) प्रक्षालित होता है। जहां शील है, वहां प्रज्ञा है
जहाँ प्रज्ञा है वहाँ गील है । ६. जीवदया-दम-सच्चं, अचोरियं बंभचेर-संतोसे । सम्म सण-णाणे, तओ य सीलस्स परिवारो।
- शोलपाहड १८ जीव दया, दम, सत्व, अचीर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और तप—यह सब शील के परिवार हैं अर्थात शील के
अंग हैं। १०. किकीव अण्डं चमरीव बाल धि,
पियं व पुत्त नयन ब एक । तथेव सीलं अनुरक्खमानका, सुपेसला होथ सदा सगारवा । –विसुद्धिमम्मो १६८ जैसे—टिटहरी अपने अण्डे की, चमरी अपनी पूछ की, माता अपने इकलौते पुत्र की, काना अपनी अकेली औख की सावधानी