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वक्तृत्वकला के बीज
अबद्ध परमार्थेन, बद्ध च व्यवहारतः । व वाणो ब्रह्मवेदान्ती, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत ॥४॥ अवाणा भिन्न-भिन्नार्थान्, नयभेदव्यपेक्षया । प्रतिक्षिपेयुनों वेदाः, स्याद्वादं सार्वतन्त्रिकम् ॥५।।
-अध्यारमोपनिषद न्याय-वैशेषिक एक चित्र को अनेक रूपों में परिणत मानते हैं, वे बनेकान्त सिद्धान्त' का खण्डन नहीं कर सकते ।१।। विज्ञानवादि-चौद्ध एक आकार को अनेक आकारों से करंबित (युक्त) मानते हैं, वे 'अनेकान्त सिद्धान्त' का खण्डन नही कर सकते ॥२॥ भट्ट और मुरारी के अनुयायी प्रत्येक वस्तु को सामान्यविशेषात्मक मानते हैं, वे 'अनेकान्त सिद्धान्त का खण्डन' नहीं कर सकते ॥३॥ ब्रह्म वेदान्ती परमार्थ से ईश्वर को बद्ध और व्यवहार से उलको अबद्ध मानते हैं, ये अनेकान्त सिद्धान्त का खण्डन नहीं कर सकते ॥४॥ बंद भी स्थावाद का खण्डन नही कर सकते क्योंकि वे प्रत्यक अर्थ (विषय) को नयकी अपेक्षा से भिन्न और अभिन्न दोनों मानते हैं। इस प्रकार प्रायः सभी मतावलम्बी स्यावाद को स्वीकार
करते हैं ।।५।। ७. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरीधेन स्याल्लास्छिता विधिनिषेधकल्पना सप्तभनी ।
-जैनसिद्धान्तदीपिका १६ प्रश्नकर्ता के अनुरोध के एक वस्तु में अविरोधरूप से 'स्यात्' शब्दयुक्त जो विधि-निषेध की कल्पना की जाती है, उसे सप्तभंगी कहते हैं । सप्तभंगी के सात भांगे इस प्रकार हैं