________________
१२६
वक्तृत्वकला के बीज
और स्त्रमि-बन्धुओं के साथ धार्मिकप्रेम रखना एवं उन्हें धार्मिक सहायता देना, (4) सद्धर्म की प्रभाव ना करना ये आ सम्पष्टि जीवों के अचारने योग्य कार्य हैं अर्थात् सम्यवाद
के आठ आचार है । १४. मिच्छत परियाणामि, सम्मतं उपसंपज्जामि ।।
- आवश्यनियुक्ति मैं मिय्यास्त्र का त्याग करता हूं एवं सम्पत्य को अंगीकार
करता है। १५. दिद्विमं दिछि म लसएज्जा। - सूत्रकृतांग १४६५
सम्यग्दृष्टि को चाहिए कि वह अपनी दृष्टि को दूषित न करे ५. १६. अवच्छलत्तं य बसणे हाणी। .- महत्कल्पमाष्य २७११
धामियाना में परस्पर वास मात्र ही की होने पर
सम्यगदर्शन की हानि होती है। १७. ते धन्ना सुकयस्था, ते सुरा तेवि पंडिया मणुया ।
सम्मत्त सिद्धियर, सुविणे विण मइलियं जेहिं ।। जिन्होंने समस्त अर्थ को सिद्ध करवाल महत्व को स्वप्न में भी मैला नहीं किया वे मनुष्य धन्य है, वृतार्थ हैं, शूर हैं एवं वे ही पण्डित हैं । जिण बयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेणं । अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्तसंसारी ।।
-उत्तराध्ययन ३६।२६१ जो व्यक्ति जिनवाणी में अनुरक्त हैं एवं उसके अनुसार सद्भावों से किया करते हैं तथा जो मिथ्यात्वादि मल और रागादि कलश से रहित है, वे परित्तसंसारी होते हैं ।