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सप्ततिकाप्रकरण सक्रमण नहीं होता और न दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयरूपसे या चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयरूपसे ही मंक्रमण होता है।
उदय-प्रत्येक कर्मका फल काल निश्चित रहता है। इसके प्राप्त होने पर कर्मके फल देनेरूप अवस्थाको उदय संज्ञा है। फल देनेके बाद उम कर्मकी निर्जरा हो जाती है। आत्मासे जितने जातिके कर्म सम्बद्ध रहते हैं वे सब एक साथ अपना काम नहीं करते। उदाहरणार्थ साताके समय अमाता अपना काम नहीं करता। ऐसी हालत में असाता प्रति ममय सातारूप परिणमन करता रहता है और फल भी इसका मातारूप ही होता है। प्रति समय यह क्रिया उदय काल के एक समय पहले हो लेती है। इतना सुनिश्चित है कि बिना फल दिये कोई भी कर्म जीर्ण नहीं होता।
उदीरणा-फल झाल के पहले कर्मके फल देनेरूप भवस्याकी उदीरणा सज्ञा है। कुछ अपवादोंको छोड़कर साधारणत. कर्मों का उदय भार उदीरणा सर्वदा होती रहती है। त्यागवश विशेष होती है। उदीरणा उन्हीं कर्मों की होती है जिनका उदय होता है। अनुदय प्राप्त कर्मोंकी उदीरणा नहीं होती। उदाहरणार्थ जिस मुनिके साताका उदय है इसके अपकर्षण माता और भसाता दोनोंका होता है किन्तु उदीरणा साताकी ही होती है। यदि उदय बदल जाता है तो उदीरणा मी बदल जाती है इतना विशेष है।
उपशान्त-कर्मकी वह अवस्था जो उदीरणाके अयोग्य होती है उपशान्त कहलाती है। उपशान्त भवस्थाको प्राप्त कर्मका उत्कर्षण अपकर्षण और संक्रमण हो सकता है किन्तु इसकी उदीरणा नहीं होती।
निपत्ति-कर्मकी वह अवस्था जो उदीरणा और संक्रम इन दो के अयोग्य होती है निधत्ति कहलाती है। नित्ति अवस्था को प्राक्ष