________________
सप्ततिकाप्रकरण वेदक सम्यक्त्वपूर्वक अनन्तानुवन्धी चतुप्ककी विसंयोजना करके चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाला हो जाता है. तब अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथाइसका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है। यहाँ साधिकसे पल्यके असंख्यातवे भाग प्रमाण कालका ग्रहण किया है। खुलासा इस प्रकार है-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला हुआ। तदनन्तर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण किया। फिर अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यग्मिथ्यात्वमे रहकर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके दूसरी वार छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण किया। फिर अन्तमे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्त्व प्रकृतिके सबसे उत्कृष्ट पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालके द्वारा सम्यक् प्रकृतिकी उद्वलना
(१) वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजना करता है इस मान्यताके विषयमें सब दिगम्बर व श्वेताम्बर आचार्य एकमत हैं। किन्तु इसके अतिरिक्त जयघवला टीकामें एक मतका उल्लेख और किया है। वहा वतलाया है कि उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करते हैं इस विपयमें दो मत हैं। एक मत तो यह है कि उपशम सम्यक्त्वका काल थोड़ा है और अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजनाका काल वड़ा है इसलिये उपशम सम्यग्दृष्ठि जीव अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता है। तथा दूसरा मत यह है कि अनन्तानुचन्धी चतुष्कके विसंयोजना कालसे उपशमसम्यक्त्वका काल बड़ा है इसलिये उपशम सम्यग्दृष्टि जीव भी अनन्तानुवन्धी चतुष्कको विसयोजना करता है। जिन उच्चारणावृत्तियोंके आधारसे जयधवला टीका लिखी गई है उनमें इस दूसरे मतको प्रधानता दी गई है, यह जयघवला टीकाके अवलोकन से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है।