Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 464
________________ ३८२ सप्ततिकाप्रकरण दूर हो जानेसे पूरा सुख गुण प्रकट हो जाता है इसलिये जगमें जितने भी प्रकारके सुख हैं उनमे सिद्ध जीवोका सुख प्रधानभूत है यह सिद्ध होता है। चौथा विशेषण रोगरहित है । रोगादि दोपो की उत्पत्ति शरीरके निमित्तसे होती है। पर सिद्ध जीव शरीर रहित है। उनके शरीर प्राप्तिका निमित्त कारण कर्म भी दूर हो गया है, अतः सिद्ध जीवोका सुख रोगादि दोपोसे रहित है यह सिद्ध होता है। पाँचवॉ विशेपण निरुपम आया है। बात यह है कि प्रत्येक गुण धर्म दूसरे गुणधर्मोसे भिन्न हैं। उसके स्वरूप निर्णयके लिये हम जो कुछ भो दृष्टान्त देकर शब्दो द्वारा उसे मापने का प्रयत्न करते हैं उस मापने को उपमा कहते हैं। उप अर्थात् उपचारसे या नजदीकसे जा माप करने की प्रक्रिया है उसे उपमा कहते हैं। भाव यह है कि प्रत्येक गुणधर्म और उसकी पर्याय दूसरे गुणधर्मोसे या उसी विवक्षित गुणधर्मकी अन्य पर्यायसे भिन्न है अतः थोड़ी बहुत समानताको देखकर दृष्टान्त द्वारा उसका परिज्ञान कराया जाता है इसलिये इस प्रक्रियाको उपमामें लिया जाता है। परन्तु यह प्रक्रिया उन्हीं में घटित हो सकती है जो इन्द्रियगोचर है। सिद्ध परमेष्ठीका सुख तो अतीद्रिय है इसलिये उपमा द्वारा उसका परिज्ञान नहीं हो सकता। उसे यदि कोई भी उपमा दी जा सकती है तो उसीकी दी जा सकती है। संसारमे तत्सदृश ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसकी उसे उपमा दी जा सके इसलिये सिद्ध परमेष्ठीके सुखको अनुपम कहा है। छठा विशेपण स्वभावभुत है। इसका यह आशय है कि जिस प्रकार संसारी सुख कोमल स्पर्श, सुस्वादु भोजन, वायुमण्डल को सुरभित करनेवाले नाना प्रकार के पुष्प, इत्र, तैल आदि के गन्ध, रमणीय रूपका अवलोकन, मधुर संगीत आदिके निमित्तसे उत्पन्न होता है सिद्ध सुखकी वह बात नहीं है किन्तु वह आत्मा

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