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अन्तिम वक्तव्य का स्वभाव है। सातवाँ विशेपण अनिधन है। इसका यह भाव है कि सिद्ध पर्याय की प्राप्ति हो जानेके पश्चात् उसका कभी नाश नहीं होता। उसके स्वाभाविक अनन्त गुण सदा स्वभावरूप से स्थिर रहते हैं। उनमें सुख भी एक गुण है अत उसका भी कभी नाश नहीं होता। आठवॉ विशेषण अव्यावाध है। जो अन्यके निमित्तसे होता है या अस्थायी होता है उसीमे वाधा उत्पन्न होती है। परन्तु सिद्ध जीवोका सुख न तो अन्यके निमित्त मे ही उत्पन्न होता है और न कुछ काल तक ही टिकनेवाला है। वह तो आत्माका अनरायी और सर्वदा व्यक्त रहनेवाला धर्म है इसलिये उसे अन्यावाघ कहा है। आखिरी विशेषण निरत्नसार है। आखिर ससारी जीव रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यक् चरित्र की आसना किस लिये करता है। इसीलिये ही कि इसकी उपासना द्वारा वह निराकुल अवस्थाको प्राप्त करना चाहता है। सुखकी अभिव्यक्ति निराकुलतामें ही है । यही सबब है कि यहाँ सुखको रत्नत्रयका सार बतलाया है।
उपमंदार गाथादुरहिगम-निउण-परमत्थ-रुहर-बहुभंगदिठिवाया। अत्था अणुसरियव्या बंधोदयसंतकम्माणं ॥७१।।
अर्थ-दृष्टिवाद अङ्ग अति कष्ट से जानने योग्य है, सूक्ष्म बुद्विगम्य है, यथावस्थित अर्थका प्रतिपादन करने वाला है आह्नादकारी है और अनेक भेदवाला है। जो वन्ध, उदय और सत्तारूप कर्माको विशेषरूपसे जानना चाहते हैं उन्हें यह सब इससे जानना चाहिये।
विशेषार्थ-ग्रन्थकर्ता ने यह ध्वनित किया है कि यद्यपि हमने यह मप्ततिका प्रकरण दृष्टिवाद अङ्गके आधारसे लिखा है फिर भी वह दुरधिगम है । सब कोई उसका सरलतासे अध्ययन नहीं कर सकते। जिनकी बुद्धि सूक्ष्म है वे ही उसमें प्रवेश पावे