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सिद्धसुखका निर्देश
३८१ अर्थ-कर्मोका क्षय होजानेके पश्चात् जीव एकान्त शुद्ध, सम्पूर्ण, जगमे जितने सुख हैं उन सबमें प्रधान, रोगरहित, उपमा रहित, स्वाभाविक, नाशरहित, वाधारहित और रत्नत्रयके सारभूत सिद्धि सुख का अनुभव करते हैं।
विशेषार्थे इस गाथामे जब आत्मा आठो कर्मोंका क्षय हो जानेके पश्चात् मुक्त हो जाता है तब उसे कैसे सुखकी प्राप्ति होती है इसका विचार किया गया है। गाथामे सिद्धि सुखके नौ विशेपण दिये हैं। पहला विशेषण शुचिक है। मलयगिरि
आचार्यने इसका अर्थ एकान्त शुद्ध किया है। भाव यह है कि ससारी जीवका सुख राग द्वेप से मिला हुआ रहता है। किन्तु सिद्ध जीवोके राग द्वषका सर्वथा अभाव हो गया है इसलिये उनके जो सुख होता है वह शुद्ध आत्मासे उत्पन्न होता है उसमें वाहरी वस्तुका सयोग और वियोग तथा उसमें इष्टानिष्ट क्ल्पना कारण नहीं पडती। दूसरा विशेपण सकल है जिसका अर्थ सम्पूर्ण होता है। बात यह है कि समार अवस्थामे जीवके कर्मोंका सम्बन्ध बना रहता है इसलिये एक तो इसे आत्मीक सुखकी प्राप्ति होती ही नहीं और कदाचित् सम्यग्दर्शनादिके निमित्तसे आत्मीक सुखकी प्राप्ति होती भी है तो भी व्याकुलताका अभाव न होनेसे वह किचिन्मात्रामे ही होती है किन्तु सिद्ध जीवोके सब बाधक कारण दूर होगये हैं अत: उन्हें पूर्ण सिद्धिजन्य सुख प्राप्त होता है। तीसरा विशेषण जगशिखर है। जिसका अर्थ है जगमें जितने सुख हैं सिद्ध जीवोंका सुख उन सबमें प्रधान है, वात यह है कि श्रात्माके अनन्त अनुजीवी गुणोमे सुख भी एक गुण है। अब जब तक यह जीव संसारमें वास करता है तब तक उसका वह गुण धातित रहता है । कदाचित् प्रकट भी होता है तो स्वल्पमात्रामे प्रकट होता है। किन्तु सिद्ध जीवोंके प्रतिबन्धक कारयोंके