Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयुत हीराचंद्रभाई का परिचया प्रस्तुत छठा'कर्मग्रन्थ जिनको समर्पित किया गया है उनका संक्षिप्त परिचय वाचकोंको कराना जरूरी है वैसा ही रसप्रद भी है। यों तो हीरामाई को गुजरात के जैनसमाज खासकर श्वेताम्बर समाज के धार्मिक अभ्यास में रस लेनेवालों में से कोई भी ऐसा न होगा जो उन्हें एक या दूसरी तरह से जानता न हो। राजपूताना, पजाब आदि प्रदेशों के धार्मिक जिज्ञासु श्वेताम्बर भाइयों में से भी अनेक व्यक्ति उन्हें उनकी कृति के द्वारा भी जानते ही हैं, फिर भी उनका जीवनपरिचय शायद ही किसी को हो । एक तो वे स्वभाव से बहुत लजालु प्रकृति के हैं और किसी भी प्रकार की प्रसिद्धि से दूर रहनेवाले हैं। दूसरे वे अपने प्रिय विषय का अध्ययन-अध्यापन और चिंतन-मनन को छोड़कर किसी भी सामाजिक श्रादि अन्य प्रवृत्ति में नहीं पड़ते। इसलिए उनका जीवन उनके परिचय में आनेवालों के लिए भी एक तरह से अपरिचित-सा है । मैं स्वय लगभग ३५ वर्षों से उनके परिचय में आया हूँ तो भी पूरे तौर से उनका जीवन नहीं जान पाया। अगर उनके सदा सहवासी, निकट मित्र और धर्मबन्धु सब्रह्मचारी पडित भगवानदास हर्षचन्द्र मुझको सक्षित परिचय लिखकर न भेजते तो मैं विश्वस्त रूपसे निम्न पक्तियों में उनका परिचय देने में असमर्थ ही रहता। - भाई हीराचद वढवाण शहर जो कि झालावाड़ में वढवाण केम्प र्जकशन के निकट है और पुरानी ऐतिहासिक भूमि है, वहाँ के निवासी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। उनका जन्म विक्रम सं० १९४७ के चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिनजो भगवान महावीर का जन्म दिन है-हुया। उनके पिता का नाम देवचन्द्र और माता का नाम अम्बा था। वे तीन भाई हैं। हीराचंद माई की प्राथमिक गुजराती सम्पूर्ण शिक्षा वदवारण में ही समान हुई। वे तेरह वर्ष की उम्र में धार्मिक शिक्षा के लिए मेताया गये जहाँ कि यशोविषय जैन पाठशाल स्थापित है। उस पाठशाला में दो वर्ष तक प्राथमिक संस्कृत भाषा का तथा प्राथमिक जैन प्रकरण ग्रन्थों का अध्ययन करने के विशेष अभ्यास के लिए अन्य चार मित्रों के साथ मड़ौच गये । उस समय मडौच में बैन कर्मशास्त्र और आगमशान के निप्यात श्रीयुत अनूपचंद मजूनचंद जैन समाज में सुप्रसिद्ध थे। जिनका एक मात्र मुख्य कार्य जैन शास्त्र विषयक चिंतन-मनन, लेखन ही था। वैसे दिगम्बर समाज में मुरेना पं० गोपालदास बैरया के कारण उस जमाने में प्रसिद्ध या, वैसे ही मौच भी श्वेताम्बर समाज में श्रीयुत् अनूपचंदभाई के कारण अापक था। श्रीयुत अन्पचढमाई के निकट रहकर हीराचंदभाई ने छह महीने में छह कर्मग्रन्य तथा कुछ अन्य महत्त्व के प्रकरणों का अध्ययन-अाकलन कर लिया। इसके बाद वे मेसाणा गये और अनूपबंदमाई की सूचना के अनुसार विशेष संस्कृत अध्ययन करने में लग गये। आचार्य हेमचन्द्रकृत व्याकरण तथा काव्य आदि अन्यों का ठीक ठीक अध्ययन करने के बाद वे मेसाणा में ही धार्मिक अध्यापक रूप सेनियुक्त हुए। और करीब पाँच वर्ष उसी काम को करते रहे। वहाँ से . और भी विशेष अध्ययन के लिए वे बनारस यशोविजय-देन पाठशाला में गये; पर तयित के कारण वे वहां विशेष रह न सके। वहाँ से वापिस - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौटफर मेसाणा में ही करीब डेढ वर्ष तक वे धार्मिक अध्यापन कराते रहे। फिर वे अहमदाबाद पहुंचे। जहाँ जाकर उन्होंने कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह श्रादि कर्मविषयक श्राफर अन्यों का गहरा आकलन किया। हीराभाई ने श्राचार्य मलयगिरिकृत टीका सहित पंचसंग्रह का गुजराती अनुवाद करके विक्रम संवत् १९९२ में प्रथमखण्ड में प्रकाशित किया और उसका दूसरा खण्ड विक्रम संवत् १९९७ में प्रकाशित किया। इस अनुवाद के द्वारा वे कर्मशास्त्र के सभी जिज्ञासुत्रों तक पहुँच गये। अाज उनकी उम्न ५७ वर्ष की है। उन्होंने प्रथम से ही ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके उसे अभी तक सुचारु रूप से निभाया है। वे प्रकृति से इतने भद्र और सरलचेता है; जिसे देखकर मैं तो अनेक वार अचरज में पड़ गया हूँ। मन, वचन और कर्म में एकरूपता कैसी होती है या होनी चाहिये, इसके वे एक सजीव अादर्श हैं। वे कर्मशास्त्र के पारगामी होकर मी अन्य वैसे विद्वानों की तरह अकर्म या सेवाग्राही नहीं है। जब देखो तब वे कार्यरत ही दिखाई देते हैं और दूसरों की भलाई करने या यथा-सम्भव दूसरे के बतलाये काम कर देने में विलकुल नहीं हिचकिचाते । उनको जाननेवाला कोई भी चाहे वह स्त्री हो या पुरुष-हीराभाईहीरामाई जैसे मधुर सम्बोधन से निःसकोच अपना काम करने को कहता है और हीराभाई-मानों लघुता और नम्रताकी मूर्ति हो-एक सी प्रसन्नता से दूसरों के काम कर देते हैं। वे मात्र श्वेताम्बरीय कर्मशास्त्रों के अध्ययन में ही संतुष्ट नहीं रहे। ज्यो ज्यों दिगम्बरीय कर्मशास्त्र विषयक अन्य प्रसिद्ध होते गये त्यो त्यों उन्होंने उन सभी ग्रन्यों का आकलन करने का भी यथा सम्भव प्रयत्न क्रिया Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। हीरामाई की शास्त्र-जिज्ञासा और परिश्रमशीलता का मैं साक्षी हूँ। मैंने देखा है कि श्रागम, दीकाएं या अन्य कोई भी जैन ग्रन्य सामने आया तो उसे पूरा करके ही छोड़ते हैं। उनका मुख्य प्राकलन तो कर्मशास्त्रका, खासकर श्वेताम्बरीय समग्र कर्मशास्त्र का है, पर इस आकलन के आसपास उनका शास्त्रीय पाचन-विस्तार और चिंतन-मनन इवना अधिक है कि जैन सम्प्रदाय के तत्त्वज्ञान की छोटी बड़ी बातो के लिए वे जीवित ज्ञानकोष जैसे बन गये हैं। । . अन्य साम्प्रदायिक विद्वानों की तरह 'उनका मन मात्र सम्प्रदायगामी व संकुचित नहीं है। उनकी दृष्टि सत्य जिज्ञासा की ओर मुख्यतया मैंने देखी है। इससे वे सामाजिक, राष्ट्रीय या मानवीय कार्यों का मूल्याङ्कन करने में दुराग्रह से गलती नहीं करते । गुजरात में पिछले लगभग ३५ वर्षों में जो जैन धार्मिक अध्ययन करनेवाले पैदा हुए हैं, चाहे वे गृहस्थ हो या साधु-साध्वी, उनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जिसने थोड़ा या बहुत हीराभाई से पढ़ा या सुना न हो। कर्मशास्त्र के अनेक जिज्ञासु साधुसाध्वी और श्रावक-श्राविकाए हीराभाई से पढ़ने के लिए लालायित रहते हैं और वे भी आरोग्य की बिना परवाह किये सबको सतुष्ट करने का यथासभव प्रयत्न करते रहते हैं। ऐसी है इनके शास्त्रीय तपकी संक्षिप्त कथा। * मैने इस्वी सन् १९१६-१९१७ मे कर्मग्रन्यों के हिंदी अनुवाद का कार्य आया तथा काशी में प्रारम्भ किया और जैसे जैसे अनुवाद कार्य करता गया वैसे वैसे, उस कर्मग्रन्य के, हिंदी अनुवाद की प्रेसकोपी प्रेस में छपने के लिए भेजने के पहले हीराचदभाई के पास देखने व सुधार के लिए भेजता गया। १९९१,तक में चार हिंदी कर्मग्रन्य तैयार Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ड ) किये जो हीराचदभाई ने छपने के पहले ही देख लिये थे। इसके बाद बहुन वर्षों तक अागे के अनुवाद का काम मेरी अन्यान्य प्रवृत्ति के कारण स्थगित था। पर अाखिर को बाकी के दो कर्मग्रन्थो का हिंदी अनुवाद भी तयार हो ही गया । पञ्चम कर्मग्रन्थ का अनुवाद तो प० कैलासचद्रजीने किया और प्रस्तुत छठे कर्मग्रन्थका अनुवाद प० फूलचद्रजी ने किया है। पचम और पष्ठ इन दोनो हिंदी अनुवादा को भी छपने के पहले श्रीयुत हीरामाई ने पूरी सावधानी से देख लिया और अपनी व्यापक ग्रन्थोपस्थिति 'तथा सक्ष्म मूझ से अनेक स्थलो में सुधार सचित किये । उनके सुझाये हुए मुधार इतने महत्त्व के और इतने सच्चे थे कि जिनको देखकर पडित कैलाशचढजी तथा पडिन फूलचंदजी जैसे कर्मशास्त्री को भी होगचदभाई केमानात परिचर के बिना ही उनकी शास्त्र-निष्ठा की ओर आकर्षित होते मैंने पाया। मैने जैन समाज के जुदे जुदे फिरको में प्रसिद्ध ऐसे अनेक कर्मशास्त्रियों को देखा है, पर श्रीयुन हीराचदमाई जैसे सरल, उदार और मेवापगयण चेता कर्मशास्त्री विरल ही पाये हैं। आज वे अहमदाबाद में रहते है और जैन प्राच्यविद्या के अध्ययन, अध्यापन श्रोर सशोधन के उद्देश्य से स्थापित एक सस्था मे अपने धर्मबन्धु प० भगवानदास के माथ अध्यापन कार्य करते हैं। उनकी धर्मभीरुता और आर्थिक सतुष्टि एक सच्चे धर्मशास्त्रके अभ्यासी को शोभा देनेवाली है जो इस युग में विरल होने के कारण अनुकरणाय है। -सुखलाल सघवी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार प्रदर्शन: - इस ग्रन्थ के प्रकाशन मे हमे निम्न महानुभावों से आथिक सहायता मिली है अत. मण्डल इनका अभारी है। ५००) दीवान वहादुर सेठ केसरीसिंह जी वाफना कोटा। ३००) वा० गोपीचन्द्रजी धाड़ीवाल उनके पिता स्वर्गीय सेठ शिवचन्द्रजी धाड़ीवाल अजमेर निवासी के स्मरणार्थ। १२५) श्री फूलचन्द्रजी भावक फलोधी (राजस्थान)। मन्त्रीश्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मंडल रोशन मुहल्ला आगरा। मुद्रक-पी. मोए सरला ग्रेस, वास फाटक, वनारस । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वक्तव्य सन् ४२ की बात है। जीवन में वस्तुओं की मॅहगाई का अनुभव होने लगा था। आथिक सन्तुलन रखने के लिये अधिक श्रम करने का निश्चय किया। फलतः श्रीमान् प० सुखलाल जी सघवी से बातचीत की। उन्होंने सप्ततिका का अनुवाद करने के लिये मुझसे आग्रह किया। यद्यपि मेरा झुकाव कर्मप्रकृति की ओर विशेष था । फिर भी तत्काल इसका अनुवाद कर देने का ही मैंने निश्चय किया। अनुवाद कार्य तो उसी वर्ष पूरा कर लिया था पर छपाई आदि की विशेष सुविधा न हो सकने के कारण यह सन् ४६ के मध्य तक यों ही पड़ा रहा। अनुवाद में प्राचार्य मलयगिरि कृत टीका का उपयोग हुआ है। विशेषार्थ उसी के आधार से लिखे गये हैं। कहीं कहीं प० जयसोम रचित गुजराती टवे का भी उपयोग किया है। विषय को स्पष्ट करने के लिये यथास्थान कोष्ठक दिये गये हैं। इनके वनाने में मुनि जीवविजय जी कृत सार्थ कर्मग्रन्थ द्वि० माग से सहायता मिली है। टिप्पणियाँ दो प्रकार की दी गई हैं। प्रथम प्रकार की टिप्पणियाँ वे है जिनमें सप्तिका के विषय का गाथाओं से साम्य सूचित होता है। और दूसरे प्रकार की टिप्पणियों वे हैं जिनमें कुछ मान्यताओं के विषय में मतभेद की चर्चा की गई है। ये टिप्पणियाँ हिन्दी में दी गई हैं । आवश्यकतानुसार उनकी पुष्टि मे प्रमाण भी दिये गये हैं। कुछ मान्यताएँ एव सज्ञाएं ऐसी हैं जो दिगम्बर और श्वेताम्बर कार्मिक साहित्य में कुछ अन्तर से व्यवहृत होने लगी हैं। इस विषय में हमने श्वेताम्बर परम्परा का पूरा ध्यान रखा है। अहमदावाद निवासी पं० हीराचन्द्रजी कर्मशास्त्र के अच्छे विद्वान् हैं। प्रस्तुत अनुवाद इनके पास भेजा गया था। इन्होंने उसे पढ़कर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जो सुझाव भेजे थे तदनुसार सशोधन कर दिया गया है। फिर भी अनुवाद में गलती होना सभव है जिसका उत्तरदायित्व मेरे ऊपर है। ___ अन्त में मैं उन सभी महानुभावों का आभार मानता हूँ जिनकी यथा योग्य, लहायता से मैं इस कार्य को सम्पन्न कर सका है। सर्व प्रथम मैं जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् श्रीमान् प० सुखलाल जी का चिर आमारी है जिनके प्रेमवश मैंने इस काम को हाथ में लिया था। प हीराचद जी ने पूरे अनुवाद को पढ़कर अनेक सुझाव भेजने का काट किया था। इससे अनुवाद को निदोप बनाने में वढी सहायता मिली है, इसलिये मै उनका भी आभारी हूँ । 'मै सप्ततिका का अनुवाद कर दू' यह प्रस्ताव मेरे मित्र पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य ने किया था। उन्होंने प० सुखलाल जी से प्रारम्भिक बातचीत भी की थी। इस हिसाब से इस कार्य को चालना देने में पं० महेन्द्रकुमार जी का विशेष हाय है अत मैं इनका विशेप आभारी हूँ। हिन्दू विश्वविद्यालय में जैन दर्शन व जैन आगम के अध्यापक प० दलसुख जी मालवणिया का तो में और भी विशेप आभारी हूँ, इन्हीं के प्रयत्न से यह ग्रन्थ इतने जल्दी प्रकाश में आ रहा है। इन्होंने छपाई आदि में जहाँ जिल वात की कमी देखी उसे पूरा करके मेरी सहायता की है । मण्डल के मन्त्री बाबू दयालचन्दजी एक सहृदय व्यक्ति हैं। मूल ग्रन्थ के छप जाने पर भी प्रस्तावना के कारण बहुत दिन तक ग्रन्थ को प्रेस में रुकना पडा हे फिर भी आप अपने सौजन्य-पूर्ण व्यवहार को यथावत् निभाते गये। इसलिये इनका में सर्वाधिक आभारी हूँ। वनारस। मार्गशीर्ष कृष्ण ७ वीर नि• सं० २४७४ फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेस्तावना १--कर्म साहित्यकी क्रम परम्परा का निर्देश परिभाषा-जैनदर्शनमें पुद्गल द्रव्यकी अनेक प्रकारकी वर्गणाएँ चतलाई हैं। इनमेंसे औदारिक शरीर वर्गणा, वैक्रिय शरीर वर्गणा, आहारक शरीर वर्गणा, तैनल वर्गणा, भाषा वर्गणा, श्वासोच्छ्वाम वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मग वर्गणा इन वर्गणाओंको सपारी जीवद्वारा ग्राह्य माना गयाहै । ससारी जीव इन वर्गणाओंको ग्रहण करके विभिन्न शरीर, वचन और मन आदिकी रचना करता है। इनमेंसे प्रारम्भ को तीन वर्गणाश्रोसे भोटारिक, वैक्रिप और माहारक इन तोन शरीरोंकी रचना हाती है। तैजम वर्गणाओंसे तैजर शरीर बनता है। भाषा वर्गणाएँ विविध प्रकारके शब्दोंका आकार धारणा करनी हैं । श्वासोच्छवास वर्गणा श्वासोछ्वामके काम भाती हैं। हिताहितके विचारमें माहाय्य करनेवाले द्रव्यमनकी रचना मनोवर्गणाओंसे होती है। और ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्म कार्मण वर्गणाओंसे बनते हैं। इन सबमें कर्म ससारका मूल कारण माना गया है। वैदिक साहित्यमें जिसका लिग शरीररूपसे उल्लेख किया गया है वह ही जैनदर्शनमें फर्म शब्द द्वारा पुकारा जाता है। वैसे तो संसारी जीवको प्रतिक्षण जो राग द्वेप आदि रूप परिणति हो रही है। उसकी कर्म सज्ञा है। कर्मका अथ क्रिया है, यह अर्थ (७) गोम्मटसार जीवकाण्डमें २३ प्रकारको वर्गणाएँ वतलाई है। उनमेसे आहार वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मण वर्गणा ये ससारी जीवद्वारा प्राय मानी गई है। - - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण जीवकी राग द्वेषरूप परिणतिमें अच्छी तरह घटिन होता है इसलिये इसे ही कर्म कहा है, क्योंकि अपनी इस परिणविके कारण ही जीवको हीन दशा हो रही है। पर श्रात्माको इम परिणतिके कारण कार्मण नामवाले पुदगलरज आत्मासे आकर सम्बद्ध हो जाते है और कालान्तरमें वे वैसी परिणति के होने में निमित्त होते है, इसलिये इन्हें भी धर्म कहा जाता है। इन ज्ञानारणादि कोंके साथ सारी जीवका एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध है जिसमें जीव और कर्मका विवेक करना कठिन हो गया है । लक्षभेदसे ही ये जाने जा सकते है । जीवा ल्क्ष्ण चेतना अर्थात् झान दर्शन है और कर्म का रक्ष्ण जद्द अवेतन है । इस प्रकारके कर्मका जिस साहित्यमें सांगोपांग विचार किया गया है से नर्मसाहित्य अ.य आन्तिकशनों ने भी कर्म अस्तित्वको ग्वीकार किया है। विन्तु उनकी अपेक्षा जैन दर्शनमे इस विषयका विस्तृत और स्वतन्त्र वर्ष पाया जाता है। इस हिपर के हनने हैन साहित्यदे बहुत बढ़े भागको रोक रखा है। मूल कर्म साहित्य--+गवान महावीर स्पदेशका स्कल्न करते समय र्भ साहित्यकी स्वतत्र संकलना की गई थी। गणधरोने (पट्टशिप्याने) समस्त पदेशांको बारह हों विभाजित किया था। इनमेंसे दृष्टिबाट नामक बारहवाँ अङ्ग बहुत विशाल था। इसके परिकर्म, सूत्र प्रथमानुयोग, पूर्वगत और इलिका ये पांच भेद थे। इनमें से पूर्वगतके चौदह भेद थे जिनमेसे आठवें भेदका नाम र्मप्रवाद था। कर्मविषयक साहित्यका इसी में सकलन किया गया था। इसके सिवा अग्रायणीय और ज्ञानप्रवाद इन दो पूर्वोमें भी प्रसंगसे कर्मका वर्णन किया गया था। पूर्वगत कर्म साहित्यके ह्रासका इतिहास-किन्तु धीरे-धीरे कालदोपसे पूर्व साहित्य नष्ट हने लगा। भगवान महावीरके मोक्ष जानेके Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना बाद जो अनुबद्ध केवली और श्रुनकेवली हुए उन तक तो यह अग पूर्वसम्बन्धी ज्ञान व्यवस्थित चला श्राया, किन्तु इसके बाद इसकी यथावत् परम्परा न चल सकी। वीरे-धीरे लोग इसे भूलने लगे और इस प्रकार मूल साहित्यका बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया। पर हम मूलभूत जिस कर्म साहित्यका उल्लेख कर आये हैं। उममेंसे कर्मप्रवादका तो लोप हो ही गया। केवल अप्रायणीय पूर्व और ज्ञानप्रवाद पूर्वका कुछ अंश बच रहा । तव श्रुनधारक ऋपियोंको यह चिन्ता हुई कि पूर्व साहित्यका जो भी हिस्पा शेष है उसका संकलन हो जाना चाहिये । इस चिन्ताका पता उस कथासे लगता है जो धवला प्रथम पुस्तकमें निबद्ध है। श्वेताम्बा परम्परामें प्रचलित अंग साहित्यके संकलनके लिये जिन तीन वाचनाओंका उल्लेख मिलता है वे मी इसी बातकी घोतक हैं। वर्तमान मूल कर्मसाहित्य और उसकी सकलनाका आधारअबतक जो भी प्रमाण मिले हैं उनके माधारसे यह कहा जा सकता है कि कर्म साहित्य व जीव साहित्यके सकलनमें श्रुतधर ऋपियोंको एक चिन्ता ही विशेष सहायक हुई थी। वर्तमान में दानों परम्पराओं में जो भी कर्मविषयक मूल साहित्य उपलब्ध होता है वह इमीका फल है। अग्रायणीय पूर्वकी पांचवीं वस्तुके चौथे प्रामृनके श्राधारमे पटखण्डागम, कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका इन ग्रन्थोंका सकलन हुआ था और ज्ञानप्रवाद पूर्वकी दसवीं वस्तु के तीसरे प्रामृतके आधारसे कपायप्राभृतका सकलन हुभा था। इनमेंसे कर्म प्रकृति, यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परामें माना जाता है कपायप्राभूत और पटखण्डागम ये दो दिगम्बर परम्परा माने जाते हैं। तथा कुछ पाठ भेदके साथ शतक और सप्ततिका ये दो अन्य दोनों परम्पराओं में माने जाते हैं। __ जैसे इस साहित्यको पूर्व साहित्यका उत्तराधिकार प्राप्त है ।वैसे ही यह शेप कर्म साहित्यका आदि श्रोत भी है। भागे टाका, टिम्पनी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्रकरण व सकलन रूप जितना भी कमसाहित्य लिखा गया है उसका जनक उपर्युक्त साहित्य ही है । मूल साहित्य में सप्ततिकाका स्थान - जैसा कि हम पहले वतला आये हैं कि वर्तमान में ऐसे पांच ग्रन्थ माने गये हैं जिन्हें कर्मविषयक मूल साहित्य कहा जा सकता है। उनमें एक ग्रन्थ सप्ततिका भी है । सप्ततिकामें अनेक स्थलों पर मतभेदोंका निर्देश किया है। एक Hare aafarner और पदवृन्दोंकी संख्या बतलाते समय आया है और दूसरा मतभेद अयोगिकेवली गुणस्थानमें नामकर्मकी कितनी प्रकृतियोंका मन्त्र होता है इस सिलसिले में आया है। इससे ज्ञात होता है कि जब कर्मविषयक अनेक मतान्तर प्रचलित हो गये थे तब इसकी रचना हुई होगी । 1 तथापि इसकी प्रथम गाथामें इसे दृष्टिवाद अंगकी एक बूँदके समान बतलाया है । और इसकी टीका करते हुए सभी टीकाकार श्रमायणीय पूर्वकी पाँचवीं वस्तु के चौथे प्राभृतसे इसकी उत्पत्ति मानते हैं, इसलिये इसको मूल साहित्य में परिगणना की गई है। सप्ततिका की थोड़ी सी गाथाओं में कर्म साहित्यका समग्र निचोड़ भर दिया है । इस हिसाब से जब हम विचार करते हैं तो इसे मूल साहित्य कहने के लिये हो जी चाहता है । २ - सप्ततिका व उसकी टीकाएँ नाम - प्रस्तुत प्रन्थका नाम सप्ततिका है । गाथाओं या श्लोकोंकी संख्या के आधारसे ग्रन्थका नाम रखनेकी परिपाटी प्राचीन कालमे चली (१) देखो गाथा १९, २० व उनकी टीका । (२) देखो गाथा ६६, ६७ २६८ । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना आ रही है। मतिका यह नाम इपी अाधारसे रखा गया जान पडता है। इसे पष्ठ कर्मप्रन्य भी कहते है। इसका कारण यह है कि वर्तमानमें कर्म ग्रन्योंकी जिम क्रमसे गणना की जाती है उसके अनुगर इसका छठा नम्बर लगता है। गाथासख्या-प्रस्तुन ग्रन्यका मप्ततिका यह नाम यद्यपि गाथाभाकी मरया आधारसे रग्या गया है तथापि इसकी गाथाओंकी संख्या विषयमें मतभेद है। श्रवनक हमारे देखने में जितने संस्करण भाये हैं उन सबमें इसकी गाथाओंकी अलग अलग सख्या दी गई है। श्री जैन श्रेयस्कर मण्डलकी ओरसे इनका एक सम्करण म्हेसाणासे प्रकाशित हुआ है उपमें इसकी गाथाओंकी सख्या ९१ दी गई है। प्रकरण रत्नाकर चौया भाग बम्बईसे प्रकाशित हुआ है उसमें इसको गाथाओंकी मरया ९४ दी गई है। प्राचार्य मलपगिरिकी टीकाके साथ इसका एक सम्करण श्री आत्मानन्द जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित हुआ है उसमें इसकी गाथाओंकी संख्या ७२ दी गई है। और चूर्णिके साथ इसका एक संस्करण श्री ज्ञानमन्दिर ढमोईसे प्रकाशित हुआ है उसमें इसकी गाथाओंकी सख्या' ७१ टी गई है । इसके अतिरिक्त ज्ञानमन्दिर ढभोईसे प्रकाशित होनेवाले सस्करणमें जिन तीन मूल गाथा प्रतियोंका परिचय दिया गया है उनके आधारसे इसकी गाथाओंकी सरया ६१,९२ और ९३ प्राप्त होती है। ____ अब देखना यह है कि इसकी गाथाओंकी संख्याक विषयमें इतना मतभेद क्यों है। छानबीन करने के बाद मुझे इसके निम्नलिखित तीन कारण ज्ञात हुए है। (७) यह चूर्णि ७१ गाथाओं पर न होकर ८६ गाथाओं पर है। इससे चूर्णिकारके मतमे सप्ततिकाकी गाथाओंकी संख्या ८६ सिद्ध होती है। इसमें अन्तर्भाष्य गाथाएँ भी सम्मिलित हैं। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण १-लेखकों या गुजराती टोकाकारों द्वारा अन्तर्भाप्य गाथाओंका मूल गाथा रूपसे स्वीकार किया जाना । २-दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिकाकी कतिपय गाथाओंका मूल गाधारूपसे स्वीकार किया जाना। ३-प्रकरणोपयोगी अन्य गाथाओंका मूल गाथारूपसे स्वीकार किया जाना। जिन प्रतियों में गाथाओंकी संख्या ६१,६२,९३ या ९४ दी है उनमें दस अन्तर्भाप्य गाथाएँ, दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिकाको पाँच गाथाएँ और शेप प्रकरणसम्बन्धी अन्य गाथाएँ सम्मिलित हो गई हैं। इससे गाथाओंकी सख्या अधिक बढ़ गई है। यदि इन गाथाओंको अलग कर दिया जाता है तो इसकी कुल ७२ मूल गाथाएँ रह जाती हैं। इन पर चूणि और मलयगिरि भाचार्यको संस्कृत टीका ये दोनों पाई जाती हैं अन इस आधारसे मूल गाथाओं की संख्या ७२ निर्विवाद रूपसे निश्चित होती है। मुनि कल्याणविजयजीने प्रात्मानन्द जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित होनेवाले ८६ रत्न शतक और सप्ततिकाकी' प्रस्तावनामें इसी आधारको प्रमाण माना है। किन्तु मुकावाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे चूर्णिसहित जो सप्ततिका प्रकाशित हुई है उसमें उसके सम्पादक प. अमृतलालजीने 'चत पणवीसा सोलस' इत्यादि २५ नम्बरवाली गाथाको मूल गाथा न मानकर सप्ततिकाकी कुल ७१.गाथाएँ मानी हैं उनका इस सम्बन्धमें यह वक्तव्य है 'परन्तु अमोए मा प्रकाशनमा सित्तरीनी ७१ गाथाोज मूल तरीके मानी छ । तेनु कारण ए छे के उपर्युक्त कर्मग्रन्थ द्वितीय विभागमा 'चट पणुवीसा - सोलस' (गा-२५) ए गाथाने तेना सम्पादक श्री ए १-देखो प्रस्तावना पृष्ठ १२ व १३ । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मूल गाथा तरीके मानी लीधी छे परन्तु ए गाथाने पूर्णिकारे 'पाठंतर' लखीने पाठान्तर गाथा तरीके निर्देशी छे; एटले 'चठ पणुवीसा सोलस' गाथा मूलनी नथी ए माटे चूर्णिकारनो सचोट पुरावो होवाथी सित्तरी प्रकरणनी ४१ गाथाओ घटित थाय छ। भाष गाथाने मगल गाथा तरीके ममजवाथी मित्तरीनी मित्तेर गाथाओ थई जाय छ ।' किन्तु इस गाथाके अन्तमें केवल 'पाढतर' ऐमा लिखा होनेसे इसे मूल गाथा न मानना युक प्रतीत नहीं होता। जव इस पर चूर्णि और आचार्य मलयगिरिको टीका दोनों हैं तब इसे मूल गाया मानना हो उचित प्रतीत होता है। हमने इसी कारण प्रस्तुत सस्करणमें ७२ गाथाएं स्वीकार की हैं। इनमें से अन्तकी दो गाथाएँ विषयकी समाप्तिके चाद भाई हैं प्रत. उनकी गणना नहीं करने पर ग्रन्थका खित्तरी यह नाम सार्थक ठहरता है। ग्रन्थकर्ता-सप्ततिकाके रचयिता कौन थे, अपने पावन जीवनसे किस भूमिको उन्होंने पवित्र किया था, उनके माता-पिता कौन थे, दीक्षा गुरु और विद्यागुरु कौन थे, इन सब प्रश्नोंके उत्तर पानेके वर्तमानमें कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं। इस समय समतिका और उसकी दो टीकाएँ हमारे सामने हैं। कर्ताक नाम डामके निर्णय करनेमें इनसे किसी प्रकारकी सहायता नहीं मिलती। । यद्यपि स्थिति ऐसी है तथापि जब हम शतककी अन्तिम १०४ व १०५ नम्बरवाली गाथाओंसे सप्ततिकाकी मगल गाथा और अन्तिम गाथाका क्रमश. मिलान करते हैं तो यह स्वीकार करनेको जो चाहता है कि बहुत मम्मव है कि इन दोनों अन्योंके सकलयिता एक ही श्राचार्य हों। जैसे सप्ततिकाको मगल गाथा, इस प्रकरणको दृष्टिवाद अंगकी एक दके समान बतलाया है वैसे ही शतककी १०४ नम्बरवाली गाथामें भी उमे कर्मप्रवाद श्रुतरूपी सागरकी एक बूदके समान बतलाया गया Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सप्ततिकाप्रकरण है। जैसे सप्ततिकाकी अन्तिम गाथा में ग्रन्यकर्ता अपने लाघवको प्रकट करते हुए लिखते हैं कि 'अल्पज्ञ मैंने त्रुटित रूप से जो कुछ भी निवद्ध किया है उसे बहुश्रुत के जानकार पूरा करके कथन कर। वैसे ही शतककी १०५ वीं गाथामें भी इसके कर्ता निर्देश करते हैं कि 'अल्पश्रुतवाले अल्पज्ञ मैंने जो बन्धविधानका सार कहा है उसे बन्ध-मोक्ष की विधिमें निपुण जन पूरा करके कथन करें।' इमरी गाथाके अनुरूप एक गाथा कर्म प्रकृति में भी पाई जाती है। गाथाएँ ये हैं वोच्छ सुण संखेवं नीसंद दिहिवायस्स ॥१॥ सप्तनिका । कम्ममवायसुयसागरस णिस्सदमेत्ताओ ॥१०॥ शतक । जो जत्य अपडिपुत्लो अत्यो अप्पागमेण बद्धो त्ति । तं खमिकण बहुसुया पूरेजणं परिकहतु ॥७२॥ सप्ततिका । बंधविहाणसमामो रहमओ अप्पसुयमदमहणा उ । त वधमोक्खणिरणा पूरेजणं परिकहति ॥१०५॥ शतक । इनमें णिम्संद, अप्पागम, अप्पसुयमदमह, पूरेऊणं परिकहंतु ये पद ध्यान देने योग्य है। इन दोनों ग्रन्थोंका यह साम्य अनायास नहीं है। ऐसा माम्य सन्हीं ग्रन्थों में देखने को मिलता है जो या तो एक कर्तृक हों या एक दूसरेके आधारसे लिखे गये हों। बहुत सम्भव है कि शतक और सप्ततिका इनके कर्ता एक प्राचार्य हों। गतककी चर्णिमें शिवशर्म प्राचार्यको उमका को बनलाया है। ये वे ही शिवशर्म प्रतीत होते हैं जो कर्मप्रकृतिके कर्ना माने गये हैं। (6) केण कय ति, शब्दतर्कन्यायप्रकरणमप्रकृतिसिद्धान्तविजाणएण अणेगवायसमालद्धविजएण सिवसम्मायरियणामधेज्जेण कय । पृ० १ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इस हिमापसे विचार करने पर कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका ये तीनों अन्य एक वर्तुक मिद्ध होते हैं। दिन्तु क्मंप्रकृति और सप्ततिकाका मिलान करने पर ये दोनों एक आचार्यकी कृति हैं यह प्रमाणित नहीं होता, क्योंकि इन दोनों प्रन्यों में विरुद्ध दो मतों का प्रतिपादन किया गया है । उदाहरणार्थ-सप्ततिकामें अनन्तानुबन्धी चतुष्कको उपशम प्रकृति बतलाया गया है। किन्तु कर्माकृतिक उपशमना प्रकरणमें 'नतरकरणं उवममो वा' यह कहकर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उपशमविधि और अन्तरकरण विधिका निषेध किया गया है। इस परसे निम्न तीन प्रश्न उत्पन्न होते हैं १-क्या शिवराम नामके दो श्राचार्य हुए है एक वे जिन्होंने शतक और मतिकाकी रचना की है और दूसरे वे जिन्होंने कर्मप्रकृतिकी रचना की है ? २-शिवराम आचार्यने कर्मप्रकृतिको रचना की, क्या यह किंवदनीमात्र है? ३-शतक और ममतिकाकी कुछ गाथाओंमें समानता देखकर एककर्तृक मानना कहाँ तक उचित है ? यह भी सम्भव है कि इनके सकलयिता एक ही आचार्य हो। किन्तु इनका संकलन विभिन्न दो श्राधारों से किया गया हो । जो कुछ भी हो । तत्काल उक्त आधारसे सप्ततिकाफे कर्ता शिवशर्म ही हैं ऐसा निश्चित कहना विचारणीय है। एक मान्यता यह भी प्रचलित है कि सप्ततिकाके कर्ता चन्द्रपि महसर है। किन्तु इस मतकी पुष्टिमें कोई सवल प्रमाण नहीं पाया जाता। सहतिकाकी मृल ताडपत्रीय प्रतियों में निम्नलिखित गाथा पाई जाती है 'गाहग सयरीए चंदमहत्तरमयाणुमारीए । टीगाइ निमिभाण एगणा होइ नई ओ ।' Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सप्ततिकाप्रकरण इसका आशय है कि चन्द्रर्षि महत्तरके मतका अनुसरण करने वाली टीका आधारसे सहतिकाकी गाथाएँ ८९ हैं । किन्तु टवेकारने इसका अर्थ करते समय सप्ततिका के कर्ताको ही चन्द्र महत्तर बतलाया है। मालूम पडता है कि इसी भ्रमपूर्ण अर्थके कारण सप्ततिकाके कर्ता चन्द्रमिहत्तर हैं हम भ्रान्तिको जन्म मिला है 1 प्रस्तुत सप्ततिकाके ऊपर जिस चूर्णिका उल्लेख हम अनेक बार कर आये हैं उसमें १० अन्तर्भाव्य गाथाओंको व ७ अन्य गाथाओंको मूल गाथाओं में मिलाकर कुल ८६ गाथाओं पर टीका लिखी गई है । इनमें से १० अन्तर्भाय गाथाएँ हमने परिशिष्ट में दे दी हैं । ७ अन्य गाथाएँ यहाँ दी जाती हैं बायरे जाण ॥ २ ॥ ईगि विगल सगलपचसिगा उ चत्तारिभाइभ उदया । उगुचीसsद्वारस त्रिसय अनउई य न य सेसा ॥ १ ॥ संत नव य पनरस सोलल अट्टारसेव वगुवीसा | एगाहि दु चवीसा पणुवीसा सत्तावीस सुहुमे अट्ठावीस पि मोहपयढीओ । उयसतचीयरागे उवसता होत नायन्वा ॥ ३ ॥ भैणियट्टिबारे थोणगिद्वितिग णिरयतिरियणामाठ | सखेज्जइमे सेसे तप्पाभोग्गाओ खीयंति ॥ ४ ॥ ऐत्तो हणइ कसायट्ठगं पि पच्छा णपुंसंग इत्थिं । तो णोकसायछक्कं छुम्भइ सजलणकोहम्मि ॥ ५ ॥ (१) देखो प्रकरण रत्नाकर ४ था भाग पृ० ८६६ । (२) देखो चूर्णि प० २६ । (३) देखो चूर्णि० प० ६२ । ( ४ ) देखो चूर्णि प० ६३ । (1) देखो चूर्णि प० ६४ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'खीणकमायदुचरिमे णिहं पयल च हणइ छतमत्यो। भावरणमतराए छउमत्यो चरिमसमयम्मि ॥ ६ ॥ सभिन्नं पासंतो लोगमलोग च सव्वभो सन्छ । तं नस्थि ज न पासाइ भूय सन्चं भविरस च ॥७॥ इनमेंमे ४, ५ और ६ नम्बरकी तीन गाथाएँ दिगम्बर परम्पराके सप्ततिकाकी मूल गाथाएँ है । ये गाथाएँ आचार्य मलयगिरिको टीकामें भी निबद्ध है। इनमसे छह नम्बरकी गाथा का तो भाचार्य मलयगिरिने 'तथा चाह सूत्रकृत' कह कर उल्लेख भी किया है। मालूम होता है कि 'गाहग सयरीए' यह गाथा इसी चूर्णिके आधारसे लिखी गई है। इससे दो बातोंका पता लगता है एक तो यह कि चन्द्रपिमहत्तर उक्त पूणि टीकाके ही कर्ता है सप्ततिकाके नहीं और इमरी यह कि चन्द्रर्पिमहत्तर इन ८९ गाथाओंको किसी न किसी रूपमै सप्ततिकाकी गाथाएँ मानते थे। ___ इस प्रकार यद्यपि चन्द्रर्पि महत्तर समतिकाके कर्ता हैं इस मतका निरसन हो जाता है तथापि किस महानुभावने इस अपूर्व कृतिको जन्म दिया था इस बातका निश्चयपूर्वक कथन करना कठिन है। बहुत सम्भव है कि शिवपार्म सूरिने ही इसकी रचना की हो। यह भी सम्भव है कि अन्य आचार्य द्वारा इसकी रचना की गई हो। रचनाकाल-ग्रन्थकर्ता और रचनाकाल इनका सम्बन्ध है । एकका - (१) देखो चूणि प० ६६ । (२) देखो चूणि १० ६७। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण निर्णय हो जाने पर दूसरेका निर्णय करने में बड़ी सहायता मिलती है। अपर हम अन्यकर्ताके विपयमें निर्देश करते समय यह सभावना प्रकट कर पाये हैं कि या तो शिवशर्मसूरिने इसकी रचना की है या इसके पहले ही यह लिखा गया था। साधारणत शिवशम सूरिका वास्तव्यकाल विक्रमकी पांचवीं शताब्दि माना गया है । इस हिसावसे विचार करनेपर इसका रचनाकाल, विक्रमकी पांचवी शताब्दी या इससे पूर्ववर्तीकाल ठहरता है। श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपनी विशेषणवती अनेक वार मित्तरीका उल्लेख किया है। श्री जिनभद्गगणि क्षमाश्रमणका काल विक्रमकी सातवीं शताब्दि निश्चित है, अतः पूर्वोक कालको यदि आनुमानिक हो मान लिया जाय तब भी इतना तो निश्चित ही है कि विक्रमकी सातवीं शताब्दिके पहले इसकी रचना हो गई थी। इसकी पुष्टि दिगम्बर परम्परामें प्रचलित प्राकृत पंचसंप्रहसे भी होती है। प्राकृत पचमाह का सकलन विक्रमझी सातवीं शताब्दिके आस-पास हो चुका था। इसमें सप्ततिका सकलित है अत: इसकी रचना प्राकृन पंचसंग्रहके रचनाकालसे पहले हो गई थी यह निश्चित होता है। ____टीकाएँ-यहाँ भव सप्ततिकाकी टीकाओंका सक्षेपमें परिचय करा देना आवश्यक प्रतीत होता है। प्रथम कर्मग्रन्थ के पृष्ठ १७५ पर श्वेताम्बरीय कर्म विषयक अन्योंकी एक सूची छपी है । उसमें सप्ततिकाकी अनेक टीका टिप्पनियोंका उल्लेख है। पाठकों की जानकारीके लिये आवश्यक संशोधनके साथ हम उसे यहाँ दे रहे हैं। (१) सयरीए मोहवट्ठाणा पंचादो कया पंच। अनिअटियो छलत्ता णवादोदीरणा पगए ।।६०॥ आदि । विशेषणपती । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना - टीका नाम परिमाण फर्ता रचनाकाल अन्तर्भाव्य गा० गा० १० । अज्ञात । अज्ञात भाष्य | गाथा १९१ । समयदेव सूरि वि.११-१२वीं श| चूंणि पत्र १३२ । अज्ञात अज्ञात चणि । इलो० २३०० । चन्द्रर्पि महत्तर भनु० ७वीं श० . ३७८० । मलयगिरि सूरि वि १२-१३वीं श भाष्यवृत्ति , ४१५० मेनुग सूरि वि.स १४४९ टिन , ५७४ रामदेव वि.१२ वी श अवचूरि देखो नव्य कर्म गुणरत्न सूरि वि १५वीं श.. । प्रन्यकी अब. - - इनमेंमे १ अन्तर्भाष्य गाथा, २ चन्द्रपिं महत्तरकी चूर्णि और ३ मलयगिरि सूरिकी वृत्ति इन तीनका परिचय कराया जाता है । अन्तर्भाप्य गाथाएँ -सप्ततिका अन्तर्भाप्य गाधाएँ कुल दस हैं। ये विविध विपयोंका खुलासा करने के लिये रची गई हैं। इनकी रचना किसने की इमका निश्चय करना कठिन है । सम्भव है प्रस्तुत सप्ततिकाके संकलयिताने ही इनकी रचना की हो। खास खास प्रकरण पर कपायप्राभृनमें भी भाष्यगाथाएँ पाई जाती हैं और उनके रचयिता स्वय कपायप्राभृतकार हैं। वहुत संभव है इसी पद्धतिका यहाँ भी अनुसरण किया गया (१) इसका उल्लेख जैन प्रन्थावलिमें मुद्रित बृहटिप्पनिकाके आधारसे दिया है। (२) इसका परिमाण २३०० श्लोक अधिक ज्ञात होता है। यह मुक्कावाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित हो चुकी है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सप्ततिकाप्रकरण हो । ये चन्द्रर्षि महत्तरकी बूर्णि और मलयगिरिकी टीका इन दोनों में संगृहीत है। मलयगिरिकी टीफामें इन्हें स्पष्टत. अन्तर्भाप्य गाथा कह कर संकलित किया गया है। चूर्णिमें प्रारम्भ की सात गाथाओंको तो अन्तर्भाव्य गाथा बतलाया है किन्तु अन्तकी तीन गाथाओंका निर्देश अन्तर्भाष्य गाथारूपसे नहीं क्यिा है। चूर्णिमें इन पर टीका भी लिखी गई है। चूणि-यह मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित हुई है। जैसा कि हम पहले निर्देश कर आये हैं इसके कर्ता चन्द्रर्पि महत्तर प्रतीत होते हैं। प्राचार्य मलयगिरिने इसका खूब उपयोग किया है। वे चूर्णिकारकी स्तुति करते हुए सप्ततिकाके ऊपर लिखी गई अपनी वृत्तिकी शस्तिमें लिखते हैं 'यैरेषा विषमार्था सप्ततिका सुस्फुटीकृता सम्यक् । अनुपकृतपरोपकृतश्चूणिकृतस्तान् नमस्कुर्वे ।। जिन्होंने इस विषम अर्थवाली स्प्ततिकाको भले प्रकार स्फुट कर दिया है। नि:स्वार्थ भावसे दूसरोका पार करनेवाले बन चूणिकारको मैं (मलयगिरि ) नमस्कार करता हूँ। . ___ सचमुचमें यह चूर्णी ऐसी ही लिखी गई है। इसमें सप्ततिकाके प्रत्येक पदका वढी ही सुन्दरतासे खुलासा किया गया है। खुलासा करते समय अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये गये हैं। उद्धरण देते समय शतक सत्कर्म कपायप्राभूत और कर्मप्रकृतिसंग्रहणीका इसमें भरपूर (१) 'एएसि विवरणं जहा सयगे।' ५० ४ । 'एएसि भेश्रो सरूवनिरूपणा जहा सयगे।' १० ५। इत्यादि । (२) 'संतकम्मे भगिय ।' प० ७ । 'श्रणे भणति--सुस्सरं विगलिंदियाण पत्थि, तण्ण, संतकम्मे उक्तत्वात् ।' ५० २२ । इत्यादि । (३) 'जहा कसायपाहुडे कम्मपगडि सगहणीए वा तहा क्त्तव्यं ।' प० ६२। (४) उवणाविही जहा कम्मपगडीसगहणीए रव्वलगसकमे तहा भाणियच्वं । १०६१। 'विसेसपवंचो नहा कम्मपगडिसगहणीए । प० ६३ । इत्यादि। . Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना | १७ उपयोग किया गया है। जैसा कि पहले वतला भाये है। इसमें ८९ गाथाओं पर टीका लिखी गई है । ७२ गाथाएँ वे ही हैं जिन पर मलयगिरि आचार्यने टीका लिखी है । १० अन्तर्भाव्य गाथाएँ हैं और सात अन्य गाथाएँ हैं । ये सात गाथाएँ हम पहले ग्रन्थकर्ताका निर्णय करते समय उद्धृत कर आये हैं । यद्यपि प्रत्यके बाहरकी प्रकरणोपयोगी गाथाओं की टीका करनेकी परिपाटी पुरानी है । धवला आदि टीकाओं में ऐसी कई उपयोगी गाथाओंकी टीका दी गई है । पर वहाँ प्रकरण या अन्य प्रकारसे इसका ज्ञान करा दिया जाता है कि यह मूल गाया नहीं है । किन्तु इम चूर्णिमें ऐसा समझनेका कोई आधार नहीं है । चूर्णिकार मूल गाथाका व्याख्यान करते समय गाथाके प्रारम्भका कुछ अश प्रदुष्टत करते हैं। यथा I Satra च पण नवंस० ति गाहा । मलयगिरि आचार्यने जिन गाथाओं को मूलका नहीं माना है उनकी टीका करते समय भी चूर्णिकारने उसी पद्धतिका अनुसरण किया है 1 यथा सतह नव० गाहा । सत्तावीमं सुहुमे० गाहा | अणियट्टिवायरे थीण० गाहा । एत्तो हणड़० गाहा । इत्यादि । इससे यह निर्णय करनेमें वही कठिनाई हो जाती है कि सप्ततिकाकी मूल गाथाएँ कौन कौन हैं। मालूम होता है कि 'गाहग्गा सयरीए' यह गाथा इसी कारण रची गई है। इसमें सप्ततिकाका इतिहास सन्निहित है । वर्तमान में आचार्य मलयगिरिकी टीका ही ऐसी है जिससे सप्ततिकाकी गाथाओंका परिमाण निश्चित करने में सहायता मिलती है । इसीसे हमने गाथा संख्याका निर्णय करते समय आचार्य मलयगिरि की टीका का प्रमुखता से ध्यान रखा है । वृत्ति - सप्ततिका के ऊपर एक वृत्ति श्राचार्य मलयगिरिने भी लिखी है। वैदिक परम्परामें टीकाकारोंमें जो स्थान वाचस्पतिमिश्रका है। जैन ख Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण परम्परामें वही स्थान मलयगिरि सरिका है। इन्होंने जिन प्रन्योपर टीकाएँ लिखीं हैं उनकी तालिका बहुत बढ़ी है। ऐसी एक तालिका आत्मानन्द जैन अन्यमालासे प्रकाशित होनेवाले ८६वें रत्न की प्रस्तावना में छपी है। पाठकोंकी जानकारीके लिये उसे हम यहाँ दे रहे हैं। श्लोकप्रमाण ३७५० ३७०० मुद्रित १६००० ० १६००० ___ ९५०० ७७३२ ९५०० . ० ० नाम १ भगवती सूत्र द्वितीय शतकवृत्ति । २ राजप्रश्नीयोपाङ्गटीका ३ जीवाभिगमोपाइटीका ४ प्रज्ञापनोपाइटीका ५ चन्द्रप्रज्ञप्त्युपाङ्गटीका ६ नन्दीसूत्रटीका ७ सूर्यप्रनम्न्युपांगटीका ८ व्यवहारसूत्रवृत्ति ९ बृहत्कलापीठिकावृत्ति अपूर्ण १० आवश्यकवृत्ति ११ पिण्डनियुक्त टीका १२ ज्योतिष्फरण्ड टीका १३ धर्मसंग्रहणी वृत्ति १४ कर्मप्रकृति वृत्ति १५ पचसंग्रहवृत्ति १६ पढशीतिवृत्ति १७ सप्ततिकावृत्ति १८ वृहत्सग्रहणीवृत्ति १९ वृहत्क्षेत्रसमासवृत्ति । २० मलयगिरिशब्दानुशासन 00 ० ० , १८००० ६७०० ५००० १०००० . . ० १८८५० २००० ० ० rat . ० ० ९५०० ५००० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रस्तावना अलभ्य ग्रन्थ १ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति टीका ४ तत्वार्थाधिगम सूत्र टीका २ श्रोधनियुकि टीका ५ धर्मसारप्रकरण टीका ३ विशेषावश्यक टीका ६ देवेन्द्रनरकेन्द्रकप्रकरण टीका ___ मलयगिरि सूरिकी टीकाभोंको देखनेसे मन पर यह छाप लगती है कि वे प्रत्येक विषय का वही ही सरलताके साथ प्रतिपादन करते हैं। जहाँ भी चे नये विषयका सकेन करते हैं वहाँ उसकी पुष्टिमें प्रमाण अवश्य देते हैं। उदाहरणार्थ मूक सक्षतिकासे यह सिद्ध नहीं होता कि स्त्रोवेटी जीव मरकर सम्पदृष्टियों में उत्पन्न होता है। दिगम्बर परम्परा की यह निरपवाद मान्यता है। श्वेताम्बर मूल अन्यों में भी यह मान्यता इसी प्रकार पाई जाती है। किन्तु श्वेताम्बर टोकाकारोंने इस मतको निरपवाद नहीं माना है। उनका कहना है कि इस कपनका सप्ततिकामें बहुल TIको अपेक्षा निर्देश किया गया है। भाचार्य महागिरिने भी अपनी वृत्ति इपी पद्धतिमा भनुपरण किया है। किन्तु इसकी पुष्टिमें तत्काल उन्होंने पूर्णिका सहारा ले लिया है। इसमें सप्ततिका चूर्णिका उपयोग तो किया हो गया है, किन्तु इसके अलावा सिद्धहम, तवार्थाधिगमको सिद्धमनीय टीका, शतमबृहच्चूर्णि, सत्कर्मअन्य, पचसमहमू-टोका, कर्मप्रकृति, आवश्यकचूर्णि, विशेषावश्यक भाष्य, पचलग्रह और कर्मप्रकृतिचूर्णि इन ग्रन्थोंका भी भरपूर उपयोग किया गया है। इसके अलावा बहुनसे अन्योंके उल्लेख 'उकंच' कहकर दिये गये हैं। तात्पर्य यह है कि मूल विषयको स्पष्ट करने के लिये यह वृत्ति खूब सजाई गई है। प्राचार्य मलयगिरि भाचार्य हेमचन्द्र और महाराज कुमारपालदेवक समकालीन माने जाते हैं। इनकी टीकाओं के कारण श्वेताम्बर जैन वाड्मयके प्रसार करने में बड़ी सहायता मिली है। हमें यह प्रकाशित करते हुए प्रसन्नता होती है कि सप्ततिकाका प्रस्तुत अनुवाद भाचार्यमलयगिरिका इसी वृत्ति के माधारमे लिखा गया है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण ३-अन्य सप्ततिकाएँ पचसंग्रहकी सप्ततिका-प्रस्तुत म्प्ततिकाके सिवा एक मततिका प्राचार्य चन्द्रपि महत्तर कृत पंचतग्रह में प्रधित है। पचसंग्रह एक लग्रह प्रन्ध है। यह पाँच प्रकरणों में विभक्त है। इसके अन्तिम प्रकरणका नाम सप्ततिका है। __एक तो पचसग्रहके मततिकाझी अधिक्तर मूल गाथाएँ प्रस्तुत सप्ततिकामे मिलती-जुलती हैं, दूसरे पंचसग्रह की रचना प्रस्तुत स्ततिकाके बहुत काल बाद हुई है और तीसरे इसका नाम मप्ततिका होते हुए भी इसमें १५६ गाधाएँ हैं इससे ज्ञात होता है कि पचसप्रहकी सप्ततिकाका अाधार प्रकृत म्प्सतिका ही रहा है। दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिका-एक अन्य सप्ततिका दिगम्वर परम्परामें प्रचलित है। यद्यपि अवतक इसको स्वतन्त्र प्रति देखने में नहीं पाई है तथापि प्राकृत पसंग्रहमें उसके अंगरूपसे यह पाई जाती है। प्राकृत पचेमनट एक सग्रह अन्य है। इसमें जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, वधाव्यसत्त्वदुक्त पद, शतक और सप्ततिका इन पांच प्रन्योंका संग्रह किया गया है। इनमेंसे सन्तके दो प्रकरणों पर भाप्य भी है। आचार्य श्रमितिगतिका पंसग्रह इसीके आधारसे लिखा गया है। (१) पंचसंग्रहकी एक प्रति हमें हमारे मित्र पं० हीरालालजी शास्त्रीने भेजी थी जिसके आधारसे यह परिचय लिखा गया है। पडितजीके इस कार्यके लिये हम उनका सम्पादकीय कन्यमें प्रामार मानना भूल गये हैं, इसलिये यहाँ उनका विशेष रूपसे स्मरण कर लेना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। शतक और सप्ततिकाकी चूर्णि भी उन्हीसे प्राप्त हुई थीं। उनका प्रस्तावनामें बड़ा उपयोग हुआ है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २१ अमितिगतिका पंचसग्रह संस्कृनमें होनेके कारण इमे प्राकृत पंचसग्रह कहते हैं । यह गद्य-पद्य उभयरूप है। इसमें गाथाएँ १३०० से अधिक है । इसके अन्तके दो प्रकरण शतक और मप्ततिका कुछ पाठभेदके साथ श्वेताम्बर परम्परामें प्रचलिन शतक और सप्ततिकासे मिलते जुलते है । तार्थसूत्र के बाद ये ही दो ग्रन्थ ऐसे मिले है जिन्हें दोनों परम्पराओंने स्वीकार किया हैं । दिगम्बर परम्परामें प्रललित इन दोनों प्रयोका स्वयं पंचसंग्रहकारने संग्रह किया हैं या पचसमहकारने इन पर केवल भाष्य लिया है इसका निर्णय करना कठिन है। इसके लिये अधिक अनुसन्धानकी श्रावश्यकता है 1 दोनों सप्तिका में पाठभेद और उसका कारण - प्रस्तुत नप्ततिकामें ७२ और दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामै ७१ गावाएं है । जिनमेंमे ४० से अधिक गाथाएँ एकसी हैं । १४-१५ गायओंमें कुछ पाठभेद है। शेष गाथाएँ जुदी जुड़ी है। इसके कारण दो हैं, मान्यता भेह और वर्णन करने की शैली में भेद । 1 मान्यता भेदके हमें चार उदाहरण मिले हैं। यथा- १ - प्रस्तुत सप्ततिका में निद्राद्विकका हृदय क्षपकश्रेणिमें नहीं होता इस मतको प्रधानता देकर मग बतलाये गये हैं किन्तु दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिका क्षपकश्रेणिमें निद्वाद्विकका उदय प्रधानता देकर भंग बतलाये गये हैं । होता है इस Hast २- प्रस्तुत सप्ततिकामें मोहनीयके उदयविकer और पदवृन्द दो प्रकारसे बतलाये गये हैं किन्तु दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें वे एक प्रकारके ही बतलाये गये है । ३- प्रस्तुत सप्ततिका में नामकर्म के १२ ह्दयस्थान बतलाने गये हैं । कर्मकाण्ड में भी ये ही १२ उदयस्थान निवळू किन गये हैं । किन्तु दिगम्बर परम्पराको सप्ततिका २० प्रकृतिक हृदयस्थान छोड़ दिया गया है । 1 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सप्ततिकाप्रकरण •r-प्रस्तुत सप्ततिका आहारक शरीर व माहारक मांगोपांग और वैक्रिय शरीर व वैक्रिय श्रांगोपांग इन दो युगलोंकी उद्दलना होते समय इनके बन्धन और सघातकी पहलना नियमसे होती है इस सिद्धान्तको स्वीकार करके नामकर्म के सत्वस्थान यतलाये गये हैं । गोम्मटपार कर्मकाण्डके मस्वस्थान प्रकरण में इसी सिद्धान्तको स्वीकार किया गया है किन्तु दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिका उदलना प्रकृतियोंमें आहारक व वैक्रिय शरीरके बन्धन और पत्रात सम्मिलित नहीं करके नामकर्मके मत्वम्थान बतलाये गये हैं। गोम्मटमार कर्मकाण्डके त्रिभंगी प्रकरणमें इसी सिद्धान्तको स्वीकार किया गया है। मान्यता भेटके ये चार ऐसे उदाहरण हैं जिनके कारण दोनों सक्षतिकाओंकी अनेक गाथाएँ जुदी जुदी हो गई हैं और अनेक गयाओंमें पाठभेद भी हो गया है। फिर भी ये मान्यताभेद सम्प्रदायभेद पर आधारित नहीं हैं। इसी प्रकार कहीं कहीं वर्णन करनेकी शैलीमें भेद होनेसे गायाओंमें फरक पड़ गया है। यह अन्तर उपशमना प्रकरण और क्षपणाप्रकरणमें देखनेको मिलता है। प्रस्तुत सप्ततिका उपशमना और क्षपणाकी खासखास प्रकृतियोंका ही निदेश किया गया है। किन्तु दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें क्रमानुसार उपशमना और क्षपणा सम्बन्धी सब प्रकृतियोंकी संरयाका निर्देश करने की व्यवस्था की गई है। इस प्रकार यद्यपि इन दोनों सप्ततिकाओंमें भेद पढ़ जाता है तो भी ये दोनों एक उद्गमस्थानसे निकलकर और बीच बीच में दो धाराओं में विभक्त होती हुई अन्त में एकरूप हो जाती हैं। । दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकाकी प्राचीनता-पहले हम भनेक बार प्राकृत पंचसंग्रहका उल्लेख कर आये हैं । इसका सामान्य परिचय भी दे आये है । कुछ ही समय हुआ जब यह अन्य प्रकाशमें आया है। अमितिगतिका पंचसंग्रह इसीके आधारसे Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना लिना गया है। अमितिगतिने इसे विक्रम सम्वत् १०७३ में पूरा किया था। इसमें वही क्रम स्वीकार किया गया है जो प्राकृत पंचसंग्रहमें पाया जाता है। केवल नामकर्मके उदयस्यानोंका विवेचन करते समय प्राकृत परसग्रहके क्रमको छोड़ दिया गया है। प्राकृत पंचसंग्रहमें नाम कर्मका २० प्रकृतिक उदयस्थान नहीं बनलाया है। प्रतिज्ञा करते समय इसमें भी २० प्रकृतिक उदयस्यानका निर्देश नहीं किया है। किन्तु उदयस्थानोंका व्याख्यान करते समय इसे स्वीकार कर लिया है। गोम्मटमार जीवकाण्ड और कर्मकाण्डमें भी पदसंग्रहका पर्याप्त उपयोग किया गया है। कर्मकाण्डमें ऐसे दो मतोंका उल्लेख मिलता है जो स्पष्टतः प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकासे लिये गये जान पढ़ते हैं। एक मत अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उपशमनावाला है और दुमरे मतका सम्बन्ध कर्मकाण्डमें बतलाये गये नामकर्मके सस्वस्थानोंसे है। दिगम्बर परम्परामें ये दोनों मत प्राकृत पचसमहकी सप्ततिकाके सिवा अन्यत्र देखने में नहीं आये। यद्यपि फर्मकाण्डमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उपशम होता है इस वातका विधान नहीं किया है तथापि वहाँ उपशम श्रेणिमें मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंकी भी सेंता बतलाई है। इससे सिद्ध होता है कि नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती अनन्तानुबन्धीके उपशमवाले मतसे भलीमाति परिचित थे। दूसरे मतका विधान करते हुए गोम्मटसारके त्रिभंगी प्रकरणमें निम्नलिखित गाथा आई है - (१) त्रिसप्तत्यधिकेऽब्दाना सहने शवविद्विषः । मसूतिकापूरे जातमिदं शालं मनोरमम् ॥' अ० पंचस प्र०। (२) देखो अ• पंचसं० पृ० १६८ । (३) देखो अ० पंचसं० पृ० १७६1 (6) देखो गो० कर्म० गा० ५११ । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सप्ततिकाप्रकरण तिदुइगिणउदी णउदी अडचउदोअहियसीदि सीदी य । ऊणासं वद्वत्तरि सत्तत्तरि दस य णव सत्ता ।। ६०६ ।। यह गाथा प्रकृत पंपसंग्रहकी सातिफासे ली गई है। वहाँ इसका रूप इस प्रकार है तिदुइगिणउदि णउदि अडचउदुगहियमसीदिमसोदि च । उणसीदि अत्तरि सत्तत्तरि दस य णव संता ।। २३ ।। इन गाथाओं में नामकर्मके सत्रस्थान बतलाये गये हैं। इन सत्त्वस्थानोंका निर्देश करते समय चालू कार्मिक परम्पराके विरुद्ध एक विशेष सिद्धांत स्वीकार किया गया है। चालू कार्मिक परम्परा यह है कि बन्ध और सक्रम प्रकृतियों में पांच बन्धन और पांच सघात पांच शरीरोंसे जुदे न गिनाये जाकर भी सत्त्वमें जुदे गिनाये जाते हैं। किन्तु यहाँ इस क्रमको छोड़कर ये सत्त्वस्थान बतलाये गये हैं। प्राचीन प्रन्यों में यह मन प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकाके सिवा अन्यत्र देखनेमें नहीं आया। मालूम होता है कि नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्तीने प्राकृत पचसंग्रहके आधारसे ही कर्मकाण्डमें इस मत का संग्रह किया है। ये प्रमाण ऐसे हैं जिनसे हम यह जान लेते हैं कि प्राकृत पंचसमहकी रचना गोम्मटलार और अमितिगतिके पंचसंग्रहके पहले हो चुकी थी। किन्तु इनके अतिरिक कुछ ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह भी ज्ञात होता है कि इसकी रचना धवला टीका और श्वेताम्बर परम्परामें प्रचलित शतककी चूर्णिकी रचना होनेके भी पहले हो चुकी थी। धवला चौथी पुस्तकके पृष्ठ ३१५ में वीरसेन स्वामीने 'जीवसमासए वि उत्त' कह कर 'छप्पंचणविहाणं' गाथा पदरत की गई है । यह गाथा प्राकृत पचसप्रहके जीवसमास प्रकरणमें १५६ नम्बर पर दर्ज है। इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत पचसंग्रहका वर्तमानरूप धवलाके निर्माणकाल के पहले निश्चित हो गया था। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ऐसा ही एक प्रमाण शतक की चूर्णिमें भी मिलता है जिससे जान पढ़ता है कि शतक की चूर्णि लिखे जानेके पहले प्राकृत पचसग्रह लिखा ना चुका था । शतक की ६३ वै गाथा की चूर्णिमें दो वार पाठान्तर का उल्लेख किया है । ये पाठान्तर प्राकृत पंचमंग्रहमें निबद्ध दिगम्बर परम्पराके शतकमे लेकर दुत किये गये जान पढते हैं 1 शतककी ९३ वीं गाया इस प्रकार है 'आउक्कस पलस्स पच मोहम्स सत्त ठाणाणि । संसाणि तणुकसाथ वध उक्कोसगे जोगे ||१३||' प्राकृत पचसग्रह के शतकमें यह गाथा इस प्रकार पाई जाती है --- 'आउसस्स पदेसम्स छचत्र मोहस्स णव दु ठाणाणि । संसाणि तणुकसाओ वधइ उपकस्सजोगेण ॥' I इन गाथाओं को देखनेसे दोनोंका मनभेद स्पष्ट ज्ञात हो जाता है शतककी पूर्णिमें इसी मतभेद की चर्चा की गई है। वहीं इस मतभेदका इस प्रकार निर्देश किया है "अन्ने पढनि मोहस्स "अन्ने पढति भउक्कोसरल छ प्ति एव उठानाणि । " शतक की चूर्णि कत्र लिखी गई इसके निर्णयका अब तक कोई निश्चित आधार नहीं मिला है । मुक्काबाई ज्ञानमन्दिर डभोई मे प्रकाशित होने वाली चणिसहित सित्तरी की प्रस्तावना में प० अमृतलालजीने एक प्रमाण अवश्य उपस्थित किया है । यह प्रमाण खंभात में स्थित श्री शान्तिनाथजी की ताढपत्रीप्य भंडारको एक प्रतिसे लिया गया है । इसमें शतककी चूर्णिका कर्ता श्रीचन्द्र महत्तर श्वेताम्बराचार्यको मतलाया ...w (१) कृतिराचार्य श्रीचद्र महत्तर शितांबरस्य शतकस्य । प्रशस्त दि ६ शनो लिखितेति ॥ ६ ॥ • 600 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सप्ततिकाप्रकरण है। ये चन्द्र महतर कौन है, इसका निर्णय करना तो कठिन है । कदाचित् ये पंचसह कर्ता चन्द्रर्पि महत्तर हो सकते है । यदि पचसंग्रह और शतककी चूर्णिके कर्ता एक ही व्यक्ति हैं तो यह अनुमान किया जा सकता है कि दिगम्बर परम्परा के पंचसंग्रहका सकलन चन्द्रर्षिमहत्तरके पंचग्रहके पहले हो गया था । इस प्रकार प्राकृत पंचसग्रह की प्राचीनता के अवगत हो जाने पर उसमें निबद्ध सप्ततिकाकी प्राचीनता तो सुतरां सिद्ध हो जाती है । प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थमें प० हीरालाल जो सिद्धान्त शास्त्री का 'प्राकृत और संस्कृत पंचसंग्रह तथा उनका श्राधार' शीर्षक एक लेख छपा है । उसमें उन्होंने प्राकृत पचसग्रह की सप्ततिकाका भाधार प्रस्तुत Rafaerat बतलाया है । किन्तु जबतक इसकी पुष्टि में कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता तब तक ऐसा निष्कर्ष निकालना कठिन है । अभी तो केवल इतना ही कहा जा सकता है कि किसी एक को देखकर दूसरी सप्ततिका लिखी गई है । ४ - विषय परिचय afone विषय सक्षेप में उसकी प्रथम गाथामें दिया है। इसमें भाठों मूल कर्मों व भवान्तर भेदों के बन्धस्थान, उदयस्थान और सरदस्थानोंका स्वतन्त्र रूपसे व जीवसमास और गुणस्थानोंके श्राश्रयसे विवेचन करके अन्त में उपशम विधि और क्षपणा विधि बतलाई गई है । कर्मोंकी यथासम्भव दस अवस्थाएँ होती हैं । उनमेंसे तीन मुख्य हैं - बन्ध, उदय और सत्व । शेष अवस्थाओंका इन तीनमें अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिये यदि यह कहा जाय कि कर्मोकी विविध अवस्थाओं और उनके भेदका इसमें सांगोपांग विवेचन किया गया है भत्युक्ति न होगी । सचमुच में प्रन्थका जितना परिमाण है करनेकी शैलीकी प्रशंसा करनी ही पड़ती है। तो कोई उसे देखते हुए वर्णन सागर का जलं गागर में. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भर दिया गया है। इतने लघुकाय प्रन्यमें इतने विशाल और गहन विषयका विवेचन कर देना हर किसीका काम नहीं है। इससे अन्यकर्ता और अन्य दोनोंकी ही महानता सिद्ध होती है। इसकी प्रथम और दुमरी गाथामें विपयकी सूचना की गई है। तीसरी गाथामें आठ मूल कर्मों के संवेध भंग पतलाकर चौथी और पांचवीं गाथामें क्रमसे उनका जीवसमास और गुणस्थानों में विवेचन किया गया है। छठी गाथामें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके अवान्तर भेदोंके सवेध भग बतलाये है। सातवींसे लेकर नौंवीके पूर्वार्धतक ढाई गाथामें दर्शनावरणके उत्तर भेदोंके संवेध भग बतलाये हैं। नौवी गाथाके उत्तरार्धमे वेदनीय, प्रायु और गोत्र कर्मके सवेध भंगोंके कहनेकी सूचना मात्र करके मोहनीयके कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है। दसर्वीसे लेकर तेईसवीं गाथातक १४ गाथाओं द्वारा मोहनीयके और २४वीं गाथासे लेकर ३२वीं गाथातक ९ गाथाओं द्वारा नामकर्मके बन्धादि स्थानों व सवेध भगोंका विचार किया गया है । आगे ३३वी गाथासे लेकर ५२वीं गाथातफ २० गाथाओं द्वारा भवान्तर प्रकृतियोंके उक्त संवेध मंगोंको जीवसमासों और गुणस्थानों में घटित करके बतलाया गया है। ५३वीं गाथामें गति आदि मार्गणाओं के साथ सत् आदि भाउ अनुयोग द्वारों में उन्हें घटित करनेकी सूचना की है। इसके भागे प्रकरण बदल जाता है। ५४वी गाथामें उदयसे उदरिणाके स्वामीमें कितनी विशेषता है इसका निर्देश करके ५५वीं गाथामें वे ४१ प्रकृतियां बतलाई है जिनमें विशेषता है। ५६वीं से लेकर ५९वीं तक ४ गाथाओं द्वारा किस गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है यह बतलाया गया है। ६०वी प्रतिज्ञा गाथा है। इसमें गति श्रादि मार्गणाओं में बन्धस्वामित्वके जान लेनेकी प्रतिक्षा की गई है। ६१वीं गाथामें यह बतलाया है कि तीर्थंकर प्रकृति, देवायु और नरकायु इनका सत्व तीन तीन गतियों में ही होता है। किन्तु इनके सिवा शेष प्रकृतियोंका सरव सव गतियोंमें पाया जाता है। ६२वीं और ६३वीं Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण गाथा द्वारा चार अनन्तानुबन्धी और तीन दर्शन मोहनीय इनके उपशमना और क्षपणाके स्वामीका निर्देश करके ६४वीं गाथा द्वारा क्रोधादि चार की क्षपणाके विशेष नियमकी सूचना की गई है। अयोगीके द्विचरम समयमें किन प्रकृतियोंका क्षय होता है यह ६५वीं गाथामें बतलाया गया है। अयोगी जिन कितनी प्रकृतियोंका वेदन करते हैं यह ६६वीं गाथामें बतलाया गया है। ६७वीं गाधामें नामकर्मकी वे ९ प्रकृतियाँ गिनाई हैं जिनका उदय अयोगीक होता है। भयोगीके अन्तिम समयमें कितनी प्रकृतियोंका उदय होता है यह ६८वीं गाया बतलाती है। ६९वीं गाथामें अयोगीके अन्तिम समयमें जिन प्रकृतियोंका क्षय होता है उनका निर्देश किया है। भागे ७०वीं गाथामें सिद्धों के सिद्ध सुखका निर्देश करके उपसहार स्वरूप ७१वीं गाया भाई है । और ७२वीं गाया लघुता प्रकट करके अन्य समाप्त किया गया है। यह प्रन्यका सक्षिप्त परिचय है। अब आगे प्रकृनोपयोगी समझ कर कर्म तत्वका संक्षेग्में विचार ५ कर्म-मीमांसा कर्मके विषयमें तुलनात्मक ढगसे या स्वतंत्र भावसे अनेक लेखकोंने बहुन कुछ लिखा है। तथापि जैन दर्शनने कर्मको जिस रूपमें स्वीकार किया है वह दृष्टिकोण सर्वथा लुप्त होता जा रहा है। जैन कर्मवाटमें ईश्वरवादकी छाया माती जा रही है। यह भूल वर्तमान लेखक ही कर रहे हैं ऐसी बात नहीं है पिछले लेखकोंसे भी ऐसी भूल हुई है। इसी दोपका परिमार्जन करनेके लिये स्वतंत्र भावसे इस विषय पर लिखना जरूरी समझकर यहाँ संक्षेपमें इस विषयकी मीमांसा की जा रही है।" छह द्रव्योंका स्वरूप निर्देश-भारतीय सब आस्तिक दर्शनोंने लीवके अस्तित्वको स्वीकार किया है जैनदर्शनमें इसकी चर्चा विशेष रूपसे की गई है। समप प्रामृनमें जीवके स्वरूपका निर्देश करते हुए Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इसे रस रहित, गन्धरहित, रूपरहित, स्पर्शरहित, अव्यक्त और चेतना गुणवाला बतलाया है । यद्यपि तत्त्वार्थ सूत्रमें जीवको उपयोग लक्षणवाला लिखा है पर इससे उक्त कथनका ही समर्थन होता है। ज्ञान और दर्शन ये चेतनाके भेद हैं। उपयोग शब्दसे इन्हींका बोध होता है। ज्ञान और दर्शन यह जीवका निज स्वरूप है जो सदा काल भवस्थित रहता है । जीवमात्रमें यह सदा पाया जाता है। इसका कभी भी अभाव नहीं होता। जो तिर्यच योनिमें भी निकृष्टतम योनिमें विद्यमान है उसके भी यह पाया जाता है और जो परम उपास्य देवत्वको प्राप्त है उसके भी यह पाया जाता है। यह सबके पाया जाता है। ऐसा कोई भी जीव नहीं है जिसके यह नहीं पाया जाता है। जीवके सिवा ऐसे बहुतसे पदार्थ हैं जिनमें ज्ञान दर्शन नहीं पाया जाता। वैज्ञानिकोंने ऐसे जड पदार्थोकी संख्या कितनी ही क्यों न बतलाई हो पर जैनदर्शनमें वर्गीकरण करके ऐसे पदार्थ पांच बतलाये गये हैं जो ज्ञानदर्शनसे रहित है। वैज्ञानिकों के द्वारा बतलाये गये सब जढ तत्त्वोंका समावेश इन पाँच तत्त्वों में हो जाता है। वे पाँच तत्व ये हैं-पुदगल, धर्म, अधर्म, भाकाश और काल । इनमें जीव तस्वके मिला देने पर कुल छह तत्व होते हैं। जैन दर्शन इन्हें द्रव्य शब्दसे पुकारता है। ___जीव द्रव्यका स्वरूप पहले बतलाया ही है। शेष द्रव्योंका स्वरूप निम्न प्रकार है जिममें स्पर्श, रम, गन्ध और रूप पाया जाता है इसे पुद्गले कहते हैं। जैन दर्शनमें स्पर्शादिककी मूर्त संज्ञा है इसलिये वह मूर्त (१) 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्त चेदणागुणमसई । जाण अलिंगग्गहण जीवमणिहिट्ठसठाणं ।'-मयप्रामृत गाथा ४६ । (२) उपयोगो लक्षणम् । (३) 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला.।-त० सू० ५-२३ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण माना गया है। किन्तु शेष द्रव्यों में ये स्पर्शादिक नहीं पाये जाते इसलिये वे अमूर्त हैं। जो गमन करते हुए जीव और पुदगलोंके गमन करनेमें सहायता प्रदान करता है उसे धर्म ट्रेव्य कहते हैं। अधर्म द्रव्य का स्वरूप इससे उलटा है। यह ठहरे हुए जीव और पुदगलोंके ठहरने में सहायता प्रदान करता है। इन दोनों द्रव्योंके स्वरूपका स्पष्टीकरण करनेके लिये जल और छायाका दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे मछलीके गमन करने में बल और पथिकके ठहरनेमें छाया सहायता प्रदान करते हैं ठीक यही स्वभाव क्रमसे धर्म और अधर्म द्रव्यका है। जो वस्तुकी पुरानी अवस्थाके व्यय और न्यूतन अवस्थाके उत्पादमें सहायता प्रदान करता है उसे काल दव्यं कहते हैं । और प्रत्येक पदार्थके ठहरनेके लिये जो अवकाश प्रदान करता है उसे आकाश द्रव्य कहते हैं। ____ इनमेंसे धर्म, अधर्म, अाकाश और काल ये चार द्रव्य सदा अविकारी माने गये हैं। निमित्तवश इनके स्वभावमें कभी भी विपरिणाम नहीं होता। किन्तु जीव और पुदगल ये ऐसे द्रव्य हैं जो अविकारी और विकारी दोनों प्रकारके होते हैं। जब ये अन्य द्रव्यसे संश्लिष्ट रहते हैं तव विकारी होते हैं और इसके प्रभावमें अविकारी होते हैं। इस हिसाबसे जीव और पुदगलके दो-दो भेद हो जाते हैं। संसारी और मुक्त ये जीवके दो भेद हैं। तथा भणु और स्कन्ध ये पुदगलके दो भेद हैं। जीव मुक्त भवस्थामें अविकारी हैं और संपारी अवस्थामें विकारी। पुदगल अणु अवस्थामें अविकारी हैं और स्कन्ध अवस्थामें विकारी । तात्पर्य यह है कि जीव और पुदगल जब तक अन्य व्यसे सश्लिष्ट रहते हैं तब तक उस संश्लेशके कारण उनके स्वभावमें विपरिणति हुमा करती है इसलिये वे उस समय विकारी रहते हैं और संश्लेशके हटते ही वे अविकारी हो जाते है। (१) द्रन्य० गा० १८ । (२) द्रव्य० गा० १६1 (३) द्रव्य गा. २० (४) य. गा०.२२ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३१ बन्धकी योग्यता-इन दोनोंका अन्य द्रव्यसे संश्लिष्ट होना इनकी योग्यता पर निर्भर है। यह योग्यता जीव और पुदगलमें ही पाई जाती है अन्य में नहीं। ऐसी योग्यताका निर्देश करते हुए जीवमें उसे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योगरूप तथा पुदगलमें उसे स्निग्ध और रूक्ष गुणरूप बतलाया है। जीव मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे अन्य द्रव्यसे बन्धको प्राप्त होता है और पुद्गल स्निग्ध और रूक्ष गुणके निमित्तसे अन्य दिव्यसे बन्धको प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। जीवमें मिध्यात्वादि रूप योग्यता सश्लेपपूर्वक ही होती है इसलिये उसे अनादि माना है। किन्तु पुद्गलमें स्निग्ध या रूक्षगुणरूप योग्यता सश्लेपके विना भी पाई जाती है इसलिये वह अनादि और सादि दोनों प्रकारकी मानी गई है। इससे जीव और पुदगल केवल इन दोनोंका बन्ध सिद्ध होता है। क्योंकि सश्लेप बन्धका पर्यायवाची है। किन्तु प्रकृतमें जीवका बन्ध विवक्षित है इसलिये आगे उसीकी चर्चा करते हैं___ जीवबन्धविचार-यों तो जीवकी बद्ध और मुक अवस्था सभी आस्तिक दर्शनोंने स्वीकार की है। बहुतसे दर्शनोंका प्रयोजन ही नियम प्राप्ति है। किन्तु जैन दर्शनने बन्ध मोक्षकी जितनी अधिक चर्चा की है उतनी अन्यत्र देखनेको नहीं मिलती। जैन आगमका वहुभाग इसकी चर्चासे भरा पड़ा है। वहाँ जीव क्यों और कबसे बँधा है, बद्ध जीवकी कैपी अवस्था होती है। बँधनेवाला दूसरा पदार्थ क्या है जिसके साथ जीवका बन्ध होता है, बन्धसे इस जीवका छुटकारा कैसे होता है, बन्धके कितने भेद हैं, बँधने के बाद उस दूपरे पदार्थका जीवके साथ कब तक सम्बन्ध बना रहता है, बँधनेवाले दूसरे पदार्थके सम्पर्कसे जीवकी विविध अवस्थाएँ कैसे होती हैं, बंधनेवाला इसरा (१) त० सू० ८-१।' (२) स्निग्धरूक्षत्वाबन्धः।-त० सू० ५-३३ । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सप्ततिकाप्रकरण पदार्थ क्या जिस रूपमें बँधता है उसी रूपमें बना रहता है या परिस्थितिवश उसमें न्यूनाधिक परिवर्तन भी होता है आदि सभी प्रश्नोंका विस्तृत ममाधान किया गया है। आगे हम उक प्रश्नों के आधारसे इस विषयकी चर्चा कर लेना इष्ट समझते हैं। __संसारकी अनादिता-जैसा कि हम पहले ववला पाये हैं कि जीवके समारी और नुक ये दो भेद हैं । जो चतुर्गति योनियों में परिभ्रमण करता है ससे संसारी कहते हैं इसका दूसरा नाम वद भी है। और जो समारसे मुक्त हो गया है उसे मुफ कहते हैं। ये दोनों भेद अवस्याकृत होते हैं। पहले जीव संसारी होता है और जब वह प्रयत्नपूर्वक ससारका अन्त कर देता है तब वही मुफ हो जाता है। मुक्त होने के बाद जीव पुनः ससारमें नहीं आता । उस समय उसमें ऐसी योग्यता ही नहीं रहती जिससे वह पुनः कर्मबन्धको प्राप्त कर सके। कर्मवन्धका मुख्य कारण मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग है। जब तक इनका सदुमाव पाया जाता है तभी तक कर्मबन्ध होता है। इनका जमाव होने पर जीव मुक्त हो जाता है। इससे कर्मबन्धक मुख्य कारण मिथ्यात्व आदि हैं यह ज्ञात होता है। ये मिथ्यात्व आदि जोदके वे परिणाम है जो वद्धदशामें होते हैं । अबद्ध जीवके इनका सदभाव नहीं पाया जाता। इससे कर्मबन्ध और मिथ्यात्व आदिका कार्यधारण भाव सिद्ध होता है। बद्ध जीवके कर्माका निमित्त पाझर मिथ्यात्व आदि होते हैं और मिथ्यात्व सादिके निमित्तसे कर्मबन्ध होता है यह कार्यकारण भावको परम्परा है। इसी भावको स्पष्ट करते हुए समयप्रामृत में लिखा है 'जीवपरिणामहेहूँ कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुरगलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ।।८।। (१) संसारिणो मुनश्च ।-त० सू०२-१०।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'जीवके मिथ्यात्व आदि परिणामोंका निमित्त पाकर पुद्गलोका कर्मरूप परिणमन होता है और पुदगल कर्मके निमित्तसे जीव भी मिथ्यात्व श्रादि रूप परिणमता है।' ___ कर्मवन्ध और मिथ्यात्व आदि की यह परम्परा अनादि काल से चली आ रही है। आगम में इसके लिये बीज और वृक्षका दृष्टान्त दिया गया है। इस परम्पराका अन्त किया जा सकता है पर प्रारम्भ नहीं। इसीसे व्यक्किकी अपेक्षा मुकिको सादि और संसारको भनादि माना है। ससारका मुख्य कारण कर्म है-संसार और मुक्त ये जीवकी दो दशाएं हैं यह हम पहले ही बतला आये हैं। यों तो इन दोनों भवस्थानोंका कर्ता स्वय जीव है। जीव ही स्वयं संसारी होता है और जीव ही मुक । राग द्वेष धादिरूप अशुद्ध और केवलज्ञान भादिरूप शुद्ध जितनी भी अवस्थाएँ होती हैं वे सब जीवकी ही होती हैं, क्योंकि जीवके सिवा ये अन्य द्रव्यमें नहीं पाई जातीं। तथापि इनमें जो शुद्धता और अशुद्धताका भेद किया जाता है वह निमित्त की अपेक्षासे ही किया जाता है। निमित्त दो प्रकारके माने गये हैं। एक वे जो साधारण कारणरूपसे स्वीकार किये गये हैं। 'धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्योंका सद्भाव इसी रूपसे स्वीकार किया गया है। और दूसरे वे जो प्रत्येक कार्यके अलग-अलग होते हैं। जैसे घट पर्यायकी उत्पत्तिमें कुम्हार निमित्त है और जीवको अशुद्धताका निमित्त कर्म है आदि। जब तक जीवके साथ कर्मका सम्बन्ध है तभी तक ये राग, द्वेष और मोह आदि भाव होते हैं कर्मके अभावमें नहीं। इसीसे संसारका मुख्य कारण कर्म कहा गया है। घर, पुत्र, स्त्री, धन आदिका नाम संसार नहीं है। वह तो जीवकी अशुद्धता है जो कर्म के सद्भाव में ही पाई जाती है इसलिये ससार और कर्मका अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । जबतक यह सम्बन्ध बना रहता Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण है तबतक यह चक्र यों ही धूमा करता है। इसी यातको विस्तारसे स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकायमें लिखा है- ।। 'जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादा होदि गदीसु गदी ।।१२८|| गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते । तेहिं दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥१२॥ जायदि जीवस्सेव भावो संसारचकवालम्मि । 'जो जीव ससारमें स्थित है उस के राग द्वेपरून परिणाम होते है। परिणार्मोसे कर्म बंधते हैं। कर्मोंसे गतियों में जन्म लेना पड़ता है। इससे शरीर होता है। शरीरके प्राप्त होनेसे इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियोंसे विपयोंका ग्रहण होता है। विषय ग्रहणसे राग और दूपरूप परिणाम होते हैं। जो जीव संसार-चक्रमें पड़ा है उसकी ऐसी अवस्था होती है।' इस प्रकार संसारका मुख्य कारण कर्म है यह ज्ञात होता है। कर्म का स्वरूप-कर्मका मुख्य अर्थ क्रिया है। क्रिया भनेक प्रकारकी होती है। हमैना, खेलना, कूदना, उठना, बैठना, रोना, गाना, जाना, भाना आदि ये सब क्रियाएँ हैं। क्रिया जड़ और चेतन दोनों में पाई जाती है। कर्मका सम्बन्ध आत्मासे है अतः केवल जड़की क्रिया यहाँ विवक्षित नहीं है । और शुद्ध जीव निष्क्रिय है। वह सदा ही श्राज्ञाशके समान निर्लेप और भित्तीमें उकीरे गये चित्रके समान निष्कम्प रहता है । यद्यपि जैन दर्शन में जड़ चेतन समो पदार्थोंको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाववाला माना गया है। यह स्वभाव क्या शुद्ध और क्या अशुद्ध सब पदार्थोंका पाया जाता है। किन्तु यहाँ क्रियाका अर्थ परिस्पद लिया है। परिस्पन्दात्मक क्रिया सब पदार्थों की नहीं होती। वह पुदगल और संसारी जीवके ही पाई जाती है। इसलिये प्रकृत में Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना कर्मका अर्थ सेमारी जीवको क्रिया लिया गया है। आशय यह है कि संपारी जीव के प्रति समय परिस्पन्दात्मक जो भी क्रिया होती है वह फर्म कहलाता है। यद्यपि कर्मका मुख्य अर्थ यही है तयापि इसके निमित्तमे नो पुद्गल परमाणु ज्ञानावरणादिमिावको प्राप्त होते है वे भी कर्म कहलाते है। अमृतचन्द्र पूरिने प्रवचनमारको टोकामें इसी भावका दिसझाते हुए लिखा है "क्रिया खल्वात्मना प्राप्य नाकर्म तन्निनितप्राप्त परिणाम पुद्गलोऽपि कर्म ।' पृ० १६५ ।। जैनदर्शनमें क्रम के मुख्यतया दो भेद किर गये हे द्रव्यम और भावकम । ये भेद जातिको अपेक्षासे नहीं किो जाकर कार्यकारणमाको अपेक्षामे किये गये हैं। महाकालरे जोव वद्ध और अशुद्ध इन्होंने कारण हो रहा है। जो पुद्गल परमाणु श्रात्मासे सम्बद्ध होकर ज्ञानाटि मात्रों का घात करते हैं और भात्मामें ऐपो यारयता लानेमें निमित्त होते हैं जिससे वह विविध शरीर भादिको धारण कर सके उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं। तया यात्माके जिन भावोंसे इन द्रव्य कर्मों का उपस सम्बन्ध होना है वे भावकर्म कहलाते हैं। द्रव्य कर्म की चर्चा करते हुए अकलक देवने राजवतिकमें लिखा है_ 'यथा भाजनविशेपे प्रतितानां विविवरसवीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणाम. तथा पुद्गलनामपि आत्मनि स्थितानां योगकपायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्य । ___जैसे पात्र विशेषमें डाले गये अनेक रसवाले याज, पुष्प और फलोंका मदिरारूपसे परिणमन होता है उसी प्रकार मात्मामें स्थित पुदगलों का भी योग क्या कपायके कारण कर्मरूपसे परिणमन होता है।' योग और पायके विना पुदगल परमाणु क्रममावको नहीं प्राह Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण होते इसलिये योग और कपाय तथा कर्मभावको प्राप्त हुए पुदगल परणाणु ये दोनों कर्म कहलाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।। कर्मवन्धके हेतु-यह हम पहले ही बतला भाये हैं कि भात्मा मिथ्यात्व (अतत्वश्रद्धा या तत्त्वचिका प्रभाव) अविरति (त्यागरूप परिणतिका अभाव ) प्रमाद ( अनवधानता ) कषाय (क्रोधादिभाव ) और योग (मन, वचन और कायका व्यापार ) के कारण अन्य द्रव्यसे बन्धको प्राप्त होता है। पर इनमें बन्धमानके प्रति योग और कपायकी प्रधानता है। आगे वन्धके चार भेद बतलानेवाले हैं उनमेंसे प्रकृति. बन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे होता है तथा स्थिति बन्ध और अनुभाग वन्ध कायसे होता है। आगममें योगको गरम लोहेकी और कपायको गोंदकी रुपमा दी गई है। जिस प्रकार गरम लोहेको पानी में डालने पर वह चारों ओरसे पानीको खींचता है ठीक यही स्वभाव योगका है और जिस प्रकार गोंदके कारण एक कागज दूहरे कागजसे चिपक जाता है ठीक यही स्वभाव कपायका है। योगके कारण म परमाणुओंका मानव होता है और पायके कारण वे बंध जाते हैं। इसलिए कर्मवन्धके मुख्य कारण पाँच होते हुए भी उनमें योग और कपायकी प्रधानता है। प्रकृति मादि चारों प्रकारके बन्धके लिये इन दो का सद्भाव अनिवार्य है। जब कर्मके भवान्तर भेदों में कितने कर्म किस हेतुसे वंधते हैं इत्यादि रूपसे हमवन्धके सामान्य हेतुओंका वर्गीकरण किया जाता है तब चे पाँच प्राप्त होते हैं और जब प्रकृति श्रादि चार प्रकारके बन्धोंमें (१) 'मित्वात्वाविरतिप्रमादकपाययोगा' बन्धहेतव ।' --त. सू०८-१॥ (२) 'जोगा पयडिपदेसा ट्ठिदिनणुभागो कसायदो होदि।' -द्रव्य गा० ३१। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना कौन यन्ध किस हेतुसे होना है इसका विचार किया जाता है तब ये दो प्राप्त होते हैं। ये नयन्धके मामान्य कारण हैं विशेष कारण जुदे-जुदे है। वार्थमत्रमें विशेष कारणों का निर्देश मात्र स्थानमें किया गया है। कर्मके भेद-जैनदर्शन प्रत्येक गन्यमें अनन्त शक्तियां मानता है। जीव मी एक हव्य है अत उममें भी अनन्त शक्तियां हैं। जब यह संसार दशामें रहता है तर उसकी वे शक्तियां कर्ममे प्रावृत रहती है। पटन कर्म भन्न भेद हो जाते है। किन्तु जोवकी मुख्य शक्तियोंकी अपेक्षा कमके पाठ भेद किये गये हैं। यया, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । ज्ञानावरण-जीवनी ज्ञान-शक्तिको आवरण करनेवाले कर्मकी ज्ञानावरण मक्षा है। इसके पांच मेद है। ___दर्शनावरण-जीवको दर्शन शक्तिको भावरण करनेवाले कर्मको दर्शनावरण सज्ञा है। इसके नौ भेद है। वेदनीय-मुख और दु.स्वका वेदन करानेवाले फर्मकी वेदनीय संज्ञा है। इसके दो भेद हैं। मोहनीय-राग, द्वेष और मोहको पैदा करनेवाले कर्मकी मोहनीय संज्ञा है। इसके दर्शन मोहनीय और चारिन मोहनीय ये दो भेद हैं। दर्शनमोहनीयके तीन और पारित्रमोहनीयके पत्रीस भेद है। श्रायु-नरकादि गतियों में भवस्यानके कारणभूत कर्मको आयुसज्ञा है। इसके चार भेद है। नाम-नाना प्रकार के शरीर, वचन और मन तथा जीवकी विविध अवस्थाओंके कारणभूत कर्मको नाम संज्ञा है। इसके तेरानवे भेद है। गोत्र-नीच, उच्च सन्तान (परम्परा) के कारणभूत कर्मकी गोत्र सज्ञा है। इसके दो भेद है। जैनधर्म जाति या भाजीवका कृत नीच उच्च मेटन Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ समतित्राप्रकरण मानकर इसे गुरकून मानता है। अच्छे श्राधारखालकी परम्परा जो जन्म देते हैं या जो ऐसे लोगोंकी मत्संगति करते हैं या जो मानवोचित चाचारको जीवन में है माने गये है और जिनकी स्पिति इनके बिन्दु है वे गोत्र माने गये है। नीचगोत्री बुरे आवारका त्याग करके पोत्री हो सकता है । चैन बसके अनुसार ऐसे जीवको श्रावक और सुनि होने पूरा अधिकार है । अन्तराय - जीवके दानादि मात्र प्रकट न होने के निमित कर्मकी अन्तरान संज्ञा है। इसके पाँच मे हैं। ये सब कर्म यन चार भागों में बटे हुए हैं जीवविपाकी, दुलविपाकी, क्षेत्रविपाकी और विपाकी । जिनका विपाक जीवमें होता है ये जीवविपी हैं । जिन्का दिपा जीवने एक क्षेत्रवाह प्राप्त हुए डुगलों में होता है वे विपाकी हैं। जिका विपाकी है और farst fame क्षेत्र विपाक में होता है वे विशेष होता है वे क्षेत्र विपाकी हैं। 3 ये और पापके भेद दो प्रकार है। ये भेद अनुभाग बन्धकी रुपेलासे किये गये हैं । दान, पूजा, मन्दकषाय, साधुसेवा आदि शुभ परिणामोंमें जिन कमाउन्ट अनुभाग प्राप्त होता है वे पुण्यकर्म हैं। और मदिरारान, मांसवन, परस्त्री गमन, शिकार करन्न हुन खेलना, रात्रि भोजन करना, सुरे भाव रखना, वी दगाबाजी करना आदि शुभ परिणामोंसे दिन कमोंका स्कट अनुभाव प्राप्त होता है वे पापकर्म हैं। अनुभाग-चि घाति और स्वातिके मेमे दो प्रकारको है । घातिरूप अनुभागशष्टि के तारतम्या अपेक्षामे चार भेद हो जावे हैं। ना, दात (लकड़ी ) तन्यि और शैल | यह पापरूप ही होती है । किन्तु विरूप धनुभागशक्ति पुण्य और पाप दोनों प्रकारकी होती है। इससे प्रत्येकके चार चार मे है। गुड़, सांड, शक्श और अमृत के Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्तावना पुण्यन्दर अनुमाग पति के चार भेट है और निम्त्र, कीर विष और हमाहन्न ये पापरूप अनुमागशक्ति के पार भेद है। जिसका नेपा नाम है वैमा दमका फल है। जीवके गुण (गति ) दो भागोंमें पटे हुए है अनुजीवीगुण और प्रनिजीबी गुग | जिन गुणोंका मटुमाव केवल जीव में पाया जाता है वे अनुनोत्री गुम है और जिनका समाव जीवमें पाया जाकर भी जीवके मित्रा अन्य द्रव्यों भी यथायोग्य पाया जाता है वे प्रनिजीवी गुण है। इन गुणों के कारण हो को घाति और अवानि ये भेद किये गये हैं। जान, दर्शन, सम्यक्त्व, परित्र, वीर्य, लाम, दान, भोग, उपभोग और सुम्ब ये अनुजीवी गुण है। ज्ञानावरण, वर्णनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये कर्म गुणोंका घात करनेवाले होनेमे धातिकर्म है और शेष भवामि कम है। कर्मी विविध अवस्थाएँ -जीवकी प्रति समय जो अवस्था होती है मका चित्र कर्म है । यद्यपि जीवकी वह अवस्था टपी समय नष्ट हो जाती है अन्य समयमें अन्य होती है पर मम्झाररूपमे वह कर्ममें भकित रहती है। प्रनि समयके कम जुढे-जुटे है। और जब तक ये फल नहीं दे लेते नष्ट नहीं होने । पिना मांगे कमका क्षय नहीं। 'नामुक्तं क्षीयते कर्म ।' धर्मका भोग विविध प्रकारसे होता है। कभी जैमा फर्मका मंचय किया है उसी रूपमें उसे भोगना पड़ता है। कमी न्यून, अधिक या विपरीनरूपमे उसे भोगना पड़ता है। कमी दो कर्म मिलकर एक काम करते हैं। माता और अपाता इनके काम जुदे जुटे है पर कभी ये दोनों मिलकर मुन्न या दुम्न किसी एक को जन्म देते हैं। कमी एक कर्म विमक होकर विभागानुमार काम करता है। उदाहरणार्थ मिथ्यात्वका मिथ्यात्व, मम्यग्मियादव और मम्यक् प्रकृतिरूपसे विमाग हो जानेपर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तलिकाप्रकरण इनके कार्य भी जुदे जुदे हो जाते हैं। कभी नियत कालके पहले फर्म अपना कार्य करता है तो कभी नियत कालसे बहुत समयवाद इसका फल देखा जाता है। जिस कर्मका जैसा नाम, स्थिति और फलदान शक्ति है उसीके अनुसार उसका फल मिलता है यह साधारण नियम है। भतवाद इसके अनेक हैं। कुछ कर्म ऐसे अवश्य है जिनकी प्रकृति नहीं बदलती । उदाहरणार्थ चार भायुकर्म । आयु कर्मों में जिस भायुका बन्ध होता है उसीरूपमें उसे भोगना पड़ता है। उसके स्थिति अनुभागमें उलट फेर भले ही हो जाय पर भोग उनका अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार ही होता है। यह कभी सम्भव नहीं कि नरकायुको तिय. चायुरूपसे भोगा जा सके या तिर्यंचायुको नरकायुरूपसे भोगा जा सके । शेष फर्मोंके विषयमें ऐसा कोई नियम नहीं है। मोटा नियम इतना अवश्य है कि मूल कर्म में बदल नहीं होता। इस नियमफे अनुसार दर्शनमोहनीय और चरित्रमोहनीय ये मूल कर्म मान लिये गये हैं। कर्मकी ये विविध अवस्थाएं हैं जो बन्ध समयसे लेकर उनकी निर्जरा होने तक यथासम्भव होती हैं । इनके नाम ये है बन्ध, सत्व, उत्कर्पण, अपकर्षण, सक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशान्त, निधत्ति और निकाचना। ___ बन्ध-कर्मवर्गणाओंका आत्मप्रदेशोंसे सम्बद्ध होना बन्ध है। इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद हैं। जिस कर्मका जो स्वभाव है वह उसकी प्रकृति है। यथा ज्ञानावरणका स्वभाव ज्ञानको भावृत करना है। स्थिति कालमर्यादाको कहते हैं। किस कर्मकी जघन्य और उत्कृष्ट कितनी स्थिति पड़ती है इस सम्बन्धमें अलग अलग नियम हैं। अनुभाग फलदान शकिको कहते हैं । प्रत्येक कर्ममें न्यूनाधिक फल देनेकी योग्यता होती है। प्रति समय बंधनेवाले कर्मके परमाणुओं की परिगणना प्रदेशबन्धमें की जाती है। , सत्त्व-बंधने के बाद कर्म भात्मासे सन्बद्ध रहता है। तत्काल Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रस्तावना ४१ तो वह अपना काम करता ही नहीं। किन्तु जब तक वह अपना काम नहीं करता है तब तक उसकी वह अवस्था सत्ता नामसे अभिहित होती है। उत्कर्षण श्रादिके निमित्तसे होनेवाले अपवादको छोड़कर साधारणत प्रत्येक कार्मका नियम है कि वह बंधने के बाद कासे काम करने लाता है। वीचमें जितने काल तक काम नहीं करता है उसकी भावाधाकाल सज्ञा है । भावाधाकालके बाद प्रति समय एक एक निपेक काम करता है । यह क्रम विवक्षित कर्मके पूरे होने तक चालू रहता है। आगममें प्रथम निपेककी श्राबाधा दी गई है। शेष निषेकोंकी आवाधा क्रमसे एक एक समय बढ़ती जाती है। इस हिसाबसे अन्तिम निषेकी आवाधा एक समय कम कर्मस्थिति प्रमाण होती है। आयुकर्मके प्रथम निषेककी श्राबाधाका क्रम जुदा है। शेष क्रम समान है। उत्कर्पण-स्थिति और अनुभागके बढ़ानेकी उत्कर्षण सज्ञा है। यह क्रिया बन्धके समय ही सम्भव है। अर्थात् जिस कर्मका स्थिति और अनुभाग बढ़ाया जाता है उसका पुन. बन्ध होने पर पिछले बधे हुए कर्मका नवीन बन्धके समय स्थिति अनुभाग बढ़ सकता है। यह साधारण नियम है। अपवाद भी इसके अनेक हैं। ___ अपकर्षण-स्थिति और अनुमागके घटानेकी अपकर्षण संज्ञा है। कुछ अपवादोंको छोड़कर किसी भी कर्मकी स्थिति और अनुभाग कम किया जा सकता है। इतनी विशेषता है कि शुभ परिणामोंसे अशुभ कर्मों का स्थिति और अनुभाग कम होता है। तथा अशुभ परिणामोंसे शुभ कर्मोंका स्थिति और अनुभाग कम होता है। __सक्रमण-एक कर्म प्रकृतिके परमाणुओंका सजातीय दूसरी प्रकृतिरूप हो जाना सक्रमण है यया असाताके परमाणुनोंका सातारूप हो जाना। मूल काँका परस्पर संक्रमण नहीं होता। यथा ज्ञानावरण दर्शनावरण नहीं हो सकता । प्रायुकर्मके भवान्तर भेदोंका परस्पर Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण सक्रमण नहीं होता और न दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयरूपसे या चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयरूपसे ही मंक्रमण होता है। उदय-प्रत्येक कर्मका फल काल निश्चित रहता है। इसके प्राप्त होने पर कर्मके फल देनेरूप अवस्थाको उदय संज्ञा है। फल देनेके बाद उम कर्मकी निर्जरा हो जाती है। आत्मासे जितने जातिके कर्म सम्बद्ध रहते हैं वे सब एक साथ अपना काम नहीं करते। उदाहरणार्थ साताके समय अमाता अपना काम नहीं करता। ऐसी हालत में असाता प्रति ममय सातारूप परिणमन करता रहता है और फल भी इसका मातारूप ही होता है। प्रति समय यह क्रिया उदय काल के एक समय पहले हो लेती है। इतना सुनिश्चित है कि बिना फल दिये कोई भी कर्म जीर्ण नहीं होता। उदीरणा-फल झाल के पहले कर्मके फल देनेरूप भवस्याकी उदीरणा सज्ञा है। कुछ अपवादोंको छोड़कर साधारणत. कर्मों का उदय भार उदीरणा सर्वदा होती रहती है। त्यागवश विशेष होती है। उदीरणा उन्हीं कर्मों की होती है जिनका उदय होता है। अनुदय प्राप्त कर्मोंकी उदीरणा नहीं होती। उदाहरणार्थ जिस मुनिके साताका उदय है इसके अपकर्षण माता और भसाता दोनोंका होता है किन्तु उदीरणा साताकी ही होती है। यदि उदय बदल जाता है तो उदीरणा मी बदल जाती है इतना विशेष है। उपशान्त-कर्मकी वह अवस्था जो उदीरणाके अयोग्य होती है उपशान्त कहलाती है। उपशान्त भवस्थाको प्राप्त कर्मका उत्कर्षण अपकर्षण और संक्रमण हो सकता है किन्तु इसकी उदीरणा नहीं होती। निपत्ति-कर्मकी वह अवस्था जो उदीरणा और संक्रम इन दो के अयोग्य होती है निधत्ति कहलाती है। नित्ति अवस्था को प्राक्ष Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना कर्मका उत्कर्षण और अपकर्षण हो सकता है किन्तु इसका उदीरणा और संक्रम नहीं होता। निकाचना-कर्मकी वह अवस्था जो उत्कर्पण, अपकर्षण, उदीरणा और सक्रम इन चारफे अयोग्य होती है निकाचना कहलाती । इसका स्वमुखेन या परमुखेन उदय होता है। यदि अनुदय प्राप्त होता है तो परमुसेन उदय होता है नहीं तो स्वमुखेन ही उदय होता है। उपशान्त और निधत्ति अवस्था को प्रात कर्म का उदयके विषय में यही नियम जानना चाहिये। यहा इतना विशेष जानना चाहिये कि मातिशय परिणामों से कर्म की उपशान्त, निर्धात और निकाचनारूप अवस्थाएं बदली भी जा सकती हैं। ये कर्म की विविध अवस्थाए हैं जो यथायोग्य पाई जाती हैं। कर्म की कार्य मर्यादा-कर्मका मोटा काम जीवको समारमें रोक रखना है। परावर्तन ससारका दूसरा नाम है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके भेदसे वह पांच प्रकारका है। कर्मके कारण ही जीव इन पांच प्रकारके परावर्तनों में घूमता फिरता है। चौरासी लाख योनियां और उनमें रहते हुए जीवकी जो विविध अवस्थाएँ होती है उनका मुख्य कारण फर्म है। स्वामी ममन्तभद्र आप्तमीमांसामें कर्मके कार्यका निर्देश करते हुए लिखते हैं कामादिप्रभवचित्रः कर्मवन्धानुरूपतः । 'जीवकी काम क्रोध आधि रूप विविध अवस्थाएँ अपने अपने कर्म के अनुरूप होती हैं।' यात यह है कि मुक दशामें जीवकी प्रति समय जो स्वाभाविक परिणति होती है उसका अलग अलग निमित्त कारण नहीं है, नहीं तो उसमें एकरूपता नहीं बन सकती। किन्तु ससारदशामें वह परिणति प्रति समय जुदी जुदी होती रहती है इसलिये उसके जुदे जुदे Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ सप्ततिकाप्रकरण निमित्त कारण माने गये हैं। ये निमिच सस्कार रूपमें श्रात्मासे सम्बद्ध होते रहते हैं और तदनुकूल परिणति के पैदा करने में सहायता प्रदान करते हैं। जीवकी अशुद्धता और शुद्धता इन निमित्तों के सहमाव और भसद्भाव पर आधारित है। जब तक इन निमित्तोंका एक क्षेत्रावगाह सश्लेशरूप सम्बन्ध रहता है तब तक अशुद्धता बनी रहती है और इनका सम्बन्ध छूटते ही नीव शुद्ध दशाको प्राप्त हो जाता है। जैन दर्शनमें इन्हीं निमित्तोंको कर्म शब्दसे पुकारा गया है। ऐसा भी होता है कि जिस समय जैसी बाह्य सामग्री मिलती है उस समय उसके अनुकूल अशुद्ध आत्माकी परिणति होती है। सुन्दर सुस्वरूप स्त्रीके मिलने पर राग होता है। जुगुप्पाकी सामग्री मिलने पर ग्लानि होती है। धन समितिको देखकर लोम होता है और लोभवश उसके अर्जन करने, छीन लेने या चुरा लेनेको भावना होती है। ठोकर लगने पर दुख होता है और और माला का सयोग होने पर सुख । इसलिये यह कहा जा सकता है कि केवल कर्म ही आत्माको विविध परि. एतिके होनेमें निमित्त नहीं हैं किन्तु अन्य सामग्री भी उसका निमित्त है अत. कर्मका स्थान बाह्य सामग्रीको मिलना चाहिये । ___ परन्तु विचार करने पर यह युक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि अन्तरंग में वैसी योग्यताके अभावमें बाह्य सामग्रो कुछ भी नहीं कर सकती हैं। जिस योगीके रागभाव नष्ट हो गया है उसके सामने प्रबल रागकी सामग्री उपस्थित होने पर भी राग पैदा नहीं होता। इससे मालूम पड़ता हैं कि अन्तरंगमें योग्यताके बिना बाह्य सामग्रीका कोई मूल्य नहीं है। यद्यपि कर्मके विषयमें भी ऐसा ही कहा जा सकता है पर कर्म और बाह्य सामग्री इनमें मौलिक नन्तर है। कर्म चैनी योग्यताका सूचक है पर बाह्य सामग्रीका वैसी योरपतासे कोई सम्बन्ध नहीं। कमी वैसी योग्यताके सहभावमें भी वाह्य सामग्री नहीं मिलती और कभी उसके अभावमें भी बाह्य सामग्रीका संयोग Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४५ देखा जाता है । किन्तु कर्मके विषय में ऐसी बात नहीं है । उसका सबंध तभी तक भात्मासे रहता है जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है । भत. कर्मका स्थान बाह्य सामग्री नहीं ले सकती । फिर भी अन्तरगमें योग्यता के रहते हुए बाह्य सामग्रीके मिलने पर न्यूनाधिक प्रमाण में कार्य तो होता ही है इसलिये निमितोंकी परिगणनामें बाह्य सामग्री की भी गिनती हो जाती है । पर यह परम्परा निमित्त है इसलिये इसकी परिगणना नोकर्म स्थानमें की गई है । इतने विवेचनले कर्मकी कार्य मर्यादाका पता लग जाता है । कर्मके निमित्तसे जीव की विविध प्रकारकी अवस्था होती है और जीवमें ऐसी योग्यता श्राती है जिससे वह योग द्वारा यथायोग्य शरीर, वचन और मनके योग्य पुग्दलों को ग्रहण कर उन्हें अपनी योग्यतानुसार परिणमाता है । } कर्मकी कार्यमर्यादा यद्यपि उक्त प्रकारकी है तथापि अधिकतर विद्वानों का विचार है कि बाह्य सामग्रीको प्राप्ति भी कर्मसे होती है इन विचारों की पुष्टिमें वे मोक्षमार्ग प्रकाशके निम्न उल्लेखों को उपस्थित करते हैं—'हाँ वेदनीय करि तौ शरीर दिपै वा शरीर तै वाह्य नाना प्रकार सुख दुखनिको कारण पर द्रव्य का सयोग जुरै है ।' पृ० ३५ उसीसे दूसरा प्रमाण वे यों देते हैं 'बहुरि कर्मनि विषै वेदनीयके उदयकरि शरीर विषै वाह्य सुख दुख का कारण निपजै है । शरीर दिवै श्रारोग्यपनौ रोगीपनौ शक्तिवानपनौ दुर्बलपन भर क्षुधा तृपा रोग खेट पीडा इत्यादि सुख दुखनिके कारण हो हैं । बहुरि बाह्य विषै सुहावना ऋतु पवनादिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक वा मित्र धनादिक सुख दुःखके कारक हो हैं । पृ० ५६ । इन विचारोंकी परम्परा यहीं तक नहीं जाती है किन्तु इससे पूर्व - वर्ती बहुतसे लेखकोंने भी ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं। पुराणों में पुण्य और पापकी महिमा इसी आधारसे गाई गई है। अमितिगति के सुभाषित रत्न सन्देह में दैवनिरूपण नामका एक अधिकार है । उसमें भी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६' सप्ततिकाप्रकरण ऐसा ही चतलाया है । वहाँ लिखा है कि पापी जीव समुद्रमें प्रवेश करनेपर भी रत्न नहीं पाता किन्तु पुण्यात्मा जीव तट पर बैठे ही उन्हें प्राप्त कर लेता है । यथा जलधिगतोऽपि न कचित्कश्चित्तटगोऽपि रत्नमुपयाति । किन्तु विचार करने पर उक्त कथन युक्त प्रतीत नहीं होता | खुलासा इस प्रकार है कर्म के दो भेद हैं जीवविपाकी और पुदुगलविपाकी । जो जीवको विविधि अवधा और परिमाणोंके होनेमें निमित्त होते हैं वे जीवविपाकी कर्म कहलाते हैं । और जिनसे विविध प्रकारके शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छवास की प्राप्ति होती है वे पुद्गलविपाकी कर्म कहलाते है । इन दोनों प्रकारके कमों में ऐसा एक भी कर्म नहीं बतलाया है जिसका काम वाह्य सामग्रीका प्राप्त कराना हो । सानावेदनीय और असातावेदनीय ये स्वय जीवविपाकी हैं। राजवातिक्रमें इनके कार्यका निर्देश करते हुए लिखा है — 'यस्योदयाद्देवादिगतिपु शारीरमान सुखप्राप्तिस्तत्सद्वेद्यम् । यत्फल दुःखमनेकविध तदसद्वेद्यम् ।' पृष्ठ ३०४ । इन वार्तिकों की व्याख्या करते हुए वहां लिखा है 'अनेक प्रकारकी देवादि गतियोंमें जिस कर्म के उदयसे जीवों के प्राप्त हुए द्रव्य के सम्बन्धको अपेक्षा शारीरिक और मानसिक नाना प्रकार का सुख रूप परिणाम होता है वह साता वेदनीय है। तथा नाना प्रकार की नरकादि गतियों में जिस कर्मके फलस्वरूप जन्म, जहा, मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसयोग, व्याधि, वध और बन्धनादिसे उत्पन्न हुआ विविध प्रकार का मानसिक और कायिक दु:मह दुख होता है वह असाता वेदनीय है ।' सर्वार्थसिद्धिमें जो साता वेदनीय और असातावेदनीयके स्वरूपका निर्देश किया है। उनसे भी उक्त कयनकी पुष्टि होती है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना श्वेताम्बर झार्मिक अन्यों में भी इन कोका यही धर्य किया है। ऐसी हालत में इन कमौको सनुकून व प्रतिकूल बाह्य सामग्रीके सयोग वियोगमें निमित्त मानना उचित नहीं है। वास्तवमें वर सामग्रीकी प्राप्ति अपने सपने फारगोंसे होती है। इसकी प्राप्तिका कारण कोई कर्म नहीं है। पर मोक्षमार्ग प्रकाशको जिस मतको चर्चा की इसके सिवा दो मत और मिलते हैं। जिनमें बाह्य सामग्रीको प्राधिके कारणों का निर्देश किया गया है। इनमें से पहला मत तो पूर्वोकमतमे ही मिलता जुलता है। इमरा मन छ भिज है। आगे इन दोनोंके साधारसे चर्चा कर लेना इट है (७) पट्खण्डागम जूलिका अनुयोगद्वारमें प्रकृतियों का नाम निर्देश करते हुए सूत्र १८ की टीज्ञामें वीरसेन स्वामीने इन कमोझी विस्तृत चर्चा की है। वहां सर्वप्रथम उन्होंने साता और ससाता वेदनीयका वही स्वरूप दिया है जो सर्वासिद्धि सादिमें पतलाया गया है। किन्तु शंका समाधान प्रसंगले उन्होंने सातावेदनीयको जीवविपाकी भौर पुदगलविपाकी रमयरूप सिद्ध करने का प्रयत्न क्यिा है। इस प्रकरणकै बारनेसे ज्ञात होता है कि वीरसेन स्वामीका यह मत या कि सातावेदनीय और भसाता वेदनीयका काम सुख दुखको स्त्रब करना तया इनकी सामग्रीको जुटाना दोनों है। (२) तत्वार्थमूत्र अध्याय २ सूत्र ४ की सर्वार्थसिदि शामें वाह सामग्रीको प्रासिके कारणों का निर्देश करते हुए लाभादिको उसका कारण बतलाया है। किन्तु सिद्धोमे मतिमसंग देने पर लाभादिके साथ शरीर नामम नादिकी अपेक्षा सौर लगा दी है। ये दो ऐसे मत हैं जिनमें बाह्य सामग्रीको प्राप्तिका क्या कारण है इसका स्पष्ट निर्देश किया है। साधुनिक विद्वान भी इनके भाधारले दोनों प्रकारके उत्तर देते हुए पाये जाते हैं। कोई वो वेदनीयको बाह्य Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण सामग्रीकी प्राप्तिका निमित्त बतलाते हैं और कोई लाभान्तराय आदिके क्षय व क्षयोपशमको। इन विद्वानोंके ये मत उक प्रमाणोंके बलसे भले ही बने हों किन्तु इतने मात्रसे इनकी पुष्टि नहीं की जा सकती क्योंकि उक्त कथन मूल कर्मव्यवस्थाके प्रतिकूल पहता है। यदि थोडा बहुत इन मतोंको प्रश्रय दिया जा सकता है तो उपचारसे ही दिया जा सकता है। वीरसेन स्वामीने तो स्वर्ग, मोगभूमि और नरकमें सुख दुखकी निमित्तभूत सामग्रोके साथ वहाँ उत्पन्न होनेवाले जीवोंके साता और असाताके उदयका सम्बन्ध देखकर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि वाद्य सामग्री साता और असाताका फल है। तथा पूज्यपादस्वामीने ससारी जीवमें बाह्य सामग्रीमें लाभादिरूप परिणाम लाभान्तराय भादिके क्षयोपशमका फल जानकर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि लाभान्तराय श्रादिके क्षय व क्षयोपशमसे बाद्य सामग्रीकी प्राप्ति होती है। तत्वतः बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति न तो साता असाताका ही फल है और न लाभान्तराय आदि कर्मके क्षय व क्षयोपशमका ही फल है। बाह्य सामग्री इन कारणोंसे न प्राप्त होकर अपने अपने कारणोंसे ही प्राप्त होती है। उद्योग करना, व्ययसाय करना, मजदूरी करना, व्यापारके साधन जुटाना, राजा महाराजा या सेठ साहुकारकी चाटुकारी करना, उनसे दोस्ती जोड़ना, भर्जित धनकी रक्षा करना, उसे व्याज पर लगाना, प्राप्त धनको विविध व्यवसायोंमें लगाना, खेती वाही करना, झांसा देकर ठगी करना, जेब काटना, चोरी करना, जुश्रा खेलना, भीख मागना, धर्मादयको संचित कर पचा जाना आदि बाद्य सामग्रीकी प्राप्तिके साधन है। इन व अन्य कारणोंसे बाह्य सामग्री की प्राप्ति होती है उक्त कारणोंसे नहीं। शंका-इन सब बातोंके या इनमें से किसी एकके करने पर भी हानि देखी जाती है सो इसका क्या कारण है ? Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना समाधान-प्रयत्नकी कमी या वाह्य परिस्थिति या दोनों । शका कदाचित् व्यवसाय आदिके नहीं करने पर भी धनप्राप्ति देसी जाती है सो इसका क्या कारण है ? ४६ समाधान- यहाँ यह देखना है कि वह प्राप्ति कैसे हुई है क्या किमी के देने से हुई या कहीं पढा हुआ धन मिलने से हुई है ? यदि किसीके देनेस हुई है तो इसमें जिसे मिला है उसके विद्या श्रादि गुण कारण है या देनेवालेको स्वार्थसिद्धि प्रेम आदि कारण है । यदि कहीं पटा हुआ धन मिलने से हुई है तो ऐसी धनप्राप्ति पुण्योदयका फल कैसे कहा जा सकता है । यह तो चोरी है । भत, चोरी के भाव इम धन वाप्तिमें कारण हुए न कि साताका उदय | शका - दो आदमी एक साथ एकमा व्यवसाय करते हैं फिर क्या कारण है कि एक को लाभ होता है और दूसरेको हानि ? समाधान - व्यापार करने में अपनी अपनी योग्यता और स समयकी परिस्थिति श्रादि इसका कारण है पाप पुण्य नहीं । सयुक्त व्यापार में एक को हानि और दूसरे को लाभ हो तो कदाचित् हानि लाभ पाप पुण्यका फल माना भी जाय । पर ऐसा होता नहीं, अतः हानि लाभको पाप पुण्यका फल मानना किसी भी हालत में उचित नहीं है । शका-पदि वाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य पापका फल नहीं है तो फिर एक गरीब और दूसरा श्रीमान् क्यों होता है ? समाधान--- एकका गरीब और दूसरेका श्रीमान् होना यह व्यवस्था का फल है पुण्य पापका नहीं । जिन देशों में पूँजीवादी व्यवस्था है और व्यक्तिगत संपतिके जोड़ने की कोई मर्यादा नहीं वहाँ अपनी अपनी योग्यता व साधनों के अनुसार लोग उसका संचय करते हैं और इसी व्यवस्थाके अनुसार गरीब अमीर इन वर्गों की सृष्टि हुआ करती है। गरीब और अमीर इनको पाप पुण्यका फल मानना किसी भी हालत में उचित नहीं है । रूपने बहुत कुछ अशोंमें इस व्यवस्थाको तोड़ घ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सप्ततिकाप्रकरण दिया है इसलिये यहाँ इस प्रकारका भेद नहीं दिखाई देता है फिर भी वहाँ पुण्य और पाप तो है ही। सचमुच में पुण्य और पाप तो वह है नो इन वाह्य व्यवस्थाओं के परे हैं और वह है आध्यात्मिक । जैन फर्मशास्त्र ऐसे ही पुण्य पापका निर्देश करता है। शंका-यदि वाह्य सामग्रीका लामालाभ पुण्य पापका फल नहीं है तो सिद्ध जीवों को इसकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ? समाधान-बाह्य सामग्रीका सद्भाव नहीं है वहीं उसकी प्राप्ति सम्भव है। यों तो इपकी प्राप्ति जड़ चेतन दोनोंको होती है। क्योंकि तिजोड़ीमें भी धन रखा रहता है इसलिये उसे भी धनकी प्राप्ति कही जा सकती है। किन्तु जड़के रागादि भाव नहीं होता और चेतनके होता है इसलिये वही उसमें ममकार और महकार भाव करता है। शंका-यदि वाह्य सामग्रीका लाभालाम पुण्य पापका फल नहीं है तो न सही पर सरोगता और नीरोगता यह तो पाप पुण्यका फल मानना ही पड़ता है ? समाधान-सरोगता और नीरोगता यह पाप पुण्यके उदयका निमित्त भले ही हो जाय पर स्वयं यह पाप पुण्यका फल नहीं है । जिस प्रकार वाह्य सामग्री अपने अपने कारणोंसे प्राप्त होती है उसी प्रकार सरोगता और नीरोगता भी अपने अपने कारणोंसे प्राप्त होती है। इसे पाप पुण्यका फल मानना किसी भी हालतमें उचित नहीं है। शंका-सरोगता और नीरोगताके क्या कारण हैं ? समाधान-अस्वास्थ्यकर माहार, विहार व संगति करना आदि सरोगताके कारण हैं और स्वास्थ्यवर्धक आहार, विहार व संगति करना आदि नीरोगता के कारण हैं। इस प्रकार कर्मको कार्यमर्यादाका विचार करनेपर यह स्पष्ट हो वाता है कि कर्म वारा सम्पत्तिफे संयोग वियोगका कारण नहीं है। उसकी वो मर्यादा उतनी ही है जिसका निर्देश हम पहले कर आये Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनी ५१ हैं। हाँ जीवके विविध भाव कर्मके निमित्तसे होते हैं और वे कहीं कहीं चाह्य सम्पत्तिके अर्जन आदिमें कारण पढते हैं इतनी बात अवश्य है। नैयायिक दर्शन-पद्यपि स्थिति ऐसी है तो भी नैयायिक कार्यमात्रके प्रति कर्मको कारण मानते हैं। वे कर्मको जीवनिष्ठ मानते हैं। टनका मत है कि चेतनगत जितनी विषमताएँ हैं उनका कारण कर्म तो है ही। साथ ही वह अचेतनगत सब प्रकारकी विपमनाओंका और टनके न्यूनाधिक सयोगोंका भी जनक है। उनके मतमे जगतमें द्वयणुक आदि जितने भी कार्य होते हैं वे किसी न किमी के उपभोगके योग्य होनेसे उनका कर्ता कर्म ही है। नैयायिकोंने तीन प्रकारके कारण माने हैं-समवायीकारण, अपमवायीकारण और निमित्तकारण। जिस द्रव्यमें कार्य पैदा होता है वह दव्य उस कार्य के प्रति समवायीकारण है। सयोग असमवायीकारण है। तथा अन्य सहकारी सामग्री निमित्तकारण है। इसमें भी काल, दिशा, ईश्वर और कर्म ये कार्यमात्रके प्रति निमित्तकारण हैं। इनकी सहायता के बिना किसी भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। ईश्वर भोर कर्म कार्यमात्रके प्रति साधारण कारण क्या है इसका खुलासा उन्होंने इस प्रकार किया है कि जितने कार्य होते हैं वे सब चेतनाधिष्ठित ही होते हैं इसलिये ईश्वर सबका साधारण कारण है। इस पर यह प्रश्न होता है कि जब सयका कर्ता ईश्वर है तब फिर उसने सबको एक-सा क्यों नहीं बनाया । वह सबको एकपे सुख, एकसे भोग और एक-सी बुद्धि दे सकता था। स्वर्ग मोक्षका अधिकारी भी सबको एकसा बना सकता था । दुखी, दरिद्र और निकृष्ट योनिवाले प्राणियोंकी उसे रचना ही नहीं करनी थी। उसने ऐसा क्यों नहीं किया ? जगवमें तो विषमता ही विषमता दिखलाई देती है। इसका अनुभव सभीको होता है। क्या जीवधारी और क्या नड़ जितने भी पदार्थ हैं उन सबकी आकृति, स्वभाव भोर जाति जुदी-जुदी हैं। एकका Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ सप्ततिकाप्रकरण ↑ मेल दूसरेसे नहीं खाता | मनुष्यको ही लीजिए। एक मनुष्यसे दूसरे मनुष्य में बड़ा अन्तर है । एक सुखी है तो दूसरा दुखी एकके पास सम्पत्तिका विपुल भण्डार है तो दूसरा दाने-दाने को. भटकता फिरता है । एक सातिशय बुद्धिवाला है। तो दूसरा निरा मूर्ख । मात्स्यन्यायका तो सर्वत्र ही बोलबाला है। बड़ी मछली छोटी मछलीको निगल जाना चाहती है । यह भेद यहीं तक सीमित नहीं है, धर्म और धर्मायतनों में भी इस भेदने श्रड्डा जमा लिया है। यदि ईश्वर ने मनुष्यको बनाया है और वह मन्दिरों में बैठा है तो उस तक सबको क्यों नहीं जाने " दिया जाता है । क्या उन दलालोंका, जो दूसरेको मन्दिर में जानेसे रोकते हैं, उसीने निर्माण किया है ? ऐसा क्यों है ? जब ईश्वरने ही इस जगतको बनाया है और वह करुणामय तथा सर्व- शक्तिमान है तव फिर उसने जगतकी ऐसी चिपम रचना क्यों की ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर नैयायिकोंने कर्मको स्वीकार करके दिया है। वे जगत की इस विषमताका कारण कर्म मानते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर J , जगतका कर्ता है तो सही, पर उसने इसकी रचना प्राणियों के कर्मानुसार की है। इसमें उसका रत्ती भर भी दोष नहीं है। जीव जैसा कर्म करता है उसीके अनुसार उसे योनि और भोग मिलते हैं । यदि अच्छे कर्म करता है तो अच्छी योनि और अच्छे भोग मिलते हैं और बुरे कर्म करता है तो बुरी योनि और बुरे भोग मिलते हैं । इसीसे कविवर तुलसीदासजीने अपने रामचरितमानस में कहा है, करम प्रधान विश्व करि राखा । 'जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥ 1 7,7 1 ईश्वरवादको मानकर जो प्रश्न उठ खड़ा होता है, तुलसीदासजीने उस प्रश्नका -इस छन्दके उत्तरार्ध द्वारा समर्थन करनेका प्रयत्न किया है । नैयायिक जन्यमात्र के प्रति कर्मको साधारण कारण मानते हैं। 2 ܙ • Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५३ उनके मतमें जीवात्मा व्यापक है इसलिये जहाँ भी उसके उपभोग योग्य कार्यकी सृष्टि होती है वहाँ उसके कम का संयोग होकर ही वैसा होता है। अमेरिकामें बननेवाली जिन मोटरों तथा अन्य पदार्थोंका भारतीयों द्वारा उपभोग होता है वे उनके उपभोकाओंके कर्मानुसार ही निर्मित होते हैं। इसीसे वे अपने उपभोकाओंके पास खिंचे चले भाते हैं। उपभोग योग्य वस्तुओंका इसी हिसावसे विभागीकरण होता है। जिसके पास विपुल सम्पत्ति है वह उसके कर्मानुसार है और जो निर्धन है वह भी अपने कर्मानुमार है। कर्म बटवारेमें कभी भी पक्षपात नही होने देता। गरीब और अमीरका भेद तथा स्वामी और सेवकका भेद मानवकृत नहीं है। अपने-अपने कर्मानुसार ही ये भेद होते हैं। ____जो जन्मसे ब्राह्मण है वह ब्राह्मण ही बना रहता है और जो शुद्ध है वह शूद ही बना रहता है। उनके कर्म ही ऐसे हैं जिससे जो जाति प्राप्त होती है जीवन भर वही बनी रहती है। कर्मवादके स्वीकार करने में यह नैयायिकोकी युक्ति है। वैशेषिकोंकी युक्ति भी इसमे मिलती जुलती है। वे भी नैयायिकोंके समान चेतन और अचेतन गत सब प्रकारको विषमताका साधारण कारण कम मानते हैं । यद्यपि इन्होंने प्रारम्भमें ईश्वरवाद पर जोर नहीं दिया । पर परवर्ती कालमें इन्होंने भी उसका अस्तित्व स्वीकार कर लिया है। जैन दनर्शनका मन्तव्य-किन्तु जैनदर्शनमें बनलाये गये कमवादसे इस मतका समर्थन नहीं होता। वहाँ कम वादकी प्राणप्रतिष्ठा मुख्यतया आध्यात्मिक आधारों पर की गई है। ईश्वरको तो जैनदर्शन मानता ही नहीं। वह निमित्तको स्वीकार करके भी कार्यके आध्यात्मिक विश्लेषण पर अधिक जोर देता है। मैयायिक वैशेषिकोंने कार्य कारण भावकी जो रेखा खींची है वह उसे मान्य नहीं। उसका मत है कि पर्यायक्रमसे उत्पन्न होना, नष्ट होना, और ध्रुव Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण रहना यह प्रत्येक वस्तुका स्वभाव है। जितने प्रकारके पदार्थ हैं उन सबमें वह क्रम चालू है। किसी वस्तुमें भी इसका व्यतिक्रम नहीं देखा जाता। अनादि कालसे यह क्रम चालू है और अनन्त कालतक चालू रहेगा। इसके मतसे जिस कालमें वस्तुकी जैसी योग्यता होती है उसीके अनुसार कार्य होता है। जो दव्य, क्षेत्र, काल और भाव जिम कार्य के अनुकूल होता है वह उसका निमित्त कहा जाता है। कार्य अपने उपादानसे होता है किन्तु कार्यनिष्पत्तिके समय अन्य वस्तुको अनुकूलता ही निमितताकी प्रयोजक है। निमित्त उपकारी कहा जा सकता है कर्ता नहीं। इसलिये ईश्वरको स्वीकार करके कार्यमात्रके प्रति उसको निमित मानना रचित नहीं है। हालीसे जैन दर्शनने जगतको अकृत्रिम और अनादि बतलाया है। उक्त कारणसे वह यावत् कार्यों में बुद्धिमानकी आवश्यकता म्वीकार नहीं करता। घटादि कार्यों में यदि बुद्धिमान् देखा भी जाता है तो इससे सर्वत्र बुद्धिमानको निमित्त मानना उचित नहीं है ऐसा इसका मन है। यद्यपि जैन दर्शन कर्मको मानता है तो भी वह यावत् कार्योंके प्रति उसे निमित्त नहीं मानता | वह जीवक्री विविध अवस्थाएँ शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास वचन और मन इन्हीके प्रति कर्मको निमित्त कारण मानता है। उसके मतसे अन्य कार्य अपने अपने कारणों से होते हैं। कर्म उनका कारण नहीं है। उदाहरणार्थ पुत्रका प्राप्त होना, उसका मर जाना, रोजगारमें नफा नुकसानका होना, दूसरेके द्वारा अपमान या सन्मानका किया जाना, अकस्मात् मकानका गिर पड़ना, फसलका नष्ट हो जाना, मनुका अनुकूल प्रतिकूल होना, अकाल या सुकालका पढ़ना, रास्ता चलते चलते अपघातका हो जाना, किसीके अपर बिजलीका गिरना, अनुकूल व प्रतिकूल विविध प्रकारके संयोगों व वियोगोंका मिलना आदि ऐसे कार्य है जिनका कारण कर्म नहीं है। भ्रमसे इन्हें कर्माका कार्य (१) उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थस्त्र अध्याय ५ सत्र ३० । - Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 88 प्रस्तावना समझा जाता है । पुत्रकी प्राप्ति होने पर मनुष्य भ्रमवश उसे अपने शुभ कर्मका कार्य समता है और उसके मर जानेपर भ्रमवश उसे अपने अशुभ कर्मका कार्य मना है । पर क्या पिताके अशुभोदयसे पुत्रकी मृत्यु या पिताके शुभोदयसे पुत्रकी उत्पत्ति सम्भव है ? कभी नहीं । मच तो यह है कि ये इष्टसयोग या इष्टवियोग आदि जितने भी कार्य हैं वे अच्छे बुरे कर्मों के कार्य नहीं । निमित्त और बात है और कार्य और बात | निमित्तको कार्य कहना उचित नहीं है । ५ गोम्मटमार कर्मकाण्ड में एक नोकर्म प्रकरण आया है। उससे भी उक्त कघनकी ही पुष्टि होती है । वहाँ मूल और उत्तर कर्मो के नोकर्म बतलाते हुए ईष्ट भन्न पान आदिको भलाता वेदनीयका, विदूषेक या बहुरूपियाको हास्यकर्मका, सुपुत्रको रतिकर्मका, इष्टदियोग और अनिष्ट संयोगको श्ररति कर्मका, पुत्रमरणको शोक कर्मका, सिंह आदिको भय कर्मका और ग्लानिकर पदार्थोंको जुगुप्सा कर्मका नोकर्म द्रव्यकर्म बतलाया है । गोम्मटसार कर्मकाण्डका यह कथन तभी बनता है जब धन सम्पत्ति और after आदिको शुभ और अशुभ कर्मो के उदय में निमित्त माना जाता है 1 कर्मो के अवान्तर भेद करके उनके जो नाम गिनाये गये हैं उनको देखने से भी ज्ञात होता है कि बाह्य सामग्रियोंकी अनुकूलता और प्रतिकूलतायें कर्म कारण नहीं हैं। वाह्य सामग्रियों की अनुकूलता और प्रतिकूलता या तो प्रयत्नपूर्वक होती है या सहज ही हो जाती है। पहले साता वेदनीयका उदय होता है और तब जाकर इष्ट सामग्रीको प्राप्ति होती है ऐसा नहीं है । किन्तु हृष्ट सामग्रीका निमित्त पाकर साता वेदनीयका हृदय होता है ऐसा है । (१) गाथा ७३ । (२) गाथा ७६ । (३) गाथा ७७ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण . . रेलगाड़ीसे सफर करने पर हमें कितने ही प्रकार के मनुप्योंका समा. गम होता है। कोई हँसता हुआ मिलता है तो कोई रोता हुआ । इनसे हमें सुख भी होता है और दुख भी। तो क्या ये हमारे शुभाशुभ कर्मों के कारण रेलगाड़ी में सफर करने आये हैं ? कमी नहीं। जैसे हम अपने काममे सफर कर रहे हैं वैसे वे भी अपने-अपने कामसे सफर कर रहे है। हमारे और उनके संयोग वियोगमें न हमाग कर्म कारण है और न उनका ही कर्म कारण है । वह संयोग या वियोग या तो प्रयत्नपूर्वक होता है या काकत्तालोर न्यायमै बहन होता है। इसमें किसीचा कर्म कारण नहीं है। फिर भी यह अच्छे बुरे कर्मके स्वयमें महायक होता रहता है। नैयायिक दर्शनकी पालोचना-इम व्यवस्थाको ध्यानमें रखकर नयायिकोंके कर्मवादी मालोचना करने पर उसमें अनेक दोष दिखाई देते हैं। वास्तवमें देखा जाय तो भाजकी सामाजिक व्यवस्या, आर्थिक व्यवस्था और एकतन्त्रक प्रति नैयायिकोंका ईश्वरवाद और कर्मवाद ही उत्तरदायी है। इमीने भारतवर्षको चालू व्यवस्थाका गुलाम बनाना सिवाया । जातीयताका पहाड़ राद दिया। परिमहचादियोंको परिग्रहके मविकाधिक संग्रह करनेमें मदद दी। गरीबीको कर्मका दुर्विपाक वताकर सिर न उठाने दिया | स्वामी सेवक भाव पैदा किया । ईश्वर और कर्मके नाम पर यह सब हमसे कराया गया। धर्मने भी इसमें मदद की। विचारा कर्म तो बदनाम हुमा ही, धर्मको भी बदनाम होना पड़ा। यह रोग भारतवर्ष में ही न रहा। भारतवर्ष के बाहर भी फैल गया। इस बुराईको दूर करना है यद्यपि जैन कर्मवादको शिक्षाओं द्वारा जनताको यह बताया गया कि जन्म न कोई छून होता है और न बकृत। यह भेद मनुष्यकृत है। एकके पास अधिक पूजीका होना और इसी पाम एक दमदीका न होना, एकका मोटरॉम वूमना और दूसरेका भीम्न मांगते हुए ढोलना यह भी कर्मका फल नहीं है, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उहरंगे नहीं हुआ। ती नैयायिकोंके या-साहित्य जैन कर्मवादके क्योंकि यदि अधिक पूँजीको पुण्यका फल और जीके न होनेको पापका फल माना जाता है तो अल्पसंतोषी और साधु दोनों ही पापी ठहरेंगे। किन्तु इन शिक्षाओंका जनता और साहित्य पर स्थायी असर नहीं हुमा । ___ अजैन लेखकोंने तो नैयायिकोंके कर्मवादका समर्थन किया ही, किन्तु तरकालवी जैन लेखकोंने जो कथा-साहित्य लिखा है उससे भी प्रायः नैयायिक कर्मवादका ही समर्थन होता है। चे जैन कर्मवादके श्राध्यात्मिक रहस्यको एक प्रकारसे भूलते ही गये और उनके ऊपर नैयायिक कर्मवादका गहरा रंग चढ़ता गया। अजैन लेखकों द्वारा लिखे गये कथा साहित्यको पढ़ जाइये और जैन लेखकों द्वारा लिखे गये कथा साहित्यको पढ़ जाइये पुण्य पापके वर्णन करने में दोनोंने कमाल किया है। दोनों ही एक दृष्टिकोणसे विचार करते हैं। मजैन लेखकोंके समान जैन लेखक भी बाह्य आधारोंको लेकर चलते हैं। चे जैन मान्यताके अनुसार कर्मों के वर्गीकरण और उनके भवान्तर भेदोंको सर्वथा भूलते गये । जैन दर्शनमें यद्यपि कर्मोंके पुण्य कर्म और पापकर्म ऐसे भेद मिलते हैं पर इससे गरीवी पापकर्मका फल है और सम्पत्ति पुण्य कर्मका फल है यह नहीं सिद्ध होता। गरीब होकर के भी मनुष्य सुखी देखा जाता है और सम्पत्तिवाला होकरके भी वह दुखी देखा जाता है। पुण्य और पापकी व्याप्ति सुख और दुखसे की जा सकती है गरीबी अमीरीसे नहीं । इसीसे जैनदर्शनमें सातावेदनीय और भसातावेदनीयका फल सुख-दुख बतलाया है अमीरी गरीबी नहीं। जैन साहित्यमें यह दोष बरावर चालू है। इसी दोषके कारण जैन जनताको कर्मको अप्राकृतिक और अवास्तविक उलझनमें फंसना पड़ा है। जब वे कथा ग्रन्थों में और सुभाषितों में यह पढ़ते हैं कि 'पुरुपका भाग्य जागने पर घर बैठे ही रंल मिल जाते हैं और माग्यके (१) सुभाषितरत्नसन्दोह पृ० ४७ श्लोक २५७ ।: Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छूट सप्ततिकाप्रकरण अभावमें समुद्र में पैठने पर भी उनकी प्राप्ति होती नहीं ।' ही फलता है विद्या और पौरुप कुछ काम नहीं आता । सामने अपना मस्तक टेक देते हैं। वे जैन कर्मवादके रहस्यको सदा के लिये भूल जाते हैं । 'सर्वत्र भोग्व तत्र चे कर्मके आध्यात्मिक वर्तमानकालीन विद्वान भी इस दोपसे अछूते नहीं बचे हैं। वे भी धन-सम्पत्तिके सद्भाव श्रमभावको पुण्य पापका फल मानते हैं । उनके सामने आर्थिक व्यवस्थाका रसियाका सुन्दर उदाहरण है रसियामें आज भी घोड़ी बहुत मार्थिक विषमता नहीं है ऐसा नहीं है। वह प्रारम्भिक प्रयोग है। यदि afe feat काम होता गया और अन्य परिग्रहवादी राष्ट्रोंका अनुचित दबाव न पड़ा तो यह आर्थिक विषमता थोड़े ही दिनकी चीज है । जैन कर्मवाद के अनुसार साता अनाता कर्मकी व्याप्ति सुख-दुखके माय है, बाह्य पूँजी के सद्भाव लट्टभावके साथ नहीं। किन्तु जैन लेखक और विद्वान आज इस सत्यको सर्वथा भूले हुए हैं । 1 सामाजिक व्यवस्था सम्वन्धमें प्रारम्भमें यद्यपि जैन लेखकोंका उतना दोष नहीं है । इस सम्बन्धमें उन्होंने उदारताको नीति बरती है उन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी कि मत्र मनुष्य एक हैं । उनमें कोई जातिभेद नहीं है । वाह्य तो सी भेद है वह आजीविकाकृत हो है । यद्यपि उन्होंने अपने इस मतका बड़े जोरों से समर्थन किया था किन्तु व्यवहारमें चे इसे निभा न सके। धीरे-धीरे पड़ौसी धर्म के अनुसार उनमें भी जातीय भेद जोर पकड़ता गया । यद्यपि वर्तमानमें हमारे साहित्य और विद्वानोंकी यह दशा है (१) भाग्यं फलति सर्वत्र न च विद्या न च पौपम् । (२) 'मनुष्यत्रातिरेकैव महापुराण (३) देखो प्रमेयकमल मार्तण्ड | Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५६ तब भी निराश होने की कोई बात नहीं है हमें पुनः अपनी मूलशिक्षाओंकी ओर ध्यान देना है। हमें जैन कर्मवादके रहस्य और उसकी मर्यादाओं को समझना है और उनके अनुसार कार्य करना है 3 माना कि जिस बुराई का हमने ऊपर उल्लेख किया है वह जीवन और साहित्य में घुल-मिल गई है पर यदि इस दिशा में हमारा दृढ़वर प्रयत्न चालू रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हम जीवन और साहित्य दोनों में आई हुई इस बुराई को दूर करनेमें सफल होंगे । समताधर्मकी जय, गरीबी और पूँजीको पाप-पुण्यका फल न बतलानेवाले कर्मवादकी जय, कृत अछूतको जातिगत न माननेवाले कर्मवादकी जय, परम श्रहिंसा धर्मकी जय । जैनं जयतु शासनम् । Page #66 --------------------------------------------------------------------------  Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्रकरण की विषयानुक्रमणिका २-३ गाथा विषय १ प्रतिना गाथा ... 'सिद्ध पद' के दो अर्थ और प्रसंगसे सप्ततिका प्रकरणकी रचना का आधार गाथामे आये हुए 'महार्थ' पदकी सार्थकता बन्ध, उदय, सत्ता और प्रकृतिस्थानका स्वरूपनिर्देश ३ 'श्रुणु क्रिया पदकी सार्थकता वन्ध, उदय और सत्त्व प्रकृतिस्थानोंके संवेध भगोंके कहनेकी प्रतिज्ञा प्रसंगसे भूल कर्मोंके बन्धस्थानोंका तथा उनके स्वामी और कालका निर्देश उक्त बन्धस्थानोंकी विशेषताओं का ज्ञापक कोष्ठक ९ मूल कोंके उदयस्थानोंका तथा उनके स्वामी , और कालका निर्देश ९-१२ उक्त उदयस्थानोंकी विशेषताओंका ज्ञापक कोष्ठक १२ मूल कर्मोंके सत्त्वस्थानोंका तथा उनके स्वामी और कालका निर्देश । १२-१४ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ६२ सप्ततिकाप्रकरण गाथा उक्त सत्त्वस्थानोंकी विशेषताओंका ज्ञापक कोष्ठक १४ सूल कर्मोंके बन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोंके संवेधका निर्देग उक्त विशेषताओंका ज्ञापक कोष्ठक १ मूल कर्मों के जीवस्थानों में संवेध भंग १८-२१ उक्त विशेषताओंका जापक कोष्ठक ५ मूल कर्मोंके गुणस्थानों में संवेध भंग , २२-२४ उक्त विशेषताका ज्ञापक कोष्ठक २५ ६ ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके सवेध भंग २५-२७ -कोष्ठक २७ ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मोंके सवेध मंगोंका काल २७-२८ ७ दर्शनावरण कर्मके बन्ध, उदय और सत्त्वस्थान २८-३२ ८-९ दर्शनावरण कर्मके संवैध भग ३२-३५ -कोष्ठक ३६ दर्शनावरण कर्मके संवेध भंगोके विषयमें मत मेदकी चर्चा ९ वेदनीय, आयु और गोत्र कर्मके संवेध भंगोंकी प्रतिज्ञा चेदनीय कर्मके संवेघ भंग ४०-४१ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका गाथा विषय -कोष्टक ४२ नरकगतिम आयुकर्मके सवेध भंग ४२-४५ -कोष्ठक ५४ देवगतिमें आयुकर्म सवेध भंग ४५ -कोष्ठक ४६ तिवच गतिमे श्रायु कर्मके सवेषभंग ४६-४७ -कोष्ठक ४८ मनुप्यगतिमें आयुकर्मके सवेच भग ४८-५१ -कोष्ठक ५२ प्रत्येकगतिमें आयुकर्मके मग लानेका नियम ५२-५३ गोत्र कर्मके सवेध भग ५३-५६ -कोष्टक ५६ १० मोहनीयके वन्धस्थान, और उनका काल ५७-६१ -कोष्ठक ६१ ११ मोहनीयके उदयस्थान और उनका काल ६२-६४ प्रसगसे आनुपूर्वियोंका स्वरूपनिर्देश ६२ -कोष्ठक ६४ १२-१३ मोहनीयके सत्वस्थान, स्वामी और काल ६५-७४ -कोष्ठक ७५ १४ मोहनीयके वन्धस्थानोंके भंग ७६-७८ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ गाथा विषय १५-१७ बन्धस्थानों में उदयस्थानोंका निर्देश • सप्ततिका प्रकरण 2 1 मिवृयादृष्टि गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित उदयस्थान कैसे सम्भव है इसका निर्देश ८०-८१ श्रेणिगत और अश्रेणिगत सास्वादन सम्यग्दृष्टिका विशेष खुलासा अनन्तानुबन्धीका उदय हुए विना सास्वादन गुणस्थान नहीं होता इसका निर्देश १९ पदसंख्या. पृष्ठ ७८-९४ दो प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों के मतभेदकी चर्चा १८ मोहनीय कर्मके उदयस्थानोंके भंग १९ उदयस्थानोंके कुल भंगों की संख्या 'वन्धस्थान व उदयस्थानोंके सवेन मंगोंका कोष्ठक - कोष्ठक २३ मोहनीयके बन्धादि स्थानों का निर्देश : करनेवाली उपसंहार गाथा ८३-८४ ८५-८६ ९२ ९४-९७ ९८ ९९ २० उदयस्थान व पदसंख्या उदयस्थानोंका काल १०३-१०६ २१-२२ सप्तास्थानोंके साथ बंधस्थानों का संवेधनिरूपण १०७-१२१ मोहनीयके बन्ध, उदय और सत्तास्थानों के भंगों का ज्ञापक कोष्ठक १००-१०१ १०१ १०२ · १२२ १२३. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ s विपयानुक्रमणिका गाथा विषय २४ नामकर्मके बन्धस्थान १२४ नामकर्मके बन्धस्थानोंके स्वामी और उनके भगोंका निर्देश १२४-१३५ २५ नामकर्मके प्रत्येक बन्धस्थानके भंग १३५--१३७ कोष्ठक १३८ २६ नामकर्मके उदयस्थान १३९ नामकर्मके उदयस्थानोंके स्वामी और उनके भंगोंका निर्देश १३९--१५६ २७-२८ नामकर्मके प्रत्येक उदयस्थानके कुल भंग १५६-१५९ -कोष्ठक १५९ २९ नामकर्मके सत्त्वस्थान १६००-१६२ ३० नामकर्मके बन्धादिस्थानोंके सवेध कथनकी प्रतिज्ञा १६२--१६३ ३१-३२ ओघसे संवेघविचार १६३--१७८ नामकर्मके बन्धादिस्थान व उनके भगोंका कोष्ठक ३३ जीवस्थानों और गुणस्थानोंमें उत्तर प्रकृतियों के बन्धादि स्थानोंके भंगोंके विचारकी प्रतिना १८१-१८२ ३४ जीवस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तरायके न्यादि स्थानोत्तर महतियो ७९-१८१ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण विषय बन्धादिस्थानोंके संवेध भंगोंका विचार ३५ जीवस्थानों में दर्शनावरण के बन्धादिस्थानों के सवेध मंगोंका विचार ६६ गाथा नीवस्थानों में वेदनीय, आयु और गोत्रके वन्धादिस्थानों के सवेधभंगों का विचार जीवस्थानोंमें ६ कर्मोंके भंगोंका का ज्ञापक कोष्ठक ३६ जीवस्थानोंमें मोहनीयके वन्धादि स्थानोंके सवेधभगका विचार जीवस्थानों में मोहनीयके बन्धादिस्थानों के संवेधभगका कोष्ठक ३७-३८ जीवस्थानोंमें नामकर्मके बन्धादिस्थानोंके मंगोंका निर्देश जीवस्थानों में बन्धस्थान और उनके भगों का कोष्ठक जीवस्थानों में उदयस्थान और उनके भंगों का कोष्ठक नोवस्थानों में बन्धादिस्थान और उनके भंगोका कोष्ठक पृष्ठ १८२-१८४ १८४-१८५ १८५ १८९ १९०--१९३ 1 १९४ १२५-२१३ २१४--२१५ २१६-२१७ २१८ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ विषयानुक्रमणिका गाथा विषय ३९ पूर्वा० गुणस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तरायके बन्धादिस्थानों के भंगोंका विचार ३९-४१ गुणस्थानों में दर्शनावरणके बन्धादिस्थानोंके भंगोंका विचार २२०-२२३ ११ उत्त० गुणस्थानों में वेदनीय, आयु और गोत्रके वन्धादिस्थानोंके भंगोंके विचारकी सूचना २२३-२२९ गुणस्थानों में ६ कमों के बन्धादिस्थानोंके मंगोंका कोष्ठक २३० ४२ गुणस्थानोंमें मोहनीयके वन्यस्थानोंका विचार २३१ ४३-४५ गुणस्थानों में मोहनीयके उदयस्थान व भंग विचार २३१-२३५ ४६ गुणस्थानोंकी अपेक्षा उदयस्थानोंके भंग २३५-२३६ उदयविकल्पोंका कोष्ठक २३७ पदवृन्दोंन , २३८ १७ योग, उपयोग और लेश्याओंमें संवेषभंगोंकी सूचना १३९ योगोंकी अपेक्षा उदयविकल्पोंचा विचार २४०-२४३ योगोंकी अपेक्षा उदयविकल्यास कोष्ठक २४४ योगोंकी अपेक्षा पदवृन्दोंका विचार २४५-२४८ योगोंकी अपेक्षा पदवृन्दोंका कोष्ठक : २४९ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ २५३ २५७ सप्ततिकाप्रकरण गाथा विषय । योगोंकी अपेक्षा उदयस्थानोंका विचार । २५०--२५१ उपयोगांकी अपेक्षा उदयस्थानोंका कोष्ठक २५२ उपयोगोंकी अपेक्षा पदवृन्दोंका विचार उपयोगोंकी अपेक्षा पदवृन्दोंका कोष्ठक २५४ लेश्याओंकी अपेक्षा उदयस्थानोंका विचार २५५ लेश्याओंकी अपेक्षा उदयस्थानोंका कोष्ठक' २५६ पदवृन्दोंका विचार , कोष्ठक २५८ १८ गुणस्थानों में मोहनीयके सत्त्वस्थान २५९-२६० गुणस्थानोंमें मोहनीयके बन्धादिस्थानोंके संवेधभंगोंका विचार २६०-२६२ ४९-५० गुणस्थानोंमें नामकर्मके बन्धादिस्थानोंका विचार २६२ मिथ्यात्वमें नामकर्मके बन्धादिस्थान व संवेधभंग २६३-२७० मिथ्यात्वमें नामकर्मके संवेधभंगोंका कोष्ठक २७१-२७२ सास्वादनमें नामकर्मके बन्धादिस्थान व संवेध भंग २७३--२७७ सास्वादनमें नामकर्मके संवेधभंगोंका कोष्ठक २७८ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा " विषयानुक्रमणिका गाथा विषय मिश्रमें नामक्रमके वन्वादिस्थान व संवेधमंग २७९-२८० , कोष्ठक २८० अविरतमें नामक्रमके वयादिस्थान व संवेधमंग २८१-२८४ , कोष्ठक २८५ देशविरतमें नामकर्मके बन्धादिस्थान व सवेधमंग २८६-२८७ , कोष्ठक २८७ प्रमत्तमें नामकर्मके वयादिस्थान व संवेधमंग २८८-२८९ , कोष्ठक २८९ अप्रमत्तमें व सवेधमंग २९०-२९१ कोष्ठक २९१ अपूर्वकरणमें , , व सवेधमंग २९२-२९३ कोष्टक २९३ मनिवृत्ति आदिमें .. व संवेधभग २९४-२९५ सयोगकेवलीके उदय व सत्तास्थानों के संवेधका कोष्ठक २९६ अयोगीके उदय व सत्तास्थानोंके सवेधका विचार २९६-२९७ " Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण सप्ततिकाप्रकरण गाथा पृष्ठ गाथा विषय कोष्ठक २९७ ५१ गति मार्गणामें नामकर्मके बन्धादिस्थानोंका विचार २९७-२९९ नरकगतिमें संवेघ विचार २९९.-३०१ -का कोष्ठक ३०१ तिथंचगतिमें संवेध विचार - ३०१-३०२ " " -का कोष्ठक ३०३-३०४ मनुष्यगतिमे संवेधविचार ३०५-३०६ का कोष्ठक ३०७३०८ देवगतिमें संवेध विचार ३०९ , --का कोष्ठक ३०९--३१० इन्द्रिय मार्गणामें नामकर्मके कन्धादिस्थान ३१०-३११ एकेन्द्रियमार्गणामें संवेष विचार ३११ ३१२ विकलत्रयोंमें सवेध विचार ३१३ , -का कोष्ठक । -३१३-३१४ पंचेन्द्रियों में सवेध विचार ३१५-३१६ . , , -का कोष्ठक ..३.१७--३१८ ५३ बन्धादिस्थानोंके आठ,अनुयोगद्वारों में कथन . । '..करनेकी सूचना ३१९-३२२ " Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपयानुक्रमणिका ७१ गाथा विषय पृ० ५४ उदयसे उदीरणामें विशेषताका निर्देश ३२२-३२४ ५५ जिन ४१ प्रकृतियोंमें विशेषता है उनका निर्देश ३२४-३२६ ५६-५९ गुणस्थानोंमें बन्धप्रकृतियोंका निर्देश ३२६--३३३ , कोष्ठक ३३३-३३४ मार्गणामोंमें बन्धस्वामित्वके जाननेकी सूचना ३३५ किस गतिमें कितनी प्रकृत्तियोंकी सत्ता होती है इसका विचार ३३६ उपशमश्रेणि विचार ३३७--३५९ अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उपशमविधि ३३७-३४५ विसयोजनाविधि ३४५-३४६ दर्शमोहनीयकी उपशमनाविधि ३४६.-३४९ चारित्रमोहनीयकी , ३४९-३५८ उपशमश्रेणिसे च्युत होकर जीव किस' किस गुणस्थानको प्राप्त होता है इसका विचार ___३५८-३५९ एक भवमें कितनी बार उपश्रमश्रेणि पर , चढता है इसका निर्देश .. . २५९ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ पृष्ठ सप्ततिकाप्रकरण गाथा विषय ६३-६४ क्षपक श्रेणी विचार । ३५९-३७५ क्षायिकसम्यक्त्व की प्राप्ति का निर्देश ३५९-३६४ क्षपक श्रेणिमें क्षयको प्राप्त होनेवाली । प्रकृतियों का व अन्य कार्यों का निर्देश ३६४-३७२ केवलिसमुद्घात का कारण ३७२ सात समुद्घातों का स्वरूप ३७३ योग निरोध क्रिया का क्रम ३७३-३७४ सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति ध्यान का कार्य विशेष ३७४ सयोगी के अन्तिम समय में जिन प्रकृतियों का सत्त्वविच्छेद होता है उनका निर्देश ३७४ अयोगी गुणस्थान के कार्य विशेष ३७४-३७५ अयोगी के उपान्त्य समय में क्षय को प्राप्त होनेवाली प्रकृतियों का निर्देश' ' ३७५-३७६ अयोगी के उदय को प्राप्त प्रकृतियों का निरा " ३७६-३७७ अयोगी के उदयप्राप्त नामकर्म की नौ • - प्रकृतियाँ ३७७ ६८ मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता कहाँ तक है इस । विषय में मतभेद का निर्देश , ३७७-३७८ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा विषयानुक्रमणिका विषय अन्य आचार्य अयोगी के अन्तिम समय में मनुष्यानुपूर्वीको सत्व क्यों मानते है इसका निर्देश ३६९-३७० कर्मनाश होने के बाद जीव सिद्धिसुखका अनुभव करता है इस बात का निर्देश ३८०-३८३ उपसहार गाथा ३८३-३८४० लघुता ३८४ ७२ Page #80 --------------------------------------------------------------------------  Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दीव्याख्यासहित सप्ततिकाप्रकरण (पष्ठ कर्मग्रन्थ) Page #82 --------------------------------------------------------------------------  Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ श्रीवीतरागाय नम * 'सप्ततिका प्रकरण (पष्ठ कर्मग्रन्थ ) आगममें बतलाया है कि सबसे पहले सर्वनदेवने अर्थका उपदेश दिया। तदनन्तर उसको अवधारण करके गणधर देवन तदनुमार बारह अगोको रचा। अन्य आचार्य इन बारह अंगोको साक्षान् पढ़कर या परपरासे जानकर ग्रय रचना करते हैं। जो शास्त्र या प्रकरण इस प्रकार संकलित किया जाता है, बुद्विमान् लोग उसीका अादर करते हैं, अन्यका नहीं। इतने पर भी वे लोग किसी शाबके अध्ययन और अध्यापन आदि कार्यों में तभी प्रवृत्त होते हैं जब उन्हें उस शाखमें कहे गये विपय आदिका ठोक तरहसे पता लग जाता है, क्योंकि विपय आदिको विना जाने प्रवृत्ति करनेवाले लोग न तो बुद्विमान् ही कहे जा सकते हैं और न उनके किमी प्रकारके प्रयोजनकी ही सिद्वि हो सकती है. अत इस सप्ततिका प्रकरणके आदिमें इन दो वातोका बतलाना आवश्यक जानकर प्राचार्य सबसे पहले जिसमें इनका उल्लेख है, ऐसी प्रतित्रागाथा को कहते है सिद्धपएहि महत्थं बंधोदयसंतपयडिठाणाणं । वोच्छं सुण संखेवं नीसंदं दिठिवायस्स ॥१॥ अर्थ-सिद्धपद अर्थात् कर्मप्रकृतिप्राभृत आदिके अनुसार या जीवस्थान और गुणस्थानोंका आश्रय लेकर वन्धप्रकृतिस्थान, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण उदयप्रकृतिस्थान और सत्त्व प्रकृतिस्थानोका संक्षेपसे कथन करेंगे, सुनो । जो सक्षेप कथन महान् अर्थवाला और टिवाद अंगरूपी महार्णवकी एक बूंदके समान है। विशेपार्थ मलयगिरि आचार्यन इस गाथामें आये हुए 'सिद्धपद' के दो अर्थ किये है। जिन ग्रंथोक सब पद सर्वज्ञोक्त अर्थका अनुसरण करनेवाले होनसे सुप्रतिष्ठित हैं, वे ग्रथ सिद्धपद कहे जाते हैं यह पहला अर्थ है। इस अर्थके अनुमार प्रकृतमे सिद्धपद शन्द कर्मप्रकृति आदि प्राभृतोका वाचक है,क्योंकि इस सप्ततिका नामक प्रकरणको ग्रंथकारने उन्ही कर्मप्रकृति आदिके आधारसे संक्षेप रूपमें निवद्ध क्रिया है। गाथाके चौथे चरणमें ग्रंथकारने स्वयं इसे बष्टिवादरूपी महार्णवकी एक बूंदके ममान बतलाया है। मालूम होता है इसी वातको ध्यानमें रखकर मलयगिरि आचायने भी सिद्धपटका उक्त अर्थ किया है। तात्पर्य यह है कि दृष्टियाद नामक बारहवें अगके परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका चे पाँच भेद हैं। इनमें से पूर्वगतके उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं, जिनमे दूसरे भेदका नाम अग्रायणीय है। इसके मुख्य चौदह अधिकार हैं जिन्हे वस्तु कहते हैं । इनमेसे पाँचवीं वस्तुके बीस उप अधिकार हैं जिन्हे प्राभूत कहते है। इनमें से चौथे प्राभृतका नाम कर्मप्रकृति है। मुख्यतया इसीके आधारसे इस समतिका नामक प्रकरणकी रचना हुई है। इससे हम यह भी जान लेते हैं कि यह प्रकरण सर्वनदेवके द्वारा कहे गये अर्थका अनुसरण करनेवाला होनेसे प्रमाणभूत है, क्योकि जिस अर्थको सर्वज्ञदेवने कहा और जिसको गणधर देवने वारह अंगोमे निवद्ध किया उसीके अनुसार इसकी रचना हुई है। तथा जिनागममें जीवस्थान और गुणस्थान सर्वत्र प्रसिद्ध हैं या आगे ग्रन्थकार स्वयं जीवस्थान और गुणस्थानोंका आश्रय लेकर Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयनिर्देश वन्धस्थान आदिका और उनके सवेध भंगोका कथन करनेवाले हैं इसलिये मलयगिरि आचार्यने 'सिद्वपद' का दूसरा अर्थ जीवस्थान और गुणस्थान किया है । तात्पर्य यह है कि इस ग्रन्थमें या अन्यत्र वन्ध और उढयादिका कथन करनेके लिये जीवस्थान और गुणस्थानोका आश्रय लिया गया है, अत इसी विवक्षासे टीकाकारने 'सिद्धपट'का यह दूसरा अर्थ किया है। __उपर्युक्त विवेचनसे यद्यपि हम यह जान लेते हैं कि इस सप्ततिका नामक प्रकरणमें कर्मप्रकृति प्राभृत आदिके विषयका संक्षेप किया गया है तो भी इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें अर्थगौरव नहीं है। यद्यपि ऐसे बहुतसे आख्यान, आलापक और सग्रहणी आदि प्रय है जो सक्षिप्त होकर भी अर्थगौरवसे रहित होते हैं पर यह अथ उनमेसे नहीं है। प्रथकारने इसी बातका ज्ञान करानेके लिये गाथामें विशेपणरूपसे 'महार्थ' पद दिया है। विषयका निर्देश करते हुए ग्रथकारने इस गाथामें बन्ध, उदय और सत्त्वप्रकृतिस्थानोके कहनेकी प्रतिज्ञा की है। जिस प्रकार लोहपिडके प्रत्येक कणमे अग्नि प्रविष्ट हो जाती है, उसी प्रकार कर्मपरमाणुओका आत्मप्रदेशोंके साथ परस्पर जो एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध होता है उसे बन्ध कहते हैं। विपाक अवस्थाको प्राप्त हुए कर्मपरमाणुओके भोगको उदय कहते हैं । तथा वन्धसमयसे लेकर या सक्रमण समयसे लेकर जब तक उन कर्मपरमाणुओका अन्य प्रकृति रूपसे संक्रमण नहीं होता या जब तक उनकी निर्जरा नहीं होती तब तक उनके आत्मासे लगे रहनेको सत्ता कहते है । प्रकृतमे स्थान शब्द समुदायवाची है, अत. गाथामे आये हुए 'प्रकृतिस्थान' पदसे दो तीन आदि प्रकृतियोके समुदायका ग्रहण होना है। ये प्रकृतिस्थान वन्ध, उदय और सत्त्वके भेदसे तीन प्रकारके हैं । इस अन्थमे इन्होंका विस्तारसे विवेचन किया गया है। ',' . . . Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण गाथामे 'सुरण' यह क्रियापद आया है । इससे ग्रंथकारने यह ध्वनित किय | है कि आचार्य शिष्योको सावधान करके शास्त्रका व्याख्यान करे । यदा कदाचित शिष्योके प्रमादित हो जाने पर भी आचार्य उद्विग्न न होवे किन्तु शिक्षायोग्य मधुर वचनोके द्वारा शिष्योके मनको प्रसन्न करके आगमका रहस्य समझावे | आचार्य की यह एक कला है जो शिष्यमें उत्कृष्ट योग्यता ला देती है । ससारमे रत्न शोधनगुरणके द्वारा ही गुणोत्कर्षको प्राप्त होता है । आचार्य में इस शोधक गुणका होना अत्यन्त आवश्यक है । विनीत घोडेको कावूमे रखना इसमे सारथिकी महत्ता नही है, किन्तु जो सारथि दुष्ट घोड़ेका शिक्षा आदि के द्वारा काबूमे कर लेता है, वही सच्चा सारथि समझा जाता है । यही बात आचार्य में भी लागू होती है । प्राचार्यकी सच्ची सफलता इसमे है कि वह प्रमादसे रखलित हुए शिष्योको भी सुपथगामी बनावे और उन्हें आगम के अध्ययनमे लगावे । पर यह वात कठोरतासे नही प्राप्त की जा सकती है, किन्तु सरल व्यवहार द्वारा शिष्योके मनको हरण करके प्राप्त की जा सकती है । आचार्य के इस कर्त्तव्यको द्योतित करने के लिये ही गाथामे 'सुख' यह क्रियापद दिया है । 1 अब वन्ध, उदय और सत्त्व प्रकृतिस्थानोके संवेधरूप संक्षेप के कहने की इच्छासे आचार्य शिष्य द्वारा प्रश्न कराके भंगोके कहने की सूचना करते है - कइ वंधतो वेयइ कड़ कइ वा पयडिसंतठाणाणि । मूलुत्तरपगईसुं भंगवियप्पा उ बोधव्वा ||२|| अर्थ – कितनी प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवके कितनी प्रकृतियोका वेदन होता है, तथा कितनी प्रकृतियोका बन्ध और वेदन करनेवाले जीवके कितनी प्रकृतियोका सत्त्व होता है ? इस Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयविभाग प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियोंके विषयमें अनेक भग जानना चाहिये। विशेपार्थ-प्रथकारने गाथाके पूर्वार्धमें शिष्यद्वारा यह शका उपस्थित कराई है कि कितनी प्रकृतियोका वन्ध होते समय कितनी प्रकृतियोका उदय होता है, आदि । तथा गाथाके उत्तरार्धमें शिष्य की उपर्युक्त शंकाका उत्तर देते हुए कहा है कि मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियोके विपयमे अनेक भग जानना चाहिये । इस प्रकार इस गाथाके वाच्यार्थका विचार करने पर उससे हमें स्पष्टत विपय विभागकी सूचना मिलती है। मुख्यतया इस प्रकरणमें मूल प्रकृतियो और उत्तर प्रकृतियोके वन्ध प्रकृतिस्थान, उदय प्रकृतिस्थान और सत्त्व प्रकृतिस्थानोका तथा उनके परस्पर सवेध और उससे उत्पन्न हुए भगोका विचार किया गया है। अनन्तर उन्हे यथास्थान जीवस्थान और गुणस्थानोंमे घटित करके बतलाया गया है। इसी विषयविभागको ध्यानमें रखकर मलयगिरि आचार्य सबसे पहले आठ मूल प्रकृतियोके वन्धप्रकृतिस्थान, उदय प्रकृतिस्थान और सत्त्वप्रकृति स्थानोका कथन करते हैं, क्योकि इनका कथन किये विना आगे तीसरी गाथामें बतलाये गये इन स्थानोके सवेधका सरलतासे ज्ञान नहीं हो सकता है। इसके साथ ही साथ उन्होने प्रसगानुसार इन स्थानोके काल और स्वामी का भी निर्देश किया है। वन्धस्थान-आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और एक प्रकृतिक इस प्रकार मूल प्रकृतियोके कुल बन्धस्थान चार (१) 'सवेध' परस्परमेककालमागमाविरोधेन मीलनम् ।' - फर्मप्र० बन्धोद० प० ६५ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण होते हैं । इनमे से आठ प्रकृतिक बन्धस्थानमे सव मूल प्रकृतियोका, सात प्रकृतिक बन्धस्थानमें आयुकर्मके विना सातका, छह प्रकृतिक बन्धस्थानमे आयु और मोहनीय कर्मके विना छहका तथा एक प्रकृतिक बन्धस्थानमे एक वेदनीय कर्मका ग्रहण होता है। इससे यह भी तात्पर्य निकलता है कि आयु कर्मको बाँधनेवाले जीवके आठो कर्मोंका, मोहनीय कर्मको बाँधनेवाले जीवके आठोका या आयु विना सातका, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्मको बाँधनेवाले जीवके आठोका, सातका या छहका तथा एक वेदनीय कर्मको बाँधनेवाले जीवके आठोका, सातका, छहका या एक वेदनीय कर्मका बन्ध होता है। . स्वामी- श्रीयु कर्मका बन्ध अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है, किन्तु मिश्र गुणनस्थानमे नही होता। अतः मिश्र गुणस्थान के बिना शेप छह गुणस्थान वाले जीव आयुवन्धके समय पाठ प्रकृतिक बन्धस्थानके स्वामी होते हैं। मोहनीय कर्म का बन्ध नौवे गुणस्थान तक होता है, अत. प्रारम्भके नौ गुणस्थानवाले जीव सात प्रकृतिक वन्धस्थानके स्वामी होते हैं। किन्तु जिनके आयु कर्मका बन्ध होता हो वे सात प्रकृतिक बन्धस्थानके स्वामी नहीं होते। आयु और मोहनीय कर्मके विना शेप छह कर्मोंका वन्ध केवल दसवे गुणस्थानमे होता है, अतः सूक्ष्मसांपरायिक (१) 'श्राउम्मि अट्ठ मोहे सत्त एक्क च छाइ वा तइए । बज्झतयमि बज्मति सेसएसुं छ सत्तछ ।'–पञ्चसं० सप्तति० गा० २ । (२) 'छसु मगविहमवविहं कम्म वर्धति तिसु य सत्तविहं । छबिहमेकट्ठाणे तिसु एक्कमवधगो एको ॥'-गो० कर्म० गा० ४५२ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्थानोका काल संयत जीव छह प्रकृतिक बन्धस्थानके स्वामी होते हैं। तथा केवल वेदनीयका बन्ध ग्यारहवे, वारहवे और तेरहवें गुणत्थानमें होता है, अत' उक्त तीन गुणस्थानवाले जीव एक प्रकृतिक वन्धस्थान के स्वामी होते है। बन्धस्थानोंका काल - आयुकर्मका जघन्य और उत्कृष्ट वन्धकाल अन्तमूहूर्त है। तथा आठ प्रकृतिक बन्धस्थान आयुकर्म के वन्धके समय ही होता है, अत आठ प्रकृतिक बन्धस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जानना चाहिये। सात प्रकृतिक वन्धस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योकि जो, अप्रमत्तसंयत जीव आठ मूल प्रकृतियोका वध करके सात प्रकृतियोके बन्धका प्रारम्भ करता है, वह यदि उपश्रम श्रेणी पर आरोहण करके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है तो उसके सात प्रकृतिक बन्धस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, कारण कि सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थानमे छह प्रकृतिक स्थानका वन्ध होने लगता है, इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी अपेक्षा भी सात प्रकृतिक वन्धस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त किया जा सकता है। तथा सात प्रकृतिक वन्धस्थानका उत्कृष्टकाल छह माह और अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि वर्पका त्रिभाग अधिक तेतीस सागर है। क्योकि जब एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण आयुवाले किसी मनुष्य या तिर्यंचके आयुके एक त्रिभाग शेष रहने पर अन्तर्मुहूर्त कालतक पर भवसम्बन्धी आयुका बन्ध होता है । अनन्तर भुज्यमान आयुके समाप्त हो जानेपर वह जीव तेतीस सागरप्रमाण उष्कृष्ट आयुवाले देवोमे या नारकियोंमे उत्पन्न होकर और वहाँ आयुके Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ सप्ततिकप्रकरण छह माह शेष रहने पर पुनः परभवसम्वन्धी आयुका बन्ध करता है तब उसके सात प्रकृतिक बन्धस्थानका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है । छह प्रकृतिक वन्धस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । यह हम पहले ही बतला ये हैं कि छह प्रकृतिक बन्धस्थानका स्वामी सूक्ष्मसम्पराय संयत जीव होता है, त. उक्त गुणस्थानवाला जो उपशामक जीव उपशमश्रेणी पर चढ़ते समय या उतरते समय एक समयतक सूक्ष्मसग्पराय गुणस्थानमें रहता है और मरकर दूसरे समय में अविरत सम्यग्दृष्टि देव हो जाता है उसके छह प्रकृतिक वन्धस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा छह प्रकृतिक बन्धस्थानका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कृष्टकाल सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान के उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा कहा है, क्योंकि सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त होता है । एक प्रकृतिक वन्धस्थान का जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है । जो उपशमं श्रेणीवाला जीव उपशान्तमोह गुणस्थानमें एक समय तक रहता है और मरकर दूसरे समयमें देव हो जाता है, उस उपशान्त मोही जीवके एक प्रकृतिक बन्ध स्थान का जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा एक कोटि. वर्षकी आयुवाला जो मनुष्य सात माह गर्भ में नन्तर जन्म लेकर आठ वर्ष प्रमाण कालके सयमको प्राप्त करके एक अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर क्षीणमोह हो जाता है, उसके एक प्रकृतिक वन्धस्थानका उत्कृष्ट काल आठ वर्ष सात मास और अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण प्राप्त होता है । : I रहकर और तद्व्यतीत होने पर - * + Bitc= Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयस्थान बन्धस्थनोकी उक्त विशेषाओं का ज्ञापक कोष्ठक - [१] .. बन्धस्था० मूल प्र० स्वामी स्वामी काल जघन्य उत्कृष्ट मिश्र बिना अप्रमत्त, अमहर्त ८ प्रकृ० सब अन्तर्मुहूर्त तक - - 1. प्रकृ० श्रायु विना प्रारम्म के गुण अन्तर्मुहूर्त एक अन्तर्मु० और छह माह कम तथा पूर्वकोटि का निभाग अधिक तेतीस सागर मोह व ६ प्रकृ० सूक्ष्म सम्पराय | एक समय अन्तर्मुहूर्त आयु बिना १ प्रकृ० | वेदनीय 4 ११वाँ, १२वाँ,व १३ वाँ गुण । | एक समय देशोन पूर्वकोटि उदयस्थान-आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक इस प्रकार मूल प्रकृतियोकी अपेक्षा उदयस्थान तीन होते हैं। आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें सव मूल प्रकृतियोका, सात प्रकृतिक उदयस्थानमे मोहनीय कर्मके बिना सातका और चार प्रकृतिक उदयस्थानमें चार अघाति कर्मोंका ग्रहण होता है। इससे यह भी निष्कर्ष Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सप्ततिकाप्रकरण निकलता है कि मोहनीयको उदय रहते हुए आठोका उदय होता है । मोहनीय बिना शेप तीन घातिकर्मोंका उदय रहते हुए आठका या सातका उदय होता है । इनमे से आठका उदय सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान तक होता है और सातका उदय उपशान्तमोह या क्षीणमोह गुणस्थानमें होता है । तथा चार घाति कर्मोंका उदय रहते हुए आठ, सात या चारका उदय होता है । इनमें से आठका उदय सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान तक सातका उदय उपशान्त मोह या क्षीणमोह गुणस्थान मे और चारका उदय सयोगिकेवली तथा अयोगिकेवली गुणस्थानमे होता है । स्वामी - मोहनीका उदय दसवे गुणस्थान तक होता है, अतः याठ प्रकृतिक उदयस्थानके स्वामी प्रारम्भके दस गुणस्थानके जीव हैं। शेप तीन घाति कर्मोंका उदय बारहवे गुणस्थान तक होता है, त. सात प्रकृतिक उदयस्थानके स्वामी ग्यारहवें और बारहवे गुणस्थानके जीव है, तथा चार अघाति कर्मोंका उदय योगिकेवली गुणस्थान तक होता है, अत चार प्रकृतिक उदयस्थानके स्वामी सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जीव है । काल- आठ प्रकृतिक उदयस्थानका काल अनादि-अनन्त, अनादि- सान्त और सादि-सान्त इस तरह तीन प्रकारका है । भव्य अनादि-अनन्त भव्योंके अनादि - सान्त और उपशान्त मोह गुणस्थानसे गिरे हुए जीवोके साठि -सान्त काल होता है । प्रकृत सादि सात विकल्पकी अपेक्षा आठ प्रकृतिक उदयस्थानका (१) 'मोहस्सुदर अट्ठ वि सत्त य लब्भन्ति सेसयाणुदए । सन्तोइणाणि श्रधाइयाणं श्रड सत्त चउरो य ॥ - पञ्चस० सप्तति० गा० ३ | - (२) 'अटठुदओ सुहुमो त्तिय मोहेगा विणा हु संतखीणेसु । घादिदराण चक्कसुदन केवलिदुगे गियमा ॥ - गो० कर्म० गा० ४५४ ' । + Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्रयस्थानोका काल जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपार्धपुद्गल परावर्त प्रमाण है। जो जीव उपशम श्रेणीसे गिरकर पुन अन्तमुहूर्त कालके भीतर उपशमश्रेणी पर चढकर उपशान्तमोही हो जाता है उस जीवके आठ प्रकृतिक उदयस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। जो जीव अपार्ध पुद्गल परावर्त कालके प्रारम्भमें उपशान्तमोही और अन्तमे क्षीणमोही हुआ है, उसके आठ प्रकृतिक उदयस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपार्धपुगल परावर्त प्रमाण पाया जाता है। सात प्रकृतिक उदयस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। यद्यपि सात मूल प्रकृतियोका उदय उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थान में होता है। पर सीएमोह गुणस्थानमे न तो मरण ही होता है और न उससे जीवका प्रतिपात ही होता है। ऐसा जीव तीन घाति कर्मों का नाश करके नियमसे सयोगिकेवली हो जाता है। हॉ उपशान्तमोह गुणस्थानमे मरण भी होता है और उससे जीव का प्रतिपात भी होता है, अतः जो जीव एक समय तक उपशान्त मोह गुणस्थानमें रहकर और मरकर दूसरे समयमें अविरतसम्यग्दृष्टि देव हो जाता है उसके सात प्रकृतिक उदयस्थानका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा उपशान्तमोह या क्षीणमोह गुणस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अत सात प्रकृतिक उदयस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । चार प्रकृतिक उदयस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण है। जो जीव सयोगिकेवली होकर एक अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर निर्वाणको प्राप्त हो जाता है उसके चार प्रकृतिक उदयस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। तथा पहले हम जो एक प्रकृतिक वन्धस्थानका काल घटित करके वतला आये हैं, वही यहाँ चार प्रकृतिक उदयस्थानका काल Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण ममझना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि एक प्रकृतिक बन्धस्थानके उत्कृष्ट कालमेंसे क्षीणमोह गुणस्थानका काल घटा देने पर चार प्रकृतिक उदयस्थानका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है जिसका उल्लेख पहले किया ही है। उदयम्थानों की उक्त विशेषताओं का नापक कोष्टक [२] काल उदयस्था०, मूल प्र० स्वामी उत्कृष्ट --- -- ------ - ८ प्रकृति० सब । प्रारम्भके १० गुण. ' अन्तर्नु० कुछ कम अपार्घ० | प्रकृ० मोह बिना। 11वाँ व १२वाँ गुण एक समय अन्तर्मुहूर्त ४ प्रकृ० 'चारप्रघाति १३वाँ व १४ वाँ अन्तर्मु० देशोन पूर्वकोटि सत्तास्थान-पाठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक और चार प्रकृ. तिक इस प्रकार मूल प्रकृतियोंके सत्वस्थान तीन हैं। आठ प्रकृतिक मत्त्वस्थानमें सब मूल प्रकृतियों की सात प्रकृतिक सत्त्वम्यानमे मोहनीयके विना सातकी और चार प्रकृतिक सत्वस्थानमें चार अघाति कर्मोंकी मत्ता पाई जाती है । इससे यह भी तात्पर्य निकलता है कि मोहनीयके रहते हुए आठोकी, बानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायके रहते हुए आठोंकी या मोहनीय विना सात Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तास्थान के स्वामी व काल १३ की तथा चार अघाति कर्मोंके रहते हुए आठोकी, मोहनीय बिना सातकी या चार अघाति कर्मोंकी सत्ता पाई जाती है । स्वामी - केवल चार अघाति कर्मोंकी सत्ता सयोगी और योगी जिनके होती है, अत चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी सयोगी और अयोगी जिन होते है। मोहनीयके बिना शेष सात कर्मोकी सत्ता क्षीणकषाय गुणस्थानमें पाई जाती है, अत. सात प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी क्षीणमोह जीव होते हैं, तथा आठो कर्मोकी सत्ता उपशान्तमोह गुणस्थान तक पाई जाती है, त. आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी प्रारम्भके ग्यारह गुणस्थानवाले जीव होते हैं। काल - अभव्योकी अपेक्षा आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका काल अनन्त है, क्योकि उनके एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है और मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में किसी भी मूल प्रकृतिकी क्षपरणा नहीं होती, तथा भव्योकी अपेक्षा आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थान का काल अनादि - सान्त है, क्योकि क्षपक सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थानमे ही मोहनीय कर्मका समूल नाश होता है और तब जाकर क्षीणमोह गुणस्थान में सात प्रकृतिक सत्त्वस्थानकी प्राप्ति होती है, ऐसे जीवका प्रतिपात नही होता, अत सिद्ध हुआ कि भव्योकी अपेक्षा आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका काल अनादि - सान्त है । सात प्रकृतिक सत्त्वस्थान क्षीणमोह गुणस्थानमें होता है और क्षीणमोह गुणस्थानका जघन्य तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अत सात प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही (१) 'संतो त्ति अट्ठसत्ता खीणे सत्तेव होंति सत्ताणि । जोगिम्मि अजोगिम्मि य चत्तारि हवंति सप्ताणि ॥ - गो० कर्म० गा० ६५७ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण प्राप्त होता है। तथा सयोगिवली और अयोगिकेवली गुणम्यानोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है. अत' चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्न और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि वर्षप्रमाण प्राप्त होता है। यहाँ कुछ कमसे आठ वर्ष सातमास और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालका ग्रहण करना चाहिये। सत्त्वस्थानी की उक्त विशेषताओं का ज्ञापक कोष्टक काल उत्त्वस्था० मूल प्र० स्वामी , नघन्य उत्कृष्ट - प्रकृतिक सब प्रारन्म ले १३ गु० । । अगदि । । सान्त अनादि-अनन्त ७ प्रतिक माहनीय । क्षीणमोह गु० अन्तर्मु० । अन्तर्नु प्रकृतिक ४ अधाति सयोगी व अयोगी अन्तर्मु. देशोन पूर्वको १.आठ मूल कमाक संवैध भंग अब मूल प्रकृतियोंके बन्ध, य और सत्त्वस्थानाके परस्पर संवेधका कयन करने के लिये धागेकी गाथा कहते हैं--- Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ मूल कर्मोके सवेध भग अट्टविहसत्तछबंधगेसु अव उदयसंताई। एगविहे तिविगप्पो एगविगप्पो अवंधम्मि ॥३॥ अर्थ-आठ, सात और छह प्रकारके कर्मोंका वन्ध होते समय उदय और सत्ता आठो कर्मोंकी होती है। केवल वेदनीयका वन्ध होते समय उदय और सत्तोकी अपेक्षा तीन विकल्प होते हैं, तथा वन्धके न होने पर उदय और सत्ताकी अपेक्षा एक ही विकल्प होता है। विशेपार्थ-मिश्र गुणस्थानके विना अप्रमत्तसयत गुणस्थान तकके जीव आयुवन्धके समय आठो कर्मोंका बन्ध कर सकते हैं। अनिवृत्तिवादरसम्पराय गुणस्थान तकके जीव आयु विना सात कर्मोंका वध करते है और सूक्ष्म सम्पराय सयत जीव आयु और मोहनीय कर्मके विना छह कर्मोंका बन्ध करते हैं। ये सब उपर्युक्त जोत्र सराग होते है और सरागता मोहनीय कर्मके उदयसे प्राप्त होती है। तथा मोहनीय का उदय रहते हुए उसको सत्ता अवश्य पाई जाती है, अत. आठ, सात और छह प्रकारके कर्मोंका बन्ध होते समय उदय व सत्ता आठो कर्मों की होती है, यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार इस कथनसे नोन भग प्राप्त होते हैं । जो निम्न प्रकार है-(१) आठ प्रकृतिक बन्ध,आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व । (२) सात प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व तथा (३) छह प्रकृतिक वन्ध आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व । (१) सत्तहछबवेसु उदा अट्टह होइ पयडीण। सत्ता चउण्हं ना उदश्रो सायस्स बन्धम्मि ॥-पच्चस० सप्तति० गा० ५ । 'अट्टविहसत्तछब्वत्रगेसु अट्टेव उदयकम्मसा । एयविहे तिवियप्पो एयवियप्पो अवधम्मि ॥'-गो०-कर्म० गा० ६२० । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण इनमेसे पहला भंग आयु कर्मके वन्धके समय मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है शेपके नहीं, क्योकि शेप गुणस्थानोमे आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, किन्तु मिश्र गुणस्थान इसका अपवाद है। तात्पर्य यह है कि मिश्र गुणस्थानमें आयु कर्मका वन्ध नहीं होता, अतः वहाँ पहला भग मम्भव नहीं। दूसरा भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्ति वादरसम्पराय गुणस्थान तक होता है । यद्यपि मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमे आयुकर्मका वन्ध नहीं होता, अतः वहाँ तो यह दूसरा भंग ही होता है, किन्तु मिथ्यावष्टि आदि जीवोके भी सर्वदा आयु कर्मका वन्ध नही होता, अत वहाँ भी जव श्रायुकर्मका वन्ध नहीं होता तब यह दूसरा भंग बन जाता है। तथा तीसरा भंग सूक्ष्मसम्पराय संयत जीवोके होता है, क्योकि इनके आयु और मोहनीय कर्मके विना छह कोंका ही वन्ध होता है। अब इन तीन भंगो के कालका विचार करने पर आठ, सात और छह प्रकृतिक बन्धस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालके समान क्रमशः इन तीन भंगोका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये, क्योकि उक्त वन्धस्थानी की प्रधानतासे ही ये तीन भंग प्राप्त होते है । इन कालो का खुलासा हम उक्त बम्धस्थानों का कथन करते समय कर आये है इसलिए यहां अलग से नहीं किया है। ____एक वेदनीयका वन्ध उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगि केवली गुणस्थानमें होता है किन्तु उपशान्त मोह गुणस्थानमें सातका उदय और आठका सत्त्व, क्षीणमोह गुणस्थानमे सातका उदय और सातका सत्त्व सयोगिकेवली' गुणस्थानमें चारका उदय और चारका सत्त्व पाया जाता है, अतः यहाँ उदय और सत्ताकी अपेक्षा तीन भंग प्राप्त होते हैं जो निम्न प्रकार हैं Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ मूल कर्मोके सवेध भंग (१) एक प्रकृतिक वन्ध, सात प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व (२) एक प्रकृतिक वन्ध, सात प्रकृतिक उदय और सात प्रकृतिक सत्त्व तथा (३) एक प्रकृतिक वन्ध, चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व । इनमे से पहला भंग उपशान्त मोह गुणस्थानमे होता है, क्योकि वहां मोहनीय कर्मके विना सात कर्मोंका उदय होता है किन्तु सत्ता आठो काँकी होती है। दूसरो भग क्षीणमोह गुणम्थानमे होता है, क्योकि मोहनीय कर्मका समूल नाश क्षपक सूक्ष्मसम्पराय मयत जीवके हो जाता है, अत क्षीणमोह गुणस्थानमै उदय और सत्ता सात कर्मोंकी ही पाई जाती है। तथा तीसरा भग सयोगिकेवली गुणस्थानमे पाया जाता है, क्योकि वहा उदय और सत्त्व चार अघाति कर्मोका ही होता है। इस प्रकार ये तीन भंग क्रमश ग्यारहवे, वारहवे और तेरहवे गुणस्थानकी प्रधानतासे होते हैं अत इन तीन गुणस्थानोका जो जघन्य और उत्कृष्ट काल है वही क्रमश इन तीन भगोका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये। अयोगिकेवली गुणस्थान में किसी भी कर्मका वन्ध नहीं होता किन्तु यहां उदय और सत्त्व चार अघाति कर्मोंका पाया जाता है अत यहा चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व यह एक ही भग होता है। तथा अयोगिकेवली गुणस्थान के जघन्य और उत्कृष्ट कालके समान इस भग का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त जानना चाहिये । इस प्रकार मूल प्रकृतियो के चन्ध, उदय और सत्त्व प्रकृतिस्थानो की अपेक्षा कुल मवेध भग सात होते हैं। अव आगे इनकी उक्त विशेपताओ का ज्ञापक कोष्टक दिया जाता है जब काल अन्तर सत्त्व प्राइनको उक्त विश Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ८ प्रकृ० ८ प्रकृ ० वन्धस्था० | उदयस्था०, सत्त्वस्था० ७ प्रकृ० ! ८ प्रकृ० ६ प्रकृ० १ प्रकृ० १ प्रकृ ० १ प्रकृ० ८ प्रकृ० " ७ प्रकृ० सप्ततिकाप्रकरण [ ४ ४ ] स्वामी ८ प्रकृ० ८ प्रकृ० ८ प्रकृ मिश्र, बिना अप्र० तक छह गुण ० प्रारम्भ के ९ गुण ० जघन्य अन्तर्मु० अन्तर्मु ० सूक्ष्म सम्प०, एक समय ८ प्रकृ० उपशान्तमोह एक समय ७ प्रकृ० ७ प्रकृ० क्षीणमोह अन्तर्मु• काल उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त छे माह और अन्त ० कम पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तेतीस सागर अन्तर्मुहूर्त श्रन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त ४ प्रकृ० - ४ प्रकृ० | सयोगी जिन अन्तर्मु० देशोन पूर्वको ० योगी जिन | अन्तर्मु• श्रन्तर्मुहूर्त ४ प्रकृ० | ४ प्रकृ० २. मूलकर्मो के जीवस्थानों में संवेध भंग अव मूल प्रकृतियों की अपेक्षा वन्ध, उदय और सत्प्रकृतिस्थानोके परस्पर संवेध से प्राप्त हुए इन विकल्पोको जीवस्थानोमे चतलाते हैं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भ के ताठ प्रकृतिक समातिक सत्त्व मूल कर्मोंके जीवस्थानीमे सवेध भग सत्तहवंधश्रदयसंत तेरससु जीवठाणेसु । __ एगम्मि पंच मंगा दो भंगा हुँति केवलिणो ॥ ४ ॥ अर्थ प्रारम्भ के तेरह जीवस्थानो मे सात प्रकृतिक वन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व तथा आठ प्रकृतिक वन्ध, आठ प्रकृतिक उदय ओर आठ प्रकृतिक सत्त्व ये दो भग होते है। सबी पचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थानमे प्रारम्भके पॉच भग होते है, तथा केवली जिनके अतके दो भग होते है। विशेपार्थ यद्यपि जीव अनन्त हैं और उनकी जातियाँ मो बहुत हैं। फिर भी जिन समान पर्यायरून धर्मोके द्वारा उनका सग्रह किया जाना है, उन्हें जीवस्थान या जीवसमास कहते है। ऐसे धर्म प्रकृतमे चौदह विवक्षित हैं, अत इनकी अपेक्षा जीवस्थानोके भी चौदह भेट हो जाते है। यथा--अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त वादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, पर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त तीन इन्द्रिय, पर्याप्त तीन इन्द्रिय, अपर्याप्त चार इन्द्रिय, पर्याप्त चार इन्द्रिय, अपर्याप्त असज्ञो पचेन्द्रिय, पर्याप्त असनो पचेन्द्रिय, अपर्याप्त सजी पचेन्द्रिय और पर्याप्त सजी पचेन्द्रिय । इनमेसे प्रारम्भके तेरह जीवस्थानोमे दो भग होते हैं, क्योंकि इन जीवोके दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीयकी उपशमना. या क्षपणा करनेकी योग्यता नहीं पाई जाती, अतः इनके अधिकतर मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है । यद्यपि इनमेसे कुछके सास्वादन गुणस्थान भी सम्भव है फिर भी उससे भगोमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। इन जीवसमासों में जो दो भंग होते है, उनका उल्लेख गाथामे ही किया है। इन दो भगोमें से सात प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्व यह Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सप्ततिकाप्रकरण पहला भंग जब आयुकर्मका बन्ध नहीं होता तब होता है। तथा आठ प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व यह दूसरा भंग आयुकर्मफे बन्धके समय होता है। इनमेंसे पहले भगका काल प्रत्येक जीवस्थानके आयुके कालका विचार करके यथायोग्य घटित कर लेना चाहिये। किन्तु दूसरे भंगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योकि आयुकर्मके वन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पर्याप्त संज्ञी पचेन्द्रियके उक्त दो भंग तो होते ही हैं, किन्तु इनके अतिरिक्त (१) छ प्रकृतिक वन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व (२) एक प्रकृतिक बन्ध, सात प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व तथा (३) एक प्रकृतिक बन्ध, सात प्रकृतिक उदय और सात प्रकृतिक सत्त्व ये तीन भग और होते हैं। इस प्रकार पर्याप्त संजी पंचेन्द्रियके कुल पॉच भग होते है। इनमेंसे पहला भंग अनिवृत्तकरण गुणस्थान तक होता है। दूसरा भंग अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है। तीसरा भंग उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी में विद्यमान सूक्ष्म सम्पराय संयत जीवोके होता है। चौथा भंग उपशान्तमोह गुणस्थानमें होता है और पाँचवाँ भंग क्षीणमोह गुणस्थानमें होता है। केवलीके दो भग होते हैं, यह जो गाथामे वतलाया है सो इसका यह तात्पर्य है कि केवली जिनके एक प्रकृतिक वन्ध, चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व तथा चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व ये दो भग होते हैं। इनमेंसे पहला भंग सयोगिकेवलीके होता है, क्योकि एक प्रकृतिक बन्धस्थान उन्हींके पाया जाता है। तथा दूसरा भग अयोगिकेवलीके होता है, क्योकि इनके किसी भी कर्मका बन्ध न होकर केवल चार अधाति कर्मोंका उदय और सत्त्व पाया जाता है। यद्यपि चौदह जीवस्थानोमे केवली नामका Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल कर्मोके जीवस्थानोंमे संवेध भग २१ पृथक् जीवस्थान नहीं गिनाया है, अत इसका उपचारसे संजी पचेन्द्रिय पर्याप्त नामक जीवस्थानम अन्तर्भाव किया जा सकता है। किन्तु केवली जीव सजी नही होते हैं, क्योकि उनके क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रहते अत केवलीके सबित्वका निषेध करनेके लिये गाथामे उनके भगोकापृथक् निर्देश किया है । कोष्ठक निम्न प्रकार है - काल वन्ध प्र० उदय प्र० जीवस्यान। जघन्य । उत्कृष्ट अर्मुहूर्त । अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त । यथायोग्य ६ ८ ८ । सज्ञीप० एक समय | अन्तर्मुहूर्त सनी प० । एक समय अन्तर्मु० १ । ७ ७ सज्ञी प० अन्तर्मुहूर्त । अन्तर्मुहूर्त १. ४ ४ सयोगि के अन्तर्मुहूर्त | देशोन पूर्वकोटि पाँच ह्रस्व स्वरों, पाँच हस्व स्वरों के अयोगि० के उ०का०प्र० उच्चारण काल प्र० Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सप्ततिकाप्रकरण सूचना-चौदह जीवस्थानोंकी अपेक्षा सात प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्वका उत्कृष्ट काल एक , माथ नहीं बतलाया जा सकता है इसलिये हमने इस भंगके उत्कृष्ट कालके खानेमे 'यथायोग्य' ऐसा लिख दिया है। इसका यह तात्पर्य है कि एकेन्द्रियके चार, द्वीन्द्रियके दो, त्रीन्द्रियके दो, चतुरिन्द्रियके दो और पंचेन्द्रियके चार इन चौदह जीवस्थानोमे से प्रत्येक जीवस्थानकी आयुका अलग अलग विचार करके उक्त भंगके कालका क्र्थन करना चाहिये। फिर भी इस भंगका काल विवक्षित किसी भी जीवस्थानकी एक पर्यायकी अतेक्षा नही प्राप्त होता किन्तु दो पर्यायोकी अपेक्षा प्राप्त होता है क्योकि पहली पर्यायमे आयुबन्धके उपरत होनेके कालसे लेकर दूसरी पर्यायमें आयुवन्धके प्रारम्भ होने तकका काल यहाँ विवक्षित है अन्यथा इस भंगका उत्कृष्ट काल नही प्राप्त किया जा सकता है। ३. मूल कर्मोंके गुणस्थानोंमे संवेध भंग अट्ठसु एगविगप्पो छस्सु वि गुणसंनिएसु दुविगप्पो । पत्तेयं पत्तेयं बंधोदयसंतकम्माणं ॥५॥ अर्थ-आठ गुणस्थानोमें बन्ध, उदय और सत्तारूप कर्मों का अलग अलग एक एक भंग होता है और छ गुणस्थानोमे दो दो भग होते है। (१) 'मिस्से अपुव्वजुगले बिदिय अपमत्तो ' ति पढमदुर्ग । सुहुमासु तदियादी बंधोदयसत्तमंगेसु ॥--गो० कर्म० गा० ६२६ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल कर्मोंके गुणस्थानोमें संवैध भंग २३ विशेपार्थ-मोह और योगके निमित्तसे जो दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप आत्माके गुणोकी तारतम्यरूप अवस्थाविशेप होती है उसे गुणस्थान कहते हैं। यहाँ गुणसे दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप जीवके स्वभाव लिये गये है और स्थानसे उनकी तारतम्यरूप अवस्थाओका ग्रहण किया है। तात्पर्य यह है कि मोहनीय कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके तथा योगके रहते हुए जिन मिथ्यात्व आदि परिणामोके द्वारा जीवोका विभाग किया जाता है, उन परिणामोको गुणस्थान कहते हैं। वे गुणस्थान चौदह हैं-मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिवादर, सूक्ष्मसम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगि केवली और अयोगिकेवली। इनमें से प्रारम्भके वारह गुणस्थान मुख्यतया मोहनीय कर्मके निमित्तसे होते हैं, क्योकि इन गुणस्थानी का विभाग इसी अपेक्षासे किया गया है। तथा सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये दो गुणस्थान योगके निमित्तसे होते हैं, क्योकि सयोगिकेवली गुणस्थानमें योगका सद्भाव और अयोगिकेवली गुणस्थानमे योगका अभाव लिया गया है। इनमेंसेसम्यग्मिथ्याष्टिगुणस्थानको छोडकर प्रारम्भके अप्रमत्तसयत तक के छ. गुणस्थानोमें आठ प्रकृतिकवन्ध,आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व तथा सात प्रकृतिकवन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व ये दो भंग होते हैं। यहाँ पहला भग आयुकर्मके वन्धके समय होता है और दूसरा भंग आयुकर्मके वन्धकालके सिवा सर्वदा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सप्ततिकाप्रकरण पाया जाता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अपूर्वकरण और श्रनिवृत्ति चादरसम्पराय इन तीन गुणस्थानोंमें सात प्रकृतिवन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व यह एक भंग होता है, क्योंकि इन गुणस्थानोंमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता ऐसा नियम है, अतः इनमें एक सात प्रकृतिक वन्धस्थान ही पाया जाता है । सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानमे छः प्रकृतिक वन्ध, आठ प्रकृतिक उद्य और ाठ प्रकृतिक सत्त्व यह एक भंग होता है, क्योंकि इस गुणन्धानमें चादर कपायका उदय न होनेसे वायु और मोहनीय कर्मका बन्ध नहीं होता किन्तु शेष छः कर्मोंका ही बन्ध होता है। उपशान्तमोह गुणम्थानमे एक प्रकृतिक वन्ध, सात प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व यह एक भग होता है, क्योंकि इस गुणस्थानमें मोहनीय कर्म उपशान्त होनेसे सात कर्मका ही उदय होता है । क्षीणमोह गुणस्थानमे एक प्रकृतिकवन्ध, सात प्रकृतिक उद्य और सात प्रकृतिक सत्त्व यह एक भंग होता है, क्योंकि सूक्ष्म सम्पराय गुणम्यानमं मोहनीय कर्मका समूल नाश हो जानेसे यहाँ उसका उदय और सत्त्व नहीं हैं । सयोगिकेवली गुणस्थानमें एक प्रकृतिकबन्ध, चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व यह एक भंग है, क्योंकि यह गुणस्थान चार घाति कर्मके क्षयसे प्राप्त होता है, तः इसमें चार घाति कर्मोंका उदय और सत्त्व नहीं होता। अयोगिकेवली गुणस्थानमें चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व वह एक भंग है, क्योंकि इसमें योगका अभाव हो जाने से एक भी कर्मका बन्ध नहीं होता है । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल कर्मोंके गुणस्थानोमें सवेध भंग २५ चौदह गुणस्थानोमे मूल प्रकृतियोके भंगोका ज्ञापक कोष्ठक [६] भग क्रम वन्ध प्र. उदय प्र. सत्त्व प्र. गुणस्थान १ ८ प्रकृ० ८ प्र. । ८ प्रकृतिक १,२,४,५,६ व ७ २ ७ प्रकृ० ८ प्र० । ८ प्रकृतिक ८ १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८६ ३ ६ प्रकृ० ८ ० ८ प्रकृतिक १० वाँ ४ १ प्रकृ० ७ प्र० । ८ प्रकृतिक ११ वाँ __५ १ प्रकृ. प्र. ७ प्रकृतिक १२ वाँ ६ १ प्रकृ० प्र. ४ प्रकृतिक __ १३ वाँ - ४ प्र० ४ प्रकृतिक १४ वॉ ४. उत्तर प्रकृतियोंके संवेध भंग । (ज्ञानावरण व दर्शनावरणकर्म) इस प्रकार मूल प्रकृतियोकी अपेक्षा बन्ध, उदय और सत्त्व Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सप्ततिकाप्रकरण प्रकृतिस्थानोंके परस्पर संवेध का और उसके स्वामित्वका कथन किया। अब उत्तर प्रकृतियोकी अपेक्षा वन्ध, उदय और सत्व प्रकृतिस्थानोके परस्पर सवेधका कथन करते हैं। उसमें भी पहले जानावरण और अन्तराय कर्मकी अपेचा कथन करते है बंधोदयसंतसा नाणावरणंतराइए पंच । बंधोवग्मे वि तहा उदसंता हुति पंचेव ॥६॥ अथ-बानावरण और अन्तराय इन दोनोमे से प्रत्येककी अपेक्षा पाँच प्रकृतियोका बन्ध, पाँच प्रकृतियोका उदय और पाँच प्रकृतिगेका सत्त्व होना है। तथा बन्धके अभावमे भी उन्य और सत्त्व पाँच पॉच प्रकृतियोका होता है। विशेषार्थ-जानावरण और उसकी पाँची उत्तर प्रकृतियोंका वन्ध सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक होता है । इसी प्रकार अन्तराय और उसकी पाँची उत्तर प्रकृतियोका बन्धे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक होता है, क्योकि आगममे जो सेतालीस ध्रुववन्धिनी प्रकृनियाँ गिनाई हैं, उनमें ज्ञानावरणकी पाँच और अन्तरायकी पाँच इस प्रकार ये दस प्रकृतियाँ भी सम्मिलित है। तथा इनकी वन्ध व्युच्छित्ति दसवे गुणस्थानके अन्तमे और उदय तथा सत्त्वव्युच्छित्ति बारहवे गुणस्थानके अन्तमें होती है। अतः इन दोनो कमि से प्रत्येककी अपेक्षा दसर्व गुणस्थान तक पाँच प्रकृतिक बन्ध, पाँच प्रकृतिक उदय और पॉच प्रकृतिक सत्त्व यह एक भंग होता है। तथा ग्यारहवे और वारहवे गुणस्थानमें पाँच प्रकृतिक (१) 'सेग नाणतराएतु ॥ ६ ॥ नाणवरायवन्धा आसुहुमं उदयसंतया खाण.. ॥७॥'-पञ्चसं० सप्ततिः । वयोदयकम्मंसा णाणावरणतरायिए पंच । वघोपरमे वि तहा उदयसा होति पंचेव ॥'-गो० कर्म० गा० ६३० । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरण वाअन्तरायकर्मके सवेध भंग २७ उदय और पाँच प्रकृतिक सत्त्व यह एक भग होता है। इस प्रकार पाँची ज्ञानावरण और पाँचो अन्तरायकी अपेक्षा सवेधभग कुल दो प्राप्त होते है। उक्त सवेध भगोका जापक कोष्टक [७] - काल भग । बन्ध प. उदय प्र० सत्त्व प्र. गुण०। जघन्य उत्कृष्ट १ ५ ५ प्र० । ५ प्र० से१० अन्तर्मः देशोन अपार्ध पु० प० । २ . ५ प्र० ५० १११. एक समय । अन्तर्मु० कालका विचार करते समय पाँच प्रकृतिक बन्ध, पॉच प्रकृनिक उदय और पॉच प्रकृतिक सत्त्व इस भगके अनादि-अनन्त, अनादि सान्त और सादि-सान्त ये तीन विकल्प प्राप्त होते हैं। इनमेंसे प्रभव्योके अनादि-अनन्त विकल्प होता है। जो अनादि मिथ्यादृष्टि जीव या उपशान्तमोह गुणस्थानको नहीं प्राप्त हुआ सादि मिथ्यावष्टि जीव सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रको प्राप्त करके तथा श्रेणी पर आरोहण करके उपशान्त मोह या क्षीणमोह हो जाते है, उनके अनादि-सान्त विकल्प होता है। तथा उपशान्त मोह गुणस्थानसे पतित हुए जीवोके सादि-सान्त विकल्प होता है। कोष्ठकमे जो इस भंगका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्त प्रमाण बतलाया है सो वह कालके सादि-सान्त विकल्पकी अपेक्षासे ही बतलाया है, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्ट सप्ततिकाप्रकरण क्योंकि जो जीव उपशान्तमोह गुणम्यानसे च्युत होकर अन्तमुहर्त कालके भीतर पुनः उपशान्तमोही या क्षीणमोही हो जाता है उसके उक्त भंगका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । तथा जो जीव अपार्ध पुदल परावर्त कालके प्रारम्भमें सम्यग्दृष्टि होकर और अशमश्रेणी पर चढ़कर उपशान्तमाह हो जाता है। अनन्तर जब ससारमें रहनेका काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, तव क्षपकश्रेणी पर चढ़कर क्षीणमोह हो जाता है, उसके उक्त भगका उत्कृष्ट काल देशोन अपार्ध पुदल परावर्त प्रमाण प्राप्त होता है । तथा पाँच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक मत्त्व इस दूसर भंगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योकि यह भंग उप्रशान्त माह गुणस्थानमे भी होता है और उपशान्तमोह गुणम्यानका जघन्य काल एक समय है, अत इस भंगका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा उपशान्तमोह या क्षीणमोह गुणस्थानका उत्कृष्ट काल अन्नमुहूर्त है, अतः इस भंगका उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त बन जाता है। ___५. दर्शनावरण कर्मके संवैध भंग अव दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृनियो की अपेक्षा बन्धादि न्यानो का कथन करने के लिये आगेकी गाथा कहते हैं । वंधस्स य संतस्स य पगइट्टाणा ितिन्नि तुल्लाहै। उदयहाणा: दुवे चउ पणगं दंसणावरणे ॥७॥ (१)'नव छचउहा वज्मइ दुगइसमेण दसणावरणं । नव वायरम्मि सन्तं छक्क वटरो य खीणमि ॥ दंशासनिदंमाउदो समयं तु होड ना खायो । जाव पमत्तो नवण्ड उदयो छम् चउसु ना खीणो।- पञ्चस० सप्तनि० गा० १० १२ । 'गव क चदुई च च विदियावरणस्म बंधन: Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनावरण कर्मके वन्धस्थान आदि २९ अर्थ-दर्शनावरण कर्मके नौ प्रकृतिक, छहप्रकृतिक और चार प्रकृतिक ये तीन वन्धस्थान और ये ही तीन सत्त्वस्थान होते है । किन्तु उदयस्थान चारप्रकृतिक और पांच प्रकृतिक ये दो होते हैं । विशेपार्थ - दर्शनावरण कर्मके वन्धस्थान तीन हैं-नौप्रकृतिक, छप्रकृतिक और चार प्रकृतिक । नौप्रकृतिक वन्धस्थानमें दर्शनावरण कर्मकी सव उत्तर प्रकृतियोका बन्ध होता है। छह प्रकृतिक बन्धस्थान में स्त्यानर्धि तीनको छोड कर छह प्रकृतियो का बन्ध होता है और चार प्रकृतिक वन्धस्थानमे निद्रा आदि पाँच प्रकृतियोको छोडकर शेष चार प्रकृतियो का बन्ध होता है। नौ प्रकृतिक वन्यस्थान मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थान में होता है। छह प्रकृतिक बन्धस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थानके पहले भाग तक होना है और चार प्रकृतिक वन्धस्थान पूर्वकरण गुणस्थानके दूसरे भागसे लेकर सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक होता है। नौ प्रकृतिक वन्धस्थान के कालकी अपेक्षा तीन भग है - श्रनादि-अनन्त, श्रनादि- सान्त और सादि-सान्त । इनमे से नादि - अनन्त विकल्प भव्योके होता है, क्योकि भव्यों के नौ प्रकृतिक बन्धस्थानका कभी भी विच्छेद नहीं होता । अनादि-मान्त विकल्प भव्योके होता है, क्योकि इनके नौ प्रकृतिक वन्धस्थानका कालान्तरमे विच्छेद पाया जाता है । गाणि । * ॥ ४५६ ॥ एव सासणो त्ति वधो छच्चेव श्रपुत्रपढमभागोत्ति । चत्तारि हाँति तत्तो हुमकमायस्म चरिमो त्ति ॥ ४६० ॥ खीणो त्ति चारि उदया पचसु हासु दोसु हिासु । एके उदय पत्ते सीणटुचरिमो त्ति पचुदया ॥ ४६६ ॥ मिच्छादुवसतो त्तिय श्रेणियटीसवगपदमभागो ति । गवसत्ता स्त्रीणस्स दुरिमो त्तिय दूवरिमे ॥ ४६२ ॥ - गो० कर्म० । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० सप्ततिकाकरण तथा सादि- प्रान्त विकल्प सम्यक्से च्युत होकर मित्वको प्राप्त हुए जीवों के पाना जाता है। इनमें से सान्ति प्रान्त नौ प्रकृतिक बंधस्थानका जघन्य काल अतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन अपार्थपुलपरावर्त प्रमाण है, सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ जो जीव अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् सम्यग्दृष्टि हो जाता है उमके नौ प्रकृतिक बन्धस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है । तथा जो जीव अपार्थ पुलपरावर्त कालके प्रारम्भमे सम्यग्दृष्टि होकर और अन्तर्मुहूर्तकाल तक सम्यक्त्वके साथ रह कर मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है । अनन्तर पार्थ पुल परावर्त काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर जो पुनः सम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके नौ प्रकृतिक बन्धस्थानका उत्कृष्ट काल देशोन अपार्थ पुहल परावर्त प्रमाण प्राप्त होता है। छह प्रकृतिक वन्धस्थानकाजवन्य काल अन्तमुहूर्त है, क्योकि जो जीव सकल संयमके साथ सम्यक्त्व को प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर उपशमश्रेणी या नृपकश्रेणी पर चढ़कर अपूर्वकरणके प्रथम भागको व्यतीत करके चार प्रकृतियोका बन्ध करने लगता है उसके छह प्रकृतिक वन्धस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है। या जो उपशम सम्यग्दृष्टि अति स्वल्प काल तक उपशम सम्यक्त्वके साथ रहकर पीछे मिध्यात्वमे चला जाता है उसके भी छ प्रकृतिक वन्धस्थानका जघन्य काल अतर्मुहूर्त देखा जाता है । तथा छ प्रकृतिक वधस्थानका उत्कृष्ट काल एकसौं बत्तीस सागर है, क्योंकि मध्यमें सम्यग्मिथ्यात्व से अन्तरित होकर सम्यक्त्वके साथ रहनेका उत्कृष्ट काल इतना ही है । अनन्तर यह जीव या तो मिथ्यात्वको प्रात हो जाता है या क्षपकश्रेणी पर चढ़कर और सयोगिकेवली होकर क्रम से सिद्ध हो जाता है । चार प्रकृतिक वन्धस्थानका जघन्य काल एक समय हैं, क्यों कि जिस जीवने श्रपूर्वकरणके Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनावरण कर्मके सत्त्वस्थानीका काल ३१ द्वितीय भागमें प्रविष्ट होकर एक समय तक चार प्रकृतियों का बन्ध किया और मर कर दूसरे समय में देव हो गया उसके चार प्रकृतिक वन्धस्थानका जघन्य काल एक समय देखा जाता है । तथा चार प्रकृतिक व स्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योकि उपशम श्रेणी या क्षपकश्रेणी के पूरे कालका योग अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नही होता । तिस पर इस स्थानका बन्ध तो अपूर्वकरणके द्वितीय भागसे लेकर सूक्ष्मसम्पराय के अन्तिम समय तक ही होता है । दर्शनावरण कर्मके सत्त्वस्थान भी तीन ही हैं-नौप्रकृतिक, छ प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । नौं प्रकृतिक सत्त्वस्थानमे दर्शनावरण कर्मकी सब उत्तर प्रकृतियोका सत्त्व होता है । छ प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें स्त्यानर्द्वि तीनको छोड़कर शेप छ प्रकृतियों का सत्व होता है और चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें निद्रादि पाँचको छोड़कर शेष चार कासव होता है। नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थान उपशान्तमोह गुणस्थान तक होता है । छह प्रकृतिक सत्त्वस्थान क्षपक अनिवृत्ति बादरसम्परायके दूसरे भागसे लेकर क्षीणमोह गुणस्थानके उपान्त्य समयतक होता है और चार प्रकृति सत्त्वस्थान क्षीणमोह गुणस्थान अन्तिम समय होता है। नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके कालकी अपेक्षा दो भग हैं- अनादि अनंत और अनादि- सात । इनमे से पहला विकल्प अभव्यो के होता है, क्योकि इनके नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थान का कभी विच्छेद नही पाया जाता। दूसरा विकल्प भव्योके होता है, क्योकि इनके कालान्तर मे इस स्थानका विच्छेद देखा जाता है । यहाँ सादि सान्त यह विकल्प सम्भव नहीं, क्योकि नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका विच्छेद क्षपकश्रेणी में होता है परन्तु क्षपकश्रेणीसे जीवका प्रतिपात नहीं होता । छह प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि यह स्थान क्षपक अनिवृत्तिके दूसरे भागसे लेकर क्षीणमोहके - उपान्त्य समय तक Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सप्ततिकाप्रकरण होता है जिसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योकि यह स्थान क्षीणमोह गुणस्थानके अन्तिम समयमें ही पाया जाता है । दर्शनावरण कर्मके उदयस्थान दो हैं-चार प्रकृतिक और पाँच प्रकृतिक । चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इन चारका उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक निरंतर पाया जाता है अत इन चारोका समुदायरूप एक उदयस्थान है । इन चार प्रकृतियों में निद्रादि पाँचमेसे किसी एक प्रकृतिके मिला देने पर पाँच प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ छ. प्रकृतिक आदि उदय स्थान सम्भव नहीं, क्योकि निद्रादिकमे से दो या दो से अधिक प्रकृतियोका एक साथ उदय नहीं होता किन्तु एक काल मे एक प्रकृतिका ही उदय होता है । दूसरे निद्रादिक ध्रुवोदय प्रकृतियाँ नहीं हैं, क्योकि उदय योग्य कालके प्राप्त होने पर ही इनका उदय होता है, अतः यह पाँच प्रकृतिक उदयस्थान कदाचित् प्राप्त होता है । दर्शनावरण कर्मके वन्ध, उदय और सत्त्वस्थानी के परस्पर सवेधसे उत्पन्न हुए भंगो का कथन करते है - वीयावरणे नवबंधगेसु चउ पंच उदय नव संता । छच्वंउवंधे चेवं च बंधुदए छलंसा य ॥ ८ ॥ उवरयवंधे चउ पण नवंस चउरुदय छच चउसंता । (१) 'चपणउदो वधेसु तिसु वि श्रन्वधगे वि उवसते । नव सतं व उइण्णसताइ चउखी ॥ खवगे सुहुमंमि चऊबन्धमि श्रवघमि खीणम्मि । छस्सतं चउरुदत्रो पंचण्ह वि केइ इच्छति ॥ -- पञ्चस० सप्ताति० गा० १३, १४ । 'विदियाचरणे गववघगेसु चदुपचउदय गाव सत्ता । छव्वधगेसु (छचउवधे ) एवं तह चटुवधे छडंसा य ॥ उवरदवंवे चदुपच उदक गणव छच्च सत्त चदु जुगलं । - गो० कर्म० गा० ६३१, ६३२ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनावरण कर्मके संवैध भंग ३३ अर्थ-दर्शनावरणकी नौ प्रकृतियोका बन्ध होते समय चार या पाँच प्रकृतियोका उदय और सत्ता नौ प्रकृतियोकी होती है। छ और चार प्रकृतियो का वन्ध होते समय उदय और सत्ता पहलेके समान होती है। चार प्रकृतियोका बन्ध और चार प्रकृतियोका उदय रहते हुए सत्ता छः प्रकृतियोकी होती है। तथा वन्धका विच्छेद हो जाने पर चार या पाँच प्रकृतियोका उदय रहते हुए सत्ता नौकी होती है और चार प्रकृतियो का उदय रहते हुए सत्ता छह और चार की होती है। विशेषार्थ-पहले और दूसरे गुणस्थानमे दर्शनावरण कर्म की नौ प्रकृतियोका बन्ध, चार या पाँच प्रकृतियोका उदय और नौ प्रकृतियोकी सत्ता होती है। यहाँ चार प्रकृतिक उदयस्थान में चक्षुदर्शनावरण आदि चार ध्रवोदय प्रकृतियाँ ली गई हैं। तथा इनमें निद्रादिक पॉच प्रकृतियों में से किसी एक प्रकृतिके मिला देने पर पॉच प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है। इस प्रकार नौ प्रकृतिक वन्ध और नौ प्रकृतिक सत्त्वके रहते हुए उदयकी उपेक्षा दो भंग होते हैं--(१) नौप्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व तथा (२) नौ प्रकृतिक बन्ध, पाँच प्रकतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्व । इनमे से पहला भग निद्राटिमेंसे किसी एकके उदयके विना होता है और दूसरा भग निद्रादिकमेसे किसी एकके उदयके सद्भाव मे होता है। 'छः प्रकृतिक वन्ध और चार प्रकृतिक बन्धके होते हुए उदय और सत्ता पहलेके समान होती है।' इसका यह तात्पर्य है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर उपशामक अपूर्वकरण गुणस्थान के पहले भाग तक जीवोके छ. प्रकृतियोका बन्ध चार या पाँच प्रकृतियोका उदय और नौ प्रकृतियोका सत्त्व होता है। तथा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण उपशामक अपूर्वकरण गुणस्थानके दूसरे भागसे लेकर सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान तकके जीवोंके चार प्रकृतियोका बन्ध, चार या पाँच प्रकृतियोका उदय और नौ प्रकृतियोका सत्त्व होता है। यहाँ इन दोनो स्थानोकी अपेक्षा कुल भंग चार होते हैं-(१) छः प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व। (२) छ. प्रकृतिक वन्ध, पॉच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्व । (३) चार प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व तथा (४) चार प्रकृतिक बन्ध, पॉच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व । यहाँ इतनी विशेषता है कि स्त्यानर्द्धि तीनका उदय प्रमत्तसंयत गुणस्थानके अन्तिम समय तक ही होता है, अत. इस गुणस्थान तक निद्रादि पॉचमें से किसी एकका उदय और अप्रमत्तसयत आदि गुणस्थानोमे निद्रा और प्रचला इन दोमें से किसी एकका उद्य कहना चाहिये। किन्तु क्षपकश्रेणोमे कुछ विशेषता है। बात यह है कि क्षपक जीव अत्यन्त विशुद्ध होता है, अतः उसके निद्रा और प्रचला प्रकृतिका उदय नहीं होता और यही सबब है कि क्षपकरणी में पूर्वोक्त चार भंग न प्राप्त होकर पहला और तीसरा ये दो भङ्ग ही प्राप्त होते है। इनमेंसे छह प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व यह पहला भग क्षपक जीवो के भी अपूर्वकरणके प्रथम भाग तक होता है। तथा चार प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व यह भंग क्षपक जीवो के अनिवृत्ति बादरसम्परायके संख्यात भागो तक होता है। यहाँ स्त्यानचित्रिक का क्षय हो जानेसे क्षपक जीवोके आगे नौ प्रकृतियों का सत्त्व नहीं रहता, अत. इन क्षपक जीवोके अनिवृत्तिवादरसम्परायके सख्यात भागोंसे लेकर सूक्ष्मसम्पराय Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनावरण कर्मके संवेध भंग गुणस्थानके अन्तिम समय तक चार प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व यह एक भग और होता है जो उपर्युक्त चार भंगोसे पृथक् है। इस प्रकार दर्शनावरणकी उत्तर प्रकृतियोंका यथासम्भव बन्ध रहते हुए कहॉ कितने भग सम्भव हैं इसका विचार किया। अव उदय और सत्ताकी अपेक्षा दर्शनावरण कर्मके जहाँ जितने भग सम्भव हैं इसका विचार करते हैं। बात यह है कि उपशान्तमोह गुणस्थानमें दर्शनावरणकी सभी उत्तर प्रकृतिथोकी सत्ता रहती है और उदय विकल्पसे चार या पॉच का पाया जाता है, अत यहाँ (१) चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व या (२) पाँच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व ये दो भग होते है। किन्तु क्षीणमोह गुणस्थानमे स्त्यानद्वित्रिकका अभाव है, क्योकि इनका क्षय क्षपक अनिवृत्तिकरणमे हो जाता है। दूसरे इसके उपान्त्य समयमे निद्रा और प्रचला का भी क्षय हो जाता है जिससे अन्तिम समयमे चार प्रकृतियोंका ही सत्व रहता है। तथा क्षपकश्रेणीमें निद्रादिकका उदय नहीं होता इसका उल्लेख पहले ही कर आये हैं, अतः यहाँ (१) चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व तथा (२) चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व ये दो भग होते हैं। इनमेंसे पहला भग क्षीणमोहके उपान्त्य समय तक और दूसरा भग क्षीणमोहके अन्तिम समयमें होता है। अब सरलता से ज्ञान होनेके लिये इन सव भगोंका कोप्टक देते हैं Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण [८] अनुबन्ध प्र. उदय प्र० सत्त्व प्र० गुणस्थान ९५० ४ प्र० प्र० -- है प्र० ५ प्र० प्र० १,२ ४प्र. ६प्र० ५० प्र० ३, ४, ५, ६, ७, ८ | ४ प्र० ४ प्र० | १० ८,९,१० दोनां श्रेणियों में प्र० ५प्र. ८, ९, १० उप० श्रे० ४ प्र० । ४ प्र. ६ प्र० ६, १० क्षप. श्रे. - ४ प्र० प्र० उपशान्तमोह . - - - ५ प्र० ९ प्र० । उपशान्तमोह ४ प्र० ६ प्र. - क्षीणमोह उपान्त्य समयतक | क्षीणमोह अन्तिम समयमें ४प्र. सूचना-पाँचवॉ भंग जो दोनो श्रेणियो मे बतलाया है सो क्षपकश्रेणीमे इसे ९ वे गुणस्थानके संख्यात भागो तक ही जानना चाहिये। इसके आगे क्षपकश्रेणीमें सातवाँ भंगप्रारम्भ हो जाता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनावरण कर्मके सम्बन्धमे मतान्तर ३७ यहाँ दर्शनावरण कर्मकी उत्तर प्रकृतियोंके जो ग्यारह संवैध भग बतलाये गये हैं उनमे (१) चार प्रकृतिक वन्ध, चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व (२) चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व तथा ( ३ ) चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व ये तीन भंग भी सम्मिलित हैं। इनमें से पहला भग क्षपकश्रेणी के नौवें और दसवे गुणस्थानमें होता है और दूसरा तथा तीसरा भग क्षीणमोह गुणस्थानमें होता है। इससे मालूम पड़ता है कि इस ग्रन्थके कर्ता का यही एक मत रहा है कि क्षपकश्रेणी में निद्रा और प्रचला प्रकृतिका उदय नहीं होता । मलयगिरि आचार्यने सत्कर्म ग्रन्थका एक गोथाश उद्धृत किया है । उसका भी यही भाव है कि 'क्षपकश्रेणी मे और क्षीणमोह गुणस्थान मे निद्राद्विकका उदय नहीं होता ।' कर्मप्रकृतिकार तथा पञ्चसग्रहके कर्ताका भी यही मत है किन्तु पञ्चसंग्रह के कर्ता 'क्षपकश्रेणीमे और क्षीणमोह गुणस्थान मे पाँच प्रकृतिका भी उदय होता है' इम दूसरे तसे परिचित अवश्य थे। जिसका उल्लेख उन्होने 'पंचरह वि as इच्छति' इस रूपसे किया है । मलयगिरि आचार्यने इसे कर्मस्तकारका मत बतलाया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि इस परस्पराने कर्मम्तवकारके सिवा प्राय भव कार्मिकोका यही एक मत रहा है कि क्षपक श्रेणी में और क्षीणमोह गुणस्थान में निद्राद्विकका उदय नहीं होता । किन्तु दिगम्बर परम्परामें सर्वत्र विकल्प वाला मत पाया जाता है। कसायपाहुडकी चूर्णिमे यतिवृषभ (१) 'निद्दादुगस्स उदश्रो स्त्रीरागखवगे परिश्वज ।' - मल० सप्तति ० टी० पृ० १५८ । ( २ ) निद्दापयलाएं खीणरागखवगे परिश्वज || - कर्मप्र ० उ० गा० १० । (३) देखो ३२ पृष्ठ की टिप्पणी । ( ४ ) 'कर्मस्तवकार • मतेन पञ्चानामप्युदयो भवति । पञ्च सं० सप्ततिः टी० गा० १४ । 1 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सप्ततिकाप्रकरण आचार्य केवल इतना ही संकेत करते हैं कि 'क्षपकश्रेणी पर चढ़ने वाला जीव आयु और वेदनीय कर्मको छोड़कर उदय प्राप्त शेप सब कर्मों की उदीरणा करता है। पर इसपर टीका करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि क्षकश्रेणिवाला जीव पॉच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरणका नियमसे वेदक है किन्तु निद्रा और प्रचलाका कदाचित् वेदक है, क्योंकि इनका कदाचित् अव्यक्त उदय होनेमे कोई विरोध नहीं आता। अमितिगति आचार्यने भी अपने पञ्चसंग्रहमें यही मत स्वीकार किया है कि क्षपकरणीमें और क्षीणमोहमे दर्शनावरणकी चार या पांच प्रकृतियोंका उदय होता है। और इसलिये उन्होंने तेरह भंगोका उल्लेख भी किया है। नेमिर्चन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका भी यही मत है। दिगम्बर परम्पराकी मान्यतानुसार चार प्रकृतिक वन्ध, पांच प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व यह एक भंग तो नौवें और दसवे गुणस्थानमे बढ़ जाता है। तथा पांच प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व यह एक भंग क्षीणमोह गुणस्थानमे बढ़ जाता है। इस प्रकार दर्शनावरण कर्मके संवेध भंगोका कथन करते समय जो ग्यारह भंग वतलाये हैं उनमें इन दो भंगोके मिला देने पर दिगम्बर मान्यतानुसार कुल तेरह भंग होते हैं। - (१) आउगवेदणीयवज्जाण वेदिज्जमाणाणं कम्माणं पवेसगो।'--क० पा० चु० (क्षपणाधिकार)। (२) पचण्हं णाणावरणीयाणं चदुण्हं दसणावरणीयाण णियमा वेदगो, गिद्दापयलाणं सिया, तासिमवत्तोदयस्स कदाई संभवे विरोहाभावादो। जयध० (क्षपणाधिकार ) ( ३ ) द्वयोर्नव द्वयो। षड्वं चतुर्पु च चतुष्टयम् । पञ्च पञ्चसु शुन्यानि भनाः सन्ति त्रयोदश ।' पञ्च० अमि० श्लो० ३८८ । (४) देखो ३२ पृष्ठ की टिप्पणी । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदनीय, आयु व गोत्र कर्मका विचार ३९ ऐला नियम है कि जो प्रकृतियाँ स्वोदयसे क्षयको प्राप्त नहीं होती हैं उनका प्रत्येक निषेक अपने उपान्त्य समयमें स्तिवुक सक्रमणके द्वारा उदयगत अन्य सजातीय प्रकृतिरूपसे सक्रमित होता जाता है। इस हिसावसे निद्रा और प्रचलाका क्षीणमोह गुणस्थानके उपान्त्य समयमे सत्त्वनाश मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है पर जिन आचार्योंके मतसे क्षपकश्रेणीमें और क्षीणमोह गुणस्थानमे निद्रा और प्रचलाका उदय सम्भव है उनके अभिप्रायानुसार इन दोनोका क्षीणमोह गुणस्थानके अन्त समयमें सत्वनाश स्वीकार न करके उपान्त्य समयमें ही क्यो स्वीकार किया गया है यह वात विचारणीय अवश्य है। अव वेदनीय, आयु और गोत्र कर्ममें सवेध भग वतलाते है वेयेणियाउयगोए विभज मोहं परं वोच्छं ॥९॥ अर्थ-वेदनीय, आयु और गोत्र कर्ममें बन्धादिस्थान और संवेध भगोका विभाग करके पश्चात् मोहनीयके वन्धादिस्थानोका कथन करेंगे ।। विशेपार्थ-ग्रन्थकर्ताने मूलमें वेदनीय, आयु और गोत्र कर्ममें विभाग करनेकी सूचनामात्र की है। किन्तु किस कर्ममें अपनी अपनी उत्तर प्रकृतियोकी अपेक्षा कितने बन्धादिस्थान और उनके कितने सवेध भग होते हैं यह नहीं बतलाया है। किन्तु मलयगिरि आचार्यने अपनी टीकामें इसका विस्तृत विचार किया है अत उसीके अनुसार यहा इन सव वातोको लिखते हैं (१) 'दो संतवाणाइ बन्धे उदए य ठागायं एक। वेयणियाउयगोए । ॥-पञ्चसं० सप्तति० गा० ६ । 'तदियं गोदं आउं विभज मोहं पर घोच्छ।-गो० कर्म० गा० ६३२ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण ६. वेदनीय कर्मक संवेध भंग वंदनीय कर्मके दो भेद हैं-साता और असाता। इनमें से एक कालमें किसी एकका वन्ध और किसी एकका ही उदय होता है, क्योंकि ये दोनो परम्पर विरोधिनी प्रकृतियाँ हैं, अत. इनका एक साथ वन्य और उदय सम्भव नहीं। किन्तु किमी एक प्रकृतिकी सत्त्वव्युच्छित्ति होने नकमत्ता ढोना प्रकृतियोंकी पाई जाती है। पर किसी एककी सत्वब्युच्छित्ति हो जाने पर किसी एककी ही सत्ता पाई जाती है। इतनं कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वेदनीयकी उनर प्रकृतियोंकी अपेक्षा बन्धस्थान और उदयस्थान सर्वत्र एक प्रकृतिक ही होता है किन्तु सत्त्वस्थान दो प्रकृतिक और एकप्रकृतिक इस प्रकार दो होते हैं। अब इनके सवेधभंग बतलाते हैं-(१) असाताका बन्ध, असाताका उदय और दोनोंका सत्त्व (२) असाताका वन्ध, साताका उदय और दोनोका सत्त्व (३) साताका बन्ध, साताका उदय और दोनोका सत्त्व (४) माताका बन्ध, असाताका उदय (१) 'तेरसमएस सायासायाण बंधवाच्छेश्रो। सतटइण्याइ पुणो सायासायाइ सम्बेसु ॥'-पञ्चसं० सप्तति० गा० १७ । 'सादासादेवदरं वंधुदया होति संभवहाणे। दो सत्त जोगि ति य चरमे उदयागदं सत्त ।।' मो० कर्म० गा० ६३३ 1 (.) 'वघड उइण्ण्यं वि य इयरं वा दो वि सत ठभंगो। सतमुइण्णमबंधे दो दोणि दुसत इड अट्ठ॥पञ्चसं. सप्तति० गा० १८ । 'छठो ति चार भगा दो भगा होति नाव जोगिक्षिणे। चटमंगाऽजोगिनिणे ठाण पडि वेयणीयस्स-॥-गो० कर्म० गा० १३४ । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदनीय कर्मके संवेध भंग और दोनोका सत्त्व इस प्रकार वन्धके रहते हुए चार भंग होते हैं । इनमे से प्रारम्भके दो भग मिथ्यावष्टि गुणस्थानसे लेकर प्रमत्तसयत गुणग्थान तक होते हैं, क्योकि प्रमत्तसंयतमें असाताकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे आगे इसका वन्ध नहीं होता। अत अप्रमत्तसयत आदि गुणस्थानोमें ये दो भग नहीं प्राप्त होते । किन्तु अन्तके दो भग मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणम्थान तक होते है, क्योकि साताका बन्ध सयोगिकेवली गुणस्थान तक ही होता है । तथा वन्धके अभावमें (१) असाताका उदय और दोनोका सत्त्व, (२) साताका उदय और दोनोंका सत्त्व (३) असाताका उदय और असाताका सत्त्व तथा (४) साता का उदय और साताका सत्त्व ये चार भङ्ग होते हैं। इनमें से प्रारम्भके दो भङ्ग अयोगिकेवली गुणस्थानमे द्विचरम समय तक होते हैं, क्योकि अयोगिकेवलीके द्विचरम समय तक सत्ता दोनोकी पाई जाती है। तथा तीसरा और चौथा भङ्ग चरम समयमें होता है। जिसके द्विचरम समयमे साताका क्षय हो गया है उसके अन्तिम समयमें तीसरा भङ्ग पाया जाता है और जिसके द्विचरम समयमें असाताका क्षय हो गया है उसके अन्तिम समयमें चौथा भग पाया जाता है। इस प्रकार वेदनीय कर्मके कुल भङ्ग ओठ होते है। अव उपर्युक्त . विशेषताओके साथ इन भङ्गोका ज्ञापक कोष्ठक देते है (१) 'वेयणिये अट्ट भगा॥'-गो० कर्म० गा० ६५१॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सप्ततिकाप्रकरण [९] - - क्रम नं० वन्धप्र० वन उदयप्र० सत्त्वप्र० गुणस्थान अ० । श्र० । १, २, ३, ४.५,६] सा. २ १ , २, ३, ४, ५.६ - सा० । प० । २ । १ से १३ तक सा. सा० २ १ से १३ तक • अ० १४ द्विचरम समयतक __ . । । सा० सा० २ १४ द्विचरम समयतक - १४ चरम समयमें सा० सा० १४ चरम समयमें ७. आयुकर्मके संवेध भंग गाथामे की गई प्रतिज्ञाके अनुसार वेदनीय कर्म और उसके संवेध भंगोका विचार किया। अव आयु कर्मके बन्धादि स्थान और उनके संवेध भनोका विचार करते हैं-एक पर्यायमें किसी एक आयुका उदय और उसके उदयमें बंधने योग्य किसी एक आयुका ही वन्ध होता है, 'दो या दोसे अधिकका नहीं, अतः Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुकर्मके संवेध भंग वन्ध और उदयकी अपेक्षा आयुका एक प्रकृतिक वन्धस्थान और एक प्रकृतिक उदयस्थान होता है। किन्तु दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक इस प्रकार सत्त्व स्थान दो होते हैं। जिसने परभवसम्बन्धी आयुका वध कर लिया है उसके दो प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है और जिसने परभवसम्बन्धी आयुका वन्ध नहीं किया है उसके एक प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। ___ आयु कर्मकी अपेक्षा तीन अवस्थाए होती हैं-(१) परभवसम्बन्धी आयु कर्मके वन्धकालसे पहलेकी अवस्था (२) परभवसम्बन्धी आयुके वन्धकालकी अवस्था और (३ ) परभवसम्बन्धी आयुवन्धसे उत्तर कालकी अवस्था। इन्हीं तीनों अवस्थाओंको क्रमसे अवन्धकाल, वन्धकाल और उपरतवन्धकाल कहते हैं। इनमे से नारकियोके अवन्धकालमे नरकायुका उदय और नरकायुका सत्त्व यह एक भङ्ग होता है जो प्रारम्भके चार गुणस्थानोमें सम्भव है, क्योकि नरकमे शेष गुणस्थान नहीं होते। वन्धकालमें (१) तिर्यंचायुका बन्ध, नरकायुका उदय और तियंच-नरकायुका सत्त्व तथा (२) मनुष्यायुका वन्ध, नरकायुका उदय और मनुष्य-नरकायुका सत्त्व ये दो भङ्ग होते हैं। इनमे से पहला भङ्ग मिथ्यात्व और सास्वादन गुणस्थानमें होता है, क्योकि तिर्यंचायुका वन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है । तथा दूसरा भङ्ग मिथ्यात्व, (१) 'एवमवंधे बंधे उवरदवधे वि होति भंगा हु । एकस्सेकम्मि भवे एकाउ पडि तये णियमा ॥-पो० कर्म० गा० ६४४। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ सप्ततिकाप्रकरण सास्वादन और अविरतसम्यग्दृष्टि इन तीन गुणस्थानोंमें होता है, क्योकि नारकियोके उक्त तीन गुणस्थानोंमें मनुष्यायुका बन्ध पाया जाता है । तथा उपरत वन्धकालमे ( १ ) नरकायुका उदय और नरक तिर्यचायुका सत्त्व तथा ( २ ) नरकायुका उदय और नरक - मनुष्यायुका सत्त्व ये दो भग होते हैं । नारकियोके ये दोनों भंग प्रारम्भके चार गुणस्थानो में सम्भव हैं, क्योंकि तिर्यचायुके बन्ध कालके पश्चात् नारकी जीव अविरतसम्यग्दृष्टि या सम्यग्मि ' थ्यादृष्टि हो सकता है, इसलिये तो पहला भंग प्रारम्भके चार गुणस्थान में सम्भव है । तथा अविरतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवके भी मनुष्यायुका बन्ध होता है और वन्ध कालके पश्चात् ऐसा जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको भी प्राप्त हो सकता है इसलिये दूसरा भंग भी प्रारम्भके चार गुणस्थानो में सम्भव है । इस प्रकार नरकगतिमे आयुके अवन्ध, बन्ध और उपरतबन्ध की अपेक्षा कुल पाच भग हाते है । यहा इतना विशेष है कि नारकी जीव स्वभावसे ही नरकायु और देवायुका बन्ध नहीं करते हैं, क्योकि नारकी जीव मरकर नरक और देव पर्यायमे उत्पन्न नहीं होते हैं । ऐसा नियम है। कहा भी है 1 'देवा नारगा वा देवेसु नारगेसु वि न उववनंति ॥' अर्थात् देव और नारकी जीव देवो और नारकियों इन दोनोमें नहीं उत्पन्न होते है । आशय यह है कि जिस प्रकार तिर्यंचगति और मनुष्यगतिके जीव मरकर चारो गतियोंमें उत्पन्न Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुकर्मके संवैध भंग होते हैं उस प्रकार देव और नारकी जीव मरकर केवल तिर्यच और मनुष्यगतिमें ही उत्पन्न होते है शेप मे नहीं। नरकगतिमे आयुकर्मको उक्त विशेषताओका कोष्ठक [१०] क्रम न० काल कमन काल वन्ध उदय सत्त्व गुणस्थान अवन्धकाल . । न० । न० १, २, ३, ४ बन्धकाल ति. न० न० ति. बन्धकाल म० । न० न० म० ४ उप० बन्धकाल . न० न० ति०] १, २, ३, ४ ५ उप० वन्धकाल . न० न०म० १, २, ३, ४ अवन्ध, वन्ध और उपरतबन्धकी अपेक्षा नरकगति में जिस प्रकार पांच भग बतलाये हैं उसी प्रकार देवगतिमें भी जानना । चाहिये । किन्तु नरकायुके स्थानमे सर्वत्र देवायु कहना चाहिये। यथा-देवायुका उदय देवायुका सत्त्व इत्यादि । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण देवगतिमें आयुकर्मको उक्त विशेषताओका कोष्ठक [११] मम काल , बन्ध उदयस्था० सत्त्वस्था० गुणस्थान श्रवन्नकाल . १, २, ३. ४ २ । वन्धकाल | ति० । दे० दे० ति० १,२ । ३ वन्धकाल । म. दे० दे० म० १, २, ४ ४ उप० वन्धका० ० । दे० दे०तिः दे० । १, २, ३, ४ ५ उप वन्धका दे० म० १, २, ३, ४ तिर्यच गतिमें अवन्धकालमै तिर्यंचायुका उदय और तिर्यचायुका सत्त्व यह एक भंग होता है जो प्रारम्भके पांच गुणस्थानी मे पाया जाता है, क्योंकि तिर्यंचगतिमे शेष गुणस्थान नहीं होते। चन्धकालम (१) नरकायुका वन्ध तिर्यंचायुका उदय और नरक-तियंचायुका सत्त्व (२) नियंचायुका वन्ध तिथंचायुका उदय और तियेच-तियंचायुका सत्त्व (३) मनुष्यायुका वन्ध, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ आयुकर्मके संवैध भंग तिर्यंचायुका उदय और मनुष्य-तिर्यंचायुका सत्त्व तथा (४) देवायुका वन्ध, तिथंचायुका उदय और देव-तिर्यंचायुका सत्त्व ये चार भग होते हैं। इनमें से पहला भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे होता है, क्योकि मिथ्यारष्टि गुणस्थानको छोड़कर अन्यत्र नरकायु का बन्ध नहीं होता। दूसरा भंग मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थानमे होता है, क्योंकि तिथंचायुका बन्ध सास्वादन गुणस्थान तक ही होता है। तीसरा भंग भी मिथ्यादृष्टि और सावादन गुणस्थान तक ही होता है, क्योकि तियेच जीव मनुष्यायुका वन्ध मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थानमे ही करते हैं, अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थानमे नहीं। तथा चौथा भंग सम्यग्मिथ्यावष्टि गुणस्थानको छोड़कर देशविरतगुणस्थान तक चार गुणस्थानोमें होता है, क्योकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें आयु कर्मका वन्ध ही नहीं होता। तथा उपरतबन्धकालमे (१) तिर्यचायुका उदय और नरक-तिर्यंचायुका सत्त्व (२) तिर्यंचायुका उदय और तिर्यंच-तिर्यंचायुका सत्त्व (३) तिर्यंचायुका उदय और मनुष्य-तिर्यंचायुका सत्त्व तथा (४) तिर्यंचायुका उदय और देव-तिर्यंचायुका सत्त्व ये चार भंग होते हैं। ये चारो भग प्रारम्भके पांच गुणस्थानोंमें होते हैं, क्योकि जिस तिर्यंचने नरकायु, तिर्यंचायु या मनुष्यायुका वध कर लिया है उसके द्वितीयादि गुणस्थानोका पाया जाना सम्भव है । इस प्रकार तियंचगतिमें अवन्ध, चन्ध और उपरतवन्धकी अपेक्षा आयुके कुल नौ भंग होते हैं। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण तिर्यंचगतिमें आयुकर्मकी उक्त विशेषताओंका कोष्ठक [१२] क्रम नं०। काल । वन्ध उदय सत्त्व गुणस्थान अ.का. ति० ति० १,२,३,४,५, २ । बन्धकाल' न० ति० न० ति. ३ । बन्धकाल ति. ति० (ति. ति. वन्धकाल म. ति० म० ति. वन्धकाल । दे० । ति० दे० ति० १,२,४, ५, | ति० । सि.न. १,२,३, ४, ५ ७०० का० ति. ति.ति. ११,२,३, ४, ५ ८ उ० ब० काल . ति. ति०म० १,२, ३, ४, ५ ९ उ०० काल . ति. ति० दे० १, २, ३, ४, ५ तथा मनुष्यगतिमे अबन्धकालमें मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्त्व यह एक ही भंग होता है जो चौदहों गुणस्थानो में सम्भव है, क्योंकि मनुष्योके यथासम्भव चौदहो गुणस्थान होते हैं। वन्धकालमें (१) नरकायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रयुकर्मके संवैध भंग ४९ और नरक- मनुष्यायुका सत्त्व (२) तिर्यचायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और तिर्यच मनुष्यायुका सत्त्व (३) मनुष्यायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और मनुष्य - मनुष्यायुका सत्त्व तथा ( ४ ) देवायुका बम्ध, मनुष्यायुका उदय और देव-मनुष्यायुका सत्त्व ये चार भंग होते हैं। इनमें से पहला भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होता है, क्योकि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको छोड़कर अन्यत्र नरकायुका बन्ध सम्भव नहीं । दूसरा भग मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थानमे होता है, क्योकि तिर्यचायुका वन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है। तीसरा भंग भी मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थानमें ही पाया जाता है, क्योकि मनुष्य जीव तिर्यंचायुके समान मनुष्यायुका बन्ध भी दूसरे गुणस्थान तक ही करते हैं । तथा चौथा भंग सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको छोड़कर अप्रमत्तसंयत तक छह गुणस्थानोमें होता है, क्योकि मनुष्य गतिमें देवायुका वन्ध अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाया जाता है । तथा उपरतबन्धकालमै ( १ ) मनुष्यायुका उदय और नरक -मनुष्यायु का सत्त्व ( २ ) मनुष्यायुका उदय और तिर्यच मनुष्यायुका सव (३) मनुष्यायुका उदय और मनुष्य मनुष्यायुका सत्त्व तथा (४) मनुष्यायुका उदय और देव-मनुष्यायुका सत्त्व ये चार भ होते हैं । इनमे से प्रारम्भके तीन भग श्रप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाये जाते हैं, क्योकि जिस मनुष्य ने नरकायु, तिर्यचायुः या. मनुष्यायुका अपने योग्य स्थानमें बन्ध कर लिया है वह बन्ध करने के पश्चात् सयमको प्राप्त करके अप्रमत्तसंयत भी हो सकता H ४ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सप्ततिकाप्रकरण है। आशय यह है कि यद्यपि मनुष्य गतिमें नरकायुका बन्ध प्रथम गुणस्थान में, तिथंचायुका बन्ध दूसरे गुणस्थान तक और इसी प्रकार मनुष्यायुका वन्ध भी दूसरे गुणस्थान तक ही होता है। तथापि बन्ध करने के बाद ऐसे जीव संयम को तो धारण कर सकते हैं, किन्तु श्रेणोपर नही चढ़ सकते, इस लिये उपरतवन्धकी अपेक्षा इन तीन आयुओका सत्त्व अप्रमत्त गुणस्थान तक बतलाया है। तथा चौथे भंगका प्रारम्भके ग्यारह गुणस्थानो तक पाया १-यद्यपि यहा हमने तिर्यंचगतिके कोष्टक में उपरतरवन्धकी अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायुका सत्त्व पाचवें गुणस्थान तक बतलाया है। इसी प्रकार मनुष्यगतिके कोष्ठ कमें उपरतवन्धकी अपेक्षा नरकायु, तिथंचायु और मनुष्यायुका सत्व सातवें गुणस्थान तक बतलाया है। पर इस विषय में अनेक मत पाये जाते हैं। देवेन्द्रसूरिने कर्मस्तव नामक दूसरे कर्म प्रन्थके मत्ताधिकारमे लिखा है कि दूपरे और तीसरे गुणस्थानके सिवा प्रथमादि ग्यारह गुणस्थानों में १४८ प्रकृतियोंकी सत्ता सम्भव है। तथा आगे चलकर इसी ग्रन्थमे यह भी लिखा है कि चौधे से सातवें गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानोंमें अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसंयोजना और तीन दर्शनमोहनीयका क्षय हो जाने पर १४१ की सत्ता होती है। तथा अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानों में अनन्तानुवन्धी चतुष्क, नरकायु और तिर्यंचायु इन छह प्रकितियों के विना १४२ प्रकृतियों की सत्ता होती है। इससे दो मत फलित होते हैं। प्रथमके अनुसार तो उपरतवन्धकी अपेक्षा चारों आयुओंकी सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक सम्भव है । तथा दूसरे के अनुसार उपरत बन्धकी अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायुको सत्ता सातवें गुणस्थान तक पाई जाती है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रयुकर्मके संवेध भग ५१ जाना सम्भव है, क्योंकि जिस मनुष्यने देवायुका बन्ध कर लिया है उसका श्रमश्रेणी पर आरोहण करना सम्भव है । इस प्रकार मनुष्यगति अवन्ध, बन्ध और उपरतवन्धकी अपेक्षा श्रयुकर्म के कुल नौ भग होते है। तथा चारो गतियोमे सब भगो का योग ठोस होता है । पचसंग्रह के सप्ततिका सग्रह नामक प्रकरणकी गाथा १०६ से इस दूसरे मतको ही पुष्टि होती है। वृत्तमाध्यमे भी इसी मनकी पुष्टि हाती है । किन्तु पसग्रहके इसी प्रकरणको छडी गाथामें इन दानोंसे भिन्न एक अन्य मत भो दिया है । वहा बतलाया है कि नरकायुकी सत्ता चीये गुणस्थान तक, तिर्य चायुकी सत्ता पाचवे गुणस्थानतक देनायु की सत्ता ग्यारहवं गुणस्थानतक श्रीर मनुष्यायुकी सत्ता चौदहवे गुणस्थाननक पाई जाती है । यह मत गोमट्टधार कर्मकाण्ड के अभिप्राय से मिलता जुनता है । वहा उपरतवन्धको अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्याकी सत्ता चीये गुणस्थानतक तथा देवयुको सत्ता ग्यारहवे गुणस्थाननक बतलाई है । पचसग्रहके उक्त मतसे भी यही बात फलित होती है । दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थोंमें यही एक मत पाया जाता है | यहा पर हमने दूसरे मतको ही प्रधानता दो है क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा में अधिकतर इमी मनकी मुख्यता देखी जाती है । मलयगिरि श्राचार्य ने भी इसी मतके श्राश्रयसे सर्वत्र वर्णन किया है । (१) 'नारयसुराउदो चड पचम तिरि मणुम्स चोद्दसमं । श्रसम्मटेमजोगी वसना सतयाऊण ॥ श्रव्यंवे इगि संतं दो दा बद्वार वज्ममागणाण | चउवि एकमुश्र पण नव नव पच इइ भेया ॥ - पञ्च स० सप्तति० गा०८, ९ । 'पण पत्र व पण भगा आउच उक्कंसु विसरित्या - || - गो० कर्म० गा० ६५१ । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण मनुष्यगतिमें संवेधभंगोका ज्ञापक कोष्ठक [१३] कमन काल (बन्ध | उदय/ सत्त्व गुणस्थान प्रबन्ध काल ० म० चौदह गुणस्थान वन्ध काल न० म० म० न० वन्ध काल ति० | म०म० ति. १,२ वन्ध काल , म. म. म. म. १,२ बन्धकाल दे० म०म० दे० १, २, ४, ५, ६, ७ ६ उपरतवं. का० ० म०म० न० १, २, ३, ४, ५, ६, ७ उपरत. काल १, २, ३, ४, ५, ६, ७ उपरत० काल १, २, ३, ४, ५ ६, ७ ६ उपरत० काल | 0 | म० म० दे०१ से ११ तक यहां प्रत्येक गतिमें आयुके भंग लानेके लिए यह नियम है कि जिस गतिमें जितनी आयुओंका बन्ध होता हो उस संख्याको (१) 'एकाउस्स तिभंगा संभवभाजहिं ताडिदे गाणा। जीवे इगिभवभगा स्कणगुगृणमसरित्ये॥-गो० कर्म० गा० ६४५ । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्रकर्मके संवैध भंग ५३ तीनसे गुणा कर दे और जहां जो लब्ध प्राप्त हो उसमें से एक कम बंधनेवाली आयु सख्या घटा दे तो प्रत्येक गतिमें आयुके अन्ध, बन्ध और उपरतवन्धकी अपेक्षा कुल भंग प्राप्त हो जाते हैं। यथा-नरक गतिमें दो आयुओका बन्ध होता है अत. दो को तीनसे गुणित कर देने पर छह प्राप्त होते हैं। अब इसमें से एक कम वधनेवाली योकी सख्या एकको कम कर दिया तो नरकगतिमे पाच भंग आ जाते है । तिर्यच गतिमे चार आयुओका चन्घ होता है अत चारको तीनसे गुणा कर देने पर वारह प्राप्त होते है। इसमें से एक कम बधनेवाली आयुको संख्या तीनको घटा दिया तो तिर्यचगतिमे नौ भग आ जाते हैं । इसीप्रकार मनुष्यगतिमे नौ और देवगतिमें पाच भग ले आना चाहिये । ८. गोत्रकर्मके संवेध भंग अव गोत्र कर्मके बन्धादि स्थान और उनके सवेध भगोंका विचार करते हैं - गोत्र कर्मके दो भेद हैं, उच्चगोत्र और नीचगोत्र । इनमे से एक जीवके एक कालमे किसी एकका वन्ध और किसी एकका उदय होता है । जो उच्च गोत्रका बन्ध करता है उसके उस समय नीच गोत्रका बन्ध नहीं होता और जो नीच गोत्रका वन्ध करता है उसके उस समय उच्च गोत्रका वन्ध नहीं होता । इसी प्रकार उदयके विषय में भी समझना चाहिये। क्योंकि ये दोनो वन्ध और उदय इन दोनो की अपेक्षा परस्पर विरोधिनी प्रकृतिया है, अत. इनका एक साथ बन्ध व उदय सम्भव नहीं । किन्तु सत्ताके विपयमें यह बात नहीं है, क्योंकि दोनो प्रकृतियों की एक साथ सत्ता पाई जाने में कोई विरोध नहीं श्रेाता है । फिर भी इस (१) 'णीचुच्चा गदरं वधुदया होंति संभवद्वाणे । दो सत्ता जोगि त्तिय चरि उच्च हवे सत्त ॥-गो० कर्म० गा० ६३५ । M Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सप्ततिकाप्रकरण नियमके कुछ अपवाद है। बात यह है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीव उच्च गोत्रकी उछलना भी करते हैं। अतः ऐसे जीवों में से जिन्होने उच्च गोत्रकी उद्वलना कर दी है उनके या जब ये जीव अन्य एकन्द्रियादिमे उत्पन्न हो जाते हैं तब उनके भी कुछ कालतक केवल एक नीच गोत्रकी ही सत्ता पाई जाती है। इसी प्रकार अयोगिकेवली जीव भी अपने उपान्त्य समयमे नीच गोत्रकी क्षपणा कर देते हैं अत उनके अन्तिम समयमै केवल उच गोत्रकी ही सत्ता पाई जाती है। इतने विवेचनसे यह निश्चित हुआ कि गोत्रकर्म की अपेक्षा बन्धस्थान भी एक प्रकृतिक होता है और उदयम्थान भी एक प्रकृतिक ही होता है किन्तु सत्त्वस्थान कहीं दो प्रकृतिक होता है और कहीं एक प्रकृतिक होता है। अब इन स्थानोके संवेधभग वतलाते हैं-गोत्रकर्मकी अपेक्षा (१) नीच गोत्रका बन्ध, नीच गोत्रका उदय और नीच गोत्रका सत्त्व (२) नीच गोत्रका वन्ध, नीचगोत्रका उदय और नीचउचगोत्रका सत्त्व (३) नीचगोत्रका वन्ध, उच्चगोत्रका उदय और उच्च-नीचगोत्रका सत्व (४) उच्चगोत्रका वन्ध, नीचगोत्रका उदय और उच्च-नीचगोत्रका सत्त्व (५) उच्चगोत्रका वन्ध, उच्चगोत्रका उदय और उच्च-नीचगोत्रका सत्त्व (६) उच्चगोत्रका उदय और (१) 'उचुव्वेलिदतेज वाउम्मि य णोचमेव सत्त तु। सेसिगिवियले सयले णीचं च दुगं च सत्त तु ॥ उच्चुलिदतेक वाऊ सेसे य वियलसय. लेसु । उप्पण्णपढमकाले रणीचं एवं हवे सत्त ॥-गो० कर्म. गा. ६३६, ६३७ । (२) वधइ जइण्णय चि य इयर वा दो वि सत चऊ भंगा। नोएसु तिसु वि पढमो अवधगे दोणि उच्चुदए ॥ पञ्चसं० सप्तति० गा० १६ । 'मिच्छादि गोदभगा पण चदु तिसु दोणि अठाणेसु । एक्कका जोगिजिणे दो भंगा हॉति णियमेण ॥ गो० क्रम० गा० ६३८। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ गोत्रकर्मके संवेध भग उच्च-नीचगोत्रका सत्त्व तथा (७) उच्चगोत्रका उदय और उच्चगोत्रका सत्त्व ये सात संवैध भंग होते हैं। इनमें से पहला भंग जिन अग्निकायिक व वायुकायिक जीवोने उच्चगोत्रकी उद्वलना कर दी है उनके होता है और ऐसे जीव जिन एकेन्द्रिय, विकलत्रय और पंचेन्द्रियतियेचोमे उत्पन्न होते हैं उनके भी अन्तर्मुहर्त काल तक होता है, क्योकि अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् इन एकेन्द्रियादि शेप जीवीके उच्च गोत्रका वन्ध नियमसे हो जाता है। दूसरा और तीसरा भंग मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि इन दो गुणस्थानोमें पाया जाता है, क्योकि नीचगोत्रका बन्धविच्छेद दूसरे गुणस्थानमें हो जाता है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्मिथ्यारष्टि आदि गुणस्थानोमे नीचगोत्रका वन्ध नहीं होता, परन्तु इन दोनो भगीका सम्बन्ध नीचगोत्रके वन्धसे है, अत इनका सद्भाव मिथ्यावष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि इन दो गुणस्थानोंमे बतलाया है। चौथा भंग प्रारम्भके पांच गुणस्थानोमें सम्भव है, क्योंकि नीचगोत्रका उदय पाचवे गुणस्थान तक ही होता है यत. इस भंगका सम्बन्ध नीचगोत्रके उदयसे है अत. प्रमत्तसयत आदि गुणस्थानोमें इसका प्रभाव वतलाया है। पाचवा भग प्रारम्भके दस गुणस्थानोमे सम्भव है, क्योकि उच्चगोत्रका वन्ध सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक ही होता है। यत. इस भंगमें उच्चगोत्रका बन्ध विवक्षित है, अत आगेके गुणस्थानोमे इसका निषेध किया। छठा भग उपशान्तमोह गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणम्यानके द्विचरम समय तक होता है, क्योकि नीचगोत्रका सत्त्व यहीं तक पाया जाता है। यत इम भगमें नीचगीत्रका सत्त्व (१) 'वघो श्रादुगदसम उदश्रो पण चोइस तु जा ठाणं । निचुत्रगोसझम्माण संतया होति सम्वेसु ॥'-पञ्चम० सप्तति० गा० १५ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सप्ततिकाप्रकरण सकलित है अतः अयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमे इसका निषेध किया । तथा सातवां भग अयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समयमे होता है, क्योंकि केवल उच्चगोत्रका उदय और उच्चगोत्रका सत्त्व अयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें ही पाया जाता है, अन्यत्र नही । इस प्रकार गोत्रकर्मकी अपेक्षा कुल सवेधभग सात होते है। गोत्रकर्मके सवेधभंगो का ज्ञापक कोष्टक [ १४ ] भग। वन्ध उदय । सत्व गुणस्थान १. नी० नी० नो० नी० नी० उ० ३ नी । ____ट. नी० उ० ४ उ. नी. नी. उ० १, २, ३, ४,५ नी००१ से १० तक उ० | नी० १० ११,१२,१३ व १४० स० उ० उ० १४ का अन्तिम समय (१) गोदे सचेव हॉति भंगा हु। मो० कर्म० गा० ६५१ । । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयकर्मके बन्धस्थान ५७ ९. मोहनीय कर्म अब पूर्व सूचनानुसार मोहनीय कर्मके वन्धस्थानो का कथन करते है बावीस एकवीसा सत्तरसा तेरसेव नव पंच। चउ तिग दुगं च एक बंधाणाणि मोहस्स ॥१०॥ अर्थ-बाईस प्रकृतिक, इक्कीस प्रकृतिक, सत्रह प्रकृतिक, तेरह प्रकृतिक, नौ प्रकृतिक, पाच प्रकृतिक, चार प्रकृतिक, तीन प्रकृतिक, दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक इस प्रकार मोहनीय कर्मके कुल दस बन्धस्थान हैं। विशेषार्थ-मोहनीय कर्मकी उत्तर प्रकृतिया अट्ठाईस हैं। इनमेसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनोका बन्ध नहीं होता अत. बन्धयोग्य कुल छब्बीस प्रकृतिया रहती हैं। इनमें भी तीन वेदोका एक साथ बध नहीं होता, किन्तु एक कालमे एक वेदका ही वन्ध होता हे। तथा हास्य-रतियुगल और अरति-शोकयुगल ये दोनो युगल भी एक साथ बन्धको नही प्राप्त होते किन्तु एक काल मे किसी एक युगलका ही वन्ध होता है। इस प्रकार छब्बीप्त प्रकृतियोमे से दो वेद और किसी एक युगलके कम हो जाने पर वाईस प्रकृतिया शेप रहती है जिनका वन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें (५) दुगइगवीसा सत्तर तेरस नव पच चउर ति दु एगो । ववो इगि दुग चउत्यय पणउणवमेसु मोहस्स ॥-पंच स. सप्तति. गा० १६ । 'बावीसमेकवीस सत्तारस तेरसेव णव पच । चदुतियदुग च एक वहाणाणि मोहस्स ॥-गो० कर्म० गा० ४६३ । 'मोहणीयस्स कम्मस्स दस ठाणाणि वावीसाए एकवीसाए सत्तारसहं तेरसण्ह णवण्ह पचण्ह चदुण्ह तिण्ह दोण्ह एकिस्से हाणं चेदि । -जी० चू० ठा० सू० २० । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ सप्ततिकाप्रकरण होता है। इस वाईस प्रकृतिक वधस्थानके कालकी अपेक्षा तीन भंग हैं, अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमें से अभव्योंके अनादि-अनन्त विकल्प होता है, क्योकि उनके कभी भी वाईस प्रकृतिक बन्धस्थानका विच्छेद नही पाया जाता। भव्योके अनादि-सान्त विकल्प होता है, क्योकि इनके कालान्तरमे बाईस प्रकृतिक वन्धस्थानका विच्छेद सम्भव है। तथा जो जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुए हैं और कालान्तर में पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हो जाते हैं उनके सादि-सान्त विकल्प होता है, क्योंकि कादाचित्क होनेसे इनके वाईस प्रकृतिक वन्ध स्थानका आदि भी पाया जाता है और अन्त भी। इनमें से सादि-सान्त भंगकी अपेक्षा बाईस प्रकृतिक बन्धस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्त प्रमाण होता है। उपर्युक्त वाईस प्रकृतियोमें से मिथ्यात्वके कम कर देने पर इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान प्राप्त होता है। जो सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमे होता है । यद्यपि यहॉनपुंसकवेदका भी बन्ध नहीं होता तो भी उसकी पूर्ति स्त्रीवेद या पुरुप वेदसे हो जाती है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छः श्रावलि है, अतः इस स्थानका भी उक्त प्रमाण काल प्राप्त होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका दूसरे गुणस्थान तक ही बन्ध होता है आगे नहीं, अत' उक्त इक्कीस प्रकृतियोमें से इन चार प्रकृतियोके कम कर देने पर मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थान प्राप्त होता है। यद्यपि इन दोनो गुणस्थानोंमें स्त्री वेदका बन्ध नहीं (१) 'देसूणपुन्चकोडी नव तेरे सत्तरे उ तेत्तीसा। बावीसे भंगतिगं ठितिसेसेसुं भुहुतंतो ॥-पंचसं० सप्तति० गा० २२ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीय कर्मके वन्धस्थान ५९ होता तो भी उसकी पूर्ति पुरुष वेदसे हो जाती है । अत यहाँ सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थान वन जाता है । इस स्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सांगर है । यहाँ तेतीस सागर तो अनुत्तर देवके प्राप्त होते हैं। फिर वहाँ से च्युत होकर मनुष्य पर्याय मे जब तक वह विरतिको नही प्राप्त होता है, उतना तेतीस सागरसे अधिक काल लिया गया है । अप्रत्यास्यानावरण चतुष्कका वन्ध चौथे गुणस्थान तक ही होता है, त पूर्वोक्त सत्रह प्रकृतियोंमें से चार प्रकृतियों के कम कर देने पर देशविरत गुणस्थानमे तेरह प्रकृतिक वन्धस्थान प्राप्त होता है । देशविरत गुणस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि वर्पप्रमाण होनेसे तेरह प्रकृतिक बन्धस्थान का काल भी उक्त प्रमाण प्राप्त होता है । प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका बन्ध पाँचवे गुणस्थान तक ही होता है, श्रत. पूर्वोक्त तेरह प्रकृतियोंमे से उक्त चार प्रकृतियोंके कम कर देने पर प्रमत्तसयत गुणस्थानमे १ - श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों हो परपराओं में अविरत सम्यग्दृष्टिका टत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर बतलाया है । किन्तु साधिकमे कितना काल लिया गया है इसका स्पष्ट निर्देश श्वेताम्बर टीका प्रन्थोंमें देखने मे नहीं आया। वहां इतना ही लिखा है कि अनुत्तरमे च्युत हुआ जीव जितने कालतक विरतिको नहीं प्राप्त होता उतना काल यहाँ साधिकमे लिया गया है । किन्तु दिगम्बर पराम्परा में यहाँ साधिक से है इसका स्पष्ट निर्देश किया है। धवला टीकामें अनुत्तर से च्युत होकर मनुष्य पर्याय में अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटिवर्षत क विरतिके बिना रह सकता है । श्रत इस हिसावसे श्रविरतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटिवर्ष अधिक तेतीस सागर प्राप्त होता है । कितना काल लिया गया बतलाया है कि ऐसा जीव Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण नौ प्रकृतिक बन्धस्थान प्राप्त होता है। यद्यपि अरति और शोक, का बन्ध छठे गुणस्थान तक ही होता है तो भी सातवे और आठवे गुणस्थानमें इनकी पूर्ति हास्य और रतिसे हो जाती है, अत. सातवे और आठवे गुणस्थानमें भी नौ प्रकृतिक वन्धस्थान वन जाता है। इस वन्धस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि वर्पप्रमाण है। यद्यपि छठे, सातवें और आठवे गुणस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं है फिर भी परिवर्तन क्रमसे छठे और सातवे गुणस्थानमें एक जीव देशोन पूर्वकोटि वर्प प्रमाण काल तक रह सकता है, अत. नौ प्रकृतिक बन्धस्थान का उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण प्राप्त हो जाता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्साका वन्ध आठवे गुणस्थानके अन्तिम समय तक ही होता है, अतः पूर्वोक्त नौ प्रकृतियोंमे से इन चार प्रकृतियोंके घटा देने पर अनिवृत्ति वादरसम्पराय गुणस्थानके प्रथम भागमे पाँच प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। दूसरे भागमे पुरुप वेदका वध नहीं होता, अत वहाँ चार प्रकृतिक वधस्थान होता है। तीसरे भागमें क्रोवसज्वलनका बन्ध नहीं होता, अतः वहाँ नीन प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। चाये भागमें मानसंज्वलनका वन्ध नहीं होता, अतः वहाँ दो प्रकृतिक बन्धस्थान होता है और पांचवे भागमें मायासंज्वलनका बन्ध नहीं होता, अत. वहाँ एक प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इस प्रकार अनिवृत्ति वादरसंपराय गुणस्थानके पॉच भागोमे पाँच प्रकृनिक, चार प्रकृतिक, तीन प्रकृतिक, दो प्रकृतिक और एक प्रकृनिक ये पाँच वन्धस्थान होते हैं। इन सभी बन्धस्थानोंका जघन्य काल एक ममय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि प्रत्येक भागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसके आगे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानमें एक प्रकतिक बन्धस्थानका भी अभाव है, क्योंकि वहाँ मोहनीय कर्मके Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयकर्मके बन्धस्थान वन्धका कारणभूत वादर कपाय नहीं पाया जाता है। इस प्रकार मोहनीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियोंके कुल वन्धस्थान दस है, यह सिद्ध हुआ। मोहनीय कर्मके वन्धरथानो की उक्त विशेषताओ का ज्ञापक कोष्ठक[१५] काल वन्धस्थान गुणस्थान | भग जघन्य २२ प्र० १ला } ६ । अन्तर्मुः । देशोन अपा० उत्कृष्ट - - २१३० २रा । ४ । एक समय छह श्रावलि १७प्र० ३रा, ४था | अन्तर्मुहू. साधिक तेतीस सागर १३ प्र० ५वा " देशोन पूर्वकोटि प्र. ६ठा, ज्वा, ८वा । २ । ९वां, प्रथम भा० । एक समय अन्तर्मुः ४ प्र० , दूसरा , १ ३ प्र० , तीसरा , , चौथा , | प्र० , पांचवां , 17 २ प्र० , १ प्र. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '६२ सप्ततिकाप्रकरण अब मोहनीय कर्मके उदयस्थानोंका कथन करते हैंएक व दो व चउरो एत्तो एक्काहिया दसुक्कोसा। अोहेण मोहणिज्जे उदयहाणा नव हवंति ॥ ११ ॥ अर्थ—सामान्यसे मोहनीय कर्मके उदयस्थान नौ हैं-एक प्रकृतिक, दो प्रकृतिक, चार प्रकृतिक, पॉच प्रकृतिक, छ प्रकृतिक,. सात प्रकृतिक, आठ प्रकृतिक, नौ प्रकृतिक और दस प्रकृतिक । विशेषार्थ-पार्नुपूर्वी तोन हैं-पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यत्रतत्रानुपूर्वी। जो पदार्थ जिस क्रमसे उत्पन्न हुआ हो या जिस क्रमसे सूत्रकारके द्वारा स्थापित किया गया हो उसकी उसी क्रमसे गणना करना पूर्वानुपूर्वी है । विलोम क्रमसे अर्थात् अन्तसे लेकर आदि तक गणना करना पश्चातानुपूर्वी है, और जहाँ कहीसे अपने इच्छित पदार्थको प्रथम मानकर गणना करना यत्रतत्रानुपूर्वी है। वैसे तो आनुपूर्वीके दस भेद बतलाये हैं पर ये तीन भेद गणनानुपूर्वीके जानना चाहिये । यहाँ सप्ततिकाप्रकरण (१) 'इगि दुग चड एगुत्तरभादसगं उदयमाहु मोहस्स । सजलणवेयहासरइभयदुगुलतिकसायदिही य ॥-पञ्च५० सप्तति० गा० २३ । 'एक्काइ जा दसण्हं तु। निगहोणाइ मोहे "॥'-कर्म. उदी० गा० २२॥ 'अत्थि एकिस्से पयडीए पवेसगो। दोण्हं पयडीण पवेसगो। तिण्ह पयढीणं पवेसगो णत्यि । चउण्ह पयहीण पवेसगो। एत्तो पाए गिरतरमत्थि जाव दवण्हं पयडीण पवेमगा ।। -काय चु. (वेदक अधिकार ) 'दस णव अट्ट य सत्त य छप्पण चत्तारि दोणि एक च । उदयट्ठाणा मोहे गाव चेत्र य होति णियमेण ॥-गो० कर्मः गा० ४७५ ॥ (२) 'गणणाणुपुष्वी तिविहा पगत्ता, तनहा-पुन्वाणुपुत्री पच्छाणुमुखी अणाणुपुत्री।-अनुयो० सू० ११६ । वि० भा० गा० ९४१ । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयकर्मके उदयस्थान कारने पश्चादानुपूर्वीके क्रमसे मोहनीयके उदयस्थान गिनाये हैं। जहाँ केवल चार सज्वलनोमें से किसी एक प्रकृतिका उदय रहता है वहाँ एक प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह उदयस्थान अपगतवेदके प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय तक होता है। इसमें तीन वेटोंमें से किसी एक प्रकृतिके मिला देने पर दो प्रकृतिक उदयस्थान होता है। जो अनिवृत्ति वादर सम्परायके प्रथम समयसे लेकर सवेद भागके अन्तिम समय तक होता है। इसमें हास्य-रति युगल या अरति शोक युगल इनमें से किसी एक युगलके मिला देने पर चार प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ तीन प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता, क्योकि दो प्रकृतिक उदयस्थानमे हास्य-रति युगल या अरति-शोक युगल इनमें से किसी एक युगलके मिलाने पर चार प्रकृतिक उदयस्थान ही प्राप्त होता है। इसमें भय प्रकृतिके मिला देने पर पाँच प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसमे जुगुप्सा प्रकृतिके मिला देने पर छ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । ये तीनो उदयस्थान छठे सातवे और आठवे गुणस्थानमें होते है। इसमें प्रत्याख्यानावरण कपाय की किसी एक प्रकृतिके मिला देने पर सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह उदयस्थान पाँचवे गुणस्थानमे हाता है। इसमें अप्रत्याख्यानावरण कपायकी किसी एक प्रकृतिके मिला देने पर आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह उदयस्थान चौथे व तीसरे गुणस्थानमें होता है । इसमे अनंतानुवन्धी कषायकी किसी एक प्रकृतिके मिला देने पर नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है जो दूसरे गुणस्थानमें होता है। इसमे मिथ्यात्वके मिला देने पर दस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह उदयस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान मे होता है। इतना विशेष जानना चाहिये कि तीसरे गुणस्थानमे मिश्र प्रकृतिका उद्य अवश्य हो जाता है और चौथे से सातवें वक Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ सप्ततिकाप्रकरण वेदक सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व प्रकृतिका भी उदय हो जाता है। यहाँ यह कथन सामान्यसे किया है, इसलिये सभी विकल्पोको न बताकर सूचना मात्र कर दी है, क्योकि ग्रन्थकर्त्ता इस विपयका आगे स्वयं विस्तार से वर्णन करेंगे। इनमें से प्रत्येक उदयस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मोहनीय कर्मके उदयस्थानो की उक्त विशेषता श्रीका ज्ञापक कोष्ठक - [ १६ ] उदयस्थान | गुणस्थान + १ २ ४ ५ ૬ ७ ८ ९ १० वां वेद भाग व १०वां वा सवेद भाग ६ठा, ७वां, दव ६ठा, वी, व ६ठा, ७वां, वां ५व ४था, इरा २रा १ सा भग ૪ १२ ૨૪ در 39 ❤ 34 33 > जघन्य एक समय 59 "" 35 39 33 , 39 30 काल } उत्कृष्ट अन्तर्मु० " 29 ܝܕ " ܕ 99 35 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयकर्मके सत्तास्थान अव मोहनीय के सत्तास्थानो का कथन करते हैं १३ ॥ श्रद्वेगसत्तगछच्चउतिगदुगएगाहिया भवे वीसा | तेरस बारिकारस इत्तो पंचाइ एक्कूणा ॥ १२ ॥ संतस्स पगड़ठाणाड़ ताणि मोहस्स हुंति पन्नरस | बंधोदयसंते पुण भंगविगप्पा वह जाण ॥ अर्थ — अट्ठाईम, सत्ताईम, छब्बीस, चौबीस, तेईस, वाईस, इक्कीस, तेरह, वारह, ग्यारह, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक इस प्रकार मोहनीय कर्मके पन्द्रह सत्त्व प्रकृतिस्थान है । इन बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानोकी अपेक्षा भगोके अनेक विकल्प होते हैं जिन्हें जानो । ६५ विशेपार्थं – मोहनीय कर्मके सत्त्व प्रकृतिस्थान पन्द्रह है । इनमे से अट्ठाईस प्रकृतिस्थानमे मोहनीयको सव प्रकृतियोका समुदाय विवक्षित है। यह स्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक पाया जाता है। इस स्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि छब्बीस प्रकृतियोकी सत्तावाला कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव जब उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त कर लेता है और अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर (१) 'अट्टगसत्तगच्छ गचउतिगदुग एकगाहिया वीसा । तेरस वारेधारस सते पचाइ जा एक ॥ पञ्चस० सप्तति० गा० ३५ । 'श्रत्थि श्रट्टावीसाए सत्तावीसाए छब्बीसाए चडवीसाए तेबीसाए बावीसाए एकवीसाए तेरसह बारसहं एक्कारसह पचण्ह चदुण्ह तिन्ह दोन्हं एकिस्मे च १५ । एदे श्रघेण ॥' - कसाय० चुण्णि० ( प्रकृति अधिकार ) । 'अयसत्तयछक्कय चदुति दुगेगा धिगाणि वीसाणि । तेरस बारेयार पणादि एगूणय सत्त ॥ - गो० कर्म० गा० ५०८ । ५ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण वेदक सम्यक्त्वपूर्वक अनन्तानुवन्धी चतुप्ककी विसंयोजना करके चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाला हो जाता है. तब अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथाइसका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है। यहाँ साधिकसे पल्यके असंख्यातवे भाग प्रमाण कालका ग्रहण किया है। खुलासा इस प्रकार है-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला हुआ। तदनन्तर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण किया। फिर अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यग्मिथ्यात्वमे रहकर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके दूसरी वार छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण किया। फिर अन्तमे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्त्व प्रकृतिके सबसे उत्कृष्ट पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालके द्वारा सम्यक् प्रकृतिकी उद्वलना (१) वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजना करता है इस मान्यताके विषयमें सब दिगम्बर व श्वेताम्बर आचार्य एकमत हैं। किन्तु इसके अतिरिक्त जयघवला टीकामें एक मतका उल्लेख और किया है। वहा वतलाया है कि उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करते हैं इस विपयमें दो मत हैं। एक मत तो यह है कि उपशम सम्यक्त्वका काल थोड़ा है और अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजनाका काल वड़ा है इसलिये उपशम सम्यग्दृष्ठि जीव अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता है। तथा दूसरा मत यह है कि अनन्तानुचन्धी चतुष्कके विसंयोजना कालसे उपशमसम्यक्त्वका काल बड़ा है इसलिये उपशम सम्यग्दृष्टि जीव भी अनन्तानुवन्धी चतुष्कको विसयोजना करता है। जिन उच्चारणावृत्तियोंके आधारसे जयधवला टीका लिखी गई है उनमें इस दूसरे मतको प्रधानता दी गई है, यह जयघवला टीकाके अवलोकन से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयकर्मके सत्त्वस्थान ६७ करके सत्ताईस प्रकृतियोकी सत्तावाला हुआ। इस प्रकार अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका उत्कृष्ट काल पल्येके असल्यातवे भाग अधिक एक सौ बत्तीस सागर होता है। ऐसा जीव यद्यपि मिथ्यात्वमे न जाकर क्षपकश्रेणी पर भी चढ़ता है और सत्तास्थानोको प्राप्त करता है पर इससे उक्त उत्कृष्ट काल नही प्राप्त होता, अत यहाँ उसका उल्लेख नही किया । इसमें से सम्यक्त्व प्रकृतिकी ( १ ) पञ्चसग्रह के सप्ततिकास ग्रहकी गाथा ४५ व उसकी टीका २८ प्रकृतिक सत्तास्थानका उत्कृष्ट काल पल्यका असख्यातवां भाग अधिक १३२ सागर बतलाया है। किन्तु दिगम्बर परम्परा में इसका उत्कृष्ट काल पत्यके तीन सख्यातवें भाग अधिक १३२ सागर बतलाया है । इस मत भेदका कारण यह है कि श्वेताम्बर परम्परामें २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि ही मिथ्यात्व का उपशम करके उपशम सम्यग्दृष्टि होता है ऐसी मान्यता है तदनुसार केवल सम्यक्त्वको उद्वलनाके अन्तिम कालमें नीव उपशमसम्यक्त्वको नही प्राप्त कर सकता है। अत यहां २८ प्रकृतिक सत्तास्थानका उत्कृष्ट काल पत्यका असख्यातर्वा भाग अधिक १३२ सागर ही प्राप्त होता है क्योंकि जो २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला ६६ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा । पश्चात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि हुआ। तत्पश्चात् पुनः ६६ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा। और अन्त में जिसने मिथ्यादृष्टि होकर पल्यके श्रसख्यातवें भाग काल तक सम्यक्त्वकी उद्दलना की। उसके २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका इससे अधिक काल नहीं पाया जाता, नियम २७ प्रकृतिक सत्तास्थानवाला हो जाता है । क्योंकि इसके बाद वह किन्तु दिगम्बर परम्परामें यह मान्यता है कि २६ र २७ प्रकृतियों की सत्तावाला मिध्यादृष्टि तो नियमसे उपशम सम्यक्त्वको ही उत्पन्न करता है किन्तु २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला वह जीव भी उपशम सम्यक्त्वको ही Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण उद्वलना हो जाने पर सत्नाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। यह स्थान मिथ्यावष्टि और सम्यग्मिथ्यावष्टिके होता है। इसका काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योकि सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्दलना हो जाने के पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वलनामें पल्यका असंख्यातवॉ भाग काल लगता है और जब तक सम्यग्मिथ्यात्वकी उदलना होती रहती है तब तक यह जीव सत्ताईस उत्पन्न करता है जिसके वेदकसम्ययत्वके योग्य काल समाप्त हो गया है। तदनुसार यहाँ २८ प्रकृतिक सत्तास्थानका उत्कृष्ट काल पल्यके तीन असख्या तवें भाग अधिक १३२ सागर बन जाता है। यथा-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्मक्त्वको प्राप्त करके २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला हुआ। तदनन्नर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्त्वके सबसे उत्कृष्ट रहलना काल पल्यके असंख्यातवें भागके व्यतीत होने पर वह २७ प्रकृतियोंकी सतावाला होता पर ऐमा न होकर वह उद्दलनाके अन्तिम समयमै पुन. उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तदनन्तर प्रथम छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्व के साथ परिभ्रमण करके और मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पुन सम्यक्त्व के सबसे उत्कृष्ट पल्यके श्रमख्यातवें भागप्रमाण उद्वलना कालके अन्तिम समयमें उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुश्रा। तदनन्तर दूसरी बार छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करके और अन्त में मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पल्यके असंख्यात भाग कालके द्वारा सम्यक्त्वकी उद्वलना करके २७ प्रकृतियोंकी सत्तावाला हुथा। इस प्रकार २८ प्रकृतिक सत्तास्थानका उत्कृष्ट काल पल्यके तीन श्रमख्यातवें भाग अधिक १३२ सागर प्राप्त होता है। कालका यह टल्लेख जयधवला टीकाम मिलता है। (१) दिगम्बर परम्पराके अनुसार कयायप्रामृत की चूर्णिमें इस स्थानका स्वामी मिच्याहट जीव ही बतलाया है। यथा-'सत्तावीसाए विहत्तिो को होदि ? मिच्छाइही।' Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयकर्मके सत्तास्थान प्रकृतियोकी सत्तावाला ही रहता है, अत. सत्ताईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका काले पल्यके असख्यातवे भाग प्रमाण कहा। इसमेसे उद्वलना द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके घटा देने पर छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। तात्पर्य यह है कि छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं होता। यह स्थान भी मिथ्यादृष्टि जीवके ही होता है। कालकी अपेक्षा इस स्थानके तीन भग हैं-अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमें से अनादि अनन्त विकल्प अभव्योंके होता है, क्योंकि उनके छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका आदि और अन्त नहीं पाया जाता । अनादि-सान्त विकल्प भव्योके होता है, क्योकि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीवके छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान आदि रहित है पर जब वह सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है, तब उसके इस स्थानका अन्त देखा जाता है। तथा सादि-सान्त विकल्प सादि मिथ्यादृष्टि जीवके होता है, क्योकि अट्ठाईस प्रकृ (१) पचसग्रहके सप्ततिका सग्रह की गाथा ४५ की टीकामें लिखा है कि २७ प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव जब सम्यग्मिथ्यात्वकी पत्यके अमख्या तवें भागप्रमाण कालके द्वारा उद्वलना करके २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाला हो जाता है तभी वह मिथ्यात्वका उपशम करके उपशमसम्यग्दृष्टि होता है । अतः इसके अनुसार २७ प्रकृतिक सत्तास्थानका काल पल्यके असख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। किन्तु जयघवला में २७ प्रकृतियोंकी सत्ता वाला भी उपशम सम्यग्दृष्टि हो सकता है ऐसा लिखा है। कषायप्रामृतकी चूर्णिसे भी इसकी पुष्टि होती है। तदनुसार २७ प्रकृतिक सत्तास्थानका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है ? क्योंकि २५ प्रकृतिक सत्तास्थान के प्राप्त होनेके दूसरे समयमें ही जिसने उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है उसके २७ प्रकृतिक सत्तास्थान एक समय तक ही देखा जाता है। , Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण तियोकी सत्तावाले जिस सादि मिथ्यादृष्टि जीवने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्बलना करके छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानको प्राप्त किया है, उसके छच्चीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका पुनः विनाश देखा जाता है | इनमेसे सादि-सान्त विकल्पकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योकि छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानको प्राप्त करनेके बाद जो त्रिकरणद्वारा अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला हो गया है उसके उक्त स्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्ट काल देशोन अपार्धपुल परावर्त प्रमाण है, क्योंकि कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपसम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और मिथ्यात्वमे जाकर उसने पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उगलना करके छब्बीस प्रकृतियोके सत्त्वको प्राप्त किया । पुन वह शेष पा पुद्गल परावर्त काल तक मिथ्यादृष्टि ही रहा किन्तु जब संसार में रहनेका काल अन्तर्मुहूर्त शेप रहा तब वह पुनः सम्यग्दृष्टि हो गया तो इस प्रकार छन्चीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम अपार्ध पुगल परावर्त प्रमाण प्राप्त होता है । मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके ७० (१) कषायप्रामृतकी चूर्णिमें सादि सान्त २६ प्रकृतिक सस्वस्थानका जघन्य काल एक समय वतलाया है । यथा 'छब्बीस विहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्ोग एयसमो ।' सम्यक्त्वकी उद्वलनामें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर जो त्रिकरण क्रियाका प्रारम्भ कर देता है और उछलना होनेके बाद एक समयका अन्तरात देकर जो उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हो जाता है' उसके २६ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है, यह उक्त कथनका अभिप्राय है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयकर्मके सत्त्वस्थान अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना हो जाने पर चौबीस प्रकृ. तिक सत्त्वस्थान प्राप्त होता है। यह स्थान तीसरे गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवे गुणस्थान तक पाया जाता है। इसका जघन्य काल अन्तमुहर्त है, क्योंकि जिम जीवने अनन्तानुवन्धीकी विसयोजना करके चौवीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानको प्राप्त किया है वह यदि सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर मिथ्यान्वका क्षय कर देता है तो उसके चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है। तथा इसका उत्कृष्ट काल एकसौ वत्तीस सागर है, क्योंकि अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना करने के बाद जो वेदक सम्यग्दृष्टि छयासठ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा, फिर अन्तमुहर्तके लिये सम्यग्मिथ्यावृष्टि हुआ। इसके वाट पुनः छयासठ सागर काल तक वेदक सम्यग्दृष्टि रहा। अनन्तर मिथ्यात्वकी क्षपणा की । इस प्रकार अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना होनेके समयसे लेकर मिथ्यात्वकी क्षपणा होने तकके कालका योग (१) कपायप्रामृतकी चूर्णिमें २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ वत्तीस सागर बतलाया है। यथा 'चउत्रीमविहत्ती केवचिर कालादो ? जहण्णेण श्रतोमुहत्त, उकस्सेण वे छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । इसका खुलासा करते हुए जयधवला टीकामें लिखा है कि उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके जिसने अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना की। अनन्तर छयासठ मागर काल तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा। फिर अन्तर्मुहूर्त तक सम्यग्मिच्यादृष्टि रहा। पुन छ्यासठ सागर काल तक वेदक सम्यग्दृष्टि रहा। अनन्तर मिथ्यात्वकी क्षपणा की। इस प्रकार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना हो चुकनेके समयसे लेकर मिथ्यात्वकी क्षपणा होने तकके कालका योग साधिक एक सी बत्तीस सागर होता है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्वस्थान होता है । यह इसका जघन्याका जितना सप्ततिकाप्रकरण पूरा एक सी बत्तीस सागर होता है, अत: चौवीस प्रकृतिक सत्त्वे स्थानका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा। इस चौवीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानवाले जीवके मिथ्यात्वका क्षय हो जाने पर तेईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । यह स्थान चौथे गुणस्थानसे लेकर सातवेंगुण स्थान तक पाया जाता है। इसका जघन्य और उत्कृप्ट काल अन्तमुहूर्त है, क्योकि सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणाका जितना काल है वही तेईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका काल है। इसके सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय हो जाने पर वाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। यह स्थान भी चौथे गुणस्थानसे लेकर सातवेगुणस्थान तक ही पाया जाता है। इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि सम्यक्त्व की क्षपणामें जितना काल लगता है वही वाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका काल है। इसके सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय हो जाने पर इक्कीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। यह चौथे गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है । इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योकि क्षायिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त कोलके भीतर क्षपकश्रेणी पर चढ़कर मध्यको आठ कषायोका क्षय होना सम्भव है। तथा इसका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है, क्योकि साधिके तेतीस सागर प्रमाण काल तक जीव (१) कपायप्रामृतकी चूर्णिमें २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर बतलाया है। यथा - -'एकवीसाए त्रिहत्ती केवचिर कालादो? जहण्णण अतोमुहत्तं । उकस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणिः।' जयघवला टीकामें इस उत्कृष्ट कालका खुलासा करते हुए लिखा है कि कोई एक सम्यग्दृष्टि देव या नारकी मरकर एक पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयकर्मके सत्तास्थान इक्कीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानके माथ रह सकता है। इसके अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण चतुष्क इन आठ प्रकृतियो का क्षय हो जाने पर तेरह प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। यह स्थान क्षपकश्रेणीके नौवे गुणस्थानमें प्राप्त होता है। इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, क्योकि तेरह प्रकृतिक सन्त्वस्थानसे बारह प्रकृतिक सत्त्वस्थानके प्राप्त होनेमे अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। इसके नपुसक वेढका क्षय हो जाने पर वारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, क्योकि वारह प्रकृतिक सत्त्वस्थानसे ग्यारह प्रकृतिक उत्पन्न हुआ। अनन्तर पाठ वर्षके वाद अन्तर्मुहूर्तमें उसने क्षायिक सम्यग्दर्शनको उत्पन्न किया। फिर आयु के अन्तमें मरकर वह तेतीय सागरको श्रायुवाले देवों में उत्पन्न हुआ। इसके बाद तेतीस सागर आयुको पूरा करके एक पूर्व कोटिको श्रायुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ जीवन भर २१ प्रकृतियोंकी सत्ताके साथ रहकर जव जीवनमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा तव क्षपश्रेणी पर चढकर १३ आदि सत्त्वस्थानों को प्राप्त हुआ। उसके आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्वकोटि वर्ष अधिक तेतीस सागर काल तक इकोस प्रकृतिक सत्त्वस्थान पाया जाता है। (१) कषायप्रामृतकी चूर्णिमें १२ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य काल एक समय बतलाया है। यथा 'णवरि वारसण्ह विहत्ती केवचिर कालादो ? जहण्णेग एगसमओ।' इमको व्याख्या करते हुए जयघवला टीकामें वीरसेन स्वामीने लिखा है कि नपुंसक वेदके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढा हुआ जीव उपान्त्य समयमें स्त्रीवेद और नपुसकवेदके सब सत्कर्मका पुरुष वेदरूपसे सक्रमण कर देता है और तदनन्तर एक समयके लिये १२ प्रकृतिक सत्त्वस्थानवाला हो जाता है, क्योंकि इस समय नपुंसकवेदकी उदयस्थितिका विनाश नहीं होता है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण सत्त्वस्थानके प्राप्त होनेमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, किन्तु जो जीव नपुंसक वेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है, उसके नपुंसक वेदकी क्षपणाके साथ ही स्त्री वेदका क्षय होता है, अतः ऐसे जीवके बारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं पाया जाता है। जिसने नपुंसक वेदके क्षयसे वारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्राप्त किया है, उसके स्त्री वेदका क्षय हो जाने पर ग्यारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि छह नोकषायोके क्षय होनेमे अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । इसके छह नोकपायोका क्षय हो जाने पर पाँच प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल दो समय कम दो श्रावलि प्रमाण है, क्योंकि छ नोकपायोके क्षय होने पर पुरुष वेदका दो समय कम दो आवलि काल तक सत्त्व देखा जाता है। इसके पुरुप वेदका क्षय हो जाने पर चार प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसके क्रोधसंज्वलनका क्षय हो जाने पर तीन प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इसका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार आगेके सत्त्वस्थानोका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है । इसके मान संज्वलनका क्षय हो जाने पर दो प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इसके माया संज्वलनका क्षय हो जाने पर एक प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इस प्रकार मोहनीय कर्मके कुल सत्त्वस्थान पन्द्रह होते हैं यह सिद्ध हुआ । इस प्रकार यद्यपि क्रमसे बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानीका निर्देश कर आये हैं पर उनमें जो भग और उनके अवान्तर विकल्प प्राप्त होते हैं उनक | निर्देश नहीं किया जो कि आगे किया जाने वाला है । यहाँ ग्रन्थकर्त्ताने इस गाथामें 'जाग' क्रियाका प्रयोग किया है, जिससे विदित होता है कि आचार्य इससे यह ध्वनित करते हैं कि यह सब कथन गहन है, अत प्रमादरहित होकर उसको समझो । ७४ " Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयकर्मके सत्तास्थान उक्त विशेपताओका बापक कोष्टक [१७] काल गुणस्थान जघन्य सत्तास्थान उत्कृष्ट - -- - -- -- २८१ मे ११ । अन्तर्मु०माधिक १३२ सागर २७ १ ला व ३रापल्यका अस० भाग पल्यका अम० भाग अन्तर्मु० देशोन अपार्ध. २६१ ला २४ ३ से ११ १३२ सागर अन्तर्मु० -- - ४से ११ ९वा साधिक ३३ सागर अन्तर्मु० दो समय क्म दोश्रा०: दोसमय कमदीश्रा० __अन्तर्मु० अन्तर्मु० ११ वाँ व १० वाँ । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण अब सबसे पहले वन्धस्थानोमें भंगोका निरूपण करते हैंछब्बावीसे चउ इगवीसे सत्तरस तेरसे दो दो। नववंधगे वि दोन्नि उ एक्केक्कमओ परं भंगा ॥ १४ ॥ अर्थ-वाईस प्रकृतिक वन्धस्थानके छः भंग हैं। इकीस प्रकृतिक वन्धस्थानके चार भंग हैं। सत्रह और तेरह प्रकृतिक वन्धस्थानके दो दो भग हैं। नौ प्रकृतिक वन्धस्थानके भी दो भंग है, तथा इसके आगे पॉच प्रकृतिक आदि बन्धस्थानोमें से प्रत्येक का एक एक भंग है। विशेपार्थ-वाईस प्रकृतिक वन्धस्थानमें मिथ्यात्व, सोलह कपाय, तीनों वेदोमे से कोई एक वेद, हास्य-रति युगल और अरतिशोकयुगल इन दो युगलोमें से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा इन वाईस प्रकृतियोका ग्रहण होता है। यहाँ छः भंग होते हैं। उनका खुलासा इस प्रकार है-हास्य-रतियुगल और अरति-शोक युगल इन दो युगलोमे से किसी एक युगलके मिलाने पर वाईस प्रकृतिक बंधस्थान होता है, अतः दो भंग तो ये हुए और ये दोनो भंग तीनो वेदोंमें विकल्पसे प्राप्त होते हैं, अतः दोको तीनसे गुणित कर देने पर छ. भंग हो जाते हैं। इसमे से मिथ्यात्वके घटा देने पर इक्कीस प्रकृतिक वन्धस्थान होता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ पुरुपवेद और स्त्रीवेद इन दो वेदोमें से कोई एक वेद ही (१) छब्बावीसे चदु इगिवीसे दो हो हवं ति छठो ति। एक्ककमदो भगो वंधट्ठाणेसु मोहस्स ॥'-गो० कर्म० गा० ४६७ ॥ (२) 'हासरइभरहसोगाण बंधया प्राणव दुहा सव्वे । वेयविभज्जता पुण दुगइगवीसा छहा चउहा ।।'-पञ्चस० सप्नति गा० २० । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीयकर्मके वन्धस्थानोके भंग ७७ कहना चाहिए। क्योकि इक्कीस प्रकृतियोके वन्धक सास्वादन सम्यग्द्रष्टि जीव ही होते हैं और वे स्त्री वेद या पुरुप वेदका ही वन्ध करते हैं नपुंसक वेदका नहीं, क्योकि नपुंसक वेदका वन्ध मिथ्यात्वके उदयकालमें ही होता है अन्यत्र नहीं। किन्तु सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीवोके मिथ्यात्वका उदय होता नहीं, अत. यहाँ दो युगलोको दो वेदोसे गुणित कर देने पर चार भग होते है। इसमें से अनन्तानुबन्धी चतुष्कके घटा देने पर सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। किन्तु इस वन्धस्थानमै एक पुरुप वेद ही कहना चाहिये स्त्रीवेट नहीं, क्योकि सत्रह प्रकृतियोके बन्धक सम्यग्मिथ्यादृष्टि या अविरतसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं, परन्तु इनके स्त्री वेदका वन्ध नहीं होता, क्योकि स्त्रीवेदका बन्ध अनन्तानुवन्धीके उदयके रहते हुए ही होता है अन्यत्र नहीं। परन्तु सम्यग्मिथ्यावष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि जीवोके अनन्तानुबन्धीका उदय होता नहीं, इसलिये यहाँ हास्य-रतियुगल और अरति-शोकयुगल इन दो युगलोके विकल्पसे दो भग प्राप्त होते हैं। इस वन्धस्थानमेंसे अप्रत्याख्यानावरण कपाय चतुष्कके कम कर देने पर तेरह प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। यहां पर भी दो युगलांके निमित्तसे दो ही भग प्राप्त होते है, क्योकि यहाँ पर भी एक पुरुप वेदका ही वन्ध होता है, अत. वेदोके विकल्पसे जो भगोमें वृद्वि सम्भव थी, वह यहाँ भी नहीं है। इस वन्धस्थानमे से प्रत्याख्यानावरण कपाय चतुष्कके कम हो जाने पर नो प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। यह नौ प्रकृतिक वन्धस्थान प्रमत्तसयत, अप्रमत्तसयत और अपूर्वकरण इन तीन गुणस्थानोमे पाया जाता है किन्तु इतनी विशेषता है कि अरति और शोक इनका वन्ध प्रमत्तसयत गुणस्थान तक ही होता है आगे नहीं, अत प्रमत्तसयत गुणस्थानमें इस स्थानके दो भंग होते हैं जो पूर्वोक्त ही हैं। तथा अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सप्ततिकाप्रकरण इनमें हास्य-रतिरूप एक एक भंग ही पाया जाता है। इस स्थानमे से हास्य, रति, भय और जुगुप्साके कम कर देने पर पाँच प्रकृतिक वन्धस्थान होता है । यहाँ एक ही भग है, क्योकि इसमे बंधनेवाली प्रकृतियोमें विकल्प नहीं है। इसी प्रकार चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक बन्धस्थानोमे भी एक एक ही भंग होता है। इस प्रकार मोहनीय कर्मके दस वन्धस्थानोके कुल भग ६+४+२+२+२+ १+१+१+१+१=२१ होते हैं, यह उक्त गाथाका तात्पर्य है। ___अब इन बन्धस्थानोंमे से किसमे कितने उदयस्थान होते हैं, यह बतलाते हैं दस बावीसे नव इकवीस सत्ताइ उदयठाणाई । छाई नव सत्तरसे तेरे पंचाइ अहेव ॥ १५ ॥ अर्थ-वाईस प्रकृतिक वन्धस्थानमे सातसे लेकर दस तक, इक्कीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें सातसे लेकर नौ तक, सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थानमे छ. से लेकर नौ तक और तेरह प्रकृतिक बन्धस्थानमें पॉचसे लेकर आठ तक प्रकृतियोका उदय जानना चाहिये । विशेपार्थ-वाईस प्रकृतिक वन्धस्थानके रहते हुए सात प्रकतिक, आठ प्रकृतिक, नौ प्रकृतिक और दस प्रकृतिक ये चार उदय स्थान होते हैं। इनमे से पहले सात प्रकृतिक उदयस्थान को दिखलाते हैं-एक मिथ्यात्व, दूसरी हास्य, तीसरी रति, अथवा हास्य और रतिके स्थानमे अरति और शोक, चौथी तीन वेदोमेसे कोई एक वेद, पाँचवीं अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदिमें से कोई एक, छठी प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदिमे से कोई एक और सातवीं संज्वलन क्रोध आदिमे से कोई एक इन सात प्रकृतियोका उदय वाईस प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके नियम Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानोंमें उदयस्थान ७९ से होता है । यहाँ भंग चौवीस होते हैं । यथा -- क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारोका उदय एक साथ नहीं होता, क्योकि उदयकी अपेक्षा ये चारो परस्पर विरोधिनी प्रकृतियाँ हैं, अतः क्रोधादिकके उदयके रहते हुए मानादिकका उदय नहीं होता । परंतु क्रोधका उदय रहते हुए उससे नीचे के सब क्रोधो का उदय अवश्य होता है । जैसे, अनन्तानुवन्धी क्रोधका उदय रहते हुए चारो क्रोधोका उदय एकसाथ होता है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका उदय रहते हुए तीन क्रोधोंका उदय एकसाथ होता है । प्रत्याख्यानावरण क्रोधका उदय रहते हुए दो क्रोधोका उदय एकसाथ होता है तथा सञ्चलन क्रोधका उदय रहते हुए एक ही क्रोधका उदय होता है । इस हिसाब से प्रकृत सात प्रकृतिक उदयस्थान मे प्रत्याख्याना - वरण क्रोध आदि तीन क्रोधों का उदय होता है । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण मानके उदय के रहते हुए तीन मानका उदय होता है । अप्रत्याख्यानावरण माया का उदय रहते हुए तीन माया का उदय होता है और अप्रत्याख्यानावरण लोभका उदय रहते हुए तीन लोभका उदय होता है । जैसा कि हम ऊपर बतला आये हैं तदनुसार ये क्रोध, मान, माया और लोभके चार भंग स्त्री वेद के उदय के साथ होते हैं। और यदि स्त्रो वेदके उदय के स्थानमें पुरुष वेदका उदय हुआ तो पुरुपवेदके उदयके साथ होते हैं । इसी प्रकार नपुसक वेढ़के उदयके साथ भी ये चार भग प्राप्त होते हैं। इस प्रकार मिलकर बाहर भग हुए । जो हास्य और रतिके उदयके साथ भी होते हैं । और यदि हास्य तथा रतिके स्थानमे शोक और अरति का उदय हुआ तो इनके साथ भी प्राप्त होते हैं । इस प्रकार वारह को दोसे गुणित करने पर चौवीस भग हुए । इन्हीं भगो को दूसरे प्रकारसे यों भी गिन सकते हैं कि हास्य रति युगल के साथ स्त्री वेदका एक भंग तथा शोक अरति युगल के साथ स्रो वेदका ये सब Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण एक भंग इस प्रकार स्त्री वेदके साथ दो भंग हुए। तथा पुरुपवेद और नपुंसनवेदके साथ भी इसी प्रकार दो दो भंग होगे। ये कुल भंग छह हुए। जो व्हो भग क्रोधके साथ भी होंगे। क्रोधके स्थान मानका उदय होने पर मानके साथ भी होंगे। तथा इसी प्रकार माया और लोभके साथ भी होगे. अतः पूर्वोक्त छह भगांको चारसे गुणित कर देने पर कुल भग चौवीस हुए। यह एक चौवीसी हुई। इन मात प्रकृतियोंके उदय में भय, जुगुप्सा और अनन्तानुवन्धी चतुष्कोसे कोई एक कपाय इस प्रकार इन तीन प्रकृतियोंमें से क्रमश. एक एक प्रकृत्तिके उदयके मिलाने पर याठ प्रतियोका उदय तीन प्रकारसे प्राप्त होता है और इसीलिये यहाँ भंगोकी तीन । चौबीसी प्राप्त होती हैं, क्योंकि सात प्रकृतियोंके उदयमें भयका उदय मिलानपर आठके उदयके साथ भंगांकी पहली चौवीसी प्राप्त हुई। तथा पूर्वोक्त सात प्रकृतियोंके उदयमें जुगुप्साका उड्य मिलाने पर पाठके उदयके साथ भंगोंकी दूसरी चौबीसी प्राप्त हुई। इसी प्रकार पूर्वोक्त सात प्रकृनिगेंके उदयमें अनन्तानुवन्धी क्रोधादिकमें से किसी एक प्रकृतिके उदयके मिलाने पर आठके उदयके साथ भंगी की तीसरी चौवीसी प्राप्त हुई। इस प्रकार आठ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते हुए मंगों की तीन चौरीसी प्राप्त हुई। शंका-जब कि मिथ्यात्रष्टि जीवके अनान्तानुबन्धी चतुछकका उदय नियमसे होता है तब यहाँ सात प्रकृतिक उदयस्थान में और भय चा जुगुप्सामें से किसी एकके उदयसे प्राप्त होनेवाले पूर्वोक्त दो प्रकारके आठ प्रकृतिक उदयस्थानों से अनन्तानुवन्धी के उदयसे रहित क्यों वनलाया ? 'समाधान-जो सम्यन्त्रष्टि जीव अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्थानोमे उदयस्थान ८१ विसंयोजना करके रह गया । क्षपरणाके योग्य सामग्रीके न मिलने से उसने मिथ्यात्व आदिका क्षय नहीं किया । अनन्तर कालान्तर मे वह मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ त वहाँ उसने मिथ्यात्वके निमित्त से पुन अनन्तानुवन्धी चतुष्कका बन्ध किया। ऐसे जीवके एक आवलिका प्रमाण कालतक अनतानुवधी का उदय नहीं होता किन्तु आवलिकाके व्यतीत हो जाने पर नियमसे होता है । अत मिथ्यादृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित स्थान बन जाते हैं। यही मवव है कि सात प्रकृतिक उदयस्थानमें और भय या जुगुसाके उदयसे प्राप्त होनेवाले आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं बतलाया । शका - किसी भी कर्मका उदय अवाधाकालके क्षय होने पर होता है और अनन्तानुन्धी चतुष्कका जघन्य अवाधाकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अवाधाकाल चार हजार वर्ष है, त. वन्धावलिके बाद ही अनन्तानुवन्धीका उदय कैसे हो सकता है ? समाधान- बात यह है कि वन्धसमय से ही अनन्तानुवन्धीकी सत्ता हो जाती है, और सत्ताके हो जाने पर प्रवर्तमान बन्धमे पतद्ग्रहता आ जाती है, और पतद्ग्रहपनेके प्राप्त हो जाने पर शेष समान जातीय प्रकृतिदलिकका सक्रमण होता है जो पतग्रहप्रकृतिरूपसे परिणम जाता है, जिसका सक्रमावलिके वाद उदय होता है, अत श्रावलिकाके वाद अनन्तानुवन्धी का उदय होने लगता है यह कहना विरोधको नहीं प्राप्त होता है । इस शका-समाधानका यह तात्पर्य है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क विसंयोजनाप्रकृति है । विसयोजना वैसे तो है क्षय ही, किन्तु विसयोजना और क्षय में यह अन्तर है कि विसंयोजना के हो जाने पर कालान्तरमे योग्य सामग्री के मिलने पर विसयोजित ६ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढळू सुजविकाकरण प्रकृतिको पुनः मत्ता हो सकती है पर जयको प्राप्त हुई प्रकृति की पुनः नचा नहीं होती । सचा दो प्रकारसे होती है वन्यसे और । पर वन्य और संक्रमका अन्योन्य सन्वन्त्र है । जिस सन्य जिला बन्ध होता हैं उस समय उनमें अन्य सजातीय प्रकृतिवतिक्रया संक्रमण होता है। ऐसी कृतिको पतद्ग्रह प्रकृति कहते हैं । जिसका अर्थ चार पड़नेवाले कर्मदत्तको ग्रहण करने वाही प्रकृति होता है । ऐसा नियम है कि संक्रमसे प्राप्त हुए कर्मइतना संक्रमावतिके बाद उदय होता है. अतः अनन्तानन्वोका एक आयनिके बाद उदय मानने में कोई आपत्ति नहीं है । यद्यपि नवीन बालिके बाद स्वावाकाल के भीतर भी पण हो सकता है और यदि ऐसी प्रकृति उच्च प्राप्त हुई तो उस अकर्तित कर्मवद्ध का उदय सुनवसे निशेष भी हो सकता है, अतः नवीन वे हुए को विशेषले ऋषाकालके भीतर भी उदीरणीइय हो सकता है, इनमें कोई बाधा नहीं आती। फिर भी पीछे जो संत्रा सगवान किया गया है उसमें इतनी विवना नहीं की कई है । पीछे जो नाव प्रकृतिक उदयस्थानक आये हैं उसमें नय और जुगुप्ता के या भय और अनन्तान्यों के या जुगुप्ता और तन्वी के निलाने पर तीन नकारसे नौ प्रकृतियाँ उदय ग्राम होता है । यहाँ भी एक एक विकलमें पूर्वोक क्रमले मंग की एक एक चीती याम होती है। इस कार को प्रकृतिक उदयस्थानमें भी मंगांकी दीन चौत्रीसी जानना चाहिये | दया चनी सात प्रकृतिक उदयत्थानमें भय, जुगुप्ता और अनन्ववीके मिटा देने पर दस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्वोच्च प्रकारसे संगोत्री एक चावली होती है। इस प्रकार सात प्रकृतिक उदचस्यानको एक चौवीसी, आठ प्रकृतिक Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्यानोमें उदयस्थान उदयस्थानकी तीन चौवीस, नौ प्रकृतिक उदयस्थानकी तीन चौवीसी ये कुल भगोकी आठ वौचीसी प्राप्त हुई जो वाईस प्रकृतिक बन्धस्थानके समय होती हैं। इक्कीस प्रकृतिक वन्धस्थानके रहते हुए सात प्रकृतिक उदयस्थान, आठ प्रकृतिक उदयस्थान और नौ प्रकृतिक उदयस्थान ये तीन उदयस्थान होते हैं। इनमेंसे सात प्रकृतिक उदयस्थानमें एक जातिकी चार कपाय, तीनो वेदोमे से कोई एक वेद और दो युगलो मसे कोई एक युगल इन मात प्रकृतियोका उदय नियमसे होता है। यहाँ भी पूर्वोक्त क्रमसे भगोंको एक चौवीसी प्राप्त होती है। इसमे भयके या जुगुप्साके मिला देने पर आठ प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकारसे प्राप्त होता है। यहाँ भी एक एक विकल्पमे भगोंको एक गगक चौवीसी प्रान होनेसे आठ प्रकृतिक उदयस्थानमे भगोकी दो चौवीसी प्राप्त होती हैं। तथा पूर्वोक्त सात प्रकृतियोके उदयमें भय और जुगुप्सा के मिला देने पर नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह एक ही प्रकारका है अत यहाँ भगोकी एक चौवीसी प्राप्त होती है। इस प्रकार सात प्रकृतिक उदयस्थानकी एक चौबीसी, आठ प्रकृतिक उदयस्थानकी दो चाँबीसी और नी प्रकृतिक उदयस्थानकी एक चौवीसी ये कुल भंगोकी चार चौबीसी प्राप्त हुई जो इक्कीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें सम्भव हैं। . ___यह इकीस प्रकृतिक वन्धस्थान सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीवके ही होता है, और सास्वादनसम्यग्दृष्टिके श्रेणिगत और अश्रेणिगत ऐसे दो भेद हैं । जो जीव उपशमश्रेणिसे गिरकर सास्वादन गुणस्थानको प्राप्त होता है वह श्रेणिगत सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है । तथा जो उपशम सम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणि पर तो चढ़ा नहीं किन्तु अनन्तानुवन्धीके उदयसे सास्वादनभाव को प्राप्त हो गया वह अश्रेणिगत सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव कहलाता है। इनमे से अश्चे Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण णिगत सास्वादनसम्यग्दष्टि जीवकी अपेक्षा ये सात प्रकृतिक आदि तीन उदयस्थान कहे हैं। किन्तु जो श्रेणिगत सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव है उसके विषय में दो उपदेश पाये जाते हैं। कुछ प्राचार्योंका कहना है कि जिसके अनन्तानुवन्धीकी सत्ता है ऐसा जीव भी उपशमश्रेणिको प्राप्त होता है । इन आचार्यों के मतसे अनन्तानुबन्धीकी भी उपशमना होती है। इस मतकी पुष्टि निम्न गाथासे होती है। 'अणदंसणपुंसित्थीवेयछक्कं च पुरिसवेयं च । __ अर्थात्-'पहले अनन्तानन्धी कषायका उपशम करता है। उसके बाद दर्शनमोहनीयका उपशम करता है। फिर क्रमश . नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय और पुरुपवेदका उपशम करता है।' __ और ऐसा जीव श्रेणिसे गिरकर सास्वादन भावको भी प्राप्त होता है। अत इसके भी पूर्वोक्त तीन उदयस्थान होते हैं। किन्तु अन्य आचार्योका मत है कि जिसने अनन्तानन्धी की विसंयोजना कर दी है ऐसा जीव ही उपशमश्रेणिको प्राप्त होता है, अनन्तानुवन्धीकी सत्तावाला जीव नहीं। इनके मतसे ऐसा (१) दिगम्बर परम्परामे अनन्तानुवन्धीकी उपशमनावाले मतका षटखण्डागम, कषायप्रामृत व उनकी टीकाओंमें उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें इस मतका अवश्य उल्लेख किया है। वहाँ उपशमश्रेणिमें २८, २४ और २१ प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान बतलाये हैं। यथा 'अडचउरेकावीसं उवसमसेढिम्मि।-गो०० गा० ५११ । (२) आ: नि० गा० ११६ । ५० क. ग्रं० गा०६८। , Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानोंमें उदयस्थान ८५ जीव उपशम श्रेणिसे गिर कर सास्वादनभावको नहीं प्राप्त होता है क्योकि उसके अनन्तानुबन्धीका उदय सम्भव नहीं । और सास्वादन सम्यक्त्वकी प्राप्ति तो अनन्तानुवन्धीके उदयसे होती है, अन्यथा नहीं । कहा भी है ( १ ) यद्यपि यहाँ हमने श्राचार्य मलयगिरिको टीकाके अनुसार यह बतलाया है कि अनन्तानुबन्धो की विसयोजना करके जो जीव उपशमश्रेणि पर चढ़ता है वह गिरकर सास्वादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है । तथापि कर्मप्रकृतिक श्रादिके निम्न प्रमाणोंसे ऐसा ज्ञात होता है कि ऐसा जीव भी सास्वादन गुणस्थानको प्राप्त होता है । यथा कर्मप्रकृति की चूरिंग में लिखा है - चरितवसमया काउकामो जति वेयगसम्मद्दिट्ठी तो पुन्य प्रणताणुवधियो नियमा विसंजोएति । एएण कारणेण विरयाण अणताणुवंधिविसंजोयणा भन्नति । - ' कर्मप्र० चु० उपश० गा० ३० । श्रर्थात् जो वेदकसम्यग्दृष्टि जोव चारित्रमोहनीयको उपशमना करता है। वह नियमसे श्रनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजना करता है । और इसी कारणमे विरत जीवोंके श्रनन्तानुबन्धीकी विसयोनना कही गई है । फिर आगे चलकर उसीके मूलमें लिखा है 'श्रासा वा वि गच्छेज्जा ।'- कर्मप्र० उपश० गा० ६२ । श्रर्थात् ऐसा जीव उपशमश्रेणिमे उतरकर सास्वादन गुणस्थानको भी प्राप्त होता है । इन उल्लेखोंसे ज्ञात होता है कि कर्मप्रकृतिके कर्नाका यही एक मत रहा है कि अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना किये विना उपशमश्रेणि पर श्रारोहण करना सम्भव नहीं, और वहाँ से उतरनेवाला यह जीव सास्वादन गुणस्थानको भी प्राप्त होता है । यद्यपि पचसग्रहके उपशमना प्रकरणसे कर्म प्रकृति के मतकी ही पुष्टि होती है किन्तु उसके सक्रमप्रकरणमे इसका Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ सप्ततिकाप्रकरण । 'अणंतागुवंधुदयरहियस्स सासणभावो न संभवइ ।' अर्थात् अनन्तानुवन्धीके उदयके विना सास्वादन सम्यक्त्वका प्राप्त होना सम्भव नहीं है। शंका-जिस समय कोई एक जीव मिथ्यात्वके अभिमुख तो होता है किन्तु मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता उस समय उन आचार्यों के मतानुसार उसके अनन्तानुवन्धीके उदयके विना भी सास्वादन गुणस्थानकी प्राप्ति हो जायगी, यदि ऐसा मान लिया. जाय तो इसमें क्या आपत्ति है ? समाधान-यह मानना ठीक नहीं, क्यो कि ऐसा मानने पर उसके छह प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, आठ प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान प्राप्त होते हैं। पर आगममे ऐसा वतलाया नहीं, और वे आचार्य भी ऐसा मानते नहीं। इससे समर्थन नहीं होता, क्योंकि वहाँ सास्वादन गुणस्थानमें २१ में २५ का ही संक्रमण बतलाया गया है। दिगम्वर परम्परामें एक घटखण्डागमकी और दूसरी कषायप्रामृतको ये दो परम्पराएँ मुख्य हैं। इनमेंसे पट्खण्डागमकी परम्पराके अनुसार उपशमश्रेणिसे च्युत हुआ जीव सास्वादन गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता है। वीरसेन स्वामीने अपनी धवला टीकामें भगवान पुष्पदन्त भूतवलिके उपदेश का इसी रूपसे उल्लेख किया है। यथा___ 'भूदलिभयवतस्सुवएसेण उपसमसेढीदो श्रोदिण्णो ण सासत्त पडिवज्ञदि । -जीव० चू० पृ. ३३१ । किन्तु कषायप्रामृतकी परम्पराके अनुसार तो जो जीव उपशमश्रेणि पर चढ़ा है, वह उससे च्युत होकर सास्वादन गुणस्थानको भी प्राप्त हो सकता है। तथापि कषायप्रामृतकी चूर्णिमें अनन्तानुबन्धी उपशमना प्रकृति है इसका स्पष्टरूपसे निषेध किया है और साथ ही यह भी लिखा है कि Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्थानोमे उदयस्थान सिद्ध है कि अनन्तानुबन्धीके उदयके विना सास्वादन सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती । सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थानके रहते हुए छह प्रकृतिक, सात प्रकृति, आठप्रकृतिक और नौ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान होते हैं । सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थान तीसरे और चौथे गुणस्थानमें होता है । उनमेसे मिश्र गुणस्थानमे सत्रह प्रकृतियोका बन्ध होते हुए सात प्रकृतिक, आठ प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं । पहले सास्वादन गुणस्थानमें जो सात प्रकृतिक उदयस्थान वतला आये हैं उसमें से अनन्तानुवन्धीके एक भेदको घटाकर मिश्रमोहनीयके मिला देनेपर मिश्र गुणस्थान में सात प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है क्यो कि मिश्र गुणस्थानमें अनंतानुबन्धीका उदय न होकर मिश्र मोहनीयका उदय होता है, अत यहाँ अनन्तानुवन्धीका एक भेट घटाया गया है और मिश्रमोहनीय प्रकृति मिलाई गई है । यहाँ भी पहले के समान भगोकी एक चौवीसी प्राप्त होती है । इस सात प्रकृतिक उदयस्थानमें भय या जुगुप्साके 'वेदकसम्यग्दृष्टि जीव श्रनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना किये बिना कषायोंको नहीं उपशमाता है ।' यह केवल कषायप्राभृतके चूर्णिकारका ही मत नहीं है, किन्तु मूल कपायप्रामृत से भी इस मतकी पुष्टि होती है । कषायप्राभृतके प्रकृतिस्थान संक्रम अनुयोगद्वार में जो ३२ गाथाएँ आई हैं उनमें से सातची गाथामें बतलाया है कि '१३, ९, ७, १७, ५ और २१ इन छह पतद्ग्रहस्थानोंमें २१ प्रकृतियों का सक्रमण होता है।' यहाँ जो इक्कीस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में इक्कीस प्रकृतियोंका सक्रमण वतलाया है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि कषायप्राभृतकी चूगिमें जो यह मत बतलाया है कि जिसने श्रनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसा जीव भी सास्वादन गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है सो यह मत कषायप्रामृत मूलसे समर्थित है । واب Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण मिलाने पर आठ प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकारसे प्राप्त होता है। यहाँ भी भगोकी दो चौबीसी प्राप्त होती है। फिर इस सातप्रकृतिक उदयस्थानमे भय और जुगुप्साके मिलाने पर नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। पूर्वोक्त प्रकारसे यहाँ भी भगोंको एक चौवीसी प्राप्त होती है । इस प्रकार मिश्र गुणस्थान मे सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थानके रहते हुए भंगोकी कुल चार चौबीसी प्राप्त हुई। ___ चौथे गुणस्थानमे सत्रह प्रकृतियोका वन्ध होते हुए छहप्रकृतिक, सात प्रकृतिक आठ प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान होते है। पहले मिश्र गुणस्थानमें जो सात प्रकृतिक उदयस्थान वतला आये है उसमें से मिश्रमोहनीय के घटा देनेपर चौथे गुणस्थानमें छह प्रकृतिक उदयस्थान होता है जिसमे भगोकी एक चौवीसी होती है। इसमें भय, जुगुप्सा या सम्यक्त्वमोहनीय इन तीन प्रकृतियोमें से किसी एक प्रकृतिके मिलाने पर तीन प्रकार से सात प्रकृतिक उदग्रस्थान प्राप्त होता है। यहाँ एक एक भेदमे भंगोकी एक एक चौबीसी होती है अतः सात प्रकृतिक उदयस्थानमे भंगोकी तीन चौवीसी प्राप्त हुई। फिर छह प्रकृतिक उदयस्थानमें भय और जुगुप्सा, अथवा भय और सम्यक्त्व मोहनीय या जुगुप्सा और सम्यक्त्व मोहनीय इन दो प्रकृतियोके मिलाने पर आठ प्रकृतिक उदयस्थान भी तीन प्रकार से प्राप्त होता है। यहाँ एक एक भेदमें भगोकी एक एक चौबीसी होती है, अतः आठ प्रकृतिक उदयस्थान में भङ्गोकी तीन चौबीसी प्राप्त हुई। अनन्तर छह प्रकृतिक उदयस्थानमे भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय इन तीनों प्रकृतियोके एक साथ मिला देने पर नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भंगोकी एक चौवीसी प्राप्त होती। इस प्रकार चौथे गुणस्थानमे सत्रह प्रकृतियोका बन्ध Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानोमें उदयस्थान रहते हुए भगोको कुल आठ चौबीसी प्राप्त हुई। जिनमें से चार चौबीसी सम्यक्त्वमोहनीयके उदयके बिना होती हैं और चार चौवीसी सम्यक्त्वमोहनीयके उदय सहित होती है, जो सम्यक्त्वमोहनीयके उदयके विना होती हैं वे उपशमसम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । और जो सम्यक्त्वमोहनीयके उदयसहित होती हैं वे वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोके जानना चाहिये। तेरह प्रकृतिक बन्धस्थानके रहते हुए पाँच प्रकृतिक, छह प्रकृतिक, सातप्रकृतिक और आठ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान होते है। चौथे गुणस्थानमें जो छह प्रकृतिक उदयस्थान बतला आये है उसमेंसे अप्रत्याख्यानावरणके एक भेदके घटा देने पर पाँचवे गुणस्थानमे पाँच प्रकृतिक उदयस्थान होता है जिसमें भगोकी एक चौवीसी होती है। इसमें भय, जुगुप्सा या सम्यक्त्वमोहनीय इन तीन प्रकृतियोंमेंसे एक एक प्रकृतिके मिलाने पर छहप्रकृतिक उदयस्थान तीन प्रकारसे होता है। यहाँ एक एक भेदमें भगोकी एक एक चौबीसी होती है, अत: छह प्रकृतिक उदयस्थानमे भगो की कुल तीन चौवीसी प्राप्त हुई। अनन्तर पाँच प्रकृतिक उद्यस्थानमें भय और जुगुप्सा, भय और सम्यक्त्वमोहनीय या जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय इन दो दो प्रकृतियोके मिलानेपर सात प्रकृतिक उदयस्थान भी तीन प्रकारसे प्राप्त होता है। यहाँ भी एक एक भेदमें भगोकी एक एक चौवीसी होती है अत सात प्रकृतिक उदयस्थानमे भगोकी कुल तीन चौबीसी प्राप्त हुई। फिर पॉच प्रकृतिक उदयस्थानमें भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय इन तीनों प्रकृतियोंके मिला देनेपर आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह आठ प्रकृतिक उदयस्थान एक ही प्रकारका है, अत. यहाँ भंगोकी एक चौवीसी प्राप्त हुई। इस प्रकार पॉचवें गुणस्थानमें तेरह प्रकृतिक बन्धस्थानके रहते हुए उदयस्थानोंको अपेक्षा Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण भगोकी आठ चौबीसी प्राप्त होती हैं। यहाँ भी चार चौबीसी उपशमसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोके तथा चार चौबीसी वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोके होती हैं। चत्तारिमाइ नवबंधगेसु उक्कोस सत्त उदयंसा । पंचविहवंधगे पुण उदो दोएहं मुणेयव्यो॥१६॥ अर्थ-नौ प्रकृतियो का वन्ध करनेवाले जीवोंके चार प्रकतिक उदयस्थानसे लेकर अधिकसे अधिक सात प्रकृतिक उदयस्थान तक चार उदयस्थान होते है। तथा पॉच प्रकृतियोका बन्ध करने वाले जीवोके उदय दो प्रकृतियो का ही होता है। ऐसा जानना चाहिये। विशेपार्थ-इस गाथामें यह बतलाया है कि नौ प्रकृतिक और पाँच प्रकृतिक बन्धस्थानके रहते हुए उदयस्थान कितने होते हैं। आगे इसीका खुलासा करते हैं-नौ प्रकृतिक वन्धस्थानके रहते हुए चार प्रकृतिक, पाँच प्रकृतिक, छ प्रकृतिक और सात प्रकृतिक ये चार उदयस्थान होते हैं। पहले पाँचवे गुणस्थानमे जो पाँच प्रकृतिक उदयस्थान वतला आये हैं उसमे से प्रत्याख्यानावरण कपायके एक भेदके कम कर देने पर यहाँ चार प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है जिसमे पूर्वोक्त प्रकारसे भंगोकी एक चौवीसी होती है। इसमें भय, जुगुप्सा या सम्यक्त्व मोहनीय इन तीन प्रकृतियोमेंसे किसी एक प्रकृतिके क्रमसे मिलाने पर पाँच प्रकृतिक उदयस्थान तीन प्रकारसे प्राप्त होता है। यहाँ एक एक भेदमे भंगोकी एक एक चौवीसी प्राप्त होती है, अतः पाँच प्रकृतिक उदयस्थानमे भंगोकी कुल तीन चौबीसी प्राप्त हुई । फिर चार प्रकृतिक उदयस्थांनमें भय और जुगुप्सा, भय और सम्यक्त्व मोहनीय या जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय इन दो Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानोमें उदयस्थान दो प्रकृतियो के क्रमसे मिलाने पर छह प्रकृतिक उदयस्थान तीन प्रकारसे प्राप्त होता है। यहाँ भी एक एक भेदमें भगो की एक एक चौवीसी प्राप्त होती है, अत. छह प्रकृतिक उदयस्थानमे भंगोकी कुल तीन चौवीसी प्राप्त हुई। फिर चार प्रकृतिक उदयस्थानमें भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्व मोहनीयके मिलाने पर सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह सात प्रकृतिक उदयस्थान एक ही प्रकारका है अत यहाँ भंगोकी एक चौवीसी प्राप्त हुई। इस प्रकार नौ प्रकृतिक वन्धस्थानके रहते हुए उदयस्थानोकी अपेक्षा भंगोकी आठ चौवीसी प्राप्त हुई । यहाँ भी चार चौवीसी उपशमसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोके तथा चार चौवीसी वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोके होती हैं। ___ पॉच प्रकृतिक बन्धके रहते हुए संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इनमेसे कोई एक तथा तीनों वेमेसे कोई एक इस प्रकार दो प्रकृतियो का उदय होता है । यहाँ चारो कपायोको तीनो वेदोसे गुणित करने पर वारह भग होते हैं। ये वारह भंग नौवे गुणस्थान के पाँच भागोमेंसे पहले भाग में होते हैं। अब अगले बन्धस्थानोमें उदयस्थानो को बतलाते हैंइत्तो चउबंधाई इक्कक्कुदया हवंति सव्वे वि । बंधोवरमे वि तहा उदयाभावे वि वा होजा ॥१७॥ अर्थ-पाँच प्रकृतिक बन्धके वाद चार, तीन, दो और एक प्रकृतियोंका वन्ध होने पर सव उदय एक एक प्रकृतिक होते हैं। तथा वन्धके अभावमें भी एक प्रकृतिक उदय होता है। किन्तु उदयके अभावमें मोहनीय कर्मकी सत्ता विकल्पसे होती है। विशेषार्थ-इस गाथामें चार प्रकृतिक वन्ध आदिमें उदय कितनी प्रकृतियोंका होता है यह बतलाया है। पुरुषवेदका बन्ध Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण विच्छेद हो जाने पर चार प्रकृतियोका बन्ध होता है। साथ ही यह नियम है कि पुरुषवेदकी वन्धव्युच्छित्ति और उदयव्युच्छित्ति एक साथ होती है, अत चार प्रकृतिक बन्धके समय चार सज्वलनोमें से किसी एक प्रकृतिका ही उदय होता है। इस प्रकार यहाँ चार भंग प्राप्त होते हैं, क्योकि कोई जीव संज्वलन क्रोधके उदयसे, कोई जीव संज्वलन मानके उदयसे, कोई जीव संज्वलन मायाके उदयसे और कोई जीव संज्वलन लोभके उदयसे श्रेणि पर चढ़ते है, इसलिये चार भगोके प्राप्त होनेमें कोई आपत्ति नहीं है। यहाँ पर कितने ही प्राचार्य चार प्रकृतिक बन्धके संक्रमके समय तीनों वेदोंमेसे किसी एक वेदका उदय होता है ऐसा स्वीकार करते हैं, अत. उनके मतसे चार प्रकृतिक वन्धके प्रथम कालमें दो प्रकृतियो का उदय होता है और इस प्रकार चार कषायोको तीन वेदोसे गुणित करने पर बारह भग प्राप्त होते हैं। पञ्चसंग्रहकी मूल टीकामे भी कहा है-- ____ 'चतुर्विधवन्धकस्याद्यविभागे त्रयाणां वेदानामन्यतमस्य वेदस्योदय कचिदिच्छन्ति, अतश्चतुर्विधवन्धकस्यापि द्वादश द्विकोदयान् जानीहि ।' अर्थात् -'कितने ही आचार्य चार प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवके पहले भागमे तीन वेदोमेसे किसी एक वेदका उदय मानते हैं, अत चार प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले जीवके भी दो प्रकृतियोके उदयसे बारह भंग जानना चाहिये। __इस प्रकार उन श्राचार्योंके मतसे दो प्रकृतियोके उदयमे चौबीस भंग हुए। वारह भंग तो पॉच प्रकृतिक बम्धस्थानके समयके हुए और वारह भंग चार प्रकृतिक वन्धस्थानके समयके, इस प्रकार चौवीस हुए। संज्वलन क्रोधके बन्धविच्छेद हो जाने पर वन्ध तीन प्रकृतिक Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानोमें उदयस्थान और उदय एक प्रकृतिक होता है। यहाँ तीन भंग होते है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ संज्वलन क्रोधको छोड़कर शेष तीनमेसे किसी एक प्रकृतिका उदय कहना चाहिये, क्योकि सज्वलन क्रोधके उदयमे सज्वलन क्रोधका बन्ध अवश्य होता है। कहा भी है'जे वेयइ ते बंधई। अर्थात् 'जीव जिसका वेदन करता है उसका वन्ध अवश्य करता है। इसलिये जव संज्वलन क्रोधकी वधन्युच्छित्ति हो गई तो उसकी उदयव्युच्छित्ति भी हो जाती है यह सिद्ध हुआ, अत तीन प्रकृतिक वन्धके समय सज्वलन मान आदि तीनमेसे किसी एक प्रकृतिका उदय होता है ऐसा कहना चाहिये। सज्वलनमानके वधविच्छेद हो जाने पर बंध दो प्रकृतिक और उदय एक प्रकृतिक होता है। किन्तु वह उदय सञ्चलन माया और लोभमेंसे किसी एक्का होता है अत यहाँ दो भग प्राप्त होते हैं । सज्वलन मायाके वन्धविच्छेद हो जाने पर एक सज्वलन लोभका वन्ध होता है और उसीका उदय । अत यहाँ एक भग होता है । यद्यपि यहाँ चार प्रकृतिक बन्धस्थान आदिमे सज्वलन क्रोध आदिका उदय होता है, अत भगोमे कोई विशेषता नही उत्पन्न होती, फिर भी वन्धस्थानोके भेदसे उनमे भेद मानकर उनका पृथक् कथन किया है। तथा वन्धके अभावमे भी सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयको एक प्रकृतिका उदय होता है इसलिये एक भग यह हुआ। इस प्रकार चार प्रकृतिक वन्धस्थान आदिमे कुल भग ४+३+२+१+१=११ हुए। तदनन्तर सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानके अन्तमै मोहनीयका उदय विच्छेद हो जाता है तथापि उपशान्त मोह गुणस्थानमे उसका सत्त्व अवश्य पाया जाता है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ सप्ततिकाप्रकरण यद्यपि यहाँ वन्धस्थान और उदयस्थानोंके परस्पर संवेधका विचार किया जा रहा है अतः गाथामे सत्त्वस्थानके उल्लेखकी आवश्यकता नहीं थी फिर भी प्रसंगवश यहाँ इसका संकेतमात्र किया है। अब दससे लेकर एक पर्यन्त उदयस्थानोमें जितने भंग सम्भव है उनके दिखलानेके लिये आगेकी गाथा कहते हैं एक्कंगछक्केक्कारस दस सत्त चउक्क एक्कगा चेव । एए चउवीसगया चउंचीस दुगेक्कमिक्कारा ॥१८॥ अर्थ-इस प्रकृतिक आदि उदयस्थानोमें क्रमसे एक, छह, ग्यारह, दस, सात, चार और एक इतने चौबीस विकल्परूप भग होते हैं। तथा दो प्रकृतिक उदयस्थानमे चौबीस और एक प्रकृतिक उदयस्थानमें ग्यारह भग होते हैं ।। विशेपार्थ-पहले दस प्रकृतिक आदि उदयस्थानामें कहाँ कितनी भगोकी चौवीसी होती हैं यह पृथक् पृथक् वतला आये है (१) 'एक्कगछक्ककारस दस सत्त चक्क एक्कग चेव । दोसु च वारस भगा एकम्हि य हॉति चत्तारि ॥' कसाय. (वेदकाधिकार)। "चवीसा । एकगच्छक्ककारस दस सत्त चउक एकात्रो ॥'-कर्म प्र० उदी० गा० २४ । घव० उदी०, श्रा०प० १०२२ । 'दसगाइसुचठवीसा एकाधिकारदपसगचउक्क । एका य ।' -पञ्चत. सप्तति० गा० ०७। 'एक यवकेयार दससगचदुरेकर्य अवुणरुत्ता। एदे चदुवीगदा वार दुगे पत्र एक्कम्मि ॥'-गो. कर्म० गा० ४८८। (२) सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मप्रत्यके टवेमें इस गाथाका चौथा चरण दो प्रकारसे निर्दिष्ट किया है। स्त्रमतरूपसे 'यार दुगिकम्मि इक्कारा' इस प्रकार और मतान्तररूपसे 'चवीस दुगिकमिकारा' इस प्रकार निर्दिष्ट किया है। प्रथम पाठके अनुसार स्त्रमतसे दो प्रकृतिक उदयस्थानमें १२ भग Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ वन्धस्थानोमें उदयस्थानोके भंग यहाँ अव उनकी समुच्चयरूप संख्या वतलाई है। जिसका खुलासा इस प्रकार है - इस प्रकृतिक उदयस्थानमें भगोकी एक चौवीसी होती है यह स्पष्ट ही है, क्योकि वहाँ और प्रकृतिविकल्प सम्भव नहीं । नौ प्रकृतिक उदयस्थानमे भगोकी कुल छह चौवीसी होती हैं । यथा - वाईस प्रकृतिक वन्धस्थानके समय जो नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसकी तीन चौवीसी, इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थानके समय जो नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भगोकी एक चौवीसी, मिश्र गुणस्थानमे सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थानके समय जो नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भगोकी एक चौवीसी और चौथे गुणस्थान में सत्रह प्रकृतिक वन्धके समय जो नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भगोको एक चौबीसी इस प्रकार नौ प्रकृतिक उदयस्थानके भगोकी कुल छह चौबीसी हुई। आठ प्राप्त होते हैं और दूसरे पाठके अनुसार मतान्तरसे दो प्रकृतिक उदयस्थानमें २४ भग प्राप्त होते हैं। मलयगिरि श्राचार्यने अपनी टोकामें इसी अभिप्रायकी पुष्टि की है । यथा 'द्विकोदये चतुर्विंशतिरेका भङ्गकानाम्, एतच्च मतान्तरेणोकम् | अन्यथा स्वमते द्वादशैव भङ्गा वेदितव्या ।' अर्थात् दो प्रकृतिक उदयस्थानमें चौवीस भग होते हैं । सो यह कथन अन्य श्राचायोंके अभिप्रायानुसार किया है । श्रन्यथा स्वमतसे तो दो प्रकृतिक उदयस्थानमें कुल बारह भग हो होते हैं । इस सप्ततिका प्रकरणकी गाथा १६ में पाँच प्रकृतिक बन्धस्थान के समय दो प्रकृतिक उदयस्थान और गाथा १७ में चार प्रकृतिक बन्धस्थान के समय एक प्रकृतिक उदयस्थान बतलाया है । इससे जो स्वमत से १२ और मतान्तरसे २४ भंगका निर्देश किया है उसकी ही पुष्टि होती है । पचसप्रह सप्ततिकाप्रकरण और कर्मकाण्डमें भी इन मतभेदों का निर्देश किया है । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ सप्ततिकाप्रकरण प्रकृतिक उदयस्थानमें भंगोकी कुल ग्यारह चौवीसी होती हैं। यथा-बाईस प्रकृतिक वन्धस्थानके समय जो आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भंगोंकी कुल तीन चौवीसी, इक्कीस प्रकृतिक वन्धस्थानके समय जो आठ प्रकृतिक उदयम्थान होता है उसके भगोकी कुल दो चौवीसी, मिश्र गुणस्थानमें सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थानके समय जो आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भगोकी कुल दो चौवीसी, चौथे गुणस्थानमें सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थानके समय जो आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भगोकी कुल तीन चौवीसी और पाँचवे गुणस्थानमे तेरह प्रकृतिक वन्धस्थानके समय जो पाठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भगोकी कुल एक चौवीसी इस प्रकार आठ प्रकृतिक उदयस्थानमे भंगोकी कुल ग्यारह चौवीसी हुई। सात प्रकृतिक उदयस्थानमे भगोकी कुल दस चौबीसी होती है। यथा-बाईस प्रकृतिक बन्धस्थानके समय जो सात प्रकृतिक उढयस्थान होता है उसके भंगोकी एक चौवीसी, इक्कीस प्रकृतिक वन्धस्थानके ममय जो सात प्रकृतिक उढयस्थान होता है उसके भंगोकी एक चौवीसी, मिश्र गुणस्थानमे सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थानके समय जो सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके मंगोकी एक चौबीसी, चौथे गुणस्थानमे सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थानके समय जो सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भंगोकी तीन चौवीसी, तेरह प्रकृतिक वन्धस्थानके समय जो सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भंगोंकी तीन चौवीसी और नौ प्रकृतिक वन्धस्थानके समय जो सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भंगोकी एक चौवीसी इस प्रकार सात प्रकृतिक उदयस्थानमे भंगोंकी कुल दस चौवीसी होती हैं। छः प्रकृतिक उदयस्थानमे भंगोकी कुल सात चौवीसी होती हैं। यथा-अविरतसम्यग्दृष्टिके सत्रह प्रकृतिक Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्थानोमें उदयस्थानोके भग वन्धस्थानके समय जो छह प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भंगोकी कुल एक चौवीसी, तेरह प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक वन्धस्थानमे जो छह प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भंगो की कुल तीन तीन चौवीसी इम प्रकार छह प्रकृतिक उदयस्थानके भंगोकी कुल मात चौबीसी हुई। पाँच प्रकृतिक उदयस्थानमे भगोकी कुल चार चौबीसी होती हैं। यथा-तेरह प्रकृतिक वन्धस्थानमे जो पाँच प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भगोंकी कुल एक चौवीमी और नौ प्रकृतिक बन्धस्थानमे जो पॉच प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भगोकी कुल तीन चौवीसी इस प्रकार पॉच प्रकृतिक उदयस्थानमें भगोकी कुल चार चौवीसी प्राप्त हुई । तथा नौ प्रकृतिक बन्धके समय चार प्रकृतिक उदयके भगोकी एक चौवीमी होती है। इस प्रकार दससे लेकर चार पर्यन्त उदयस्थानोके भगोकी कुल १+६+ ११+१०+७+४+ १-४० चौवीमी होती है । तथा पाँच प्रकृतिक वन्धके समय दो प्रकृतिक उदयके भग वारह होते हैं और चार प्रकृतिक वन्धके समय भी दो प्रकृतिक उदय सम्भव है ऐसा कुछ आचार्यों का मत है अत इस प्रकार भी दो प्रकृतिक उदयस्थानके वारह भग प्राप्त हुए। इस प्रकार दो प्रकृतिक उदयस्थानके भगोकी एक चौवीसी होती है। तथा चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक वन्धस्थानके और श्रवन्धके समय एक प्रकृतिक उदयस्थानके क्रमश चार, तीन, दो, एक और एक भग होते हैं जिनका जोड़ ग्यारह होता है, अत एक प्रकृतिक उदयस्थानके कुल भग ग्यारह होते है। इस प्रकार इस गाथामे मोहनीयके सव उदयस्थानोमे सव भगोकी कुल चौवीसी कितनी और फुटकर भग कितने होते हैं यह बतलाया है। अब इन भगोकी कुल संख्या कितनी होती है यह बतलाते हैं Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण नवपंचाणउइसएहुदयविगप्पेहिँ मोहिया जीवा । अर्थ संसारी जीव नौ सौ पंचानवे उदय विकल्पोसे मोहित हैं। विशेषार्थ--इससे पहलेकी चार गाथाओमे मोहनीय कर्मके उदयस्थानोके भंग वतला आये है। यहाँ 'उदयविकल्प' पदद्वारा उन्होंका ग्रहण किया है। किन्तु पहले उन उदयस्थानोंके भंगोकी कहां कितनी चौवीसी प्राप्त होती हैं यह बतलाया है। अव यहाँ यह बतलाया है कि उनकी कुल संख्या कितनी होती है। प्रत्येक चौवीसीमें चौबीस भंग हैं और उन चौबीसियोंकी कुल सख्या इकतालीस है अत. इकतालीसको चौबीससे गुणित कर देने पर नौ सौ चौरासी प्राप्त होते हैं। किन्तु इस सख्यामें एक प्रकृतिक उदयस्थानके भग सम्मिलित नहीं हैं जो कि ग्यारह हैं। अतः उनके और मिला देने पर कुल संख्या नौ सौ पंचानवे होती, है। संसारमें दसवे गुणस्थान तकके जितने जीव है उनमेसे प्रत्येक जीव के इन ९९५ भगोमेसे यथासम्भव किसी न किसी एक भंग का उदय अवश्य है जिससे वे निरन्तर मूच्छित हो रहे हैं। यही सबब है कि ग्रन्थकारने सब संसारी जीवोको इन उदय विकल्पोसे मोहित कहा है। जैसा कि हम ऊपर वतला आये हैं यहाँ जीवोंसे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तकके जीव ही लेना चाहिये, क्योकि मोहनीय कर्मका उदय वहीं तक पाया जाता है। यद्यपि उपशान्तमोही जीवोका जव स्वस्थानसे पतन होता है तब वे भी इस मोहनीयके झपेटेमे आ जाते है, किन्तु कमसे कम एक समय के लिये और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्तके लिये वे मोहनीयके उदयसे रहित हैं अत. उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया। (१) बठबन्धगे वि बारस दुगोदया जाण तेहि छुढेहिं । वन्धगभेएणेव, पचूणसहस्समुदयाण ॥'-पञ्चसं० सप्तति० गा० २९ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ वन्धस्थानी व उदयस्थानाके भगोंका कोष्ठक अधस्थान उठ्यस्थानोंके सवेध भंगोका जापक कोठक [१७] गुणस्थान यन्धम्यान भग, उज्यस्थान भग १ला .२ ६ । ७,८,९,१० ८ नीचौकी 1 २१ ४ चीचीमा २५,८, ४ चीयीकी ४ या . १० २ । ६, ७, ८, १३ 14 में १३ मग . . . १ - १ भग Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सप्ततिकाप्रकरण अव पदसंख्या बतलाते हैं उत्तरिएगुत्तरिपयविंदसएहिं विनेयो ॥ १९ ॥ - अर्थ तथा ये संसारी जीव उनहत्तर सौ इकहत्तर अर्थात छह हजार नौ सौ इकहत्तर पढसमुदायोसे मोहित जानना चाहिये । विशेषार्थ — यहाँ मिथ्यात्व अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि प्रत्येक प्रकृतिको पद और उनके समुदायको पदवृन्द कहा है । इसीका दूसरा नाम प्रकृतिविकल्प भी है। आशय यह है कि उपर्युक्त दम प्रकृतिक आदि उदयस्थानोमें जितनी प्रकृतियाँ हैं वे सब पढ़ हैं और उनके भेदसे जितने भंग होगे वे सब पढ़वृन्द या प्रकृतिविकल्प कहलाते हैं । प्रकृतमें इस प्रकार कुल भेट ६९७१ होते है । खुलासा इस प्रकार है-इस प्रकृतिक उदयस्थान एक है. उसकी इस प्रकृतियाँ हुई। नौ प्रकृतिक उदयस्थान छह हैं, त उनकी चौवन प्रकृतियाँ हुई। आठ प्रकृतिक उदयस्थान ग्यारह हैं, अत उनकी अठासी प्रकृतियाँ हुई। सात प्रकृतिक' उदयस्थान दस है, अत उनकी सत्तर प्रकृतियाँ हुई। छह प्रकृतिक उदयस्थान सात है, अत उनकी वयालीस प्रकृतियाँ हुई । पाँच प्रकृतिक उदयस्थान चार हैं, अतः उनकी वीस प्रकृतियाँ हुई। चार प्रकृतिक उदयस्थान एक है, अतः उसकी चार प्रकृतियों हुई । और दो प्रकृतिक उदयस्थान एक हैं, अतः उसकी दो प्रकृतियाँ हुई । अनन्तर इन सव प्रकृतियोको मिलाने पर कुल जोड़ १० + ५४ + ८८ + ७० + ४२+२०+४+ २ = २९० होता है । इन प्रकृतियो से प्रत्येमे चौबीस चौबीस भंग प्राप्त होते हैं, त २९० को २४ से गुणित कर देने पर ६९६० प्राप्त हुए । पर - ( १ ) सप्ततिकप्रकरण नामक पष्ट कर्मग्रन्थके टवेंमें यह गाथा 'नवतेसीयसएहि' इत्यादि गाथाके बाद दी है । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदवृन्द १०१ इम सख्यामे एक प्रकृतिक उदयस्थानके ग्यारह भग सम्मिलित नहीं हैं अत. उनके मिला देने पर कुल संख्या ६९७१ प्राप्त होती है। ये सब प्रकृतिविकल्प हुए । दसवे गुणस्थान तकके सव ससारी जीव इतने विकल्पोसे निरन्तर मोहित हैं यह उक्त गाथाके उत्तरार्धका तात्पर्य है। यहाँ इतना विशेष जानना कि पहले जो मतान्तरसे चार प्रकृतिक बन्धके सक्रमकालके समय 'दो प्रकृतिक उदयस्थानमें बाहर भग बतलाये हैं उनको मम्मिलित करके ही यह उदयस्थानांकी सरया और पदसल्या कही गई है। पढमस्याका जापक कोष्ठक [१९] उदयस्थान संख्या प्रकृतियाँ भग कुल १० x १ = १० x २४ = २४० Ex ___ = ५४ x २४ - १२६६ ८ x ११ = ८८ x २४ - २०१२ - = ७ ६ ५. ४ १६८० १००८ x x ४ x = = = १० ७ ४ १ ७० ४२ २० ४ x x x ४ २४ २४ ४ २४ २४ - = ९६ ४८ X १ - २ ४ x १ = १ x ११ - कुल ६९७१ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सप्ततिकाप्रकरण अब इन बारह भंगोको छोड़कर उदयस्थानोकी संख्या और पदसंख्या बतलाते हैं - नवतेसीयसंहिं उदयविगप्पेहिं मोहिया जीवा । उत्तरिसीयाला पयविंदसएहिं विनेया ॥२०॥ अर्थ – संसारी जीव नौसौ तिरासी उदयविकल्पोसे और उनहत्तर सौ सैंतालीस अर्थात् छह हजार नौसौ सैंतालीस पदसमुदायोसे मोहित हो रहे हैं ऐसा समझना चाहिये । विशेषार्थ -- पिछली गाथामे नौसौ पंचानवे उदय विकल्प बतलाये है उनमें से बारह विकल्पोके घटा देने पर कुल नौसौ तिरासी उदयविकल्प प्राप्त होते है । तथा पिछली गाथामे जो छह हजार नौ सौ इकहत्तर पदवृन्द वतलाये है उनसे २x१२ = २४ पदवृन्दोंके घटा देनेपर कुल छह हजार नौसौ सैंतालीस पदवृन्द प्राप्त होते हैं। यदि यहाँ जिनके मतसे चार प्रकृतिक बन्धके संक्रमके समय दो प्रकृतिक उदयस्थान होता है उनके मतको प्रधानता न दी जाय और उनके मतसे दो प्रकृतिक उदयस्थानके उदयविकल्प और पदवृन्दोको छोड़कर ही सव उदयविकल्पो की और पदवृन्दोकी गणना की जाय तो क्रमश उनकी संख्या ९८३ और ६९४७ होती है । जिनसे दसवे गुणस्थानतकके सव संसारी जीव मोहित हो रहे हैं। ( १ ) तेसीया नवसया एव । पञ्चसं० सप्तति० गा० २८ । ( २ ) इस सप्ततिकाप्रकरण में मोहनीयके नदयविकल्प दो प्रकारसे बतलाये हैं, एक ६६५ और दूसरे ६८३ । इनमें से ६६५ उदय विकल्पोंमें दो प्रकृतिक उदयस्थानके २४ भग और ६८३ उदयविकल्पों में दो प्रकृतिक उदयस्थान के १२ भग लिये हैं । पचसग्रह सप्ततिकामें भी ये उदयविकल्प बतलाये हैं । किन्तु वहाँ वे तीन प्रकारसे बतलाये हैं। पहला तो वही है , Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयस्थानोका काल १०३ ये दस आदिक जितने उदयस्थान और उनके भंग वतलाये जिसके अनुसार सप्ततिकाप्रकरणमें ९९५ उदयविकल्स होते हैं। दूसरे प्रकारमें सप्ततिकाप्रकरणके ९८३ वाले प्रकारसे थोड़ा अन्तर पड़ जाता है। बात यह है कि यहाँ सप्ततिकाप्रकरणमें एक प्रकृतिक उदयके बन्धावन्धकी अपेक्षा ११ भग लिये हैं और पचसग्रहके सप्ततिकामें उदयकी अपेक्षा प्रकृतिमेदसे कुल ४ भग लिये है इसलिये १८३ मेंसे ७ घटकर कुल १७६ उदयविकल्प रह जाते हैं। किन्तु पचसग्रहके सप्ततिकामें तीसरे प्रकारसे उदयविकल्प गिनाते हुए गुणस्थानभेटसे उनकी संख्या १२६५ कर दी गई है। विधि सुगम है इसलिये उनका विशेष विवरण नहीं दिया है। दिगम्बर परम्पराम सबसे पहले कमायपाहुडमें इन उदयविकल्पोंका उल्लेख मिलता है। वहाँ भी पञ्चसाह सप्ततिकाके दूसरे प्रकार के अनुसार ९७६ उदयविश्ल बतलाये हैं। कर्मकाण्डमें भी इनकी संख्या वतलाई है। पर वहाँ इनके दो भेद कर दिये हैं। एक पुनरुक्त भग और दूसरे अपुनरुक्त भंग। पुनरुत मग १२८३ गिनाये है। १२६५ तो वे ही हैं जो पञ्चसंग्रहके सप्ततिकामें गिनाये हैं। किन्तु कर्मकाण्डमें चार प्रकृतिकवन्धमें दो प्रकृतिक उदयकी अपेक्षा १२ भग और लिये हैं। तथा पञ्चसग्रहसप्ततिकामें एक प्रकृतिक उदयके जो पॉच भग लिये हैं वे यहाँ ११ कर लिये गये हैं। इस प्रकार पञ्चमग्रह सप्ततिकामे १८ मंग बढ़कर कर्मकाण्डमें उनकी संख्या १०८३ हो गई है । तथा कर्मकाण्डमें अपुनरुक्क भग ६७७ गिनाये हैं। सो यहाँ भी एक प्रकृतिक उदयका गुणस्थान मेदमे एक भग अधिक कर दिया गया है और इस प्रकार ६७६ के स्थानमें १७७ मग हो जाते हैं। __ यद्यपि यहाँ हमें सख्याओंमें अन्तर दिखाई देता है पर वह विवक्षाभेद ही है मान्यता मेद नहीं। ___इसी प्रकार इस सप्ततिका प्रकरणमें मोहनीयके पदकुन्द दो प्रकारसे वतलाये हैं। एफ ६९७१ और दूसरे ६६४७ । जव चार प्रकृतिक वन्धके पमय कुछ काल तक दो प्रकृतिक उदय होता है इस मतको स्वीकार कर Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ सप्ततिकाप्रकरण हैं उनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। चार प्रकृतिक उदयस्थानसे लेकर दस प्रकृतिक उदयस्थान तकके लिया जाता है तव ६६७१ पदवृन्द प्राप्त होते हैं और जब इस मतको छोड़ दिया जाता है त ६६४७ पदमृन्द प्राप्त होते हैं। पञ्चसंग्रहके सप्ततिकामें ये दो सख्याएँ तो वतलाई ही हैं किन्तु इनके अतिरिक चार प्रकारके पदवृन्द और वतलाये हैं। उनमे मे पहला प्रकार ६९४० का है । सो यहाँ वन्धावन्धके भेदसे एक प्रकृतिक उदयके ११ भग न लेकर कुल ४ भग लिये हैं और इस प्रकार ६९४७ मेसे ७ भग कम होकर ६६४० सख्या प्राप्त होती है। शेष तीन प्रकारके पदवृन्द गुणस्थानभेदसे बतलाये हैं। जो क्रमश: ८४७७, ८४८३ और ८५०७ प्राप्त होते हैं। इनका व्याख्यान सुगम है इसलिये सकेतमात्र कर दिया है। दिगम्बर परम्परामें ये पदवृन्द कर्मकाण्डम बतलाये हैं । वहाँ इनकी प्रकृति विकल्प सजा दी है। कर्मकाण्डमें जैसे उदयविकल्प दो प्रकारसे बतलाये हैं। वैसे प्रकृतिविकल्प भी दो प्रकारसे बतलाये हैं। पुनरुक उदयविकल्पोंकी अपेक्षा इनकी संख्या ८५०७ वतलाई है और अपुनरुक्क उदयविकल्पोंकी अपेक्षा इनकी संख्या ६६४१ वतलाई है। पञ्चसंग्रहसप्ततिका गुणस्यान मैदसे जो ८५०७ पदयन्द बतलाये है वे और कर्मकाण्डके पुनरुक्त प्रकृतिविकल्प एक हैं । तथा पञ्चसंग्रहसप्ततिका जो ६६४० पदवृन्द बतलाये हैं उनमें १ भग और मिला देने पर कर्मकाण्डमें बतलाये गये ६६४१ प्रकृ. तिविकल्प हो जाते है। यहाँ पचसग्रहसप्ततिकामें एक प्रकृतिक उदयस्थानके कुल ४ भग लिये गये है और कर्मकाण्डमें गुणस्थानभेदमे ५ लिये गये हैं अतएव एक मग बढ गया है। यहाँ भी यद्यपि सख्यानोंमे थोड़ा बहुत अन्तर दिखाई देता है, पर वह विवक्षाभेदसे ही अन्तर है मान्यताभेद से नहीं । (१) 'एकिस्से दोण्ह चदुण्ह पंचण्ह छह सत्तण्ह अहह एवण्हं दसण्हं पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एयसमो। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयस्थानोका काल १०५ प्रत्येक उदयस्थानमे किमी एक वेट और किसी एक युगलका उदय अवश्य होता है और वेद तथा युगलका एक मुहूर्तके भीतर अवश्य ही परिवर्तन होता है। पचमग्रहकी मूल टीकामे भी बतलाया है'यतो युग्मेन वेदेन वाऽवश्यमन्तर्मुहूर्तादारत परावर्तितव्यम् । 'अर्थात् चूंकि एक अन्तर्मुहूर्तके भीतर किमी एक युगलका और किसी एक वेदका अवश्य परिवर्तन होता है, अत चार आदि उदयस्थानोका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।' इससे निश्चित होता है कि इन चार प्रकृतिक आदि उदयस्थानोका और उनके भगोका जो उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त उपस्मेणतोमुहुत्त ।' - कसाय० चु० (वेदकाधिकार)। 'प्रतमुहुत्तिय उदया समयादारम भगा य-पचम सप्तति. गा० ३३ । धव. उदी. ५० प्रा० १०२२ । (१) पड्नण्डागम सत्प्ररूपणासूत्र १०७ की धवला टीकामे लिखा है कि जमे कपाय अन्तर्मुहूर्तमें बदल जाती है वैसे वेद अन्तर्मुहूर्तमें नहीं बदलता किन्तु वह जन्ममे लेकर मरण तक एक ही रहता है। यथा 'कपायवनान्तर्मुहूर्तस्थायिनो वेदा, आजन्मन श्रआमरणात्तदुदयस्य सत्त्वात्। प्रज्ञापना में जो पुरुषवेद आदिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त आदि और उत्कृष्ट काल साधिक सौ सागर पृथक्त्व आदि बतलाया है इससे भी यही शात होता है कि पर्याय भर वेद एक ही रहता है। ___ इस लिये अन्तर्मुहूर्तमें वेद अवश्य बदल जाता है इस नियमको छोड़कर एक प्रकृतिक उदयस्थान श्रादिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त प्राप्त करते ममय उसे अन्य प्रकारसे मो प्राप्त करना चाहिये । यथाउपशमश्रेणिपर चढ़ते समय या उतरते समय कोई एक जीव एक प्रकृतिक उदयस्थानको एक समय तक प्राप्त हुश्रा और दूसरे समयमें मर कर वह देव Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ - सप्ततिकाप्रकरण कहा है वह ठीक ही कहा है । अव रहे दो और एक प्रकृतिक उदयस्थान सो ये अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त कालतक ही पाये जाते हैं, अत इनका भी उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है । इन सब उदयस्थानोका जघन्य काल एक समय कैसे है, अब इसका खुलासा करते हैं—जब कोई एक जीव किसी विवक्षित उदयस्थानमे या उसके किसी एक विवक्षित भगमें एक समय तक रहकर दूसरे समय में मरकर या परिवर्तनक्रमसे किसी अन्य गुणस्थानको प्राप्त होता है तब उसके गुणस्थानमें भेड़ हो जाता है, वन्धस्थान भी बदल जाता है और गुणस्थानके अनुसार उदयम्थान और उसके भंगोमें भी फरक पड़ जाता है, त. सव यस्थानोंका और उनके भंगोंका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । इस प्रकार वन्धस्थानोंका उदयस्थानोके साथ परस्पर संवैधका कथन समाप्त हुआ । हो गया तो एक प्रकृतिक उदयस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है। दो प्रकृतिक उदयस्थानके जघन्य काल एक समयको भी इसी प्रकार प्राप्त करना चाहिये । जो जीव उपशमश्रेणिसे उतरकर पूर्व करणमें एक समय तक भय और जुगुप्सा के बिना चार प्रकृतिक उदयस्थानको प्राप्त होता है और दूसरे समय में मर कर देव हो जाता है या भय और जुगुप्सा के उदयके विना चार प्रकृतियों के साथ अपूर्व करणमें प्रवेश करता है और दूसरे समयमें भय या जुगुप्सा या दोनोंका उदय हो जाता है। उसके चार प्रकृतिक उदयस्थान का जघन्य काल एक समय प्रात होता है । इसी प्रकार आगे के उदयस्थानोंका जघन्य काल एक समय यथासम्भव प्रकृतिपरिवर्तन, गुणस्थान परिवर्तन और मरण को अपेक्षा से प्राप्त कर लेना चाहिये । यह तो जघन्य काल की चर्चा हुई । श्रव उत्कृष्ट कालका विचार करते हैं - एक प्रकृतिक उदयस्थान या दो प्रकृतिक उदयस्थान ये उपशमश्रेणि या Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्थानन्त्रिकके संवेध भग अव सत्तास्थानोंके साथ वन्धस्थानों का कथन करते हैंतिन्नेव य बावीसे इगवीसे अट्ठवीस सत्तरसे । छच्चेव तेरनवबंधगेसु पंचेव ठाणाई ॥२१॥ पंचविहचउविहेसुं छ छक सेसेसु जाण पंचेव । पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि य बंधवोच्छेए || २२|| अर्थ वाईस प्रकृतिक बन्धस्थानमें तीन, इक्कीस प्रकृतिक वन्धस्थानमे एक अट्ठाईस प्रकृतिक, सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थानमें छह, तेरह प्रकृतिक वन्धस्थानमें पाँच, नौ प्रकृतिक बन्धस्थान में पाँच, पाँच प्रकृतिक वन्धस्थानमे छह, चार प्रकृतिक वन्धस्थानमे छह और शेष बन्धस्थानोमेंसे प्रत्येकमें पाँच पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। तथा बन्धके अभावमें चार सत्त्वस्थान होते हैं। विशेषार्थ — पहले १५, १६ और १७ नम्बरकी गाथाओ में मोहनीय कर्मके वन्धस्थान और उदयस्थानोंके परस्पर सवेधका कथनकर ही आये हैं । अव यहाँ इन दो गाथाओं मोहनीय कर्मके चन्धस्थान और सत्त्वस्थानोंके परस्पर सवेधका निर्देश किया है | किन्तु वन्धस्थान आदि तीनोके परस्पर संवैधका कथन करना भी जरूरी है, अत यहाँ बन्धस्थान और सत्त्वस्थानो के १८७ क्षपकश्रेणिमें प्राप्त होते हैं और इनका काल अन्तर्मुहूर्त है . इन उदयस्थानों का भी उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथा श्रागेके उदयस्थानोंका अन्तर्मुहूर्त काल भय और जुगुप्सा के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उदयकालको अपेक्षा प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि इनका उदय अन्तर्मुहूर्तकाल तक हाँ होता है अधिक नहीं। इसी प्रकार इनका अनुदय भी अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक नहीं पाया जाता है, अतः चार प्रकृतिक यदि उदयस्थानों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त इस अपेक्षा से प्राप्त होता है यह सिद्ध हुआ । यह व्याख्यान हमने जयघवलाटीका के आधार मे किया है । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ सप्तविकाप्रकरण परम्पर संवेधको बतलाते हुए कहाँ किनने उदस्थान प्राप्त होते हैं, इसका भी उल्लेख करेंगे। बाईल प्रकृतिक बन्धस्थानके ममय सत्तास्थान तीन होते हैं२८, २७ और २६ प्रकृतिक । खुलासा इस प्रकार है-वाईम प्रकृनियोका बन्ध मिच्याष्टि जीवके होता है और इसके उदयम्यान चार होते हैं-७, ८,९. और १० प्रकृतिक। इनमेंसे सान प्रऋतिक उदयन्थानके समय एक अट्ठाईस प्रकृतिक ही सत्तास्थान होता है, क्योकि सात प्रकृतिक उदयन्यान अनन्तानुवन्धीके उदयके बिना ही प्राप्त होना है और मिथ्यात्वमें अनन्तानुवन्धीके उदयका अभाव उसी जीवके होता है जिसने पहले सम्यग्दृष्टि रहते हुए अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की और कालान्तरमें परिणामत्रशसे मिथ्यात्वमें जाकर जिमने मिथ्यात्वके निमिनसे पुन. अनन्तानुवन्धीके बन्धका प्रारम्भ किया उसके एक प्रावलि प्रमाण कालनक अनन्तानुवन्धीका उदय नहीं होता है। किन्तु ऐसे जीवके नियमन अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है, अतः यह निश्चित हुआ कि सात प्रकृतिक उदयस्यानमें एक अहार्डम प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है। आठ प्रकृनिक उदयन्धानमें उक्त नीनों सत्तास्थान होते है, क्योंकि पाठ प्रकृतिक उदयन्यान दो प्रकारका है-एक तो अनन्तानन्धीके उदयसे रहित और दूसरा अनन्तानुबन्धीके उदयसे सहित । इनमेंसे जो अनन्नानुवन्धीके उदयसे रहित आठ प्रकृतिक उदयम्यान है उसमें एक अट्ठाईस प्रकृतिक सत्ताधान ही प्राप्त होता है। इसका खुलासा ऊपर किया ही है। नया जो अनन्तानुन्धोके उदयसे युक्त आठ प्रकृतिक उदयस्थान है उसमें उक्त तीनो ही सत्तास्थान बन जाते हैं। जबतक सम्यक्त्वकी ज्वलना नहीं होती तबतक अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। सम्यक्त्वक्री उद्धतना हो Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थाननिक्के संवेध भग १०९ जानेपर सत्ताईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलना हो जाने पर छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। तथा छब्बीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान अनादि मिथ्यादृष्टि के भी होता है। इसी प्रकार अनन्तानन्धीके उदयसे रहित नौप्रकृतिक उदयस्थानमें तो एक अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है किन्तु जो नौ प्रकृतिक उदयस्थान अनन्तानुबन्धीके उदयसे युक्त है उसमें तीनो सत्तास्थान बन जाते है। तथा दस प्रकृतिक उदयस्थान, जिसके अनन्तानुबन्धीका उदय होता है, उसीके होता है, अन्यथा दस प्रकृतिक उदयस्थान ही नहीं बनता, अत इसमें २८, २७ और २६ प्रकृतिक तीनो सत्तास्थान प्राप्त हो जाते हैं। __ इक्कीस प्रकृतिक वन्धस्थान के समय सत्त्वस्थान एक अट्ठा. इस प्रकृतिक ही होता है, क्योकि इक्कीस प्रकृतिक वन्धस्थान मास्वादन सम्यग्दृष्टिके ही होता है और सास्वादन सम्यक्त्व उपशमसम्यक्त्वसे च्युत हुए जीवके ही होता है किन्तु ऐसे जीवके दर्शनमोहनीयके तीनो भेटोका सत्त्व अवश्य पाया जाता है क्यो कि यह जीव सम्यग्दर्शन गुणके निमित्तसे मिथ्यात्वके तीन भाग कर देता है जिन्हे क्रमश मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व यह सज्ञा प्राप्त होती है। इसलिये इसके दर्शनमोहनीयके तीन भेदोका सत्त्व नियमसे पाया जाता है। यहाँ उदयस्थान सात प्रकृतिक, आठ प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक ये तीन होते है। अत सिद्ध हुआ कि इक्कोस प्रकृतिक बन्धस्थानके समय तीन उदय स्थानोके रहते हुए एक अट्ठाईस प्रकृतिक ही सत्त्वस्थान होता है। सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थान के समय सत्त्वस्थान छह होते हैं२८, २७, २४, २३, २२ और २१ प्रकृतिक । सत्रह प्रकृतिक वन्धस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि इन दो गुणस्थानोमे होता है। इनमेंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोके तीन Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सप्ततिकाप्रकरण, . उदयस्थान होते हैं-७, ८, और ९ प्रकृतिक । अविरतमम्यग्दृष्टि जीवोके चार उदयस्थान होते हैं-६, ७, ८ और ९ प्रकृतिक। इनमेसे छह प्रकृतिक उदयस्थान उपशम सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके ही प्राप्त होता है। इनमेसे औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवोके अट्ठाईस और चौवीस प्रकृतिक ये दो सत्त्वस्थान होते है। अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्रथमोपशम सम्यक्त्वके समर होता है। जो जीव अनन्तानुबन्धीकी उपशमना करके उपशमश्रेणी पर चढ़कर गिरा है। उस अविरत सम्यग्दृष्टिके भी अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। तथा' जिसने अनन्तानुवन्धीकी उद्वलना की है उस ग्रीपशमिक अविरतसम्यग्दृष्टिके चौबीस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है। किन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टिके इक्कीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान ही होता है, क्योकि अनन्तानुवन्धी चतुष्क और तीन दर्शनमोहनीय इन सात प्रकृतियोके क्षय होने पर हो इसकी प्राप्ति होती है । इस प्रकार छह प्रकृतिक उदयस्थानमे २८, २४ और २१ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। सम्यग्मिथ्यावृष्टि जीवोके सात प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए २८. २७ और २४ ये तीन सत्त्वस्थान होते है। इनमेंसे अट्ठाईस प्रकृतिकयो की सत्तावाला जो जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है, किन्तु जिस मिथ्यादृष्टिने सम्यक्त्वकी उद्वलना करके सत्ताईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानको प्राप्त कर लिया, किन्तु अभी सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलना नहीं की वह यदि मिथ्यात्वसे निवृत्त होकर परिणामोके निमित्तसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है तो उस सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके सत्ताईस (१) सम्यग्मिध्यादृष्टिके २७ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है इस मतका “उल्लेख दिगम्वर परम्परामें कहीं दे नेमें नहीं पाया । गोम्मटसार कर्मकाण्ड में वेदककालका निर्देश किया है। उस कालके भीतर कोई भी मिथ्यादृष्ट Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्थानत्रिकके संवेध भंग १११ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । तथा सम्यग्दृष्टि रहते हुए जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है, वह यदि परिणामोके वशसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है तो उसके चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान पाया जाता है। ऐसा जीव चारो गतियोंमें पाया जाता है, क्योंकि चारों गतियोका सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करता है । कर्मप्रकृतिमे कहा है 'चउगइया पज्जत्ता तिन्नि वि संयोजणे विजोयति । करणेहिं ती हिं सहिया णंतरकरण उवसमो वा ।।' अर्थात् - 'चारो गतिके पर्याप्त जीव तीन करणोको प्राप्त होकर अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करते हैं किन्तु इनके अनन्तानुवन्धीका अन्तरकरण और उपशम नहीं होता है । विशेषता इतनी है कि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें चारो गतिके जीव, देशविरतमें तिर्यच और मनुष्य जीव तथा सर्वविरतमे केवल मनुष्य जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजना करते हैं।' अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करनेके पश्चात् कितने ही जीव परिणामोके वशसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको भी प्राप्त होते हैं इससे सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोके चौवीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है, परन्तु अविरत सम्यग्दृष्टि जीवके सात प्रकृ तिक उदयस्थानके रहते हुए २८, २४, २३, २२ और २१ ये पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। इनमें से २८ और २४ तो उपशम जीव वेदकसम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो सकता है पर यह काल सम्ययत्वको उद्वलनाके चालू रहते ही निकल जाता है । अत वहाँ २७ प्रकृत्तियों की सत्तावालेको न तो वेदक सम्यक्त्वकी प्राप्ति बतलाई है और न सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानकी प्राप्ति मतलाई है । (१) कर्म प्र० उप० गा० ३१ - १ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सप्ततिकाप्रकरण सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्वष्टि जीवोके होते हैं, किन्तु इतनी विशेपता है कि २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान उन्हींके होता है जिन जीवोने अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना कर दी है। २३ और २२ प्रकृतिक मत्त्वस्थान केवल वेदक सम्यग्दृष्टि जीवीके ही होते हैं, क्योंकि आठ वर्षकी या इससे अधिककी आयुवाला जो वेदक सम्यम्वष्टि जीव क्षपणाके लिये उद्यत होता है उसके अनन्तानुवन्धी और मिथ्यात्वका क्षय हो जाने पर २३ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। फिर इसीके सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय हो जाने पर २२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। यह २२ प्रकृतियोकी सत्तावाला जीव सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय करते समय जब उसके अन्तिम भागमे रहता है और कदाचित् इसने पहले परभव सम्बन्धी आयुका वन्ध कर लिया हो तो मरकर चारो गतियोंमें उत्पन्न होता है। कहा भी है 'पट्ठवगो उ मरणूसो निट्ठवगो चउसु वि गर्हसु ।' अर्थात् 'दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ केवल मनुष्य ही करता है किन्तु उसकी समाप्ति चारों गतियोमे होती है।' ' इससे सिद्ध हुआ कि २२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान चारों गतियोमें प्राप्त होता है, किन्तु २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थान तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोके ही प्राप्त होता है, क्योकि अनन्तानुवन्धी चार और तीन दर्शनमोहनीय इन सातके क्षय होने पर ही क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है। इसी प्रकार आठ प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए भी सम्यग्मिथ्यादृष्टि और. अविरतसम्यग्रष्टि जीवोके क्रमश पूर्वोक्त तीन और पाँच सत्त्वस्थान होते है, तथा नौ प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए भी इसी प्रकार जानना चाहिये,, किन्तु अविरतोके नौ प्रकृतिक उदयस्थान वेदकसम्यग्दृष्टियोके ही होता है और वेदक Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानत्रिकके संवेधभंग ११३ . सम्यग्वष्टियोके २८, २४, २३ और २२ ये चार सत्त्वस्थान ही पाये जाते है, अतः यहाँ भी उक्त चार सत्त्वस्थान होते हैं। , सम्यग्मिथ्याष्टिके १७ प्रकृतिक एक वन्धस्थान, ७ प्रकृतिक, ८ प्रकृतिक और ९ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान और २८, २७ तथा २४ प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टियोमें उपशमसम्यग्दृष्टिके १७ प्रकृतिक एक वन्धस्थान, ६,७ और ८ प्रकृतिक तीन उदयस्थान तथा २८ और २४ प्रकृतिक दो सत्त्वस्थान होते है। क्षायिक सम्यग्दृष्टिके १७ प्रकृतिक एक वन्धस्थान, ६,७ और ८ प्रकृतिक तीन उदयस्थान तथा २१ प्रकृतिक एक सत्त्वस्थान होता है । वेदक सम्यग्दृष्टिके १७ प्रकृतिक एक बन्धस्थान, ७, ८ और ९ प्रकृतिक तीन उदयस्थान तथा २८, २४, २३ और २२ प्रकृतिक चार सत्त्वस्थान होते है ऐसा जानना चाहिये । इनके परस्पर संवेधका कथन पहले ही किया है, अतः यहाँ किसके कितने वन्धादि स्थान होते हैं इसका निर्देशमात्र किया है। तेरह और नौ प्रकृतिक बन्धस्थानके रहते हुए प्रत्येक्रमें २८, २४, २३, २२ और २१ ये पाँच मत्त्वस्थान होते हैं । १३ प्रकृतियो का वन्ध देशविरतोंके होता है। देशविरत दो प्रकारके हैं नियंच और मनुष्य । इनमे से जो तियेच देशविरत है उनके चारो ही उदयस्थानोमे २८ और २४ ये दो सत्त्वस्थान होते हैं। सो २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान तो उपशम सम्यग्दृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि इन दोनो प्रकारके तिथंच देशविरतोके होता है। उसमें भी जो प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके समय ही देशविरतको प्राप्त कर लेता है, उसी देशविरतके उपशमसम्यक्त्वके रहते हुए २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है, क्योकि अन्तकरणके काल में विद्यमान कोई भी औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव देशविरतिको मात Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सप्ततिकाप्रकरण करता है और कोई मनुष्य मर्वविरतिको भी ग्राम करता है, ऐसा नियम है। शतक वृहच्चूर्णिमें भी कहा है___ 'उसमसन्माइटी अंतरकरणे ठिओ कोड देसविरई कोइ पमनापमत्तभावं पि गच्छइ सासायणो पुण न किमवि लहइ। अर्थात् 'अन्तरकरणमें स्थित कोई उपशम सन्यम्वष्ट्रिजीव देशविरतिको प्राप्त होता है और कोई प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत भावको भी प्राप्त होता है, परन्तु साम्वादन सम्यग्त्रष्टि जीव इनमें से किसीको भी नहीं प्राप्त होता है। वह केवल मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही जाता है। इस प्रकार उपशम मन्यन्त्रष्टि जीवको देशविरत गुणस्थानको प्राप्ति कैसे होती है यह बतलाया, किन्तु वेदक सन्यक्त्वके साथ देशविरतिके होनेमें ऐसी खास अड़चन नहीं है, अतः देशविरत गुणस्थानमें वेदग सम्यन्त्रष्टियाके २८ प्रकृतिक सत्वस्थान भी वन जाता है। विन्तु २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान उन्हीं तियचोंके होता है, जिन्होंने अनन्तानुवन्धीकी विसयोजना की है और ये जीव वेदक सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, क्योंकि तिगतिमें श्रीपशामिक सम्बन्ष्टि के २४ प्रकृतिक सत्वन्यानकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। इन दो सचास्थानोंके अतिरिक्त वियंच देशविरतके शेष २३ श्रादि सब सत्तास्यान नहीं होते, क्योंकि वे क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करने - (१) जयघाला टीझमें स्वामीका निर्देश करते समय चारों गतियोंके । बावामी २४ प्रकृतिक सत्तस्यानका स्वानी बनलाया है। इसके अनुसार प्रचक गतिश उपशम सन्यदृष्टि जीव अनन्तानुबन्वीको विसंयोजना कर सकता है । कर्मप्रकृति के उपशमना प्रकरणी माया ३१ से भी इसकी पुष्टि होती है। वहाँ चारों गति धीवको अनन्तानुबन्वीची विसंयोजना करनेवाला बतलाया है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानत्रिकके सवेधभंग ११५ चाले जीवके ही होते हैं, परन्तु तिर्यच क्षायिक सम्यग्दर्शनको नहीं उत्पन्न करते हैं । व्रती अवस्थामे इसे तो केवल मनुष्य ही उत्पन्न करते हैं । शका - यद्यपि यह ठीक है कि तिर्यचोके २३ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं होता तथापि जब मनुष्य क्षायिक सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करते हुए या उत्पन्न करके तिर्यचोमें उत्पन्न होते है तब तिर्यचोके भी २२ और २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थान पाये जाते हैं, अत यह कहना युक्त नहीं है कि तिर्यंचोके २२ आदि सत्त्वस्थान नहीं होते ? समाधान -- द्यपि यह ठीक है कि क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाला २२ प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तिर्यचोमे उत्पन्न होता है किन्तु यह जीव संख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यचो में उत्पन्न न होकर असंख्यात वर्ष की आयुचाले तिर्यचॉम ही उत्पन्न होता है और इनके देशविरति होती नहीं, और देशविरतिके न होनेसे उनके तेरह प्रकृतिक वन्धस्थान नहीं पाया जाता । परन्तु यहाँ तेरह प्रकृतिक वन्धस्थानमे सत्त्वस्थानोंका विचार किया जा रहा है अतः ऊपर जो यह कहा है कि तिर्यंचोके २२ आदि सत्रस्थान नहीं होते सो वह १३ प्रकृतिक बन्धस्थानकी अपेक्षासे ठीक ही कहा है। चूर्णिमे भी कहा है 'एगबीसा तिरिक्खेसु सजयासजएसु न संभवइ । कीं ? भरणइ - सखेज्जवामाउएस तिरिक्खेसु खाइगसम्महिठ्ठी न उववज्जर, असखेज्जवासाउएसु उववज्जेज्जा, तस्स ढेसविरई नत्थि ।' अर्थात 'तिर्यच सयतासयत के २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नही होता, क्योंकि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव संख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यची में नहीं उत्पन्न होता है। हाँ असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिचीमें उत्पन्न होता है पर उनके देशविरति नहीं होती ।' Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्देशमा प्रतिक बनाउढयस्थान ११६ सप्ततिकाप्रकरण इस प्रकार तियेचोकी अपेक्षा विचार किया अव मनुष्योंकी अपेक्षा विचार करते हैं-- जो देशविरत मनुष्य हैं उनके पाँच प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए २८, २४ और २१ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। छह प्रकृतिक और सात प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए प्रत्येकमें २८,२४,२३,२२ और २१ ये पॉच सत्त्वस्थान होते हैं। तथा आठ प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए २८,२४,२३ और २२ ये चार स्थान होते हैं। उदयस्थानगत प्रकृतियोको ध्यानमे रखनेसे इनके कारणोका निश्चय सुगमतापूर्वक किया जा सकता है अतः यहाँ अलग अलग विचार न करके किस उदयस्थानमें कितने सत्त्वस्थान होते हैं इसका' निर्देशमात्र कर दिया है। नौ प्रकृतिक वन्धस्थान प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके होता है। इनके उदयस्थान चार होते है ४,५,६ और ७ प्रकृनिक । सो चार प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए तो प्रत्येक गुणस्थानमें २८,२४ और २१ ये तीन ही सत्त्वस्थान होते हैं, क्योकि यह उदयस्थान उपशमसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टिके ही प्राप्त होता है। पाँच, प्रकृतिक और छह प्रकृतिक उदयस्थानके .रहते हुए पाँच पाँच सत्त्वस्थान होते है, क्योकि ये 'उदयस्थान तीनो प्रकारके सम्यग्दृष्टि जीवोके सम्भव हैं। किन्तु सात प्रकृतिक 'उदयस्थान वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोके ही होता है अत. यहाँ २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थान सम्भव न होकर शेप चार ही होते हैं। पाँच प्रकृतिक और चार प्रकृतिक बन्धस्थानमें छह छह सत्त्वस्थान होते हैं । अब इसका स्पष्टीकरण करते है-पाँच प्रकृतिक बन्धस्थान उपशमणि और क्षपकश्रेणिमें अनिवृत्तिबादर जीवके पुरुषवेदके बन्धकाल तक होता है और पुरुपवेद्रके बन्ध समय तक छह नोकवायोती सत्व पाया ही जाता है अत.. पाँच प्रकृतिक Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्थानन्त्रिकके संवेध भंग ११७ चन्धस्थानमें पॉच आदि सत्त्वस्थान नहीं होते यह स्पष्ट ही है । अव रहे शेप सत्त्वस्थान सो उपशमश्रेणिकी अपेक्षा तो यहाँ २८,२४ और २१ ये तीनं सत्त्वस्थान पाये जाते हैं, क्योकि उपशमणि मे ये तीन सत्त्वस्थान होते है ऐसा आगम है । तथा क्षपकरण इसके २१, १३, १२ और ११ इस प्रकार चार सत्त्वस्थान होते हैं । जिस अनिवृत्तिवादर जीवने आठ कषायोका तय नही किया उसके २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । आठ कपायोके क्षय हो जाने पर तेरह प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । फिर नपुसकवेदका क्षय हो जाने पर वारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है और स्त्रीवेदका क्षय हो जाने पर ग्यारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। यहाॅ इसके आगे सत्त्वस्थान नहीं हैं इसका कारण पहले ही बतला दिया है । इस प्रकार पाँच प्रकृतिक वन्धस्थानमे २८,२४,२१,१३, १२ और ११ ये छ सत्त्वस्थान होते हैं यह सिद्ध हुआ । श्रव चार प्रकृतिक वन्धस्थानमें जो छह सत्त्वस्थान होते है इसका स्पष्टीकरण करते हैं । यह तो सुनिश्चित है कि चार प्रकृतिक बन्धस्थान भी दोनो श्रेणियों मे होता है और उपशमश्रेणिमे केवल २८, २४ आंर २१ ये तीन सत्त्वम्थान होते हैं, अतः यहाँ उपशमश्रेणिकी अपेक्षा ये तीन सत्त्वस्थान प्राप्त हुए । अव रहा चपकश्रेणिकी अपेक्षा विचार सो ऐसा नियम है कि जो जीव नपुसक वेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है वह नपुसकवेट और स्त्रीवेदका क्षय एक साथ करता है और इसके इसी समय पुरुषवेदकी वन्धव्युच्छित्ति हो जाती है। तदनन्तर इसके पुरुषवेद र हास्यादि छहका एक साथ क्षय होता है। यदि कोई जीव स्त्रीवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है तो यह जीव पहले नपुंसकवेदका क्षय करता है । तदनन्दर अन्तर्मुहूर्त कालमें स्त्री वेदका क्षय करता है । फिर पुरुषवेद और हास्यादि छहका 1 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .११८ सप्ततिकाप्रकरण एक साथ क्षय करता है। किन्तु इसके भी स्त्रीवेदकी क्षपणाके समय पुरुषवेदकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है। इस प्रकार चूंकि स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उदयसे क्षपका णि पर चढ़े हुए जीवके या तो स्त्रीवेटकी क्षपणाके अन्तिम समयमें या स्त्रीवेद और नपुसकवेदकी क्षपणाके अन्तिम समयमे पुरुषवेदकी वन्धव्युच्छित्ति हो जाती है अतः इस जीवके चार प्रकृतिक बन्धस्थानमें वेदके उदयके विना एक प्रकृतिका उदय रहते हुए ग्यारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्राप्त होता है। तथा यह जीव पुरुपवेद और हास्यादि छहका क्षय एक साथ करता है अत. इसके पाँच प्रकृतिक सत्त्वस्थान न प्राप्त होकर चार प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्राप्त होता है। किन्तु जो जीव पुरुषवेदके उदयसे क्षपकणी पर चढ़ता है उसके छह नोकपायोके क्षय होनेके समय ही पुरुपवेदकी बन्धव्युच्छित्ति होती है, अतः इसके चार प्रकृतिक वन्धस्थानमे ग्यारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं प्राप्त होता किन्तु पाँच प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्राप्त होता है। इसके यह सत्त्वस्थान दो समय कम दो प्रावलि (१) कषायप्राभूतकी चूणिमें पाँच प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारका काल एक समय कम दो श्रावलिप्रमाण बतलाया है। यथा 'पंचण्हं विहत्तिो केवचिर कालादो ? जहण्णुक्कस्सेण दो श्रावलियाओ समयूणाओ। इसकी टीका जयधवलामें लिखा है कि क्रोधसज्वलन और पुरुषवेदके उदयसे क्षपकौणि पर चढे हुए जीवके सवेद भागके द्विचरम समयमें छह नोकषायोंके साथ पुरुषवेदके प्राचीन सत्कर्मका नाश होकर सवेद भागके अन्तिम समयमें पुरुषवेदके एक समय कम दो श्रावलि प्रमाण नवक समयप्रबद्ध पाये जाते हैं, इसलिये पाँच प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारका काल एक समय कम दो श्रावलि प्रमाण प्राप्त होता है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धस्थानत्रिकके संवेध भंग ११३ काल तक रहकर तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त कालतक चार प्रकृतिक सत्त्वस्थान प्राप्त होता है । अत चार प्रकृतिक वन्धस्थानमें २८, २४, २१, ११, ५ और ४ ये छहं सत्त्वस्थान होते हैं यह सिद्ध हुआ । व तीन, दो और एक प्रकृतिक वन्धस्थानोमेंसे प्रत्येकमे पाँच पॉच सत्त्वस्थान होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते हैं -- एक बात तो सर्वत्र सुनिश्चित है कि उपशमश्र णीकी अपेक्षा प्रत्येक वन्धस्थानमे २८, २४ और २१ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। विचार केवल पक गिकी अपेक्षा करना है। सो इस सम्बन्धमें ऐसा नियम है कि संज्वलन क्रोधकी प्रथम स्थिति एक आवलिप्रमाण शेष रहने पर वन्ध, उदय और उदीरणा इन तीनोकी एक साथ व्युच्छित्ति हो जाती है और तदनन्तर तीन प्रकृतिक वन्ध होता है परन्तु उस ममय सज्वलन क्रोधके एक आवलि प्रमाण प्रथम (१) कर्मकाण्ड गाथा ६६३ में चार प्रकृतिक वन्धस्थानमें दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक ये दो उदयस्थान तथा २८, २४, २१, १३, १२, ११, ५ और ४ प्रकृतिक ये आठ सत्त्वस्थान बतलाये हैं। यथा 'दुगमेगं च य सतं पुन्दं वा श्रत्थि पणगदुगं ।' इसका कारण बतलाते हुए गाथा ४८४ में लिखा है कि जो जीव स्त्रीवेद व नपुमकवेदके उदय के साथ श्रेणि पर चढ़ता है उसके स्त्रीवेद या नपुसकवेदके उदयके द्विचरम समयमें पुरुषवेदक बन्धव्युच्छिति हो जाती है । यही सबब है कि कर्मकाण्डमें चार प्रकृति वन्धस्थानके समय १३ और १२ प्रकृतिक ये दो सत्त्वस्थान और बतलाये हैं । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सप्ततिकाप्रकरणस्थितिगत दलिकको और दो समय कम दो आवलि प्रमाण समय प्रबद्धको छोड़कर अन्य सबका क्षय हो जाता है । यद्यपि यह भी दो समय कम दो आवलि प्रमाण कालके द्वारा क्षयको प्राप्त होगा किन्तु जव तक क्षय नहीं हुआ है तब तक तीन प्रकृतिक बन्धस्थानमे चार प्रकृतिक सत्त्व पाया जाता है। और इसके क्षयको प्राप्त हो जाने पर तीन प्रकृतिक बन्धस्थानमें तीन प्रकृतिक सत्त्व प्राप्त होता है जो अन्तमुहूर्त काल तक रहता है। इस प्रकार तीन प्रकृतिक बन्धस्थानमें २८, २४, २१, ४ और ३ ये पाँच सत्त्वस्थान होते है यह सिद्ध हुआ। इसी प्रकार संज्वलन मानकी प्रथम स्थिति एक आवलि प्रमाण शेष रहने पर बन्ध, उदय और उदीरणा इन तीनोकी एक साथ व्युच्छित्ति हो जाती है और उस समयके बाद दो प्रकृतिक बन्ध होता है। पर उस समय संज्वलन मानके एक प्रावलि प्रमाण प्रथम स्थितिगत दलिकको और दो समय कम दो श्रावलि प्रमाण समयप्रबद्धको छोड़कर अन्य सबका क्षय हो जाता है। यद्यपि यह शेप सत्कर्म भी दो समय कम दो आवलि प्रमाण कालके द्वारा क्षयको प्राप्त होगा किन्तु जब तक इसका क्षय नहीं हुआ है तब तक दो प्रकृतिक बन्धस्थानमें तीन प्रकृतिक सत्त्व पाया जाता है। पश्चात् इसके क्षयको प्राप्त हो जाने पर दो प्रकृतिक बन्धस्थानमे दो प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है जो अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। इस प्रकार दो प्रकृतिक बन्धस्थानमें २८, २४, २१.३ और २ ये पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। इसी प्रकार संज्वलन मायाकी प्रथम स्थिति एक आव Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानत्रिकके सवेध भंग १२१ लिप्रमाण शेष रहने पर वन्ध, उदय और उदीरणाकी एकसाथ व्युच्छित्ति हो जाती है और उसके बाद एक प्रकृतिक वन्ध होता है परन्तु उस समय संज्वलन मायाके एक श्रावलिप्रमाण प्रथम स्थिति गत दलिकको और दो समय कम दो आवलिप्रमाण समय प्रबद्धको छोडकर शेप सबका क्षय हो जाता है। यद्यपि यह शेप सत्कर्म भी दो समय कम दो श्रावलिप्रमाण कालके द्वारा क्षयको प्राप्त होगा किन्तु जब तक इमका क्षय नहीं हुआ है तब तक एक प्रकृतिक वन्धस्थान में दो प्रकृतिक सत्त्व पाया जाता है। पश्चात् इसका क्षय हो जाने पर एक प्रकृतिक वन्धस्थान मे एक सज्वलन लोभका मत्त्व रहता है। इस प्रकार एक प्रकृतिक वन्धस्थानमे २८, २४, २१, २ और १ ये पाँच सत्त्व स्थान होते हैं यह मिद्व हुआ। ___ अव बन्धके अभाव मे चार सत्त्वस्थान होते है इसका खुलासा करते हैं। बात यह है कि जो उपशमश्रेणि पर चढ़ कर सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके मोहनीयका वन्ध तो नहीं होता किन्तु उसके २८ २४ और २१' ये तीन सत्त्वस्थान सम्भव हैं। तथा जो नपकाणी पर आरोहण करके सूक्ष्म सम्प राय गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके एक सूक्ष्म लोभका ही सत्त्व पाया जाता है। अत सिद्ध हुआ कि चन्धके अभाव मे २८, २४ २१ और १ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं। मोहनीय कर्मके वन्ध, उदय और सत्तास्थानोके अंगोका बापक कोष्ठक Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सप्ततिकाप्रकरण [२०] सत्तास्थान - उ.चो. . |om Sm.GM २० २८, २७, २६ २८, २७, २६ २८, २७, २६ २८ २८ २८ ४। १७ १४ २८, २४ २१ २८, २७, २४, २३, २२, २१ ६५६ " " ४३२ | २८, २७, २४. २३, २२ १२० २८, २४, २१ १८४३२ | २८, २४, २३, २२, २१ ५०४, २०, २४, २३, २२, २१ १९२/ २८, २४, २३, २२ । २८, २४, २१ ३६० | २८, २४, २३, २२, २१ ४३२ | २८, २४, २३, २२, २१ २४ ७/१६८ । २८, २४, २३, २३ २८, २४, २१, १३, १२ २८, २४, २१, ११, ५, ४ २०, २४, २१, ४, ३ २८,२४, २१. ३ २ २८, २४, २१, २,१ . १०. १ १ १ २८, २४, २१, १ ११.000001. _____२८, २४, २१ ४०६८३ उदयपद ६६४७ पदवृन्द । w0/0mm or com 243som20:20 उ०प० ०१२ - - ४ - Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके बन्धस्थान १२३ सूचना-जिन आचार्यों का मत है कि चार प्रकृतिक बन्धस्थानमें दो और एक प्रकृतिक उदयस्थान होता है, उनके मतसे १२ उदयपट और २४ पटवृन्द बढ़कर उनकी संख्या क्रमः ९९५ और ६९७१ प्राप्त होती है। अब इस सब कथन का उपसहार करके नाम कर्मके कहने की प्रतित्रा करते है दसनवपन्नरसाई बंधोदयसन्तपयडिठाणाई । भणियाइँ मोहणिजे इत्तो नाम परं बोच्छं ॥ २३ ॥ अर्थ-मोहनीय कर्मके वन्ध, उदय और सत्त्वस्थान क्रमसे दस नी और पन्द्रह कहे। अब आगे नामकर्म का कथन करते हैं। विशेषार्थ-इम उपसंहार गाथाका यह अभिप्राय है कि यहाँ तक मोहनीय कर्मके दस वधस्थान, नौ उदयस्थान और पन्द्रह सत्वस्थानोंका, उनके मम्भव भगोका और वन्ध, उदय तथा सत्त्वस्थानके संवैध भंगोका कथन किया, अब नाम कर्ममें सम्भव इन सब विशेपताश्रीका कथन करते हैं। १०. नामकर्म अव सबसे पहले नाम कर्मके बन्धस्थानोका कथन करते हैं (१) 'दसणवपण्णरसाइ बंधोदयसत्तपयडिठाणाणि। भणिदाणि मोहणिजे एत्तो णाम पर वोच्छ ।'---गो० कर्म० गा० ५१८ । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ सप्ततिकाप्रकरण तेवीस परणवीसा छब्बीसा अवीस गुणतीसा। तीसेगतीसमेकं बंधट्टाणाणि णामस्स ।। २४ ॥ अर्थ-नाम कर्मके तेईस प्रकृतिक, पञ्चीस प्रकृतिक, छब्बीस प्रकृतिक, अट्ठाईस प्रकृतिक, उनतीस प्रकृतिक, तीस प्रकृतिक, इकतीस प्रकृतिक और एक प्रकृतिक ये आठ बन्धस्थान होते हैं। विशेपार्थ-इस गाथाम नाम कर्मके तेईस प्रकृतिक आदि आठ वन्धस्थान होते हैं यह बतलाया है। आगे इन्हींका विस्तारसे विचार किया जाता है-वैसे तो नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ तिरानवे है पर उनमेसे एक माथ कितनी प्रकृतियोका बन्ध होता है, इसका विचार इन आठ वन्धस्थानोमे किया है। उसमें भी कोई तिथंचगतिके, कोई मनुष्यगतिके, कोई देवगतिके और कोई नरक गतिके प्रायोग्य वन्धस्थान है। और इससे उनके अनेक अवान्तर भेट भी हो जाते है अत. आगे इन अवान्तर भेदोके साथ ही विचार करते हैं-तिथंचगतिके योग्य बन्ध करनेवाले जीवके सामान्यसे २३,२५,२६,२९ और ३० ये पॉच बन्धस्थान होते है। उनमें भी एकेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोंका वन्ध करनेवाले जीवके २३, (१) 'गामस्स कम्मरस अट्ट हाणाणि एकतीसाए तीसाए एगुणतीसाए अट्ठवीसाए छब्बीसाए पणुवीसाए तेवीसाए एकिस्से हाणं चेदि । -जो० चू० ठा० सू० ६० । 'तेवीसा पणुत्रीसा छब्बीसा अहवीस गुणतीसा । तीसेगतीस एगो वधढाणाइ नामेऽह ॥--पञ्चसं० सप्तति० गा० ५५ । तेवीसं पणवीस इन्चीस अहवीसमुगतीस । तीसेकतीसमेव एको वधो दुसेडिम्मि ' -गो० कर्म• गा० ५२। (२) 'तिरिक्खगदिणामाए पंच हाणाणि तीसाए एगूणतीसाए छन्त्रीसाए पणुवीसाए तेवोगाए हाणं चेदि।'-जी० चू० हा सू० ६३ । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके वन्धस्थान १२५ २५ और २६ ये तीन बन्धस्थान होते हैं । उनमेंसे २३ प्रकृतिक बन्धस्थानमे तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघातनाम, स्थावरनाम, सूक्ष्म और वादर इनमें से कोई एक, अपर्याप्तक नाम, प्रत्येक और साधारण इनमें से कोई एक, स्थिर, शुभ, दुर्भग, श्रनादेय, अयश कीर्ति और निर्माण इन तेईस प्रकृतियोका बन्ध होता है । अत इन तेईस प्रकृतियोंके समुदायको एक तेईस प्रकृतिक बन्धस्थान कहते है । यह चन्धस्थान अपर्याप्त एकेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि तिर्यंच और मनुष्य के होता है। यहाँ भंग चार प्राप्त होते है । यथा -- यह ऊपर वतलाया ही है कि बादर और सूक्ष्ममें से किसी एकका तथा प्रत्येक और साधारण मेसे किसी एकका बन्ध होता है । अब यदि किसीने एक बार वादरके साथ प्रत्येकका और दूसरी बार चादर के साथ साधारणका बन्ध किया । इसी प्रकार किसीने एक वार सूक्ष्मके साथ प्रत्येकका और दूसरी बार सूक्ष्मके माथ साधारणका बन्ध किया तो इस प्रकार तेईस प्रकृतिक वन्धस्थानमें चार भग प्राप्त हो जाते हैं । पश्चीम प्रकृतिक बन्धस्थानमें- तिर्यंचगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्रास, स्थावर, वाटर और सूक्ष्ममें से कोई एक, पर्याप्तक, प्रत्येक और साधारण में से कोई एक स्थिर और अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभसे कोई एक, यशःकीर्ति और यश कीर्तिमेसे कोई एक, दुभंग, नादेय और निर्माण इन पचीस प्रकृतियोका बन्ध होता है । 'अतः 'इन पच्चीस 'प्रकृतियोके' समुदायको एक पच्चीस प्रकृतिक बन्धस्थान कहते हैं। यह बन्धस्थान पर्याप्त Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १२६ सप्ततिकाप्रकरण एकेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि तिर्वच, मनुष्य और देवके होता हैं । यहाँ भङ्ग वीस प्राप्त होते हैं। यथा - जब कोई जीव बाहर, पर्याप्त और प्रत्येक्का बन्ध करता है तब उसके स्थिर और अस्थिरमेंसे किसी एकका, शुभ और शुभसे किसी एक्का तथा यशःकीर्ति और यश कीर्तिसे किसी एक्का वन्य होनेके कारण धाठ मंग प्राप्त होते हैं । तथा जब कोई जीव वादर, पर्याप्त और साधारण का बन्ध करता हैं तब उसके यशःकीर्तिका बन्ध न होकर केवल यश कीर्तिका ही वन्ध होता है। कहा भी है 'नो सुहुमतिगेण जसं ।' अर्थात् 'सूक्ष्म. साधारण और अपर्यातक इनमेंसे किसी एकका भी वन्य होते समय यश कीर्तिका बन्ध नहीं होता ।' a. यहाँ यशःकीति और यश कीर्तिके निमित्तसे तो भंग सम्भव नहीं । अव रहे स्थिर अस्थिर और शुभ अशुभ ये दो युगल सो इनका विकल्पसे चन्ध सम्भव हैं । अर्थात् स्थिरके साथ भी एकवार शुभका और एकवार अशुभका तथा इसी प्रकार अस्थिरके साथ भी एकवार शुभका और एक वार अशुभका बन्ध सम्भव है, अतः यहाँ कुल चार भंग हुए। इसी प्रकार जब कोई जीव सूक्ष्म और पर्याप्तकका बन्ध करता है तब उसके यशः कीर्ति और अयशःकीर्ति इनमेंसे तो एक अयशःकीर्तिका ही बन्ध होता है, किन्तु प्रत्येक और साधारणमेंसे किसी एकका, स्थिर और अस्थिरमेंसे किसी एकका तथा शुभ और अशुभ में से किसी एकका बन्ध होनेके कारण आठ भंग प्राप्त होते हैं । इस प्रकार पीस प्रकृतिक वन्यस्थानके कुल भंग बीस होते हैं । तथा छवीस प्रकृतिक वन्वस्थानमें तियंचगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिजाति, चौहारिक्शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड 1. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके बन्धस्थान १२७ संस्थान, वर्णादि चार, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छास, स्थावर, आतप और उद्योतमेसे कोई एक, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक स्थिर और अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभमेंसे कोई एक, दुर्भग, अनादेय, यश कीर्ति और अयशःकीर्तिमेसे कोई एक तथा निर्माण इन छब्बीस प्रकृतियोका बन्ध होता है, अत. इन छब्बीस प्रकृतियोके समुदायको एक छब्बीस प्रकृतिक बन्धस्थान कहते हैं। यह वन्धस्थान पर्याप्तक और वादर एकेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोका आतप और उद्योतमेंसे किसी एक प्रकृतिके साथ बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि तिर्यंच, मनुष्य और देवके होता है। यहॉ भग सोलह होते है। जो आतप और उद्योतमेसे किसी एकका, स्थिर और अस्थिरमेंसे किसी एकका, शुभ और अशुभमें से किसी एकका तथा यश कीर्ति और अयश कीर्तिमेसे किसी एकका बन्ध होनेके कारण प्राप्त होते हैं। आतप और उद्योतके साथ सूक्ष्म और साधारणका बन्ध नहीं होता, अतः यहाँ सूक्ष्म और साधारणके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले भग नहीं कहे। इस प्रकार एकेन्द्रिय प्रायोग्य २३, २५ और २६ इन तीन बन्धस्थानोके कुल भग ४+२०+१६%=४० होते हैं। कहा भी है__ 'चत्तारि वीस सोलस भगा एगिदियाण चत्ताला ।' अर्थात् एकेन्द्रिय सम्बन्धी २३ प्रकृतिक बन्धस्थानके चार, २५ प्रकृतिक बन्धस्थानके बीस और २६ प्रकृतिक बन्धस्थानके सोलह इस प्रकार कुल चालीस भग होते हैं। ___ द्वीन्द्रियके योग्य प्रकृतियोंको बाँधनेवाले जीवके २५, २९ और ३० ये तीन बन्धस्थान होते है। इनमेंसे पच्चीस प्रकृतिक बन्धस्थानमे-तिर्यंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, सेवार्तसंहनन, औदारिक प्रांगोपांग, वर्णादिचार, अगुरुलघु, उपघात, Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ सप्ततिकाप्रकरण : अस, चादर, अपर्याप्तक, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति और निर्माण इन पचीस प्रकृतियोका वन्ध होता है। अत: इनका समुदाय रूप एक पच्चीस प्रकृतिक वन्धस्थान कहलाता है । इस स्थानको अपर्याप्तक द्वीन्द्रियके योग्य प्रकृतियोको वाँधनेवाले मिथ्यारष्टि मनुष्य और तिच बाँधते हैं। यहाँ अपर्याप्तक प्रकृतिके साथ केवल अशुभ प्रकृतियोंका ही वन्ध होता है शुभ प्रकृतियोका वन्ध नहीं होता, अतः एक ही भंग होता है। इन पचीस प्रकृतियोमेसे अपर्याप्तको घटाकर पराघात, उच्छास, अप्रशस्तविहायोगति, पर्याप्तक और दुःस्वर इन पाँच प्रकृतियोके मिला देनेपर उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। इसका कथन इस प्रकार करना चाहिये--तिर्यंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिक श्रागोपांग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, सेवार्तसहनन, वर्णादि चार, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छ्रास, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, वाटर, पर्याप्तक, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभमेसे कोई एक, दुस्वर, दुर्भग, अनादेय, यश कीर्ति और अयश.कीर्तिमेसे कोई एक तथा निर्माण इस प्रकार उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें ये उनतीस प्रकृतियाँ होती हैं, अतः इनका समुदाय रूप एक उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थान कहलाता है। यह चन्धस्थान पर्याप्तक द्वीन्द्रियके योग्य प्रकृतियोको बाँधनेवाले मिथ्याडष्टि जीवके होता है। यहाँ पर स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और , यश कीर्ति-अयश.कीर्ति इन तीन युगलोमेसे प्रत्येक प्रकृतिका विकल्पसे वन्ध होता है, अत: आठ भंग प्राप्त होते हैं। तथा इन उनतीस प्रकृतियोंमें उद्योत प्रकृतिके मिला देनेपर तीस प्रकृतिक, वन्धस्थान होता है. इस स्थानको सी पर्याप्त-दो इन्द्रियूके योग्य प्रकृतियोको ,बाँधनेवाला मिश्यादृष्टि ही Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके बन्धस्थान १२९ बाँधता है । यहाँ भी वे ही आठ भग होते हैं । इस प्रकार कुल भंग सत्रह होते हैं । तीनेन्द्रिय और चौइन्द्रियके योग्य प्रकृतियोंको बाँधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके भी पूर्वोक्त प्रकारसे तीन तीन बन्धस्थान होते है । किन्तु इतनी विशेषता है कि तीनेन्द्रियके योग्य प्रकृतियो मे तीनइन्द्रिय जाति और चौइन्द्रियके योग्य प्रकृतियो में चौडद्रियजाति कहनी चाहिये । भग भी प्रत्येकके सत्रह सत्रह होते हैं । इस प्रकार कुल भग इक्यावन होते हैं । कहा भी है 'एग टू विगलिंदियारण इगवण तिरह पि ।' अर्थात् 'विकलत्रयमेसे प्रत्येकके योग्य वेधनेवाले, २५, २९ और ३० प्रकृतिक वन्धस्थानोके क्रमश एक, आठ और आठ भंग होते है । तथा तीनोके मिलाकर इक्यावन भग होते हैं ।' तिर्यंचगति पचेन्द्रियके योग्य प्रकृतियों का बन्ध करनेवाले जीव के २५, २९ और ३० ये तीन वन्धस्थान होते हैं । इनमें से पच्चीस प्रकृतिक वन्धस्थान तो वही है जो द्वीन्द्रियके योग्य पच्चीस प्रकृतिक वन्धस्थान बनला श्राये हैं । किन्तु वहाँ द्वीन्द्रिय जाति कही है सो उसके स्थान मे पचेन्द्रिय जाति कहनी चाहिये । यहाँ एक भग होता है । उनतीम प्रकृतिक वन्धस्थान में तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी पचेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, औदारिक आगोपाग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह सस्थानोमे से कोई एक सस्थान,छह सहननोमेसे कोई एक सहनन, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्रास, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति मेसे कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिरमे से कोई एक शुभ और अशुभमें से कोई एक, सुभग और दुर्भगमे से कोई एक सुस्वर और दुःस्वरमेंसे कोई एक, आदेय और ९ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० सप्ततिकाप्रकरण अनादेयमेसे कोई एक, यशःकीर्ति और अयश कीर्ति से कोई एक तथा निर्माण इन उनतीस प्रकृतियोका बन्ध होता है, अतः इनका समुदाय रूप एक उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थान कहलाता है। यह बन्धस्थान पर्याप्त तियेच पचेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोको वाधनेवाले चारो गतिके मिथ्यादृष्टि जीवके होता है । यदि इस बन्धस्थानका बन्धक सास्वादनसम्यग्दृष्टि होता है तो उसके प्रारम्भके पांच सहननोमेसे किसी एक संहननका और प्रारम्भके पांच सस्थानोमें से किसी एक संस्थानका बन्ध होता है, क्योकि इंडसंस्थान और सेवात सहननको सास्वादनसम्यग्दृष्टि नहीं बांधता है ऐसा नियम है। यथा 'हुड असंपत्तं व सासणो ण वधइ।' अर्थात् 'सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव हुंडसंस्थान और असंप्राप्त संहननका वन्ध नहीं करता।' __इस उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थानमे सामान्यसे छह संहननोमे से किसी एक सहननका, छह सस्थानोमेंसे किसी एक सस्थानका प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगतिमेंसे किसी एक विहायोगतिका, स्थिर और अस्थिरमेसे किसी एकका, शुभ और अशुभमेसे किसी एकका, सुभग और दुर्भगमेंसे किसी एकका, सुस्वर और दु स्वरमें से किसी एकका, आदेय और अनादेयमेंसे किसी एकका तथा यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिमेंसे किसी एकका वन्ध होता है अत इन सब संख्याओको परस्पर गुणित कर देने पर ४६०८ भंग प्राप्त होते हैं। यथा-६४६x२x२x२x२x२x२x२ =४६०८ । जैसा कि पहले लिख आये है कि इस स्थानका बन्धक सास्वादन सम्यग्दृष्टि भी होता है किन्तु इसके पाच संहनन और पांच सस्थानका ही बन्ध होता है, इसलिये इसके ५४५४२४२ ४२x२x२x२x२=३२०० भंग प्राप्त होते हैं। किन्तु इनका Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके बन्धस्थान १३१ अन्तर्भाव पूर्वोक्त भंगोमें ही हो जाता है, इसलिये इन्हें अलगसे नहीं गिनाया है। इस वन्धस्थानमें एक उद्यात प्रकृतिके मिला देने पर तीस प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। जिम प्रकार उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थानमे मिथ्यावष्टि और सास्वादन सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा विशेषता बतला आये है उसी प्रकार यहां भी वही विशेषता समझना चाहिये। अत यहाँ भी सामान्यसे ४६०८ भग होते हैं। कहा भी है 'गुणतीसे तीसे वि य भङ्गा अट्टाहिया छयालसया । पचिंदियतिरिजोगे पणवीसे वधि भगिको ।' अर्थात् 'पचेन्द्रिय तिर्यचके योग्य उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें ४६०८, तीस प्रकृतिक वन्धस्थानमे ४६०८ और पच्चीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें एक भग होता है। ___ इस प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यचके योग्य तीन वन्धस्थानी के कुल भग ४६०८+४६०८+१=९२१७ होते हैं। इनमें एकेन्द्रियके योग्य बन्धस्थानो के ४० द्वीन्द्रियके योग्य वन्धस्थानोके १७, त्रीन्द्रिय के योग्य बन्धस्थानोंके १७ और चौइन्द्रियके योग्य वन्धस्थानोंके १७ भग मिलाने पर तियंचगति सम्बन्धी वन्धस्थानोंके कुल भङ्ग ९२१७+४०+५१-९३०८ होते हैं। ___ मनुप्यंगतिके योग्य प्रकृतियो को वाधनेवाले जीवके २५, २९ ओर ३० ये तीन वन्धस्थान होते हैं। इनमेंसे पच्चीम प्रकृतिक वन्धस्थान वही है जो अपर्याप्त द्वीन्द्रियके योग्य वन्ध करनेवाले जीवके कह आये हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहा मनुष्य. गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और पचेन्द्रिय जाति ये तीन प्रकृतियां कहनी चाहिये। उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थान तीन प्रकारका है। (१) 'मणुसगदिणामाए तिण्णि हाणाणि तीक्षाए एगणीसाए पणुचीसाए ठाण चेदि।-जी०चू० हा० सू० २४, Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सप्ततिकाप्रकरण एक मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा होता है । दूसरा साम्बादन सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा होता है और तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टि या अविरतसम्यग्दृष्टि जीवोकी अपेक्षा होता है । इनमें से प्रारम्भके दो पहले के समान जानना चाहिये । श्रर्थात् जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि और माम्वादम्यष्टि के निर्यचप्रायोग्य उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थान वतला आये हैं उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिये । किन्तु यहां भी निर्यचगतिके योग्य प्रकृतियोको निकालकर उनके स्थानमें मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियां मिला देना चाहिये । तीसरे प्रकारके बन्धस्थानमे मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, श्रदारिक शरीर, औदारिक धागोपांग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वज्रभनाराचसंहनन, वर्णादिक चार, अगुरुलघु. उपघात पराघात, उच्छ्वास, प्रशन्तविहायोगति, त्रस, चादर, पर्याप्त प्रत्येक, स्थिर और अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभ मेसे कोई एक, सुभग, सुस्वर, व्याडेय, यश कीर्ति और अयश कीर्ति से कोई एक तथा निर्माण इन उनतीस प्रकृतियोका बन्ध होता है । यहाँ तीनो प्रकार के उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थान में सामान्यसे पूर्वोक्त प्रकार से ४६०८ भंग होते हैं । यद्यपि गुणग्धान भेदसे यहा भगोमें भेद हो जाता है पर गुणभ्थानभेदकी विवक्षा न करके यहां ४६०८ भग कहे गये है। तथा इसमे तीर्थकर प्रकृतिके मिला देने पर तीस प्रकृतिक बन्धस्थान होता है । इस बन्धस्थानमे स्थिर और अस्थिर मेसे किसी एकका, शुभ और अशुभसे किसी एकका तथा यश कीर्ति और यश कीर्तिमे से किसी एक्का बन्ध होता है । अत इन सब संख्याओ को परस्पर गुणित करने पर २x२x२=८ भंग प्राप्त होते हैं । इस प्रकार मनुष्यगतिके योग्य २५, २९ और ३० प्रकृतिक बन्धस्थानों में कुल भंग १+४६०८ + ८ = ४६१७ होते । कहा भी हैं ! I Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके वन्धस्थान १३३ 'पणुवीसयम्मि एक्को छायालसया अडुत्तर गुतीसे । मणुतीसेऽट उ सव्वे छायालसया उ सत्तरसा॥' अर्थात् 'मनुष्यगतिके योग्य पच्चीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें एक, उनतीम प्रकृतिक वन्धस्थानमें ४६०८ और तीस प्रकृतिक वन्धस्थानमे ८ भग होते हैं। ये कुल भंग ४६१७ होते हैं।' देवंगतिके योग्य प्रकृतियोको वाधनेवाले जीवके २८, २९, ३० और ३१ ये चार वन्धस्थान होते हैं। उनमेंसे २८ प्रकृतिक बन्धस्थानमें-देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, वैक्रिय आगोपाग, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णादि चार, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभमेंसे कोई एक, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यश. कीर्ति और अयश कीर्तिमेंसे कोई एक तथा निर्माण इन अट्ठाईस प्रकृतियोका बन्ध होता है । अत इनका समुदाय एक वन्धस्थान है। यह बन्धस्थान देवगतिके योग्य प्रकृतियोका वध करनेवाले मिथ्याष्टि, मास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और सर्वविरत जीवोके होता है । यहा स्थिर और अस्थिरमेंसे किसी एकका, शुभ और अशुभमेंसे किसी एकका तथा यश कीर्ति और अयश कीर्तिमेंसे किसी एकका बन्ध होता है अत उक्त सख्याओका परस्पर गुणा करने पर २x२x२%D८ भग प्राप्त होते हैं। इस अट्ठाईम प्रकृतिक वन्धस्थानमें तीर्थकर प्रकृतिके मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध अविरतसम्यग्दष्टि आदि गुणस्थानोमे ही होता है, अत. यह वन्धस्थान अविरतसम्यग्वष्टि आदि जीवोके ही वेधता है। (१) 'देवगदिणामाए पच हाणाणि एकत्तीसाए तीसाए एगुणतीसाए अवीसाए एकस्मे द्वारा चेदि।-जी० चू० ट्ठा० सू. १५ । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सप्ततिकाप्रकरण यहाँ भी २८ प्रकृतिक वन्यस्यानके समान आठ भंग होते हैं। नीस प्रकृतिक वन्यन्यानमें-देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जानि, वैक्रियशरीर, वैक्रिय आंगोपांग.आहारक शरीर, आहारक आंगोपाग, तैजम शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संन्यान, वर्णादि चार.अगुल्लघु उपघात.पराघात, उच्छ्वास प्रशस्त विहायोगति,बस, बादर,पर्याप्रक, प्रत्येक,शुभ,न्थिर, सुभग, मुस्वर, आदेय, यश चीर्ति और निर्माण इन तोस प्रकृतियाँका वन्ध होता है, अत: इनका समुदायल्प एक न्यान होता है। इस स्थानमें सब शुभ कर्मोका ही बंध होता है अत' यहां एक ही भंग प्राप्त होता है। इस वन्धन्यानमें एक तीर्थकर प्रकृतिके मिला देने पर इकतीस प्रकृतिक वन्यस्थान होता है। यहाँ भी एक भंग होता है। इस प्रकार देवगतिक योग चार वन्धस्थानों में कुल भंग १८ होते हैं। कहा भी है 'अट्ठह एच एचक अट्ठार देवजोगेसु ।' __ अर्थात् 'देवगतिके योग्य २८, २९,३० और ३१ इन वन्धस्थानों में क्रमशः आठ, पाठ, एक और एक भंग होते हैं। नरक गतिके योग्य प्रकृतियों का वध करनेवाले जीवके अट्ठाईस प्रकृतिक एक वन्वत्थान होता है। इसमें नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, वैनिय शरीर, वैक्रिय आंगोपांग, तैजस (१) नत्य इमं अहावीपाए हाणं गिरयगदी पंत्रिदियजादी वेवियनकन्मइयसरीरं हुंउसठणं वेटवियरोरत्रंगोवंग वगवरसफसं णिरयगडपापोगाणुपुवी अगुत्थलहु-ववाद-परघाद-उत्सासं अप्यसत्यविहायगई वस-वादर पनच-यत्तेयसरीर-अथिर-अमुह-दुहग दुस्सर-अणादेव अजमक्रित्तिणिमिणणामं । एदावि अहावीपाए पयहीणमेन्हि व हाणं n णिरयगदि पंचिंदिर पबत्तसंयुत्तं ववमाणस तं मिछादिहिस्स-जो० . हा० सू० ६-१२। लाकमानापुब्दी अगुरुनाल अधिर-अनुह-जुहा वाह व हाणं । हाल Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके वन्यस्यान शरीर कार्मण शरीर, हुण्डसस्थान, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपधात, पराघात, उच्छास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्रक, प्रत्येक, अस्थिर अशुभ, दुर्भग, दुवर,अनादेव,अयशः कीर्ति और निर्माण इन अट्ठाईस प्रकृनियोका बन्ध होता है। अतः इनका समुदायल्प एक वन्यस्थान है। यह वन्धस्थान मिथ्याष्टिके ही होता है। यहां सब अशुभ प्रकृतियोका ही बन्ध होता है अत यहां एक ही भंग है। इन तेईस आदि उपर्युक्त वन्धम्यानांके अतिरिक्त एक वन्धन्यान और है जो देवगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्धविच्छेद हो जाने पर अपूर्वकरण आदि तीन गुणत्यानोंमें होता है। इसमें केवल यश कीर्तिका ही वन्ध होता है। ___ अव निस बन्धस्थानमें कुल कितने भंग प्राप्त होते हैं इसका विचार करते हैं चउ पणवीसा सोलस नव वाणउईसया य अडयाला। एयालुत्तर छायालसया एकक बंधविहीं ॥ २५ ॥ अर्थ-तेईस आदि वन्यस्यानो मे क्रम से चार, पच्चीस, मोलह, नौ. नौ हजार दौ सौ अड़तालीस, चार हजार छह सौ इकतालीस, एक और एक भंग होते हैं ।।२।। विशेषार्थ-यद्यपि पहले तेईस आदि बन्धस्थानोका विवेचन करते समय भंगों का भी उल्लेख किया है पर उससे प्रत्येक वन्धस्थानके समुच्चयरूप भंगोंका वोध नहीं होता, अतः प्रत्येक वन्धम्यानके समुच्चयरूप भंगांका वोध करानेके लिये यह गाथा आई है। यद्यपि सामान्यसे तो गाथामें ही ववला दिया है कि Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सप्ततिकाप्रकरण किस बन्धस्थान में कितने भग होते हैं पर वे किस प्रकार होते हैं इस वातका ज्ञान उतने मात्रसे नहीं होता, अतः आगे इसी वातका विस्तारसे विचार करते हैं तेईम प्रकृतिक वन्धस्थानमें चार भंग होते है, क्योकि तेईस प्रकृतिक वन्धस्थान अपर्याप्त एकेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोको बाँधनेवाले जीवके हो होता है अन्यके नहीं और इसके पहले चार भंग वतला आये हैं, अतः तेईस प्रकृतिक वन्धस्थानमें वे ही चार भंग जानना चाहिये । पच्चीस प्रकृतिक वन्धस्थानमे कुल पच्चीस भंग होते है, क्योकि एकेन्द्रियके योग्य पच्चीस प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवके वीस भग होते है। तथा अपर्याप्त दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यगतिके योग्य पच्चीस प्रकृतियोका वध करनेवाले जीवके एक एक भंग होता है। इस प्रकार पूर्वोक्त वीस भंगोमे इन पॉच भगोके मिलाने पर पच्चोस प्रकृतिक वन्धस्थानके कुल पच्चीस भङ्ग होते है। छब्बीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें कुल सोलह भङ्ग होते हैं, क्योकि यह एकेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवके ही होता है और एकेन्द्रिय प्रायोग्य छब्बीस प्रकृतिक बन्धस्थानमे पहले मोलह भङ्ग बतला आये हैं, अत. छब्बीस प्रकृतिक बन्धस्थानमे वे ही सोलह भङ्ग जानना चाहिये। अट्ठाईस प्रकृतिक वन्धस्थानमे कुल नौ भन होते है, क्योकि देवगति के योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीव के २८ प्रकृतिक वन्धस्थानके आठ भङ्ग होते हैं और नरक गतिके योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवके २८ प्रकृतिक वन्धस्थानका एक भङ्ग Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 नामकर्म के बन्धस्थान १३७ होता है । यह बन्धस्थान इनके अतिरिक्त अन्य प्रकारसे नहीं प्राप्त होतात इसके कुल नौ भढ्न हुए यह सिद्ध हुआ । उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थानके ९२४८ भट्ट होते हैं, क्योकि तिर्यच पचेन्द्रिय के योग्य उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थानके ४६०८ भग होते है । मनुष्य गतिके योग्य उनतीस प्रकृतिक वम्थस्थानके भी ४६०८ भङ्ग होते हैं । और ढोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रियके योग्य और तीर्थकर सहित देवगतिके योग्य उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थानके आठ आठ भाग होते हैं। इस प्रकार उक्त भङ्गोको मिलाने पर २९ प्रकृतिक वन्धस्थानके कुल भग ४६०८ +४६०८+८+८+८ +८=९२४८ होते हैं । ३० प्रकृतिक वन्धस्थानके कुल भग ४६४१ होते हैं। क्योंकि तिर्यंचगतिके योग्य तीसका वध करनेवालेके ४६०८ भंग होते हैं। ढोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और मनुष्यगतिके योग्य तीसका बन्ध करनेवाले जीवोके आठ आठ भग होते है और आहारकके साथ देवगतिके योग्य तीसका बन्ध करनेवालेके एक भग होता है । इस प्रकार उक्त भगोको मिलानेपर ३० प्रकृतिक बन्धस्थानके कुल भंग ४६०८+८+८+८+८+१= ४६४१ होते है । तथा इक्तीस प्रकृतिक वन्धस्थानका और एक प्रकृतिक वन्धस्थानका एक एक भाग होता है यह स्पष्ट ही है । इस प्रकार इन सब बन्धस्थानोके कुल भङ्ग १३९४५ होते हैं । यथा -४ + २५ + १६+९+९२४८ + ४६४१ + १ + १ = १३९४५ | इस प्रकार नामकर्मके वन्धस्थान और उनके कुल भङ्गो का कथन समाप्त हुआ । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ सप्ततिकाप्रकरण नामकर्मके वन्धस्थानोकी उक्त विशेषताका ज्ञापक कोष्ठक[२१] अागामिभवप्रायोग्य वन्धक अपर्याप्त एकेन्द्रिय प्रायोग्य तिथंच व मनुष्य २५ प्र० २५ । ए० २०,वे० १, ते० १, तिथंच व मनुष्य २५ देवा च०१, पं०ति०१, मनु०१ पर्याप्त एकेन्द्रिय प्रायोग्य | तिर्यंच, मनुष्य व देव - - । देव गति प्रा० ८ नरकगति २८ प्र० पचे. ति० व मनु० ६ प्रा०१ | वे०८,ते. ८, च०८, तिथंच १२४०, म० २६ प्र० प० ति० ४६०८, मनु० ६२४८ देव ६२१६, ४६०८, देव ८ ना० ९२१६ वे०८, ते०८, च०८, प० । ति० ४६३२, म ४६३३) ३०प्र० ४६४१ ति०४६०८,म०८.दे०१ । दे०४६१६, ना०४६१६) ६२४८ | ३१३० देवप्रायोग्य - मनुष्य - - - । १० अप्रायोग्य मनुष्य - Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके उदयस्थान १३९ 'अव नामकर्मके उदयस्थानोका कथन करते हैंवीसिगवीसा चउवीसगाइ एगाहिया उ इगतीसा। उदयहाणाणि भवे नव अह य हुँति नामस्से ॥२६॥ अर्थ-नाम कर्मके २०, २१ प्रकृतिक और २४ प्रकृतिक से लेकर ३१ प्रकृतिक तक ८ तथा नौ प्रकृतिक और आठ प्रकृतिक ये बारह उदयस्थान होते हैं। विशेपार्थ- इस गाथामें नामकर्मके उदयस्थान गिनाये हैं। आगे उन्ही का विवेचन करते हैं-एकेन्द्रिय जीवके २१, २४, २५, २६ और २७ ये पाँच उदयस्थान होते हैं। सो यहाँ तैजस, कार्मण,अगुरुलघु, स्थिर,अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णादि चार और निर्माण ये वारह प्रकृतियाँ उदयकी अपेक्षा ध्रुव हैं, क्योंकि तेरहवें गुणस्थान तक इनका उदय सबके होता है। अब इनमें तिर्यंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, स्थावर, एकेन्द्रिय जाति, वादर सूक्ष्ममेसे कोई एक, पर्याप्त और अपर्याप्तमेंसे कोई एक, दुर्भग अनादेय तथा यश.कीर्ति और अयश.कीर्ति मेंसे कोई एक इन नौ प्रकृतियोके मिला देने पर इक्कीस प्रकृतिक उदस्थान होता है। यह उदयस्थान भवके अपान्तरालमें विद्यमान एकेन्द्रियके होता है। इस उदयस्थानमे पॉच भङ्ग होते है। जो इस प्रकार हैंवादर अपर्याप्तक, वादर पर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक और सूक्ष्म पर्याप्तक । सो ये चारो भङ्ग अयश कीर्ति के साथ कहना चाहिये। (१) 'अडनववीसिगवीसा चवीसेगहिय जाव इगितीसा। चठगइएसु बारस उदयहाणाइ नामस्स ॥' पञ्च० सप्त० गा० ७३ । 'वीस इगिचठवीस तत्तो इकितीसमो ति एयधिय । उदयट्ठाणा एवं णव अट्ठ य होति ग्रामस्स ।' --गो० कर्म गा० ५६२ । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सप्ततिकाप्रकरण तथा बादर पर्यातको यशः कीर्ति के साथ कहने से एक भङ्ग' और प्राप्त होता है । इस प्रकार कुल भङ्ग पाँच हुए। वैसे तो उपर्युक्त २१ प्रकृतियोमें विकल्प रूप तीन युगल होनेके कारण २४२x२ = ८ भङ्ग प्राप्त होने चाहिये थे किन्तु सूक्ष्म और अपर्याप्तकके साथ यशः कीर्ति का उदय नहीं होता त यहाँ तीन भंग कम हो गये है । यद्यपि भवके अपान्तरालमे पर्याप्तियो का प्रारम्भ ही नहीं होता, फिर भी पर्याप्तक नाम कर्मका उदय पहले समय से ही हो जाता है और इसलिये अपान्तरालमे विद्यमान ऐसा जीव लब्धिसे पर्याप्त ही होता है, क्योकि उसके आगे पर्याप्तियो की पूर्ति नियमसे होती है । इन इक्कीस प्रकृतियो में औदारिक शरीर, हुण्डसस्थान, उपघात तथा प्रत्येक और साधारण इनमें से कोई एक इन चार प्रकृतियोके मिला देने पर और तिर्यच गत्यानुपूर्वी इस एक प्रकृतिके निकाल लेने पर शरीरस्थ एकेन्द्रिय जीवके चौवीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ पूर्वोक्त पाँच भङ्गोको प्रत्येक और साधारणसे गुणा कर देनेपर दस भङ्ग होते हैं । तथा वायुकायिक जीवके वैक्रिय शरीर को करते समय श्रदारिक शरीर के स्थानमे वैक्रिय शरीरका उदय होता है, अतः इसके चैक्रिय शरीर के साथ भी २४ प्रकृतियोका उदय कहना चाहिये । परन्तु इसके केवल बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और अयशः कीर्ति ये प्रकृतियाँ ही कहनी चाहिये और इसलिये इसकी अपेक्षा एक भङ्ग हुआ । तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवके साधारण और यश कीर्तिका उदय नहीं होता, अत वायुकायिकके इनकी अपेक्षा भङ्ग नही कहे । इस प्रकार चौबीस प्रकृतिक उदयस्थानमें कुल ग्यारह भङ्ग होते है । तदनन्दर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हो जाने के वाद २४ प्रकृतियो में पराघात प्रकृतिके मिला देने पर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ बादर के प्रत्येक और साधारण तथा यशः } Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके उदयस्थान १४१ कीर्ति और अयश कीर्तिके निमित्तसे चार भङ्ग होते है। तथा सूक्ष्मके प्रत्येक और साधारणकी अपेक्षा अयश कीर्तिके साथ दो भङ्ग होते हैं। इस प्रकार छह भग तो ये हुए । तथा वैक्रिय शरीरको करनेवाला वादर वायुकायिक जीव जब शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हो जाता है तब उसके २४ प्रकृतियोमें पराघातके मिलाने पर पच्चीस प्रकृतियोंका उदय होता है। इसलिये एक भङ्ग इसका हुआ। इस प्रकार पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थानमे सब मिलकर सात भङ्ग होते हैं। तदनन्तर प्राणापान पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके पूर्वोक्त २५ प्रकृतियोमे उच्छासके मिलानेपर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पहलेके समान छह भग होते हैं। अथवा शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जिस जीवके उच्छासका उदय न होकर आतप और उद्योनमेंसे किसी एकका उदय होता है उसके छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है। यहाँ भी छह भङ्ग होते हैं। यथा-आतप और उद्योतका उदय वादरके ही होता है, सूक्ष्मके नहीं। अत इनमेसे उद्योतसहित वादरके प्रत्येक और साधारण तथा यश कीर्ति और अयश कीर्ति इनकी अपेक्षा चार भन्न हुए। तथा आतप सहित प्रत्येकके यश कीर्ति और अयश कीति इनकी अपेक्षा दो भग हुए। इस प्रकार कुल छह भङ्ग हुए। आतपका उदय वादर पृथ्वीकायिकके ही होता है पर उद्योतका उदय वनस्पतिकायिकके भी होता है। तथा वादर वायुकायिकके वैक्रिय शरीरको करते समय उच्छास पर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर २५ प्रकृतियोमें उच्छासके मिलानेपर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है, अत एक यह भग हुआ। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोके आतप उद्योत और यश कीर्तिका उदय नहीं होता। इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थान मे कुल भंग १३ होते हैं। तथा प्राणापान पर्याप्तिसे पर्याप्त जीवके Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सप्ततिकाप्रकरण २६ प्रकृतियोंमे आतप और उद्योतमेंसे किसी एक प्रकृतिके मिला देनेपर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां छह भंग होते हैं। इनका खुलामा आतप और उद्योतमेसे किसी एक प्रकृतिके साथ छवीस प्रकृतिक उदयस्थानके समय कर आये हैं। इस प्रकार एकेन्द्रियके पॉचो उदयस्थानोके कुल भंग ५+ ११+७+१३+६ =४२ होते हैं। कहा भी है 'एगिदियउदएसुं पंच य एकार सत्त तेरस या। छक कमसो भगा बायाला हुति सव्वे वि।।' अर्थात् 'एकेन्द्रियोंके २१, २४, २५, २६ और २७ इन पाँच उदयस्थानोमें क्रमसे ५, ११, ७, १३ और ६ भंग होते हैं। जिनका कुल योग ४२ होता है।' - दोइन्द्रिय जीवोके २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ ये छह उदयस्थान होते है। पहले जो चारह ध्रुवोदय प्रकृतियाँ बतला आये हैं उनमे तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, दोइन्द्रियजाति, बम, वादर, पर्याप्त और अपर्याप्तमेसे कोई एक, दुर्भग, अनादेय तथा यश.कीर्ति और अयश कीर्तिमेंसे कोई एक इन नौ प्रकृतियोके मिलाने पर इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह उदयस्थान भवक अपान्तरालमें विद्यमान जीवके प्राप्त होता है। यहाँ भंग तीन होते है, क्योकि अपर्याप्तके एक अयश.कीर्तिका ही उदय होता है, अत' एक भग यह हुआ और पर्याप्तकके यशःकीर्ति और अयश कीर्तिके विकल्पसे इन दोनोका उदय होता है, अत. दो भंग ये हुए। इस प्रकार इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थानमे कुल तीन भंग हुए । इन इक्कीस प्रकृतियोमे औदारिक शरीर, औदारिक आगोपांग, हुएडसंस्थान, सेवार्तसंहनन, उपधान और प्रत्येक इन छह प्रकृतियोंको मिलाकर तियेच गत्यानुपूर्वीके निकाल लेनेपर शरीरस्थ दोइन्द्रिय जीवके २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके उदयस्थान १४३ है। यहाँ भी पहलेके समान तीन भग होते हैं। तदनन्तर शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए दोइन्द्रिय जीवके पूर्वोक्त २६ प्रकृतियोमे अप्रशस्त विहायोगति और पराघात इन दो प्रकृतियोके मिला देनेपर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ यश कीर्ति और अयश कीर्तिकी अपेक्षा दो भङ्ग होते हैं। इसके अपर्याप्तकका उदय नहीं होता अत उसकी अपेक्षा भङ्ग नहीं कहे। तदनन्दर श्वासोच्छ्रास पर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर पूर्वोक्त २८ प्रकृतियोमें उच्छास प्रकृतिके मिलानेपर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी यश कीर्ति और अयश कीर्तिकी अपेक्षा दो भङ्ग होते है । अथवा शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके उद्योतका उदय होनेपर उच्छासके बिना २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी यश-कीर्ति और अयश कीर्तिकी अपेक्षा दो भङ्ग प्राप्त होते है। इस प्रकार २९ प्रकृतिक उदयस्थानमें कुल चार भङ्ग हुए। तदनन्तर भाषा पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके उच्छ्रास सहित २९ प्रकृतियोंमे सुस्वर और दु स्वर इन दोमेसे किसी एकके मिला देने पर ३० प्रकृतिक उदयम्थान होता है । यहाँ पर सुस्वर और दु स्वर तथा यश.कीर्ति और अयश कीर्ति के विकल्पसे चार भङ्ग होते है। अथवा प्राणापान पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके स्वरका उदय न होकर, यदि उसके स्थानमें उद्योतका उदय हो गया तो भी ३० प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है। यहाँ यश कीर्ति और अयश कीर्तिके विकल्पसे दो ही भग प्राप्त होते हैं। इस प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थानमे कुल छह भग हुए । तदनन्तर स्वरसहित ३० प्रकृतिक उदयस्थानमे उद्योतके मिलाने पर इकतीस प्रकृतिक उदस्यथान होता है। यहाँ सुस्वर और दु.स्वर तथा यश कीर्ति और अयश कीर्तिके विकल्पसे चार भंग होते हैं। इस प्रकार दोइन्द्रिय जीवोंके छह उदयस्थानोके कुल ३+३+२+४+६+४%D२२ भग होते हैं। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सप्ततिकाप्रकरण इसी प्रकार तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवोमेसे प्रत्येकके छह छह उदयस्थान और उनके भंग वटित कर लेने चाहिये । किन्तु सर्वत्र दोइन्द्रिय जातिके स्थान में तेइन्द्रियोंके तेइन्द्रिय जातिका और चौइन्द्रियोके चौइन्द्रिय जातिका उल्लेख करना चाहिये । इस प्रकार सब विकलेन्द्रियोके ६६ भंग होते हैं । कहा भी है 'तिग तिग दुग चउ छ उ विगलाण छसट्ठि होइ तिरहं पि ।' अर्थात् 'दोइन्द्रिय आदिमेंसे प्रत्येकके २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक उदयस्थानो के क्रमशः ३, ३, २, ४, ६ और ४ भंग होते हैं । तथा तीनोके मिलाकर कुल २२४३=६६ भन होते हैं ।' तिर्यंच पंचेन्द्रियोके २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ ये छह उदयस्थान होते हैं । इनमेसे २१ प्रकृतिक उदयस्थानमे तिर्यंचगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, पचेन्द्रिय जाति, नस, वादर, पर्याप्त और अपर्याप्तमेंसे कोई एक, सुभग और दुर्भगमेसे कोई एक, आय र अनादेयमें से कोई एक, यश कीति और यशकीर्ति में से कोई एक इन नौ प्रकृतियोको पूर्वोक्त बाहर ध्रुवोदय प्रकृतियो में मिला देने पर कुल २१ प्रकृतियोका उदय होता है । यह उदयस्थान 'अपान्तरालमें विद्यमान तियंच पचेन्द्रियके होता है। इसके नौ भंग है, क्योकि पर्याप्तक नाम कर्मके उदयमे सुभग और दुर्भगमेसे किसी एकका, आय और अनादेयमे से किसी एकका तथा यशःकीर्ति और यश कीर्तिमेंसे किसी एकका उदय होनेसे २x२x२ - ८ भंग प्राप्त हुए। तथा अपर्याप्तक नाम कर्मके उदयमे दुभंग, अनादेय और अयशः कीर्ति इन तीन अशुभ प्रकृतियोका ही उदय होनेसे एक भंग प्राप्त हुआ । इस प्रकार २१ प्रकृतिक उदयस्थानमें कुल नौ भंग होते हैं। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके उदयस्थान किन्हीं आचार्योंका मत है कि सुभगके साथ आदेयका और दुर्भगके साथ अनादेयका ही उदय होता है, अतः इस मतके अनुसार पर्याप्तक नाम कर्मके उदयमे इन दोनो युगलोको यश कीति और अयश कीर्ति इन दो प्रकृतियोसे गुणित कर देने पर चार भग हुए और अपर्याप्तका एक इस प्रकार २१ प्रकृतिक उदयस्थानमें कुल पाच भग होते हैं। इसी प्रकार मतान्तरसे आगेके उदरस्थानो मे भी भगोकी विपमता समझ लेना चाहिये। तदनम्तर आढारिक शरीर, औदारिक अगोपाग, छह सस्थानोमेमे कोई एक सस्थान, छह सहननोमेंसे कोई एक सहनन, उपघात और प्रस्येक इन छह प्रकृतियोके मिला देने पर और तिर्यंचगत्यानुपूर्वीके निकाल लेने पर शरीरस्थ नियंच पचेन्द्रियके २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके भग २८९ होते हैं, क्योकि पर्याप्तकके छह सस्थान,छह संहनन और सुभग आदि तीन युगलोकी सख्याके परस्पर गुणित करने पर ६x६x२x२x२२८८ भग प्राप्त होते है। तथा अपर्याप्तकके हुण्डसस्थान, सेवातसहनन, दुर्भग. अनादेय और अयश कीर्तिका ही उदय होता है, अत. एक यह भग हुआ । इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल २८९ भग प्राप्त हो जाते है। शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके इस छब्बीस प्रकृतिक उदयरथानमे पराघात और प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगतिमेसे कोई एक इस प्रकार इन दो प्रकृतियोंके मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसक्ने भग ५७६ होते हैं, क्योकि पर्याप्तकके जो २८८ भग वतला आये हैं उन्हें विहायोगतिद्विकसे गुणित करने पर ५७६ प्राप्त होते हैं। तदनन्तर प्राणापान पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवकी अपेक्षा इस २८ प्रकृतिक उदयस्थानमें उच्चासके मिला देने पर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके भी .पहलेके समान ५७६। भग होते हैं। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सप्ततिकाप्रकरण अथवा, शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके उच्छासका उदय नहीं होता इसलिये उसके स्थानमें उद्योतके मिला देने पर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके भी ५७६ भंग होते हैं। इस प्रकार २९ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल भंग ११५२ होते है। तदनन्तर भाषा पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके सुस्वर और दुःस्वरमेंसे किसी एकके मिला देने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके ११५२ भंग होते हैं, क्योकि जो पहले २९ प्रकृतिक स्थानके उच्चासकी अपेक्षा ५७६ भंग बतला आये है उन्हें स्वरद्विकसे गुणित करने पर ११५२ प्राप्त होते है। अथवा प्राणापान पर्याप्तिसे पर्याप्त , हुए जीवके जो २९ प्रकृतिक उदयस्थान बतला आये है उसमे उद्योत के मिला देने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके पहलेके समान ५७६ भग होते हैं। इस प्रकार ३० प्रकृतिक उदस्थानके कुल भंग १७२८ प्राप्त होते हैं । तथा स्वरसहित ३० प्रकृतिक उदयस्थान मे उद्योतके मिला देने पर ३१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके कुल भग ११५२ होते हैं, क्योकि स्वर प्रकृति सहित ३० प्रकृतिक उदयस्थानके जो ११५२ भग कहे हैं वे हो यहा प्राप्त होते है। इस । प्रकार प्राकृत तिर्यचपचेन्द्रियके छह उदयस्थान और उनके कुल भंग ९+ २८९+ ५७६ + ११५२ + १७२८+ ११५२ = ४९०६ होते है। वैक्रियशरीरको करनेवाले इन्हीं तिथंचपंचेन्द्रियोंके २५, २७, २८, २९ और ३० ये पांच उदयस्थान होते हैं। पहले तियचपंचेन्द्रियके इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान बतला आये हैं उसमें , वैक्रियशरीर, वैक्रिय आंगोपांग, समचतुरस्र संस्थान, उपघात और प्रत्येक इन पॉच प्रकृतियोके मिला देने पर तथा तिर्यंचगत्यानुपूर्वीके निकाल लेने पर पच्चोस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ सुभग ओर दुर्भगमेंसे, किप्ती एकका, आदेय और Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके उदयस्थान १४७ अनादेयमसे किसी एकका तथा यश कीर्ति और अयश.कीर्ति मेंसे किसी एकका उदय होनेके कारण २x२x२८ भग प्राप्त होते है। तदनन्तर शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके पराघात और प्रशस्त विहायोगतिके मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पहलेके समान ८ भग प्राप्त होते हैं। तदनन्तर प्राणापान पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जोरके उच्छ्रास के मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान हाता है। यहाँ भा पहलेके समान आठ भग होते है। अथवा शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके यदि उद्योत का उदय हो तो भा २८ प्रकृतिक उत्यस्थान हाता है। यहाँ भो आठ भग होते हैं। इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल भग १६ हुए । तदनन्तर भापा पयाप्तिप्ते पर्याप्त हुए जीवके उच्छ्राम सहित २८ प्रकृतियोमे सुस्वरके मिलाने पर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी आठ भग होते हैं। अथवा प्राणापान पर्याप्रिसे पर्याप्त हुए जायके उच्छास सहित २८ प्रकृतियोम उद्यातके मिलाने पर भी २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके भी आठ मग हाते हैं। इस प्रकार २९ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल भग १६ हुए । तदनन्तर सुस्वर सहित २९ प्रकृतिक उदयस्थानमें उद्योतके मिलाने पर तोस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके भी आठ भग होते हैं । इस प्रकार वैक्रियशरीरको करनेवाले पचेन्द्रिय तिर्यचके कुल उदयस्थान पाँव और उनके कुल भग ८+८+१+१६+८=५६ होते है। इन भगोंको पहलेके ४९.६ भगोमें मिलाने पर सब तिर्यंचोके कुल उदयस्थानोके ४९६२ भग होते हैं। सामान्य मनुष्योके २१, २६, २८, २९ और ३० ये पाँच उदयस्थान हाते हैं। तियच पचेन्द्रियोके इन उग्रस्थानोका जिस प्रकार क्थन कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ मनुष्योके भो करना Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ सप्ततिकाप्रकरण चाहिये। किन्तु मनुष्योंके तिथंचगति और तिर्यच गत्यानुपूर्वकि म्यानमे मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका उदय कहना चाहिये। तथा २९ और ३० प्रकृतिक उदयस्थान उद्योत रहित कहना चाहिये, क्योंकि वैक्रिय और आहारक संयतोंको छोड़कर शेप मनुष्योंके उद्योतका उदय नहीं होता है। इससे तिर्यचौके २९ प्रकृतिक उदयस्थानके जो ११५२ भंग कहे उनके स्थानमे मनुष्योंके कुल ५७६ ही भग प्राप्त होगे। इसी प्रकार तिर्यचौके ३० प्रकृतिक उदयस्थानके जो १७२८ भग कहे, उनके स्थानमें मनुष्योंके कुल ११५२ ही भग प्राप्त होगे। इस प्रकार प्राकृत मनुष्योंके पूर्वोक्त पाँच उदयस्थानोके कुल भग ९+ २८९+ ५७६+ ५७६+ ११५२%२६०२ होते हैं। तथा वैक्रिय शरीरको करनेवाले मनुष्योके २५, २७, २८, २९ (१) गोम्मटमार कर्मकाण्ड में वक्रिय शरीर व वकिय प्रांगोपांगका उदय देव और नाकियोंके ही बतलाया है मनुष्यों और तिर्थचोंके नहीं। इसलिये वहाँ वैक्रय शरीरकी अपेनासे मनुष्योंके २५ आदि उदय स्थान और उनके भंगोंका निर्देश नहीं किया है। इसी कारणसे वहाँ वायुकायिक और पन्द्रय तिर्यंच इन जीवोंके भी वैक्यि शरीरको अपेक्षा उदयस्थानों और उनके भगोंका निर्देश नहीं किया है। धवला श्रादि अन्य अन्योंसे भी इसकी पुष्टि होती है। इस सप्ततिका प्रकरणमें यद्यपि एकेन्द्रिय श्रादि जीकि उदयप्रायोग्य नाममकी वन्य प्रकृतियोंका नामनिर्देश नहीं किया है तथापि आचार्य मलपगिरिको टोकासे ऐसा ज्ञात होता है कि वहाँ देवगति और नरक गतिकी उदयप्रायोग्य प्रकृतियोंमें ही वैक्रिय शरीर और वैछिय अगोपांगका ग्रहण किया गया है। इससे यद्यपि ऐसा ज्ञात होता है कि तिर्यंच 'और मनुष्यों वैन्यि शरीर वैक्रिय आंगोपागका उदय नहीं होना चाहिये। तथापि धर्म प्रकृतिके उदीरणा प्रकरणकी गाथा ८ से इस बातका समर्थन होता है कि यथासम्भव तिथंच और मनुष्योंके भी इन दो प्रकृतियोंका उदय व उदारणा होती है। अपेजलाया है मनुष्योर व वैकिय भागोवा Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके उदयस्थान १४९ और ३० ये पांच उदयम्यान होते हैं। पहले वारह ध्रुवोदय प्रकृतियाँ चतला आये हैं उनमे मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, वेक्रिय शरीर, वक्रिय आगोपाग, समचतुरस्रमस्थान, उपघात, त्रम, वादर, पर्याप्तक प्रत्येक, सुभग और दुर्भग इनमेंसे कोई एक, अादेव और अनादेय इनमेसे कोई एक तथा यश कीर्ति और अयश कीर्ति इनमेमे कोई एक इन तेरह प्रकृतियोके मिला देने पर २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ सुभग और दुर्भगका. श्रादेय और अनादेवा तथा यश कीर्ति और अयश कीर्तिका विकल्पसे उदय होता है अत आठ भग हुए । इतनी विशेषता है कि वैक्रिय शरीर को करनेवाले देशविन्न और सयनोके प्रशम्न प्रकृतियोका ही उदय होता है। इस प्रकार २५ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल आठ मग हुए। तदनन्तर शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हा जीवके पराघात और प्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृनियो के मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पहले के समान पाठ भग होते हैं। तदनन्तर प्राणापान पर्याप्तिम पर्याप्त हुए जीवके उच्छामके मिलानेपर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी आठ भग होते है। अथवा उत्तर वैक्रिय शरीरको करनेवाले मयतोके शरीर पर्याप्निसे पर्याप्त होने पर पूर्वोक्त २७ प्रकृतिक उदयस्थानमें उद्योतके मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका एक ही भग है, क्योकि ऐसे मयतोके दुर्भग, अनादेय और अयश कीर्ति इन अशुभ प्रकृतियोका उदय नहीं होता। इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्थानके कुन भग नौ हुए । तदनन्तर भापा पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके उच्छास सहित २८ प्रकृतिक उदयस्थान मे सुम्बरके मिलाने पर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पहलेके समान आठ भंग होते हैं। अथवा, संयतोंके स्वरके स्थानमे उद्योतके मिलाने कुन भग नौ हार नहीं होता। इस बार अयश कीतिर Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० 'सप्ततिकाप्रकरणः ॥ पर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका पूर्ववत् एक ही भंग हुआ । इस प्रकार २९ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल ९ भंग हुए। तथा सुस्वर सहित २९ प्रकृतिक उदयस्थानमे संयतोके उद्योतके मिलाने पर ३० प्रकृतिक उदस्थान होता है। इसका पूर्ववत् एक ही भंग हुआ। इस प्रकार वैक्रिय शरीरको करनेवाले मनुष्यों के कुल उदयस्थान पॉच और उनके कुल भंग ८+८+९+९+१=३५ ' होते है। आहारक संयतोके २५, २७, २८, २९ और ३० ये पॉच उदयस्थान होते है। पहले मनुष्यगतिके उदय योग्य २१ प्रकृतियाँ कह पाये हैं। उनमें आहारक शरीर, श्राहारक आंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, उपघात और प्रत्येक इन पांच प्रकृतियोके मिलाने पर तथा मनुष्य गत्यानुपूर्वीके निकाल लेने पर २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ सब प्रशस्त प्रकृतियोका ही उदय होता है, क्योकि आहारक (१) गोम्मटसार कर्मकाण्डकी गाथा २६७ से ज्ञात होता है कि पाँचवें गुणस्थान तकके जीवों के ही उद्योत प्रकृतिका उदय होता है। तथा उसकी गाथा २८६ से यह भी ज्ञात होता है कि उद्योलका उदय तियंचगतिमें ही होता है। इसीसे कर्मकाण्डमें आहारक सयतोंके २५, २७, २८, और २६ प्रकृतिक चार, उदयस्थान वतलाये हैं। इनमें से २१ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान तो सप्ततिका प्रकरणके अनुसार ही जानना चाहिये। अब रहे शेष २८ और • ये दो उदयस्थान सो इनमें से २८ प्रकृतिक उदयस्थान उच्छवास प्रकृतिके उदयसे और २६ प्रकृतिक उदयस्थान सुस्वर प्रकृतिके उदयसे होता है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । अर्थात् २७ प्रकृतिक उदयस्थानमें उच्छ्वास प्रकृतिके मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है और इस २८ प्रकृतिक उदयस्थानमें सुस्वर प्रकृतिके मिलाने पर २९ प्रकृतिक उदस्थान होता है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके उदयस्थान सयतोके दुर्भग, दु स्वर और अयश'कीर्ति का उदय नहीं होता। अत यहाँ एक ही भंग होगा। तदनन्तर शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके पराघात और प्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृतियोंके मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी एक ही भग है। तदनन्तर प्राणापान पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके उच्छासके मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका एक भग होता है। अथवा शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके पूर्वोक्त २७ प्रकृतिक उदयस्थानमें उद्योतके मिला देनेपर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका भी एक भंग है। इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल दो भङ्ग हुए। तदनन्तर भाषा पर्याग्निसे पर्याप्त हुए जीवके उच्छ्रास सहित २८ प्रकृतिक उदयग्थानमे सुम्वरके मिलाने पर २९ प्रकतिक उदयस्थान होता है। इसका एक भङ्ग है। अथवा, प्राणापान पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके स्वरके स्थानमे उद्योतके मिलाने पर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका भी एक भग है। इस प्रकार २९ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल दो भग हुए। तदनन्तर भापा पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके ग्वरसहित २९ प्रकृतिक उदयस्थानमें उद्योतके मिलाने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका एक भङ्ग है। इस प्रकार आहारक संयतोके कुल उदयस्थान ५ और उनके कुल भङ्ग १+१+२+२+१= ७ होते हैं।। केवली जीवोके २०, २१, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ८ और ९ ये दम उदयस्थान होते हैं। पूर्वोक्त १२ ध्रुवोदय प्रकृतियो में मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, स, बादर, पर्याप्तक, सुभग, श्रादेय और यशःकीर्ति इन आठ प्रकृतियोके मिला देनेपर २० प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका एक भङ्ग है। यह उदयस्थान समुद्धातगत अतीर्थकवलीके कार्मण काययोगके समय Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सप्ततिकाप्रकरण - होता है। इम उदयन्यानमें तीर्थकर प्रकृतिके मिला देने पर २१ प्रकृतिक उदयम्यान होता है। इसका भी एक भङ्ग है। यह उदयन्यान समुद्रातगत तीर्थकर केवलीके कार्मणकाययोगके नमय होता है। तथा पूर्वोक्त २० प्रकृनिक उदयस्थानम औदारिकशरीर, वह नंन्यानोमेंस कोई एक संन्धान, जोनारिक प्रांगोपांग, बत्रपभनाराच संहनन, उपघात और प्रत्यक इन छह प्रकृतियोंके मिला देने पर २६ प्रतिक उदयन्यान होता है। यह अतीर्थकर केवलोके औदारिक मिश्रकाययोगके समय होता है। इसके छह संन्यानॉकी अपेक्षा छह मन है, परन्तु वे सामान्य मनुप्रोके उदयाथानाम भी सम्भव है, अन. उनकी पृयक गणना नहीं की। इस उद्यस्थानमें नीर्थ कर प्रकृतिके मिला देने पर २७ प्रकृनिक उदयस्थान होता है । यह नार्थ करकेवलाने औहारिक मिटकाययोगले नमय होता है। किन्तु इस उन्यस्थानमें एक समचतुरस्त्र संस्थानका ही उदय होता है, अतः इसका एक ही मन है। तथा पूर्वोक्त २६ प्रकृतिक अयस्थानमें पराधान, उच्छास, प्रगत विहायोगति और अप्रशत विहायोगति इनमेंसे कोई एक नया सुम्बर और दुम्बर इनमें से कोई एक इन चार प्रकृतियाँक मिला देने पर.३० प्रकृतिक उड्यन्धान होता है। यह अतीर्थ कर मयोगिकवलीके औतारिक काययोगने लमय होता है। यहाँ छह मंन्धान, प्रशस्त और अशत विहायोगति तथा मुन्वर और दुत्वरकी अपना ६x२x२२४ भंग होते हैं, किन्तु वे सामान्य मनुष्योंके उद्यम्थानों में भी प्राप्त होते हैं, अत. इनकी पृषक गिननी नहीं की। इस उड्यस्थानमें तीर्थकर प्रकृतिक मिला देने पर ३१ प्रक निक उदयल्यान होना है। यह तीर्थ कर सोगिकवलीके औदारिक काययोगके समय होता है। तथा नीर्य कर केवली जब वाग्योगका निरोध करते हैं व उनके स्वरका उदय नहीं रहता, अतः पूर्वोक्त Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके उदयस्थान १५३ ३१ प्रकृतियोंमसे एक प्रकृतिके निकाल देने पर तीर्थ केवलीके ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है। तथा जब उच्छवासका निरोध करते हैं तब उच्छ वाम प्रकृतिका उदय नहीं रहता, अत उच्छवासके घटा देने पर २९ प्रकृतिक उन्यम्यान होता है। किन्तु अतीर्थकरकेवलोके तीर्थकर प्रकृतिका उदय नहीं होता, अत. पूर्वोक्त ३० और २९ प्रकृतिक उदयम्थानोमेसे तीर्थकर प्रकृतिके घटा देने पर अतीर्थ कर केवलीके वचनयोगका निरोध हाने पर २९ प्रकृतिक और उच्छासका निरोध होने पर २८ प्रकृतिक उदयभ्यान होता है। अतीर्थकर केवलीके इन दोनो उदयस्थानाम छह मस्थान और दो विहायोगति इनकी अपेक्षा १२, १२ भङ्ग प्राप्त होते है, किन्तु वे सामान्य मनुष्योके उदयस्थानोमें भी सभव है, अत उनकी अलगसे गिनती नहीं की। तथा नी प्रकृतिक उदयम्थानमे मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पयाप्नक, सुभग, आदय, यश कीर्ति और तीर्थकर इन नौ प्रकृतियोका उदय होता है। अत इनका समुदाय एक नी प्रकृतिक उदयस्थान कहलाता है। यह स्थान तीर्थकर केवलीके होता है, जो अयोगिकेवली गुणस्थानमें प्राप्न होता है। इस उद्यस्थानमसे तीर्थकर प्रकृतिके घटा देने पर पाठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह भी अयोगिकेवली गुणस्थानमें अतीर्थकर केवलोके होता है । यहाँ २०, २१, २७, २९, ३०, ३१, ९ और ८ इन उदयस्थानीका एक-एक विशेप भड्ग प्राप्न होता है इसलिये ८ भङ्ग हुए। इनमेस २० प्रकृतिक और ८ प्रकृतिक इन दो उदयस्थानीके दो भग अतीथकर केवलीक होते है। तथा शेप छह भग तीर्थकर केवलीके होते हैं। इस प्रकार सब मनुष्योंके उदयस्थान सम्बन्धी कुल भग २६०२+३५+७+८-२६५२ होते है। देवोके २१, २५, २७, २८, २९ और ३० ये छह उदयस्थान Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ सप्ततिकाप्रकरण होने हैं। यहॉ पूर्वोक्त १२ भ्रूवोदय प्रकृतियोंमें देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति त्रस, वाटर, पर्याप्नक, सुभग और दुर्भगमें से कोई एक, आदेय और अनादेयमेसे कोई एक तथा यश कीर्ति और अयश कीर्तिमेसे कोई एक इन नौ प्रकृतियोंके मिला देनेपर २१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ सुभग और दुर्भगमेसे किसी एकका, श्रादेय और अनादेयमेंसे किसी एकका तथा यशकीति और अयश कीनिर्मेसे किसी एकका उदय होनेसे इनकी अपेक्षा कुल आठ भन होते है। देवोके जो दुर्भग, अनादेय और अयशःकीर्ति इन तीन अशुभ प्रकृतियोंका उदय कहा है. सो यह पिशाच आदि देवोके जानना चाहिये। तदनन्तर इस उदयम्थानमें वैक्रिय शरीर, वैक्रिय आंगोपांग, उपघात, प्रत्येक और ममचतुरस्रमंस्थान इन पांच प्रकृतियोंके मिला देनेपर और देवगत्यानुपूर्वी निकाल लेन पर शरीरस्थदेवके पच्चीम प्रकृतिक उदयम्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् पाठ भन होते हैं। तदनन्तर इन उदयस्थानमै पराघात और प्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृतियोंके मिला देनेपर शरीर पर्याप्निसे पर्याप्त हुए जीवके २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी वे ही आठ भङ्ग होते है। देवोके अप्रशस्त विहायोगनिका उदय नहीं होता, अतः यहाँ उसके निमिनसे प्राप्त होनेवाले भङ्ग नहीं कहे । तदनन्तर प्राणापान पर्याप्जिसे पर्याप्त हुए जीवके उच्छासके मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयम्थान होता है। यहाँ भी वे ही आठ भग होते हैं। अथवा शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके पूर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थानमै उद्योतके मिला देनेपर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् ८ भंग होते हैं। इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल भंग १६ होते हैं। तदनन्तर भाषा पर्याप्जिसे पर्याप्त हुए जीवके उछास सहित २८ प्रकृतिक उदय Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके उदयस्थान १५५ स्थान में सुस्वरके मिला देनेपर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्ववत् आठ भग होते हैं । देवोके दुस्वर प्रकृतिका उदय नहीं होता, अत इसके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले भग यहाँ पर नहीं कहे । अथवा प्राणापान पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके उच्छ्राससहित २८ प्रकृतिक उदयस्थानमे उद्योतके मिला देनेपर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। देवोके उद्योतका उदय उत्तर विक्रिया करनेके समय प्राप्त होता है । यहाँ भी पहलेके समान आठ भग होते हैं। इस प्रकार २९ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल भाग १६ होते हैं । तदनन्तर भाषा पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके सुस्वर सहित २९ प्रकृतिक उदयस्थानमे उद्योतके मिला देनेपर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्ववत् आठ भाग होते है । इस प्रकार देवोंके छह उदयस्थानोंके कुल भग ८+C+८+१६+१६+८=६४ होते हैं । नारकियोंके २१, २५, २७, २८ और २९ ये पाँच उदयस्थान होते है । यहाँ पूर्वोक्त वारह ध्रुवोदय प्रकृतियोमे नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, पचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्तक, दुर्भग, और यश कीर्ति इन नौ प्रकृतियोके मिला देने पर २१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ सव प्रशस्त प्रकृतियोंका उदय है, अत एक भंग हुआ । तदनन्तर शरीरस्थ जीवके वैक्रिय शरीर, वैक्रिय आगोपाग, हुडसस्थान, उपघात और प्रत्येक इन पाँच प्रकृतियोके मिला देने पर और नरकगत्यानुपूर्वीके निकाल लेने पर २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी एक ही भंग है । तदनन्तर शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके पराघात और प्रशस्त विहायोगतिके मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसका भी एक ही भग है । तदनन्तर प्रारणापानपर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके उच्छासके मिला देने पर २८ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ सप्ततिकाप्रकरण प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी एक ही भंग है। तदनन्तर भापापर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके दुःस्वरके मिला दने पर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका भी एक हो भंग है। इस प्रकार नारकियोके पॉच उदयस्थानोके कुल भग पाँच होते हैं। ये अवतक एकेन्द्रिय आदि जीवो के जितने उदयस्थान वतला आये हैं उनके कुल भंग ४२+ ६६+४९६२+ २६५२+ ६४+५ =७७९१ होते है। __अब किस उदयस्थानमे कितने भग होते है इसका विचार करते है एग वियालेक्कारस तेत्तीसा छस्सयाणि तेत्तीसा। वारससत्तरससयाणहिगाणि विपंचसीईहिं ॥२७॥ अउणत्तीसेक्झारससयाहिगा सतरसपंचसट्ठीहि । इक्कक्कगं च वीसादलृदयंतेसु उदयविहीं ॥२८॥ अर्थ-बीससे लेकर आठ पर्यन्त १२ उदयम्थानोमें क्रमसे १,४२, ११, ३३ ६००, ३३, १२०२, १७८५, २९१७, १९६५, . १ और १ भंग होते है। (१) गोम्मटसार कर्मकाण्डमे इन २० प्रकृतिक आदि उदयस्थानोंके मग क्रमश १, ६०, २७, १९, ६२०, १२, ११७५, १७६०, २६२१, १९६१, १ और १ बतलाये हैं। यथा वीमादीण भगा इगिदालपदेसु मभवा कमसो। एक्क सट्ठी चेत्र य सत्तावीसं च उगुवीस ॥ ६०३ ॥ वीसुत्तरछच्चसया बारम पण्णत्तरीहिं सजुता। एक्कारससयसखा सत्तरससयाहिया सट्ठी ॥ ६०४ ॥ ऊपत्तीस- । सयाहियएक्कावीसा तदी वि एकट्ठी। एक्कारससयसहिया एक्केश्क विमरिंगा भंगा ।। ६०५ ॥ इन भगोंका कुल जोड़ ७७५८ होता है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके उदयस्थानोके भङ्ग १५७ विशेपार्थ-पहले नामकर्मके २०, २१, २४, २५, २६, २७, २८ २९,३०,३१, ९ और ८ इस प्रकार १२ उदयस्थान वतला आये है। तथा इनमेसे किस गतिमें क्तिने उदयस्थान और उनके क्तिने भग होते है यह भी बतला आये हैं। अब यह बतलाते हैं कि उनमेंसे किस उदयस्थानके कितने भग होते है बीम प्रकृतिक उदयस्थानका एक भंग है ना अतीर्थकर केवली के होता है। २१ प्रकृतिक उडयस्थानके एकेन्द्रियो । अपेक्षा ५, विकलेन्द्रियाकी अपेक्षा ९ तिचंचपचेन्द्रियोंकी अपेक्षा ९, मनुष्यो की अपेक्षा ९ तीर्थकरकी अपेना १ देवोंकी अपेक्षा ८ और नारक्यिोकी अपेक्षा १ भग बनला आये हैं जिनका कुल जोड़ ४२ होता है, अत २१ प्रकृतिक उदयस्थान के ४२ भग कहे। २४ प्रकृतिक उज्यस्थानके एकेन्द्रियोकी अपेक्षा ही ११ भग प्राप्त होते है, क्योकि यह उदयस्यान अन्य जीवोके नहीं होता, अत. इसके ११ भग कहे। २५ प्रकृतिक उदयम्थानके एकेन्द्रियाकी अपेक्षा मात, वैक्रिय शरीरको करनेवाले तिर्यंच पचेन्द्रियोंकी अपेक्षा ८, वक्रिय शरीरको करनवाले मनुप्योकी अपेक्षा ८, आहारक सयतोकी अपना १, देवोकी अपेना ८ और नारकियोंकी अपेक्षा १ भग बतला आये है जिनका जोड़ ३३ होता है अतः २५ प्रकृतिक उदयस्थानके ३३ भग कहे। २६ प्रकृतिक उदयस्थानके एकेन्द्रियोकी अपेना १३, विकलेन्द्रियोकी अपेक्षा ९, प्राकृत तिथंच पचेन्द्रियो की अपेक्षा २८९ और प्राकृत मनुष्योकी अपेक्षा २८९ भग वतला आये हैं जिनका जोड़ ६०० होता है, अत इस उदयस्थानके कुल भग ६०० कहे । २७ प्रकृतिक उदयस्थानके एकेन्द्रियोकी अपेचा ६, वैक्रिय तिर्यंच पचेन्द्रियोंकी अपेक्षा ८, वैक्रिय मनुष्योकी अपेक्षा ८, आहारक संयतोकी अपेक्षा १ केवलियोंकी अपेक्षा १ देवोकी अपेक्षा ८ और नारकियोंकी अपेक्षा १ भग चतला आये हैं Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सप्ततिकाप्रकरण जिनका जोड़ ३३ होता है, अतः इस उदयस्थानके कुल ३३ भंग कहे । २८ प्रकृतिक उदयन्थानके विकलेन्द्रियोंकी अपेक्षा ६, प्राकृत तिथंच पंचेन्द्रियोंकी अपेक्षा ५७६, वैक्रिय तियंत्र पंचेन्द्रियोंकी अपना १६, प्राकृत मनुष्योंकी अपेक्षा ५७६, वैक्रिय मनुष्योंगी अपेक्षा ९, आहारकोंकी अपेक्षा २, देवोंकी अपेक्षा १६ और नारकियोंकी अपेक्षा १ भंग वतला आये हैं जिनका जोड़ १२०२ होता है, अत. इस उदयन्थानके कुल्ल भंग १२०२ कहे। २९ प्रकृ. तिक उदयस्थानके विकलेन्द्रियोकी अपेक्षा १२, तियेच पंचन्द्रियोंकी अपेक्षा ११५२, वैकिव नियंच पचेन्द्रियोंकी अपेक्षा १६, मनुष्योंकी अपेक्षा ५७६, वैक्रिय ननुप्योंकी अपेक्षा ९, आहारक सयतोकी अपेक्षा २, तीर्थकरकी अपेक्षा १, देवाँकी अपेक्षा १६ और नारक्यिोंकी अपेक्षा १ भंग बवला आये हैं जिनका जोड़ १७८५ होता है, अत. इस यस्थानके कुल भग १७८५ ऋहे । ३० प्रकृतिक उज्यस्थानके विकलेन्द्रियोंकी अपेक्षा १८.तियंत्र पंचेन्द्रियोकी अपेना १७ २८, वक्रिय तियंत्र पंचन्द्रियोकी अपेक्षा ८, मनुष्योंकी अपेक्षा ११५२, वैक्रिय मनुष्योंकी अपेक्षा १, थाहारक संयतोंकी अपेक्षा १, केवलियोंकी अपेक्षा १ और देवी की अपेक्षा ८ भंग बतला आये हैं जिनका जोड़ २९१७ होता है, अतः इस स्थानके कुत्त भंग २९१७ कहे। ३१ प्रकृतिक उदयस्थानके विकलेन्द्रियोंको अपेक्षा १२, वियंव पंचेन्द्रियों की अपेक्षा ११५२ और नीयंकरको अपेना १ भग बतला आये हैं जिनका जोड़ १९६५ होता है, अतः इस उदयस्थानके ११६५ भंग कहे । ९ प्रकृतिक उदयस्थानका तीर्थकरको अपेक्षा १ भंग बतला आये हैं, अतः इसका १ भग कहा । तथा ८ प्रकृतिक उदयस्थानका अतीर्थकरकी अपेक्षा १ भंग वतला आये हैं अतः इसका भी १ भंग कहा । इस प्रकार सत्र उदयत्वानोंके कुल भंग १४२११३३+६०० Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१५९ नामकर्मके उदयस्थानोंके भंग ३३+१२०२+ १७८५+२९१४+११६५+१+१-७७९१ होते हैं। नाम कर्म के उदयस्थानो की विशेषता का ज्ञापक कोष्टक [२२] उदय स्थान, मंग स्वामी २० २४ -- - २६ सामान्य केवली एके० ५, विक० , तिर्य० ६, मनु० ९ ती. १ देव०८ नारकी १ एकेन्द्रिय । एके. ५ वैक्रिय ति०८, वै० म० ८, आहा १ देव ८, नारकी १ । ६०० एके० १३ विक० ६, R० २८९, म० २८६ एके०६, वै० ति०८, वै० म०८, आहा० १ ३३ तीर्थ. १, देव , नारकी १ १२०२ विक० ६, ति० ५७६, वै. ति. १६, मनु० ५७६ । वै० म० श्रा० २, देव १६, ना.१ वि० १२, ति० ११५२, वै० ति० १६, म० ५७६ १७८५ वै० म० ९, श्रा० २, देव १६, ना०१, ती० १ वि० १८, ति. १७२८, ० ति०८,म. ११५२ २६१७ | वै० म० १, श्रा० १, ती० १, देव , ११६५ वि० १२, ति० ११५२, तार्थ० १ २७ २८ - तीर्थकर केवली - - Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० . • सप्ततिकाप्रकरण । अव नामकर्म के सत्तास्थानोका कथन करते हैं- , . तिदुनउई उगुनउई अट्ठच्छलसी असीइ उगुसीई। अठ्ठयछप्पणत्तरि नव अट्ठ य नामसंताणिं ॥२९॥ अर्थ--नाम कर्म के ९३, ९२, ८९, ८८, ८६, ८०,७९, ७८, ७६, ७५, ९ और ८ प्रकृतिक वारह सत्तास्थान होते हैं। विशेपार्थ--इस गाथामे यह बतलाया है कि नामकर्मके कितने सत्त्वस्थान हैं और उनमेसे किस सत्त्वस्थानमे कितनी प्रकृतियो का सत्त्व होता है। किन्तु प्रकृतियोका नाम निर्देश नहीं किया है अतः आगे इसीका विचार किया जाता है-नाम कर्मकी सब उत्तर प्रकृतियाँ ९३ हैं अतः ९३ प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें सव प्रकृतियोका सत्त्व स्वीकार किया गया है। इनमेसे तीर्थकर प्रकृ. (१) गोम्मटसार कर्मकाण्डमें ६३, ६२: ९१, ६०, ८८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८,७५, १० और ६ प्रकृतिक १३ तेरह सत्त्वस्थान वतलाये हैं। यथा___ तिदुइगिणउदी णउदी अडच्उदोश्रहियसीदि सौदी य । ऊणासीदत्तरि सत्तत्तरि दस य णव सत्ता ॥ ६०६ ॥ ___ यहाँ ६३ प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें सव प्रकृतियोंका सत्त्व स्वीकार किया गया है। तीर्थकर प्रकृतिके कम कर देने पर ६२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। श्राहारक शरीर और आहारक श्रागोपागके कम कर देने पर ९१ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। तीर्यकर, आहारक शरीर और आहारक श्रांगोपागके कम कर देने पर ६० प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इसमेंसे देवद्विककी उद्वलना होने पर ८८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इसमेंसे नारक चतुष्ककी उद्वलना होने पर ८४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । इसमेंसे मनुष्यद्वि ककी उद्वलना होने हर ८२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। क्षपक अनिवृत्ति करणके १३ प्रकृतियोंमेंसे नरकद्विक श्रादि १३ प्रकृतियोंका क्षय हो Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्मके सत्त्वस्थान १६१ तिके कम कर देने पर ९२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। तथा ९३ प्रकृतिक सत्त्वस्थानमेंसे आहारक शरीर, आहारक आगोपाग, आहारक सघात और आहारक वन्धन इन चार प्रकतियोके कम कर देने पर ८९ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इसमे से तीर्थकर प्रकृतिके कम कर देने पर ८८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इन ८८ प्रकृतियोमेंसे नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी की या देवगति और देवगत्यानुपूर्वीकी उद्वलना हो जाने पर ८६ प्रकृतिक सत्वस्थान होता है। अथवा, नरकगतिके योग्य प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले ८० प्रकृतिक सत्त्वस्थानवाले जीवके नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वैक्रिय प्रांगोपाग, वैक्रिय सघात और वैक्रिय बन्धन इन छह प्रकृतियोका वन्ध होने पर ८६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इसमेसे नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, और वैक्रियचतुष्क इन छह प्रकृतियो की उद्वलना हो जाने पर ८० प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। या देवगति, देवगत्यानुपूर्वी और जाने पर ८० प्रकृतिक सत्वस्थान होता है। ६२ में से उक्त १३ प्रकृतियोंके घटा देने पर ७९ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इन्हीं १३ प्रकृतियोंको ६१ मेंसे घटाने पर ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। ९० मेंसे इन्ही १३ प्रकृतियोंको घटाने पर ७७ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। तीर्थकर अयोगिवलीके १० प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है और सामान्य अयोगिकेवलोके । प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। कर्मप्रकृतिमे व पचसग्रहसप्ततिकामें नामकर्मके १०३, १०२, ६६, ६५, ९३, ६०, ८६, ८४, ८३, ८२, ६ और ८ ये १२ सत्त्वस्थान भी बतलाये है। यहाँ ८२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान दो प्रकार से बतलाया है। विशेष व्याख्यान वहाँ से जान लेना चाहिये। सप्ततिकाप्रकरणके सत्त्वस्थानोंसे इनमें इतना ही अन्तर है कि ये स्थान बन्धनके १५ भेद करके बतलाये गये हैं। ११ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सप्ततिकाप्रकरण: चैक्रियचतुष्क इन छह प्रकृतियोको उद्वलना हो जाने पर ८. प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इसमेसे मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी उद्वलना होने पर ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। ये सात सत्त्वस्थान अक्षपकोकी अपेक्षा कहे । अब क्षपको की अपेक्षा सत्त्वस्थानोका विचार करते हैं -जब क्षपक जीव ९३ प्रकृतियोंमें से नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगति, तियेचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, द्वोन्द्रियजाति, ब्रोन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण इन तेरह प्रकृतियोका क्षय कर देते हैं तव उनके ८० प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। जब ९२ प्रकृतिकयोमेंसे इनका क्षय कर देते हैं तब ७९ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । जब ८९ प्रकृतियोमेसे इनका क्षर कर देते है तब ७६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । तथा जव ८८ प्रकृतियोमेसे इनका क्षय कर देते है तब ७५ प्रकृतिक सत्वस्थान होता है । अब रहे ९और ८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान सो इनमेसे मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, म, वादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश-कीर्ति और तीर्थकर यह नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थान है। यह तीर्थकरके अयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमे प्राप्त होता है। और इसमें से तीर्थकर प्रकृतिके घटा देने पर ८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। यह अतीर्थकर केवलीके अयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमै प्राप्त होता है। इस प्रकार गाथानुसार नाम कर्मके ये वारह सत्त्वस्थान जानना चाहिये। अव नामकर्मके वन्धस्थान आदिके परस्पर संवेधका कथन करनेके लिये आगेकी गाथा कहते है अठ्ठ य वारस वारस बंधोदयसंतपयडिठाणाणि ! ओहेणादेसेण य जत्थ जहासंभवं विभजे ॥ ३० ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानत्रिककै संवैधभंग अर्थ-जाम कर्मके वन्ध, उदय और सत्त्व प्रकृतिस्थान क्रमसे ८, १२ और १२ है। इनके श्रोध और आदेशसे जहाँ जितने सभव हो उतने विकल्प करना चाहिये। विगेपार्थ-यद्यपि प्रथकार नामकर्मके वन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थान पहले ही बनला आये है उसी से यह बात हो जाता है कि नामकर्मके बधस्थान ८ हैं, उठ्यस्थान १२ हैं और सत्त्वस्थान भौ १२ हैं। फिर भी ग्रन्थकारने यहाँ पर उनका पुन निर्देश उनके परस्पर सवेध भगोके सूचन करनेके लिये किया है। जिनके प्राप्त करनेके दो हो मार्ग हैं-एक ओघ और दूसरा श्रादेश। ओघ सामान्यका पर्यायवाची है अत. प्रकृनमे ओधका यह अर्थ हुआ कि जिस प्ररूपणामें केवल यह बतलाया गया है कि अमुक वन्धस्थानका बन्ध करनेवाले जीवके अमुक उदयस्थान और श्रमुक सत्त्वस्थान होते है वह अोध प्ररूपणा है। तया आदेश विशेषका पर्यायवाची है, अत आदेश प्ररूपणामे मिथ्यावृष्टि आदि गुणस्थान और गति यादि मार्गणाओमे बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्वस्थानोका विचार किया गया है। ग्रन्थकारने जो मूलमे ओघ और आदेशके अनुसार विभाग करनेका निर्देश किया है मा उससे इसी विषयकी सूचना मिलती है। अब पहले ओघसे सवेध का विचार करते हैंनवपंचोदयसंता तेवीसे पएणवीस छब्बीसे। अह चउरट्ठवीसे नव सत्तुगतीस तीसम्मि ॥ ३१॥ . Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ सप्ततिकाप्रकरण एगेगमेगतीसे एगे एगुदय अट्ठ संतम्मि। उवरयबंधे दस दस वेयगसंतम्मि ठाणाणि ॥ ३२ ॥ अर्थ-तेईस, पच्चीस और छब्बीस इनमेंसे प्रत्येक वन्धस्थानमे नौ उदयस्थान और पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। अट्ठाईस प्रकृतिक वन्धस्थानमे आठ उदयस्थान और चार सत्त्यस्थान होते हैं। उनतीस और तीसमेंसे प्रत्येक वन्धस्थानमें नौ उदयस्थान और सात सत्त्वस्थान होते है। इकतीस प्रकृतिक बन्धस्थानमें एक उदयस्थान और एक सत्त्वस्थान होता है। एक प्रकृतिक वन्धस्थान मे एक उदयस्थान और आठ सत्त्वस्थान होते हैं। तथा वन्धके अभावमें उदय और सत्त्वकी अपेक्षा दस दस स्थान होते है ।। विशेपार्थ-इन दो गाथाओसे हमे केवल इतना ही ज्ञान होता है कि किस वन्धस्थानमे कितने उदयस्थान और कितने सत्त्वस्थान हैं। उनसे यह ज्ञात नहीं होता कि वे उदयस्थान और सत्त्वस्थान कौन कौन हैं, अत आगे उक्त दो गाथाओके आश्रयसे इसी बातका विचार करते है-तेईस प्रकृतिक वन्धस्थानमे अपर्याप्तक एकेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोका वन्ध होता है जिसको एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यबांधते हैं। इन तेईस प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले जीवोके (१) 'नवपचोदयसत्ता तेवीसे पण्णवीसछन्त्रीमे। अट्ट चउरहवीसे नवसन्तिगतीसतीसे य । एकके इगतीसे एक्के एक्कुदय असतंसा । उवरयवन्धे दस दस नामोदयसतठाणाणि ।'-पञ्च० सप्त. गा. ६९-१०० । रणवपंचोदयसत्ता तेवीसे पण्णुवीस छब्बीसे । अट्ट चदुरहवीसे णवसत्तुगुतीसतीसम्मि ॥ एगेग इगितीसे एगे एगुदयमसत्ताणि। उवरदवंधे दस दस उदयसा होति णियमेण ॥'-गो० कर्म० गा० ७४०-७४१ । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानत्रिकके सवेधभग १६५ सामान्यसे २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ ये नौ उदयस्थान होते है। खुलासा इस प्रकार है-जो एकेन्द्रिय, ढोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तिथंचपचेन्द्रिय और मनुष्य तेईस प्रकृतियोका वध कर रहा है उसके भवके अपान्तरालमें तो इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है, क्योंकि २१ प्रकृतियोके उदयमें अपर्याप्तक एकेन्द्रियके योग्य २३ प्रकृतियोका बन्ध सम्भव है। २४ प्रकृतिक उदयस्थान अपर्याप्त और पर्याप्त एकेन्द्रियांके होता है. क्यो कि एकेन्द्रियोंके सिवा अन्यत्र यह उदयस्थान नहीं पाया जाता । पञ्चीस प्रकृतिक उदयस्थान पर्याप्तक एकेन्द्रियो के तथा वैक्रियिक शरीरको प्राप्त मिथ्यावष्टि तिथंच और मनुष्योके होता है। २६ प्रकृतिक उदयस्थान पर्याप्तक एकेन्द्रिय तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तियंचपचेद्रिय और मनुष्योके होता है। २७ प्रकृतिक उदयस्थान पर्याप्तक एकेन्द्रियोंके और वैक्रिय शरीरको करनेवाले तथा शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए मिथ्यावष्टि तिथंच और मनुष्योके होता है। २८, २९ और ३० प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक टोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तिर्यंच पचेन्द्रिय और मनुष्योके होता है। तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय और तिर्यच पचेन्द्रिय जीवीके होता है। इन उपर्युक्त उदयस्थानवाले जीवो को छोड़कर शेष जीव २३ प्रतियोका बन्ध नहीं करते। तथा इन २३ प्रकृत्तियोका बन्ध करनेवाले जीवोंके सामान्यसे ९२, ८८,८६, • ८० और ७८ ये पाच सत्त्वस्थान होते हैं। इनमेसे २१ प्रकृतियो के उदयवाले उक्त जीवोके तो सव सत्त्वस्थान पाये जाते हैं। केवल मनुष्योके ७८ प्रकृतिक सत्त्वम्थान नहीं होता, क्योकि मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी उद्वलना करने पर ७८ प्रकतिक सत्त्वस्थान होता है किन्तु मनुष्योंके इन दो प्रकृतियोकी Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ सप्ततिकाप्रकरण : . उद्वलना सम्भव नहीं। २४ प्रकृतिक उदयस्थानके समय भी पांची सत्त्वस्थान होते हैं। केवल वैक्रिय शरीरको करनेवाले वायुकायिक जीवोंके २४ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते हुए ८० और ७८ ये दो सत्त्वस्थान नहीं होते, क्योकि इनके वैक्रिय पटक और मनुप्यहिक इनका सत्त्व नियमसे है। कारण कि ये जीव वैक्रिय शरीरका तो साक्षात् ही अनुभव कर रहे हैं अत. इनके वैक्रियद्विककी उद्वलना सम्भव नहीं। और इसके अभावमें देवद्विक और नरकद्विक्रकी भी उद्वलना सम्भव नहीं, क्योकि वैक्रियपटककी उबलना एक साथ होती है ऐमा स्वभाव है। और वैक्रियपटककी उद्वलना हो जाने पर हो मनुष्यद्विककी उद्वलना होती है अन्यथा नहीं। चूर्णिमें भी कहा है 'वैश्वियछक्कं उन्वलेउ पच्छा मणुयद्गं उच्चलेइ ।। अर्थात् 'यह जीव वैक्रियपटककी उद्घलना करके अनन्तर मनुप्यद्विककी उद्वलना करता है।' ___ अतं. सिद्ध हुआ कि वैक्रियशरीर को करनेवाले वायुकायिक जीबोके २४ प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए ९२, ८८ और ८६ ये तीन सत्त्वस्थान ही होते हैं। ८० और ७८ सत्वस्थान नहीं होते। २५ प्रकृतिक उदयस्थानके होते हुए भी उक्त पांची सत्त्वस्थान होते हैं। किन्तु उनमेसे ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान वैक्रियशरीरको नहीं करनेवाले वायुकायिक जीवोंके तथा अग्निकायिक जीवोंके ही होता है अन्य के नहीं, क्योकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोको छोड़कर अन्य सव पर्याप्तक जीव नियमसे मनुष्यगनि और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका बन्ध करते हैं। चूर्णिकारने भी कहा है कि 'तेऊवाऊवनो पजत्तगो मणुयगई नियमा वंधे।' Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानत्रिकके संवैध भंग १६७ अर्थात् 'अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोको छोड़कर अन्य पर्याप्तक जीव मनुष्यगतिका नियमसे वन्ध करते हैं।' + - इससे सिद्ध हुआ कि ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान अग्निकायिक जीवो को और वैक्रियशरीरको नहीं करनेवाले वायुकायिक जीवांको छोडकर अन्यत्र नहीं प्राप्त होता । २६ प्रकृतिक उदयस्थानमे भी उक्त पाँचो सत्त्वस्थान होते हैं । किन्तु ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान वैक्रियशरीरको नहीं करनेवाले वायुकायिक जीवोके तथा अग्निकायिक जीवोके होता है। तथा जिन पर्याप्त और अपर्याप्त दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पचेन्द्रिय जीवोमे उक्त अग्निकायिक और वायुकायिक जीव उत्पन्न हुए हैं उनके भी जब तक मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका बन्ध नहीं हुआ है तब तक ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । २७ प्रकृतिक उदयस्थानमे ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके सिवा शेप चार सत्त्वस्थान होते हैं, क्योंकि २७ प्रकृतिक उदयस्थान अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोको छोड़कर पर्याप्त वाटर एकेन्द्रिय और क्रियशरीरको करनेवाले तिर्यच और मनुष्योके होता है पर इनके मनुष्यद्विकका सत्त्व होनेसे ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं पाया जाता है । शंका- अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोके २७ प्रकृतिक उदयस्थान क्यो नहीं होता ? समाधान -- एकेन्द्रियोंके २७ प्रकृतिक उदयस्थान आतप और उद्योत से किसी एक प्रकृतिके मिलाने पर होता है पर अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोके आतप और उद्योतका उदय होता नहीं, अतः इनके २७ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता यह कहा है। • Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ 'सप्ततिकाप्रकरण तथा २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक उदयस्थानोंमें ७८ प्रकतिक सत्त्वस्थान को छोड़कर नियमसे शेप चार सत्त्वस्थान होते हैं। क्योकि २८, २९ और ३० प्रकृतियो का उदय पर्याप्त विकलेन्द्रिय, ' तिर्यंच पचेन्द्रिय और मनुष्योके होता है और ३१ प्रकृतियो का, उदय पर्याप्त विकलेन्द्रिय और पचेन्द्रिय तिर्यंचोके होता है परन्तु इन जीवोके मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी सत्ता नियमसे पाई जाती है। अतः उपर्युक्त उदयस्थानोमें ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं होता यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार २३ प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवोके यथायोग्य नौ ही उदयस्थानोकी अपेक्षा चालीस सत्वस्थान होते है। । २५ और २६ प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले जीवोके भी उदयस्थान और सत्त्वस्थान इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेपता है कि पर्याप्त एकेन्द्रियके योग्य २५ और २६ प्रकृतियों का बन्ध करनेवाले देवोके २१, २५, २७, २८, २९ और ३० इन छह उदयस्थानोमे ९२ और ८८ ये दो सत्तास्थान ही प्राप्त होते है। अपर्याप्त निकलेन्द्रिय, तिथंच पचेन्द्रिय और मनुष्योके योग्य २५ प्रकृतियोका वन्ध देव नहीं करते, क्योकि उक्त अपर्याप्त जीवोंमें देव उत्पन्न नहीं होते। अत सामान्यसे २५ और २६इनमेंसे प्रत्येक वन्धस्थानमे नौ उदयस्थानोकी अपेक्षा ४० सत्त्वस्थान होते हैं। . २८ प्रकृतिक बन्धस्थानमें २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ ये आठ उदयस्थान होते है। २८ प्रकृतिक वन्धस्थानके दो भेद हैं, एक देवगतिप्रायोग्य और दूसरा नरकगतिप्रायोग्य । इनमेंसे देवगतिके योग्य २८ प्रकृतियोका बन्ध होते समय नाना जीचोकी अपेक्षा उपर्युक्त आठों ही उदयस्थान होते हैं और नरकगतिके योग्य प्रकृतियोका वन्ध होते समय ३० और ३१ प्रकृतिक दो ही उदयस्थान होते हैं। इनमेंसे देवगतिके योग्य २८ प्रकृतियो Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानत्रिकके सवेधभंग १६९ का बन्ध करनेवाले जीवके २१ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिक सम्यया वेदक सम्यग्दृष्टि पचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्योके भवके अपान्तराल में रहते समय होता है । पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान आहारकसयतोके और वैक्रियशरीरको करनेवाले सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यंचोके होता है । २६ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिकसम्यग्दृष्टि या वेदकसम्यग्दृष्टि शरीररस्थ पचे"न्द्रिय तिर्यच और मनुष्योके होता है । २७ प्रकृतिक उदयस्थान आहारक सती र सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि वैकियशरीरको करनेवाले तिर्यच और मनुष्योके होता है । २८ और २९ प्रकृतिक उदवस्थान क्रमसे शरीरपर्याप्ति और प्राणापान पर्याप्त पर्याप्त हुए नायिकसम्यग्दृष्टि या वेदकसम्यग्दृष्टि तिर्यच और मनुष्योके तथा आहारकसयत, वैक्रियसयत और वैक्रियशरीरको करनेवाले सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि तियंच और मनुष्योके होते हैं । ३० प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यच और मनुष्योके तथा आहारकसयत और वैक्रिय सयतोके होता है । ३१ प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि पचेन्द्रिय तिर्यंचोके होता है । नरकगतिके योग्य २८ प्रकृतियोका बन्ध होते समय ३० प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि पचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्योके होता है । तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि पचेन्द्रिय तिर्यंचोके होता है। अब सत्त्वस्थानोकी अपेक्षासे विचार करने पर २८ प्रकृतियोका बन्ध करने वाले जीवोके सामान्यसे ९२,८९,८८ और ८६ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं । उसमें भी जिसके २१ प्रकृतियोंका उदय हो और देवगतिके योग्य २८ प्रकृतियोका वन्ध होता हो उसके ९२ ओर ८८ ये दो ही सत्त्वस्थान होते हैं, क्यो कि यहा तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता नहीं होती । यदि तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता मानी जाय तो देवगतिके योग्य २८ प्रकृतिक वन्धस्थान नहीं Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० . 'सप्ततिकांप्रकरण बनता । ५५ प्रकृनियोका उद्घ रहते हुए २८ प्रकृनियोका बंध श्राहारक्मयत और वैक्रियशरीरको करनेवाले तिचंच और मनुष्योके होता है.यत यहाँ भी सामान्यसे ९२और ८८ ये दो ही सत्त्वस्थान होते हैं। इनमेंने आहारक संयतोके आहारक चतुष्कका सत्त्व नियमसे होता है, अन. इनके ९२ प्रकृतियोंका ही नत्व होगा। शेष जीवोंके ग्राहारक चतुष्कका मत्त्व होगा और नहीं भी होगा अतः इनके दोनों सत्त्वस्थान बन जाते हैं । २६, २७, २८ और. २९ प्रकृतियोंके. उद्यमें भी ये दो ही सत्वम्यान होते हैं। ३० प्रकृतिक उदयस्थानमें देवगनि या नरकगतिके योग्य २८ प्रकृतियोंका वध करनेवाले जीवोंके सामान्यसे ९२, ८९,८८ और ८६ ये कार सत्त्वस्थान हाने हैं। उनमेंसे ९२ और ८८ सत्वन्यानोंका विचार तो पूर्ववन ही है किन्तु शेष दो सत्त्वन्यानोके विषयमें कुछ विशेषता है। जो निम्नप्रकार है--किसी एक मनुष्यने नरकायुका वध करनेके पश्चात् वेदकसन्यग्दृष्टि होकर तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध किया। अनन्तर मनुष्य पर्यायके अन्तमें वह सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिव्यावष्टि हुआ तब उसके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध न होकर. २८ प्रकृतियोंका ही वन्ध होता है और सत्तामें ८९ प्रकृतिया ही प्राप्त होती हैं। ऐसे जीवके आहारक चतुष्कका सत्त्व नियमसे नहीं होता इमलिये यहां ८९ प्रकृतियाँकी सत्ता कहीं है। तथा ९३ प्रकृतियोंमेंसे तीर्थकर, आहारक चतुष्क, देवनति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति. नरकात्यानुपूर्वी और वैक्रियचतुष्क इन १३ प्रकृतियोंके बिना ८० प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इस प्रकार ८० प्रकृतियोंकी सनावाला कोई एक जीव पंचेन्द्रिय तिचंच या मनुष्य होकर सब पर्याप्तियोंकी पूर्णताको प्राप्त हुआ। तदनन्तर यदि वह विशुद्ध परिणामवाला हुआ तो उसने देवगतिके योग्य २८ प्रकृतियोंका बन्ध किया और इस प्रकार देवद्विक और वैक्रिय Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानत्रिकके संवेध भंग १७१ चतुष्ककी सत्ता प्राप्त की, अत उसके २८ प्रकृतियोके वन्धके समय ८६ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है। और यदि वह जीव सक्लेश परिणामवाला हुआ तो उसके नरक्गतिके योग्य २८ प्रकृतियोका वन्ध होता है और इस प्रकार नरकद्विक और वैक्रिय चतुष्ककी सत्ता प्राप्त हो जानेके कारण भी ८६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इस प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थानमे २८ प्रकृतियोका बन्ध होते समय ९२, ८९, ८८ और ८६ ये चार सत्त्वस्थान होते है यह सिद्ध हुआ। नथा इकतीम प्रकृतिक उदयस्थानमें ९२, ८८ और ८६ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। यहाँ ८९ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं होता, क्योकि जिसके २८ प्रकृतियोका बन्ध और ३१ प्रकतियोका उदय है वह पचेन्द्रिय तिर्यंच ही होगा। किन्तु तिर्यचो के तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता नहीं है, क्योकि तीर्थकर प्रकृतिकी सत्तावाला मनुष्य तियेचो मे नही उत्पन्न होता। अत यहा ८९ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका निपेध किया है। अव २९ और ३० प्रकृतिक बन्धस्थानोमेंसे प्रत्येकमें ९ उदय स्थान ओर ७ सत्त्वस्थान होते हैं इसका क्रमश विचार करते हैं। २९ प्रकृतिक बन्धस्थानमें २१, २४, २५, २६ २७, २८, २९, ३० और ३१ ये नौ उदयस्थान होते है। इनमेंसे २१ प्रकृतियोका उदय तिर्यंच और मनुष्योके योग्य २९ प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले पर्याप्त और अपर्याप्त एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिथंच और मनुष्योके तथा देव और नारकियोके होता है। चौवीम प्रकृतियोका उदय पर्याप्त और अपर्याप्त एकेन्द्रियोके होता है । पञ्चीस प्रकृतियोका उदय पर्याप्त एकेन्द्रियोके देव और नारकियोके तथा वैक्रियशरीरको करनेवाले मियादृष्टि तिथंच और मनुष्योके होता है। २६ प्रकृतियोंका उदय पर्याप्तक एकेन्द्रियोके तथा पर्याप्त और अपर्याप्त विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पचेन्द्रिय और मनुष्योके होता है । २७ प्रकृतियोका उदय पर्याप्तक Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सप्ततिकाप्रकरण एकेन्द्रियोंके, देव और नारकियोके तथा वैक्रियशरीरको करनेवाले मिथ्यावष्टि नियंच और मनुष्योके होता है। २८ और २९ प्रकृतियोंका उदय विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्योके तथा वैक्रियशरीर को करनेवाले तिथंच और मनुष्योके तथा देव और नारकियोंके होता. है। ३० प्रकृतियोंका उदय विकलेन्द्रिय, नियंच पंचेन्द्रिय और मनुष्योंके तथा उद्योतका वेदन करनेवाले देवोके होता है। तथा ३२ प्रकृतियोंका उदय उद्योतका वेदन करनेवाले पर्याप्त विकलेन्द्रिय और तिचंच पचेन्द्रियोके होता है। तथा देवगतिके योग्य २९ प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्योके २१, २६, २८, २९ और ३० ये पाच उदयस्थान होते हैं। आहारक संयत और वैक्रियसंयतोंके २५, २७, २८, २९ और ३० ये पांच उदयन्धान होते हैं। वैक्रियशरीरको करने वाले असंयत और संयतासयत मनुष्योंके ३० के विना ४ उदयस्थान होते हैं। मनुष्योंमे सयतोंको छोड़कर यदि अन्य मनुष्य वैक्रियशरीरको करते हैं तो । उनके उद्योतका उदय नही होता, अन यहा ३० प्रकृतिक उदयस्थान का निषेध किया है। इस प्रकार २९ प्रकृतिक बन्धस्थानमे कितने उज्यस्थान होते हैं इसका विचार किया। ____ अब सत्त्वस्थानीका विचार करते हैं-२९ प्रकृतिक वन्धस्थान मे ९३, ९२.८९, ८८, ८६, ८० और ७८ चे सात सत्त्वस्थान होते हैं। यदि विकलेन्द्रिय और तिचंच पंचेन्द्रियके योग्य २९ प्रकृतियो का वध करनेवाले पर्याप्तक और अपर्याप्तक एकेन्द्रिय विक्लेद्रिय और तियंच पचन्द्रिय जीवोंके २१ प्रकृतियोका उदय होता है तो वहाँ ९२, ८८, ८६, ८० और ७८ चे पाच सत्वस्थान होते हैं। इसी प्रकार २४, २५ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानोमें उक्त पाच सत्त्वस्थान जानना चाहिये । तथा २७, २८, २९, ३० और ३१ इन उदयस्थानॉमें ७८ प्रकृतिक सच्चस्थानको -छोड़कर शेप चार Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानत्रिकके सवेधभंग १७३ सत्त्वस्थान होते हैं। इसका विचार जिस प्रकार २३ प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले जीवोके कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । मनुष्यगतिके योग्य २९ प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और तिवंच पचेन्द्रिय जीवोके तथा तिथंचगति और मनुष्यगनिके योग्य २९ प्रकृनियोका बन्ध करनेवाले मनुप्याके अपने अपने योग्य उज्यन्यानोके रहते हुए ७८ को छोड़ कर वे ही चार मत्त्वम्यान होते हैं। तियंच पचेन्द्रिय और मनुष्य गतिके योग्य २९ प्रकृनियो का बन्ध करनेवाले देव और नारकियोके अपने अपने उदयस्थानामें ९२ और ८८ ये दो ही सत्तास्थान होते हैं। किन्तु मनुष्यगतिके योग्य २९ प्रकृतियोंका वन्ध करने वाले मिथ्याष्टिनारकीके तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ताके रहते हुए अपने पांच उदयस्थानोमे एक ८९ प्रकृतिक सत्वन्यान ही होता है, क्योंकि जो तीर्थकर प्रकृतिमहित हो वह यदि आहारक चतुष्क रहित होगा तो ही उसका मिथ्यात्वमे जाना सम्भव है, क्योकि तीर्थकर और आहारक चतुष्क इन दोनोका एक माय सत्व मिथ्यावष्टि गुणस्थान में नहीं पाया जाता ऐसा नियम है। अत ९३ मेसे आहारक चतुधक्के निकाल देने पर उस नारकीके ८९ का ही सत्त्व प्राप्त होता है। (1) 'उमसंतिओन मिच्छो ।... - "तित्याहारा जुगव सव्व तित्यं ण मिच्छगादितिए। तस्सत्तकम्मियाणं तगुणठाण ण सभवदि ।-गो. क० गा० ३३३। ये ऊपर जो उद्धरण दिये हैं इनमें यह बतलाया है कि मिध्यादृष्टिके तीर्थकर और आहारक चतुष्क इनका एक साथ सत्त्व नहीं पाया जाता। तथापि गोम्मटसार कर्मकाण्डके सत्त्वस्यान अधिकारकी गाथा ३६५ और ३६६ से इस यातका भी पता चलता है कि मिथ्याष्टिके भी तीर्थकर और श्राहारक चतुष्ककी सत्ता एक साय पाई जा सकती है, ऐसा भी एक मत Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ सप्ततिकाप्रकरण तीर्थकर प्रकृतिके साथ देवगतिके योग्य २९ प्रकृतियोंका बंध करनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्यके तो २१ प्रकृतियोका उदय रहते हुए ९३ और ८९ ये दो सत्त्वस्थान होते हैं। इसीप्रकार २५,२६,२७,२८,२९ और ३० इन उदयम्थानोंमे भी ये ही दोसत्त्वस्थान जानना चाहिये। किन्तु आहारकसयतो के अपने योग्य उदयस्थानोके रहते हुए एक ९३ प्रकृतिक सत्वम्थान ही जानना चाहिये । इस प्रकार सामान्य से २९ प्रकृतिक बन्धस्थान में २१ प्रकृतियोके उदयमे ७, २४ प्रकृतियोंके उदयमें ५, पञ्चीप्त प्रतियोके उदयमें ७, छब्बीस प्रकृतियोके उदयमे ७, २७ प्रकृतियोके उदयमें ६, २८ प्रकृतियोंके उदयमे ६, २९ प्रकृतियांके उदयमें ६, ३० प्रकृतियोके उदयमें ६ और ३१ प्रकृतियोके उदयमें ४ सत्त्वस्थान होते हैं। जिनका कुल जोड़ ५४ होता है। ___ तथा जिस प्रकार तियंचगतिके योग्य २९ प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिथंचपचेन्द्रिय, मनुष्य, देव और नारकियोंके उदयस्थान और सत्वस्थानीका चिन्तन किया, उसी प्रकार उद्योतमहित तिथंचगतिके योग्य ३० प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले एकेन्द्रियादिकके उदयस्थान और सत्वस्थानोका चिन्तन करना चाहिये। उनमें ३० प्रकनियोको बाँधनेवाले देवके २१ प्रकृतिक उदयस्थानमें ९३ और ८९ ये दो सत्त्वस्थान होते हैं। तथा २१ प्रकृतियोंके उदयसे युक्त नारकीके ८९ यह एक ही सत्वस्थान होता है उसके ९३ प्रकृनिक मत्त्वम्थान नहीं होता। क्योंकि तीर्थकर और आहारक चतुष्क इनकी सत्तावाला जीव नारकियामे नहीं उत्पन्न होता । चूर्णिमे कहा भी है 'जम्म तित्थगराहारगाणि जुगवसति सो नेरइएमुन उववजइ।' __ अर्थात् जिसके तीर्थकर और आहारक चतुष्क इनका एक साथ सत्त्व है वह चारकियोमें नहीं उत्पन्न होता।' Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धस्थानत्रिकके संवेधभंग १७५ इसी प्रकार २५, २७, २८, २९ और ३० इन उदयस्थानोमें भी चिन्तन कर लेना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि नारकी जीवके ३० प्रकृतिक उदयस्थान नहीं है । क्योकि ३० प्रकृतिक उद यस्थान उद्योतके सद्भावमे प्राप्त होता है परन्तु नारकीके उद्योतका उदय नहीं पाया जाता इस प्रकार सामान्यसे ३० प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवोके २१ प्रकृतियोके उदय में ७, २४ प्रकृतियो के उदयमें ५, २५ प्रकृतियोके उदयमें ७, २६ प्रकृतियोंके उदयमें ५, २७ प्रकतियोके उदयमें ६, २८ प्रकृतियोंके उदयमें ६, २९ प्रकृतियो के उयमे ६, ३० प्रकृतियोंके उदयमे ६ और ३१ प्रकृतियांके उदयमे ४ सत्त्वस्थान होते हैं । जिनका जोड़ ५२ होता है । अत्र ३१ प्रकृतिक बन्धस्थानमे उदयस्थान और सत्तास्थानोका विचार करते हैं। बात यह है कि तीर्थकर और आहारक सहित देवगतिके योग्य ३१ प्रकृतियो का बन्ध अप्रमत्तसयत और अपूर्वकरण इन दो गुणस्थानों में ही प्राप्त होता है परन्तु इनके न तो विक्रिया ही होती है और न आहारक समुद्धात ही होता है इसलिये यहाँ २५ प्रकृतिक आदि उदयस्थान न होकर एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान ही होता है। चूँकि इनके आहारक और तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध होता है, इसलिये यहाँ एक ९३ प्रकृतिक ही स्थान होता है । इस प्रकार ३१ प्रकृतिक व धस्थानमें एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान और एक ९३ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है यह सिद्ध हुआ । अब एक प्रकृतिक वन्धस्थानमे उदयस्थान और सत्त्वस्थान कितने होते हैं इसका विचार करते हैं। एक प्रकृतिक वन्धस्थानमे एक यश कीर्ति प्रकृतिका ही बन्ध होता है जो अपूर्व करके सातवे भागसे लेकर दसवे गुणस्थान तक होता है। यह जीव अत्यन्त विशुद्ध होनेके कारण वैक्रिय और आहारक समुद्घातको Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ सप्ततिकाप्रकरण नहीं करता, इसलिये इसके २५ आदि उदयस्थान नहीं होते, किन्तु एक ३० प्रकृतिक ही उदयस्थान होता है। तथा इसके ९३, ९२, ८९, ८८, ८०,७९, ७६ और ७५ ये आठ सत्त्वस्थान पाये जाते हैं। इनमेसे पहलेके चार सत्त्वस्थान उपशमश्रेणीकी अपेक्षा और अन्तिम चार सत्त्वस्थान आपकश्रेणी की अपेक्षा कहे हैं। किन्तु जबतक अनिवृत्तिकरणके प्रथम भागमें स्थावर, सूक्ष्म, तिर्यंचद्विक, नरकद्विक, एकेन्द्रियादि चार जाति, साधारण, आतप और उद्योत इन १३ प्रकृतियोका क्षय नहीं होता तवतक ९३ आदि प्रारम्भके ४ सत्त्वस्थान क्षपकश्रेणीमे भी पाये जाते है। इस प्रकार जहाँ एक प्रकृतिक वन्धस्थान होता है, वहाँ एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान और ९३, ९२, ८९, ८८, ८०, ७९, ७६ और ७५ ये आठ सत्त्वस्थान होते हैं यह सिद्ध हुआ। अव वन्धके अभावमे उदयस्थान और सत्त्वस्थान कितने होते हैं इसका विचार करते हैं-नामकर्मका वन्ध दसवे गुणस्थान तक होता है आगेके चार गुणस्थानोमे नही, किन्तु उटय और सत्त्व १४ वे गुणस्थान तक होता है फिर भी उसमे विविध दशाओ और जीवोकी अपेक्षा अनेक उदयस्थान और सत्त्वथान पाये जाते हैं। यथा___ केवलीको केवल समुद्धातमे ८ समय लगते हैं । इनमेसे तीसरे, चौथे और पाँचवे समय मे कार्मणकाय योग होता है, जिसमें पंचेन्द्रियजाति, वसत्रिक, सुभग, आदेय, यश कीर्ति, मनुष्यगति और ध्रुवोदय १२ प्रकृतियाँ इस प्रकार कुल मिलाकर २० प्रकृतिक उदयस्थान होता है और तीर्थकर विना ७९ तथा तीर्थकर और आहारक चतुष्क इन पाँचके विना ७५ ये दो सत्त्वस्थान होते है। अव यदि इस अवस्थामें विद्यमान तीर्थकर हुए तो उनके एक तीर्थकर प्रकृतिका भी उदय और सत्त्व होनसे २१ प्रकृतिक उदयस्थान Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्धस्थानत्रिकके संवेधभंग १७७ और ८० तथा ७६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होंगे। तथा जव केवली ममुद्रातके समय औदारिक मिश्रकाययोगमें रहते हैं तव उनके औदारिकद्विक, वज्रर्पभनाराचसहनन छह सस्थानोमेंसे कोई एक संस्थान, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियोंको पूर्वोक्त २० प्रकृतियोमें मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। तथा ७९ और ७५ ये दो मत्त्वस्थान होते हैं । अव यदि तीर्थकर औदारिक मिश्रकाययोगमे हुए तो उनके तीर्थकर प्रकृतिके और मिल जानेसे २७ प्रकृतिक उदयस्थान तथा ८० और ७६ ये दो सत्त्वस्थान होते है। तथा इन २६ प्रकृतियोमें पराघात, उच्चास, शुभ और अशुभ विहायोगतिमेंसे कोई एक तथा दो स्वरोमें से कोई एक इन चार प्रकृतियोंके मिला देने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है जो औदारिक काययोगमें विद्यमान सामान्य केवली तथा ग्यारहवें और १२ वें गुणस्थानमे प्राप्त होता है। इस हिसावसे ३० प्रकृतिक उदयस्थानमें ९३, ९२, ८९, ८८, ७९ और ७५ ये छह सत्त्व. स्थान होते है । इनमसे प्रारम्भके ४ सत्त्वस्थान उपशान्त मोह गुण स्थानको अपेक्षा और अन्तके दो सत्त्वम्थान क्षोणमोह और सयोगिकेवलीकी अपेक्षा कहे है। अब यदि इस ३० प्रकृतिक उदयस्थान मेंसे स्वर प्रकृतिको निकाल दे और तीर्थकर प्रकृतिको मिला दे तो भी उक्त उदयस्थान प्राप्त होता है जो तीर्थकर केवलीके वचन योगके निरोध करने पर होता है। किन्तु इसमे सत्त्वस्थान ८० और ७६ ये दो होते है क्योकि सामान्य केवलीके जो ७९ और ७५ सत्त्वस्थान वह आये हैं उनमे तीर्थकर प्रकृतिके मिल जानेसे ८० और ७६ ही प्राप्त हीते हैं। तथा सामान्य केवलीके जो ३० प्रकृतिक उदयस्थान वतला आये है उसमे तीर्थकर प्रकृतिके मिलाने पर तीर्थकर केवलीके ३१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है और उसी प्रकार ८० और ७६ ये दो Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ सप्ततिकाप्रकरण सत्त्वस्थान होते हैं, क्योकि सामान्यकेवलीके जो ७५ और ७९ ये दो सत्त्वस्थान बतलाये है उनमें तीर्थकर प्रकृति और मिला दी गई है। सामान्य केवलीके जो ३० प्रकृतिक उदयस्थान वतला आये है उसमेसे वचन योगके निरोध करने पर स्वर प्रकृति निकल जाती है अत २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। या तीर्थकर केवलीके जो ३० प्रकृतिक उदयस्थान बतलाया है उसमेसे श्वासोच्छासके निरोध करने पर उच्छास प्रकृतिके निकल जानेसे २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इनमेसे पहला उदयस्थान सामान्यकेवलीके और दूसरा उदयस्थान तीर्थकर केवलीके होता है, अतः प्रथम २९ प्रकृतिक उदयस्थानमे ७९ और ७५ तथा द्वितीय २९ प्रकृतिक उदयस्थानमे ८० और ७६ ये सत्त्वस्थान प्राप्त होते है। सामान्यकेवलीके वचनयोगके निरोध करने पर २९ प्रकृतिक उदयस्थान कह आये हैं उसमेंसे श्वासोच्छासके निरोध करने पर उच्छ्वास प्रकृतिके कम हो जानेसे २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह सामान्यकेवली के होता है अत. यहाँ ७९ और ७५ ये दो सत्त्वस्थान होते हैं। तथा तीर्थकर केवलीके अयोगिकेवली गुणस्थानमे ९प्रकृतिक उदयस्थान होता है और उपान्त्य समय तक ८० और ७६ तथा अन्तिम समयमे ९ प्रकृतिक ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। किन्तु सामान्य केवलीकी अपेक्षा अयोगिकेवली गुणस्थानमे ८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है और उपान्य समय तक ७९ और ७५ तथा अन्तिम समयमें ८ प्रकृतिक ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। इस प्रकार वन्धके अभावमे २०,२१,२६,२७,२८,२९,३०,३१,९, और ८ ये दस उदयस्थान और ९३ ९२,८९,८८,८०,७९७६, ७५, ९और ८ ये १० सत्त्वस्थान होते हैं यह सिद्ध हुआ। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्ध गुण० स्थान १ मि० २३ १ २५. २६ वन्धस्थानन्त्रिकके सवेधभग उक्त विशेषताओं का ज्ञापक कोष्ठक [ २३ ] भग उदयस्थान भग ४ २५ १६ २१ २४ २५ २६ २७ २८ २६ ३० ३१ २१ २४ २५ २६ ११८२ १७६४ २६०६ ११६४ ४० ३२ । ६२,८८ ८६ ८०, ७८ ११ २३ ६०० २२ ११ ३१ ६०० सत्ता स्थान ४० - ३० ११६८ ६२ ८८,८६,८० १७८० ६२ ८८,८६.८० ११ ३१ ६०० ३० २७ २८ २६ ३० २६१४ १२,८८,८६,८० ३÷ ११६४ | ९२,८८,८६,८० २१ २४ २५ २६ २७ २८ २६ ३० ३१ - ५ १२,८८,२६,८०,७८ - ५ १२,८८,८६,८०,७८–५ १२,८८,८६,८०,७८- ५ १२,८८,८६,८० ४ १२,८८,८६,८० ૪ ४ ६२,०८,८६,८० ६२,८८ ८६,८० २,८८८६,८० ६०,८८,८६,८०, ७८ - ५. ५. २,८८,८६,८०, ७८ ε२,८८,८६,८०,७८ - ५ ६२,८८,८६८०, ७८-५ ९२,८८,८६,८० ११६८ १७८० २९१४ ११६४ १७९ ૪ ४ ४ * ४ ६२८८,८६,८०, ७८६२,८८,८६,८०७८-५ ६२ ८८,८६,८०,७८५ ε२,८८,८६ ८०,७८—५ २,८८,८६,८० ९२,८८,८६ ८० ६२,८८,८६,८० ६२,८८,८६,८० ६२ ८८ ८६,८० ૪ ४ ४ ४ ४ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण - बन्ध गुण. स्थाना भग उदयस्थान भग सत्ता स्थान १६ १७ ५७६ - ९२,८८ ६२,८८ ६.८८ ६२,८८ ११७६ ६२,८८ १७५५ १२८८ २८६० ६२,८६,८८,८६ ११५२ / ९०,८८,८६ radaarum er mm mse ه ه ه په م له سه سد [ - - १ से २६६२४, २१ । ४१ ६३,६२,८९,८८,०६,८०,७८७) ११ ९२,०८,०६ ८०,७८ ३३६३,९०,८६,८८,८६,८०,७८७ ६.० ६२,९२,८६,८८,८६,८०,७८७ ३२६३,६२ ८६,८०,८६,८०६ १००२ ६३,९२,८६,८८,८६,८० ६ | १७८४६३,९२,८९,८८,८६,८० २६१६६३,६२,८६,८८,८६,८० ११६४ ६२,६८,८६८० १,२,४ ३०४६४१ २१ ४१६३,९२,८९,५८,८६,८०,७८७ ११ ९२,८८,८६,८०,७८ ३२ ६३,६२,८६,८८,८६,८०,७८७ ६०० ६२,८८,८६,८०,७८ ३१ ५३,९२,८९,८८,८६,८०६ | ११६९९३ ६२,८९,८८,८६,.० ६) २९ | १७८१ ९३,९२,८६,८८,८६,८० ३० | २९१४ ६३,६२,८९,८८,८६,८० । ११६४ ६२.८८,८६,८०. २५ २६ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण० ७ च ८३१ ८, ६, १० ११,१२ ११३६ ૧૪ बन्ध स्थान ११,१२ १३ व १४ १ 40 ० ० भग उदयस्थान भग वन्धस्थानत्रिक के संवैधभंग १ ३० १ ० ३० २० २१ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ Ε ८ १४४ ९३ ७२ १ १ ૬ १ १२ १३ m ७३ ७६,७५ १८०, ७६ १७६,७५ सत्ता स्थाग ६३, ९२,८९,८८८०, ७९, ७६, ७५ १८१ ७५ १ १८०, ७६ १८०,७६,९ १ १ ७९,७५,८ १८०, ७६ १७९, ७५ ८०,७२,७६,७५ ९३,९२,८९,८८,८०,७९,७६, 2 ३ १३६४५ ४६७२४ २८४ इस प्रकार आठो उत्तर प्रकृतियोके बन्धस्थान उदयस्थान और सत्त्वस्थानीका तथा उनके परस्पर संवैध भगोंका कथन समाप्त हुआ । उसी क्रमसे इनके जीवस्थान और गुणस्थानोकी अपेक्षा स्वामी का कथन करते हैं तिविगप्पपगठाणेहिं जीवगुणसन्निएस ठाणेसु । भंगा पउंजियव्त्रा जत्थ जहा संभवो भव ||३३|| अर्थ — प्रकृतिस्थान वन्ध, उदय और सत्त्वके भेदसे तीन Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सप्ततिकाप्रकरण प्रकारके हैं अतः इनकी अपेक्षा जीवस्थान और गुणस्थानोम जहाँ जितन सम्भव हो वहाँ उतने भंग घटित करने चाहिये। विशेपार्थ-अभी तक ग्रन्थकारने मूल और उत्तर प्रकृतियो के बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्वस्थान तथा उनके सवेध भग बतलाये है। साथ ही मूलप्रकृतियोंके इन स्थानो और उनके सवेध भगोंके जीवन्थान और गुणस्थानो की अपेक्षा स्वमीवा निर्देश भी किया। किन्तु अभी तक उत्तर प्रकृतियोंके बन्धस्थान, उदय स्थान तथा इनके परस्पर सवेध भगांके स्वामीका निर्देश नहीं किया है जिसका किया जाना जरूरी है। इसी कमीको ध्यानमे रखकर ग्रन्थकारने इस गाथाद्वारा स्वामी के निर्देश करने की प्रतिज्ञा की है। गाथाका आशय है कि तीन प्रकारके प्रकृतिस्थानोके सव भंग जीवस्थान और गुणस्थानामे घटित करके बतलाये जायगे। इससे प्रतीत होता है कि ग्रन्यकारको जीवस्थानो और गुणस्थानोंमें ही भगोका कयन करना इष्ट है मार्गरणास्थानोमें नहीं। यही सवव है, जिससे मलयगिरि श्राचार्यने प्रथम गाथामें आये हुए 'सिद्धपद' का दूसरा अर्थ जीवस्थान और गुणस्थान भी किया है। ११.जीवस्थानों में संवेधभंग अब पहले जीवस्थानीमें बानावरण और अन्तराब कर्भके भंग बतलाते हैं तेरसमु जीवसंखेवएसु नाणंतराय तिविगप्पो । एक्कम्मि तिदुविगप्पो करणं पइ एत्थ अविगप्पो ॥३४॥ अर्थ-प्रारम्भके तेरह जीवस्थानोंमें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके तीन विकल्प होते हैं और पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय इस एक जीवस्थानमें तीन और दो विकल्प होते हैं। तथा द्रव्य मनकी अपेक्षा इसके कोई विकल्प नहीं है । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमा सोमें भंगविचार १८३ विशेषार्थ -- यह तो पहले ही बतला आये हैं कि ज्ञानावरण और अन्तरायकी सब उत्तर प्रकृतियां ध्रुववन्धिनी, ध्रुवोदय और ध्रुवसत्ताक हैं। इन दोनों कर्मोकी सब उत्तर प्रकृतियो का अपने अपने विच्छेदके अन्तिम समय तक वन्ध, उदय और सत्य निरन्तर होता रहता है । श्रत प्रारम्भके तेरह जीवस्थानोंमे ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मकी उत्तर प्रकृतियोके पाँच प्रकृतिक बन्ध, पाँच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्व इन तीन विकल्परूप एक भंग प्राप्त होता है क्यो कि इन जीवम्थानो में से किसी जीवस्थानमे इनके बन्ध उदय और सत्त्वका विच्छेद नहीं पाया जाता । तथा अन्तिम पर्याप्त संज्ञी पचेन्द्रिय जीवस्थानमे ज्ञानावरण और अन्तरायका बन्धविच्छेद पहले होता है तदनन्तर उदय और सत्त्व विच्छेद होता है । अत यहाँ पाँच प्रकृतिक वन्ध, पॉच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्त्व इस प्रकार तीन विकल्परूप एक भग होता है । तदनन्तर पाँच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्व इस प्रकार दो विकल्परूप एक भाग होता है । किन्तु केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर इस जीवके भावमन तो रहता नहीं फिर भी द्रव्यमन पाया जाता है और इस अपेक्षा से उसे भी पर्याप्त संज्ञी पचेन्द्रिय कहते है । चूर्णिने भी कहा है brot 'मनकरण केवलियो वि श्रत्थि तेण सन्नियो बुच्चंति । मोविएगा पहुच ते सन्निणो न हवति ।" अर्थात् 'मन नामका करण केवलोके भी है इसलिये वे संज्ञी कहे जाते है किन्तु वे मानसिक ज्ञानकी अपेक्षा संज्ञी नहीं होते ।' इस प्रकार सयोगी और अयोगी जिनके पर्याप्त सज्ञी पंचेन्द्रिय सिद्ध हो जाने पर उनके तीन विकल्परूप और दो विकल्परूप भंग न प्राप्त होवें इस वातको ध्यान में रखकर गाथामें बतलाया है कि केवल द्रव्यमनकी अपेक्षा जो जीव पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ सप्ततिकाप्रकरण . कहलाते हैं उनके ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके वन्ध, उदय और सत्त्व की अपेक्षा कोई भंग नहीं है, क्यो कि इन कर्मों की बन्ध, उदय और सत्त्वव्युछित्ति केवली होनेसे पहले हो जाती है । गाथामे जीवस्थानके लिये जो 'जीव सक्षेप' पद आया है सो जिन अपर्याप्त एकेन्द्रियत्व आदि धर्मों के द्वारा जीव संक्षिप्त अर्थात् संगृहीत किये जाते है उनकी जीवसंक्षेप संज्ञा है, इस प्रकार इस जीवसंक्षेप पद को ग्रन्थकारने जीवस्थान पढके अर्थमे ही स्वीकार किया है ऐसा समझना चाहिये। तथा गाथामें जो करण पद आया है सो उसका अर्थ प्रकृतमें द्रव्यमन लेना चाहिये, क्योकि केवल द्रव्यमनके रहने पर ही ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मका कोई विकल्प नही पाया जाता। अब जीवस्थानोमे दर्शनावरण कर्मके भंग बतलाते हैंतेरे नव चउ पणगं नव संतेगम्मि भंगमेकारा । अर्थ-तेरह जीवस्थानोमे दर्शनावरण कर्मके नौ प्रकृतिक वन्ध, चार या पॉच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व ये दो भंग होते हैं तथा पर्याप्त संज्ञी पचेन्द्रिय इस एक जीवस्थानमें ग्यारह भंग होते हैं। विशेषार्थ-प्रारम्भके तेरह जीवस्थानोमे दर्शनावरण कर्मकी किसी भी उत्तर प्रकृतिका न तो बन्धविच्छेद होता है, न उदयविच्छेद होता है और न सत्त्वविच्छेद होता है, पाँच निद्राओमें से एक कालमें किसी एकका उदय होता भी है और नही होता, अत. गाथामे इन जीवस्थानोमें ९ प्रकृतिक बन्ध, ४ प्रकृतिक उदय और ९ प्रकृतिक सत्त्व तथा ९ प्रकृतिक बन्ध ५ प्रकृतिक उदय और ९ प्रकृतिक सत्त्व ये दो भंग बतलाये हैं। किन्तु पर्याप्त संज्ञी पचेन्द्रिय इस जीवस्थानमे गुणस्थान क्रमसे दर्शनावरण की नौ प्रकृतियो का बन्ध, उदय और सत्त्व, तथा इनकी व्युच्छित्ति यह Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासामें भंगविचार सब कुछ सन्भव है जिससे इस जीवस्थानमें दर्शनावरण कर्मकी उत्तर प्रकृतियों के पन्ध उदय और सत्त्वकी अपेक्षा ११ भग प्राप्त होते हैं। यही मवव है कि गाथामें इस जीवस्थानमें दर्शनावरण कर्मके ११ भगोकी सूचना की है। किन्तु समान्यसे सवेध चिन्ता के समय (पृष्ट ३२ मे ३६ तक ) इन ११ भगोंका विचार कर आये हैं, अत. यहां उनका पुन खुलासा नहीं किया जाता है। स्वाध्याय प्रेमियोको वहाँमे जान लेना चाहिये। अब जीवन्थानोमे वेदनीय आयु और गोत्र कर्मके भग बतलाते हैं - वेयणियाउगोए विभज मोहं परं चोच्छं॥३५॥ अर्थ-वेदनीय. श्रायु और गोत्र कर्मके जो वन्धादि स्थान हैं उनका जीवन्यानोंमे विभाग करके तदनन्तर मोहनीय कर्मका व्याख्यान करगे। विशेपार्थ--उक्त गाथाके तृतीय चरणमें वेदनीय, आयु और गोत्रके विभागका निर्देशमात्र करके चौथे चरणमे मोहनीयके कहनेकी प्रतिना की गई है। ग्रन्यकर्ताने स्वय उक्त तीन कर्मो के भगोका निर्देश नहीं किया है और न यह हा बतलाया है कि किस जीवन्यानमें कितने भग होते है। किन्तु इन दोनो वानोका विवेचन करना जरूरी है, श्रत अन्य आधारसे इसका विवेचन किया जाता है। भाप्यमे एक गाथा पाई है जिसमें वेदनीय और गोत्रके मगीका कथन १४ जीवन्थानोकी अपेना किया है अत यहाँ वह गाथा उद्धृन की जाती है 'पन्जत्तगतनियरे अट्ठ चटक च वेयणियभगा। सत्तग तिग च गोए पत्तेय जीवठाणेसु ।' अर्थात् -'पयांप्न सक्षी पचेन्द्रिय जीवस्थानमे वेदनीय कर्मके आठ भग और शेप तेरह जीवम्थानोमे चार भग होते हैं। तथा Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ सप्ततिकाप्रकरण गोत्र कर्मके पर्याप्त संजी पचेन्द्रिय जीवस्थानमे ७ भग और शेष तेरह जीवस्थानोमेंसे प्रत्येकमें तीन भंग होते हैं।' इसका यह तात्पर्य है कि पर्याप्त संनी पंचेन्द्रिय जीवस्थानमे (१) असाताका बन्ध, असाताका उदय और साता असाता दोनोका सत्त्व (२) असाताका बन्ध साताका उदय और साता असाता दोनोका सत्व(३) सताका बन्ध, असाताका उदय और साता असाता दोनोका सत्त्व (४) साताका बन्ध, साताका उदय और साता असाना दोनोका सत्त्व (५) असाताका उदय और साता असाता दोनोका सत्त्व (६) साताका उदय और साता असाता दोनोका सत्व (७) असाता का उदय और असाताका सत्व तथा (८) साताका उदय और साताका सत्त्व ये आठ भग होते हैं क्यो कि इस जीवसमासमें १४ गुणस्थान सम्भव हैं अतः ये सव भंग बन जाते हैं। किन्तु प्रारम्भके १३ जीवस्थानोंमेसे प्रत्येकमें इन । आठ भगोमेसे प्रारम्भके चार भंग ही प्राप्त होते हैं क्योकि इनमें साता और असाता इन दोनोंका यथासम्भव बन्ध, उदय और सत्त्व सर्वदा सम्भव है। ___ तथा पर्याप्त सजी पचेन्द्रिय जीवस्थानमे (१) नीचका बन्ध, नीच का उदय और नीचका सत्त्व (२) नीचका बन्ध, नीचका उदय और उच्च नीच इन दोनोका सत्त्व (३) नीचका बन्ध, उच्चका उदय और उच्च नीच इन दोनोका सत्त्व (४) उच्चका बन्ध, नीचका उदय और उच्च नीच इन दोनोका सत्त्व (५) उच्चका बन्ध, उच्चका उदय और उच्च नीचका सत्त्व (६) उच्चका उदय और उच्च नीच इन दोनोंका सत्त्व तथा (७) उच्चका उदय और उच्नका सत्त्व ये सात भंग प्राप्त होते हैं। इनमें से पहला भंग ऐसे संज्ञियो के होता है जो अग्निकायिक और वायुकायिक. पर्याय से आकर संज्ञियो में उत्पन्न होते हैं, Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासोमे मंगविचार १८७ क्योकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवो के उच्च गोत्रकी उद्वलना देखी जाती है। फिर भी यह भंग संजी जीवोके कुछ काल तक ही पाया जाता है। सनी पचेन्द्रिय जीवस्थानमे दूसरा और तीसरा भग प्रारम्भ के दो गुणस्थानों की अपेक्षा से कहा है । चौथा भंग प्रारम्भ के पाच गुणस्थानो की अपेक्षासे कहा है। पाचवां भग प्रारम्भके १० गुणस्थानो की अपेक्षासे कहा है। छठा भग उपशान्त मोहसे लेकर अयोगिकेवली के उपान्त्य समय तक होता है, अत इस अपेना से कहा है। तथा सातवां भंग अयोगिकेवली गुणन्थानके अन्तिम समय की अपेक्षासे कहा है। किन्तु गेप तेरह जीवस्थानो में उक्त सात भगों में से पहला, दूसरा और चौथा ये तीन भग हो प्राप्त होते हैं। इनमे से पहला भग अग्निायिक और वायुमायिक जीवोमें उच्च गोत्रकी उद्वलना के अनन्तर सर्वदा होता है किन्तु शेपमे से उन्हीं के कुछ काल तक होता है जो अग्निकायिक और वायुकायिक पर्याय से आकर अन्य पृथिवीकायिक पाढिमें उत्पन्न हुए हैं। तथा इन तेरह जीव. स्थानोमें एक नीच गोत्रका ही उदय होता है किन्तु वन्ध दोनोका पाया जाता है इसलिये इनमें दूसरा और चौथा भिंग भी वन जाता है। इस प्रकार वेदनीय और गोत्रके क्रिम जीवस्थानमें कितने भग सम्भव हैं इसका विवेचन किया । अत्र जीवस्थानो मे आयुकर्मके भग बतलानेके लिये भाष्य की गाथा उद्धृत की जाती है 'पन्नत्तापन्नत्तग ममणे पन्नत्त अयण सेसेसु । अठ्ठावीस दसगं नवग पणगं च आउस्स ।। अर्थात् 'पर्याप्त संत्री पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त संजी पचेन्द्रिय, पर्याप्त असन्नी पचेन्द्रिय और शेप ग्यारह जीवस्थानों में आयु कर्मके क्रमश. २८,१०,९और ५ भंग होते हैं।' आशय यह है कि पहले जो नारकी के ५, तिर्यचके ६ मनुष्य Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ सप्ततिकाप्रकरण દ के और देवके ५ भंग बनला आये हैं तो कुल मिलाकर २८ भंग होते हैं वे ही यहां पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियके २८ भंग कहे गये हैं। तथा संत्री पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीव मनुष्य और तिर्यच ही होते हैं, क्योंकि देव और नारकियोके अपर्याप्तक नाम कर्मका उदय नहीं होता । तथा इनके पर भवसम्वन्धी मनुष्यायु और निर्यचायुका ही वन्ध होता है, अत इनके मनुष्य निकी अपेक्षा ५ और तिथेच गतिकी अपेक्षा ५ इस प्रकार कुल १० भग होते हैं । यथा - आयुबन्ध के पहले तिर्यचायुका उदय और तिर्यचायुका सत्त्व यह एक भंग होता है । आयु बन्धके समय तिर्यचायुक्का वन्ध, तियंचायुका उदय और तिर्यच-तिर्यचायुका सत्त्व तथा मनुष्यायुका वन्ध, तिर्यचायुका उदय और मनुष्यतिचायुका सत्त्व ये दो भंग होते है । और बन्धकी उपरति होने पर तिर्थचायुका उदय और तिर्यच तिर्यचायुका सत्त्व तथा तिर्यचायुका उदय और मनुष्य-तिर्यंचायुका सन्त्र चे दो भंग होते हैं । कुल मिलाकर ये पांच भंग हुए। इसी प्रकार मनुष्य गतिकी अपेक्षा पांच भंग जानने चाहिये । इस प्रकार संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवस्थान में दस भंग हुए । तथा पर्याप्तक श्रसंज्ञी पचेन्द्रिय जीव दिर्यच ही होता हैं और इसके चारों आयुओं का बन्ध सम्भव है, त' यहां आयुके वे ही नौ भंग होते हैं जो सामान्य तिर्यत्रों के बतलाये हैं। इस प्रकार तीन जीवस्थानों में से किसके कितने भंग होते हैं यह तो बतला दिया । व शेष रहे ग्यारह जीवस्थान सो उनमें से प्रत्येक के पांच पांच भंग होते हैं, क्योंकि शेष जीवस्थानों के जीव निर्यच ही होते हैं और उनके देवायु तथा नरकायुका वन्ध नहीं होता, अतः वहां वन्धकाल से पूर्वका एक भंग, वन्धकाल के समय के दो भंग और उपरत वन्धकाल के दो भंग इस प्रकार कुल पांच भंग ही होते हैं यह सिद्ध हुआ । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमन • जीवस्थान एके० सू० अ० २ | एके० सू०प० ३ ! एके० वा० भ० एके० वा० १० १ ४ ५. ૬ ७ ८ Ε १० ११ १२ १३ जीवसमासोमें भंगविचार जीवस्थानोमें ६ कर्मोंके भगोका ज्ञापक कोष्ठक [ २४ ] १४ • o प० aso १० पृ० तेड० श्र० • तेह० प० चउरि० अ० चरि० १० अस० प० श्र० अस० पं० प० स० प० अ० सं० प० प० ज्ञाना० दर्श• वेद० श्रायु० | गोत्र अन्त १ १ १ १ 3 १ २ २ २ २ २ ११ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ 6 ४ ४ ८ ५ ૩ 5 ५. ५ ५. ५. น ५. ५. १० ε १० २८ m ३ ३ ર ३ ३ ३ ३ ૩ १८६ ७ ง १ १ १ १ १ १ १ 9 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० सप्ततिकाप्रकरण अव जीवस्थानो में मोहनीय कर्मके भंग वतलाते हैंअहसु पंचसु एगे एग दुगं दस य मोहबन्धगए । तिग चउ नव उदयगए तिग तिग पन्नरस संतम्मि ॥३॥ अर्थ-पाठ, पाच और एक जीवस्थानमें मोहनीयके क्रमसे एक, दो और दस बन्धस्थान; तीन, चार और नी उदयस्थान तथा तीन, तीन और पन्द्रह सत्त्वस्थान होते हैं । विशेपार्थ-इस गाथा मे कितने जीवस्थानोमे मोहनीयके कितने कन्धस्थान कितने उदयस्थान और कितने सत्त्वस्थान होते हैं इस प्रकार संख्याका निर्देशमात्र किया है परन्तु वे, कौन कौन होते हैं यह नहीं बतलाया है। आगे इसीका खुलासा करते हैंपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्तक वादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्तक दो इन्द्रिय, अपर्याप्तक तीन इन्द्रिय, अपर्याप्तक चार इन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञी पचेन्द्रिय और अपर्याप्त संजी पंचेन्द्रिय ये आठ जीवस्थान ऐसे हैं जिनमे एक मिथ्याघष्टि गुणस्थान ही होता है, अतः इनमें एक २२ प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। यहां तीन वेद और दो युगलो की अपेक्षा ६ भंग होते है जिनका कथन पहले किया ही है। तथा इन आठों जीवस्थानोमे ८, ६ और १० प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं। यद्यपि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कमे से किसी एकके उदयके विना ७ प्रकृतिक उदयस्थान भी होता है पर वह इन जीवस्थानोमें नहीं पाया जाता, क्योकि जो जीव उपशम श्रेणीसे Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ जीवसमासोंमें भंगविचार च्युत होकर क्रमशः मिथ्यादृष्टि होता है उसीके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें एक प्रावलि कालतक मिथ्यात्वका उदय नहीं होता। परन्तु क्त जीवस्थानवाले जीव तो उपशम श्रेणी पर चढ़ते नहीं श्रत. इनके मात प्रकृतिक उठयस्थान सम्भव नहीं। यहा ८ प्रकृतिक उदयस्थानमें ८ भग होते है, क्योकि इन नीवस्थानोंमे एक नपुनक वेदका ही उदय होता है पुरुपवेद और बीवेदका नहीं, अतः यहां वेदका विश्ल्प नो सम्भव नहीं। इस स्थानमे विकल्पवाली प्रकृतिया अब रही कोधादिक चार और दो युगल सो इनके विकल्पसे पाठ भग प्राप्त होते है। ९ प्रकृतिक उदयस्थान भय और जुगुप्सा के विकल्पसे दो प्रकारका है अत यहाँ आठ को दो से गुणित कर देंन पर मोलह भग होते हैं। तथा १० प्रकृनिक उदयस्थान एक ही प्रकारका है अत. यहा पूर्वोक्त आठ भग ही होते हैं। इस प्रकार तीन उदयम्थानोके कुल ३२ भग हुए जो प्रत्येक जीवस्थानमे अलग अलग प्राप्त होते हैं। तथा इन जीवस्थानीमें से प्रत्येकम २८, २७ और २६ प्रकृतिक ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं, क्योकि मिथ्याष्टि गुणस्थानमै इन तीन के सिवा और सत्वम्थान नहीं पाये जाते। तथा पर्याप्तक वादर एकेन्द्रिय, पर्याप्तक दो इन्द्रिय, पर्याप्तक तीन इन्द्रिय, पर्याप्तक चार इन्द्रिय और पर्याप्तक असज्ञी पचेन्द्रिय इन पांच जीवस्थानो मे २२ और २१ प्रकृतिक दो वन्ध Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सप्तविनाप्रकरण न्यान; ७,८.६ और १० प्रकृतिक चार उदयन्यान और ०८,२७ और २६प्रकृतिम तीन सत्वन्यान होते हैं। इनके निट्यावष्टि गुणस्थान होता है इस लिये तो इनके २२ प्रकृतिक वन्धम्यान रहा। तथा नास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव मरकर इन जीवन्थानाम भी उत्पन्न होने हैं इमलिये इनले २१ प्रकृतिक बन्धस्थान कहा । इस प्रकार इन पांत्र जीवन्यानोंमें २२ और २१ ये बा बन्यन्यान होते हैं यह सिद्ध हुआ। इनमें से २२ प्रकृतिक न्यन्यन ६ और २१ प्रकृतिक मन्वन्यानक? भंग होते हैं जिनका खुलासा पहले किया ही है। नया इन जीवस्थानोंमें ऊपर जो चार उदयस्थान बतलाये है सो उनमें से २१ प्रऋतिक न्यन्यानमे ५, और ९ तथा २२ ऋतिक न्यथानमें ८, ९ और १० ये तीन तीन उदयम्बान होते हैं। इन जीवन्यानाम भी एक नपुंसवेदना ही उदय होता है ऋत यहां भी ७ ८ और ९ प्रकृतिक उड्यन्यानके क्रमश ८,१६ और ८ भंग होंगे। तथा इसी प्रकार ८.९ और १० प्रकृतिक उदयस्यानके भी ८, १६ और ८नंग हॉगे। विन्तु चूर्णिकारका मत है कि असंनि लवधिपर्याप्त व्यायोग्य तीन वेदों में से मिली एक वेदका उदय होता है. अतः इस मतके अनुसार अनजी लब्धिपर्याप्तम्के सात आदि जयन्यानाम से प्रत्येक ८ मंग न होकर २४ भंग होंगे। तथा इन जीवस्यानों में जो २८, २७ और २७ चे तीन नत्वस्थान बतलाये हैं सो इनवागरण न्पष्ट ही है। अब शेष रहा पर्याप्त संनी पंचन्द्रिय नीवसमाम तो Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासोमे भंगविचार इसमे मोहनीयके १० बन्धस्थान, ६ उदयस्थान और १५ सत्त्व. स्थान होते हैं जिनका खुलासा पहले किया ही है। अब इनके संवेधका कथन करते हैं-आठ जीवम्थानोमे एक २२ प्रकृतिक बन्धस्थान होता है और उसमे ८,९ और १० प्रकृतिक नीन उदयम्थान होते हैं। तथा प्रत्येक उदयस्थानमे २८, २७ और २६ प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक जीवस्थानमें कुल मत्त्वम्थान नौ हुए। पाच जीवस्थानोमे २२ प्रकृतिक और २१ प्रकृतिक ये दो बन्धस्थान होते हैं। सो इनमे से २० प्रकृतिक वधस्थानमे ८,९और १० प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते है और प्रत्येक उदयस्थानमे २८, २७ और २६ प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थानहोते हैं। इस प्रकार कुल सत्त्वस्थान नौ हुए। तथा २१ प्रकृतिक वन्धस्थानमें ७,८ और प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं और प्रत्येक उदयस्थान में २८ प्रकृतिक एक सत्त्वस्थान होता है, क्योकि २१ प्रकृतिक वन्धस्थान मास्वादन गुणस्थान में होता है और सास्वादन गुणस्थान नियमसे २८ प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके ही होता है, क्योकि साम्वादन सम्यग्दृष्टियोके तीन दर्शनमाहनीयका सत्त्व नियमसे पाया जाता है अत यहा एक २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान ही होता है। इस प्रकार २१ प्रकृतिक वन्धस्थानमे तीन उदयस्थानोकी अपेक्षा तीन सत्त्वस्थान होते हैं। दोनो वन्धस्थानोकी अपेक्षा यहा प्रत्येक जीवस्थान मे १२ सत्त्वस्थान होते हैं। तथा संज्ञी पर्याप्त जीवस्थानमें मोहनीयके वन्धादि स्थानोके सवेधका कथन पहले के समान जानना चाहिये। जीवस्थानोमे मोहनीयके सेवेधमगोका ज्ञापक कोष्ठक Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण. [२५] - - जीवस्थान बन्धन | भग |उदयस्थान| भग | उदय पदबन्दा सत्तास्थान ३६ २८८२८,,२७, २६ । ६८, ६, १०, ३२ ६ ८६,१०३२ ८२८, २७, २६ २८, २७, २६ २८,२७,२६, or or ur | २८, २७, २६ २८ २७,२६, wrs wr พ ฟ ฟ เ ฟ 22 2021 2021 du ) ผ่น ) ม่ เ २८, २७, २६ २८,२७,२६, or u ###### २८ २७, २६ or ur | २८, २७, २६ ७° 0 ## | ६ ,६, सं प.प. सव | २१ | सब ६८३/२८८६६ ___ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासों में भंगविचार अव जीवस्थानोमें नाम कर्मके भंग बतलाते हैंपेण दुग पणगं पण चउ परागं पणगा हवंति तिन्नेव । पण छप्परागं छच्छप्परागं अट्ठ दसगं ति ॥ ३७ ॥ सत्तेव अपज्जेता सामी तह सुहुमं वायरा चैव । विगलिदियो उ तिनि उ तह य असन्नीय सैनी य ॥ ३८ ॥ १६५ अर्थ- पाच, दो, पाच, पाच, चार, पाँच, पाच, पाच पाच, पाच, छह, पाच, छह, छह, पाच घोर आठ आठ, दस ये बन्ध, उदय और सत्त्वम्थान है । इनके क्रमसे सातों अपर्याप्तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक, चादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक, तीनो विकलेन्द्रिय पर्याप्त, असज्ञी पर्याप्तक और सज्ञी पर्याप्तक जीव स्वामी होते हैं। विशेपार्थ- इन दो गाथाओ मे से पहली गाथामे तीन तीन संख्या का एक एक गट लिया गया है जिनमे से पहली संख्या चन्धस्थानकी दूसरी संख्या उदयस्थानकी और तीसरी सख्या सत्त्वस्थानकी द्योतक है । ऐसे कुल गट छह हैं । तथा दूसरी गाथा मे १४ जीवस्थानो को छह भागोमे वाट दिया है । इसका यह तात्पर्य है कि पहले भागके जीवस्थान पहले गटके स्वामी हैं और दूसरे भागका जीवस्थान दूसरे गटका स्वामी है आदि । यद्यपि (१) पण दो पाग पण चदु पाग वधुदयसत्त पराग च । पया छक्क पणग छ छक्क पागमहट्ट मेयार ॥ सत्तेर अपजता सामी सुहुमो य चादरी चैत्र । वियलिंदिया य तिविद्दा होति श्रसण्णी कमा सण्णो ॥ - गो० कर्म० गा० ७०४-७०५ । ( २ ) गो० कर्म० गा० ७०६-७०७ । ( ३ ) गो० कर्म० गा० ७०७ । ( ४ ) गो० कर्म० गा० ७०८ । (५) गो० कर्म० गा० ७०९ । " Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण इतने कथनसे यह तो जान लिया जाता है कि अमुक जीवस्थानमें इतने बन्धस्थान इतने उदयस्थान और इतने सत्त्वस्थान होते हैं किन्तु वे कौन कौन हैं यह जानना कठिन है, अतः आगे उन्हीं का मयभंगोंके उक्त गाथाओके निर्देशानुसार विस्तार से विवेचन किया जाता है सातो प्रकारके अपर्याप्तक जीव मनुष्यगति और तिर्यंचगति के योग्य प्रकृतियो का ही वन्ध करते हैं। यहां देवगति और नरकगतिके योग्य प्रकृतियो का बन्ध नहीं होता, अत. सातो अपर्याप्तक जीवस्थानोमे २८, ३१ और १ प्रकृतिक बन्धस्थान न होकर २३, २५, २६, २९ और ३० प्रकृतिक पाच ही बन्धस्थान होते है। सो भी इनमे मनुष्यगति और तिर्यंचगतिके योग्य प्रकृतियो का हो वन्ध होता है। यहां सव बन्धस्थानोके मिलाकर प्रत्येक जीवस्थानमे १३९१७ भंग होते हैं। तथा इन सात जीवस्थानो में से अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय और अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय इन दो जीवस्थानोमे २१ और २४ प्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं। सो इनमे से अपर्याप्त बादर एकेन्द्रियके २१ प्रकृतिक उदयस्थानमें तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, अगुरुलघु, वर्णादि चार, एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, बादर, अपर्याप्तक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण इन इक्कीस प्रकृतियोका उदय होता है । यह उदयस्थान अपान्तराल गतिमें प्राप्त होता है। यहां भंग एक ही है, क्योकि यहां परावर्त्तमान शुभ प्रकृतियोका उदय नहीं होता। अपर्याप्तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके भी यही उदयस्थान होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके बादरके स्थानमें सूक्ष्म प्रकृति का उदय कहना चाहिये। यहां भी एक हो, भंग है। तथा इस उदयस्थानमे औदारिक शरीर, हुण्ड संस्थान, उपघात तथा प्रत्येक Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ जीवसमासोमें भंगविचार और साधारणमें से कोई एक इन चार प्रकृतियोके मिलाने पर और तिर्यंचगत्यानुपूर्वी इस प्रकृत्तिके घटा लेने पर :४ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। जो उक्त दोनों जीवस्थानोमे समानरूपसे सम्भव है । यहा सूक्ष्म अपर्याप्तक और वादर अपर्याप्तकमें से प्रत्येकके प्रत्येक और साधारणकी अपेक्षा दो दो भग होते हैं। इस प्रकार दो उदयस्थानोकी अपेक्षा दोनो जीवस्थानोमें से प्रत्येक के तीन तीन भग हुए। किन्तु विकलेन्द्रिय अपर्याप्तक, असजी अपर्याप्तक और सजी अपर्याप्तक इन पांच जीवम्थानोमें २१ और २६ प्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं। इनमे से अपर्याप्तक दो इन्द्रियके तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, वर्णादि चार, दो इन्द्रिय जाति, नस, वादर, अपर्याप्तक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश कीति और निर्माण यह २१ प्रकृतिक उदयस्थाना होता है। जो अपान्तराल गतिमें विद्यमान जीवके ही होता है अन्यके नहीं। यहा सभी पद अप्रशस्त हैं अत एक भग है। इसी प्रकार तीन इन्द्रिय आदि जीवस्थानोंमें भी यह २१ प्रकृतिक उदयस्थान और उसका १ भग जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रत्येक जीवस्थान में दो इन्द्रिय जाति न कह कर तेइन्द्रिय जाति आदि अपनी अपनी जातिका उदय कहना चाहिए। तदनन्तर शरीरस्थ जीवके औदारिक शरीर, औदारिक आंगोपाग, हुण्डसस्थान, सेवार्त सहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियांके मिलाने पर और तियेचगत्यानुपूर्वीके निकाल लेने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां भी एक ही भग है। इस प्रकार 'अपर्याप्तक दो इन्द्रिय आदि प्रत्येक जीवस्थानमें दो दो उदयस्थानोंकी अपेक्षा दो दो भंग होते हैं। केवल अपर्याप्त सज्ञी इसके 'अपवाद हैं। वात यह है कि अपर्याप्त संज्ञी यह जीवस्थान 'तिर्यचगति और में दो इन्द्रिय का उदय कहनारक प्रांगो Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सप्ततिका प्रकरण मनुष्यगति दोनो में होता है, अतः यहां इस अपेक्षासे चार भंग प्राप्त होते हैं । तथा इन सात जीवस्थानोमें से प्रत्येक में ९२,८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक पांच पांच सत्त्वस्थान होते हैं । अपर्याप्त अवस्थामें तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता सम्भव नहीं, त. इन सातो जीवस्थानो में ९३ और ८९ ये दो सत्त्वस्थान नहीं होते । किन्तु मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सम्बन्धी शेप सत्त्वस्थान यहां सम्भव है अत' यहा उक्त पाच सत्त्वस्थान कहे हैं । 1 इसके बाद गाथामें सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके बन्धादिस्थानो की सख्याका निर्देश किया है, अत उसके वन्धादिस्थानोका और यथासम्भव उनके भंगोका निर्देश करते हैं- सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव भी मरकर मनुष्यगति और तिर्यंचगतिमे ही उत्पन्न होता है, इसके तत्प्रायोग्य प्रकृतियोका ही वन्ध होता है। यही सवय है कि इसके भी २३, २५२६, २९ और ३० प्रकृतिक पांच बन्धस्थान होते हैं। यहां भी इन स्थानोके कुल भंग १३९१७ होते हैं । यद्यपि पर्याप्तक एकेन्द्रियके २१, २४, २५, २६, और २७ प्रकृतिक पांच उदयस्थान बतलाये हैं पर सूक्ष्म जीवके न तो आपका ही उदय होता है और न उद्योतका ही अत इसके २७ प्रकृतिक उदयस्थानको छोड़कर शेष २१, २४, २५ और २६ ये चार उदयस्थान होते हैं। और इसी सबब से गाथामे इसके चार उदयस्थान कहे हैं। इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थानमे वे ही प्रकृतियां लेनी चाहिये जो सूक्ष्म अपर्याप्तकके वतला आये हैं । किन्तु यहां पर्याप्तक सूक्ष्म जीवस्थान विवक्षित है, अत अपर्याप्तकके स्थान में पर्याप्तक का उदय कहना चाहिये । यह २१ प्रकृतिक उदयस्थान अपान्तराल गतिमें होता है । प्रतिपक्ष प्रकृतियो का अभाव होनेसे इसका एक ही भंग है । इस उदयस्थानमें औदारिक शरीर, हुंडसंस्थान, उपघात तथा प्रत्येक और साधारणमे से कोई एक 1 J Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासोमें भंगविचार FEE इन चार प्रकृतियोको मिलाओ और तिर्यचगत्यानुपूर्वीको निकाल दो तो २४ प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है । यह शरीरस्थ जीवके होता है । यहा प्रत्येक और साधारण के विकल्पसे दो भग होते हैं । अनन्तर शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवकी अपेक्षा इसमें पराघात के मिला देने पर २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहा भी वे ही दो भंग होते हैं । अनन्तर प्रारणापन पर्याप्त से पर्याप्त हुए जीवको अपेक्षा इसमें उच्छ्वास प्रकृतिके मिला देने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहा भी पूर्वोक्त दो भग होते हैं । इस प्रकार सूक्ष्म पर्याप्तकके चार उदयस्थान और उनके कुल मिलाकर सात भग होते हैं । तथा इस जीवस्थानमें ९२, ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक पाच सत्त्वस्थान होते हैं । निर्यचगति में तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता नहीं होती इसलिये यहां ९३ और ८९ ये दो सत्त्वस्थान तो सम्भव नहीं, अव शेष रहे मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसम्बन्धी ६२, ८८, ८६, ८०, और ७८ ये पाच सत्त्वस्थान सो वे सब यहा सम्भव हैं । फिर भी जव साधारण प्रकृतिके उदयके साथ २५ और २६ प्रकृतिक उदयस्थान लिया जाता है तब इस भंगमें ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान सम्भव नहीं, क्योकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोको छोड़कर शेष सब जीव शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त होने पर मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी का नियमसे बन्ध करते हैं । और २५ तथा २६ प्रकृतिक उदयस्थान शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त जीवके ही होते हैं । अत साधारण सूक्ष्म पर्याप्त जीवके २५ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं होता । किन्तु शेष चार सत्त्वस्थान होते हैं यह सिद्ध हुआ । हां जब प्रत्येक प्रकृतिके साथ २५ और २६ प्रकृतिक उदयस्थान लिया जाता है तब प्रत्येक श्रमिकायिक और वायुकायिक जीव भी सम्मिलित Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० सप्ततिकाप्रकरण हो जाने से २५ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानमे ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान भी बन जाता है। इस प्रकार उपर्युक्त कथनका सार यह है कि २१ और २४ इनमें से प्रत्येक उदयस्थानमें पांच पाच सत्त्वस्थान होते है और २५ तथा २६ इन दो मे से प्रत्येकम एक अपेक्षा चार चार और एक अपेक्षा पांच पांच सत्त्वस्थान होते हैं। किस अपेक्षासे चार और किस अपेक्षासे पांच सत्त्वस्थान होते हैं इसका उल्लेख ऊपर किया ही है। । __आगे गाथाकी सूचनानुसार वादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीवस्थानमे वन्धादिस्थान और यथासम्भव उनके भंग बतलाते हैवादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव भी मनुष्यगति और तिर्यंचगतिके योग्य प्रकृतियोका ही वन्ध करता है अत. यहां भी २३, २५, २६, २९ और ३० प्रकृतिक पाच बन्धस्थान और तदनुसार इनके कुल भंग १३६१७ होते हैं। तथा उदयस्थानोकी अपेक्षा विचार करने पर यहा एकेन्द्रिय सम्बन्धी पांचो उदग्रस्थान सम्भव हैं, क्योकि सामान्यसे अपान्तराल गतिकी अपेक्षा २१ प्रकृतिक, शरीरस्थ होनेकी अपेक्षा २४ प्रकृतिक, शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त होनेकी अपेक्षा २५ प्रकृतिक और श्वासोच्छवास पर्याप्ति से पर्याप्त होने की अपेक्षा २६ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान तो पर्याप्त एकेन्द्रिय के नियमसे होते हैं। किन्तु यह वादर है अतः यहां आतप और उद्योतमें से किसी एक प्रकृतिका उदय और सम्भव है, अतः यहां २७ प्रकृतिक उदयस्थान भी बन जाता है। इस प्रकार बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवम्थानमें २१,२४,२५,२६, और २७ प्रकृतिक पांच उदयस्थान होते है यह सिद्ध हुआ। पहले, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके २१ प्रकृतिक उदयस्थानकी प्रकृतियां गिना आये हैं उनमें अपर्याप्तकके स्थानमें पर्याप्तक के मिला देने पर बादर एकेन्द्रिय, पर्याप्तकके २१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। किन्तु Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासोमें मंगविचार २०१ इसके यश कीर्ति और अयश कीर्ति इन दोमे से किसी एकका विकल्प से उदय होता है इतनी और विशेषता है। अत इस अपेक्षा से यहा २१ प्रकृतिक उदयस्थानके दो भग हुए । तदनन्तर शरीरस्थ जीवकी अपेक्षा इममें औदारिक शरीर, हुण्डसस्थान, उपघात तथा प्रत्येक और माधारण इनमे से कोई एक ये चार प्रकृतिया मिला दो और तियंचगत्यानुपूर्वी निकाल लो तो २४ प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है। यहा पूर्वोक्त दो भगोको प्रत्येक और साधारण के विरल्प की अपेक्षा दो से गुणित कर देने पर चार भग होते हैं । किन्तु इतनी विशेपता है कि शरीरस्थ विक्रिया करनेवाले वाटर वायुकायिक जीवोके साधारण और यश कीर्ति का उदय नहीं होता इसलिये वहा एक ही भंग होता है। तथा दूमरी विशेपता यह है कि ऐसे जीवोके औदारिक शरीरका उदय न होकर वेक्रिय शरीर का उदय होता है अत इनके औदारिक शरीरके स्थानम वैक्रिय शरीर कहना चाहिये। इस प्रकार २४ प्रकृतिक उदयस्थानमे कुल पांच भग हुए। तदनन्तर इसमें पराघात के मिलाने पर शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवके २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहा भी पहले के समान पाच भग होते हैं। तदनन्तर इसमे उच्छ्वासके मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहा भी पहले के समान पाच भग होते है। अव यदि शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवके आतप और उद्योत में से किसी एक प्रकृतिका उदय हो जाय तो भी २६ प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है। किन्तु आतप का उदय साधारण के साथ नहीं होता है अतं इस पक्ष मे २६ प्रकृतिक उढयस्थान के यश कीर्ति और अयश कीर्तिकी अपेक्षा दो भग हुए । हॉ उद्योत को उदय साधारण और प्रत्येक इनमे से किसीके भी साथ होता है अत. इस पक्षी साधारण और प्रत्येक तथा यश कीर्ति और अयश कीर्ति Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4& २०६ "संप्ततिकाप्रकरण इनके विकल्प से चार भंग हुए। इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थानके. कुल भंग ११ हुए । तदनन्नर प्राणापान पर्याप्त से पर्याप्त हुए जीवकी अपेक्षा उच्च्चान सहित छत्रीस प्रकृतिक उदवस्थानमें औरत में किसी एक प्रकृतिके मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होना है। यहां भी पहले के समान नप के साथ दो मंग और उद्योत के साथ चार भंग इस प्रकार कुन्त छह भंग होते है। ये पांचों स्थानों के भंग एकत्र करने पर चादर पर्यातक के कुल भंग २९ होते हैं । तथा जैसा कि हम पहले लिखाये हैं तनुसार यहां भी १२,८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक पांच सत्त्वम्थान होते हैं। फिर भी पांच वयस्थानों के जो २१ मंग हैं उनमें से इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के दो भंग, २४ प्रकृतिक उदयस्थानमें चैकिय चादर वायुकायिक के एक भंग को छोड़कर शेष चार भंग तथा २५ और २६ प्रकृतिक उदयत्यानों में प्रत्येक और यशःकीर्निके साथ प्राप्त होनेवाला एक एक भंग इस प्रकार इन आठ भंगों में से प्रत्येक उपयुक्त पांचों सत्त्वस्थान होते हैं । किन्तु शेष २१ में से प्रत्येक भंग ७८ प्रकृतिक सत्त्वन्यान को छोड़कर शेष चार चार सत्त्वस्थान होते हैं । वागे गायामें किये गये निर्देशानुसार पर्याप्तक विक केन्द्रियों में वादियान और यथासम्भव उनके भंग बतलावे है - विकलेन्द्रिय पर्याप्नक जीव भी नियंत्रगति और मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियोंका हो बन्ध करते हैं अतः इनके मी २३, २५, २६, २९ और ३० प्रकृतिक पांच वन्यस्थान और तदनुसार इनके कुल मंग १३९९७ होते हैं । तथा उदयन्थानों को अपेक्षा विचार करने पर यहां २१, २६, २८, २९, ३० र ३१ प्रकृतिक छह उदयस्थान बन जाते हैं। इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान में तेजस, कार्मण, गुरुवु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णादि चार, Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासोमें भंगविचार २०३ निर्माण, तिथंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, दो इन्द्रियजाति, ब्रस, वादर, पर्याप्तक, दुर्भग, अनादेय तथा यश कीर्ति और अयश' कीर्तिमे से कोई एक इस प्रकार इन २१ प्रकृतियों का उदय होता है। जो अपान्तराल गतिमे प्राप्त होता है। इसके यश कीर्ति और अयश कीर्तिके विकल्पसे दो भग होते हैं। तदनन्तर शरीरस्थ जीवकी अपेक्षा इसमें औदारिक शरीर, औदारिक प्रांगोपाग, हुण्डसंस्थान, सेवार्तसहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियोको मिला कर तिर्यंचगत्यानुपूर्वीके निकाल लेनेसे २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहा भी वे ही दो भाग होते है । तदनन्तर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवकी अपेक्षा इसमे पराघात और अप्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृतियोके मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहा भी वे ही दो भग होते हैं । २९ प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकारसे होता है. एक तो जिसने श्वामोच्छवास पर्याप्तिको प्राप्त कर लिया है उसके उद्योतके विना केवल उच्छवास का उदय होनेसे होता है और दूसरे शरीर पर्याप्ति की प्राप्ति होनेके पश्चात् उद्योत का उदय हो जाने से होता है । सो इनमें से प्रत्येक स्थानमें पूर्वोक्त ही दो दो भग प्राप्त होते हैं। इस प्रकार २९ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल चार भग हुए। इसी प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थान भी दो प्रकार से प्राप्त होता है। एक तो जिमने भापा पर्याप्तिको प्राप्त कर लिया है उसके उद्योतका उदय न होकर यदि केवल स्वरकी दो प्रकृतियोमें से किसी एक का उदय होने से होता है और दूसरे जिसने श्वासोच्छवास पर्याप्तिको प्राप्त किया और अभी भापा पर्याप्तिकी प्रामि नहीं हुई किन्तु इसी बीचमे उसके उद्योतका उदय हो गया तो भी ३० प्रकृतिक उदयस्थान,बन जाती है। इनमे से पहले प्रकार के ३० प्रकृतिक उदयस्थानमें यश कीर्ति, और अयश कीर्ति तथा Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ सप्ततिकाप्रकरण । दोनों न्वरोके विकल्प से चार भंग प्राप्त होते हैं। किन्तु दूसरे प्रकारके ३० प्रकृतिक उदयम्यानमें यशाकीर्ति और अयशकीर्ति के विकल्पसे केवल दोन्ही भंग होते है। इस प्रकार ३० प्रकृतिक उन्यम्थानके कुल छह भंग हुए। अब यदि जिसने भाषा पर्याप्ति को भी प्राप्त कर लिया है और जिसके उद्योत का भी उदय है उसके ३१ प्रकृतिक उड्यन्यान होता है । सो यहां यश कीर्ति और अयश कीति और दोनों न्वरोंके विकल्पमे बार भंग होते हैं। इस प्रकार पर्यातक दो इन्द्रियके सब उदयस्थानोंके कुल भंग २० होने हैं। तथा एकेन्द्रियोके समान इसके भी ९२, ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक पांच सत्त्वस्थान होते हैं। पहले लो छह उदयस्थानों के २० भंग बनला आये हैं उनमें से २. प्रकृतिक उदयस्थानके दो भंग और २६ प्रकृतिक उदयम्यानके दो भंग इन चार भंगामें से प्रत्येक मंगमें पांच पांच सत्वन्यान होते हैं, क्योंकि ७८ प्रकृतियोंकी सत्तावाले जो अग्निकायिक और वायुकायिक जीव पर्याप्तक दो इन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके कुछ काल नक ७८ प्रकृतियोंकी सत्ता सम्भव है । तथा इस कालके भीतर द्वीन्द्रियों के क्रमशः २१ और २० प्रकृतिक उदयन्थान ही होते हैं, अत इन दो उदयस्थानोके चार भंगामें से प्रत्येक भंगमें उक्त पांच सत्त्वम्यान कहे । तथा इन चार भंगों के अतिरिक्त जो शेष १३ भंग रह जाते हैं उनमें से किसी में भी ७८ प्रकृनिक मत्वम्यान न होने से प्रत्येक में चार चार सत्त्वस्थान होते हैं म्योंकि अग्निकायिक और वायुकाविक जीवोंके सिवा शेष जीव शरीर पर्यानि से पर्याप्त होनेके पश्चात् नियमसे मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका बन्ध करते हैं अतः उनके ७८ प्रकृतिक सत्वत्थान नहीं प्राप्त होता है। इसी प्रकार तेइन्द्रिय Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ जीवसमासोमें भंगविचार और चारइन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके बन्धादि स्थान और उनके भगों का कथन करना चाहिये। __ अव गाथामें की गई सूचना के अनुसार असंज्ञी पर्याप्त जीवस्थानमे वन्धादिस्थान और यथासम्भव उनके भंग बतलाते हैंअसंज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव मनुष्यगति और तिर्यंचगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्ध तो करते ही हैं किन्तु ये नरकगति और देवतिके योग्य प्रकृतियोका भी बन्ध करते हैं अतः इनके २३, २५, २६, २८, २९ और ३० प्रकृतिक छह बन्धस्थान और तदनुसार १३९२६ भंग होते है । तथा उदयस्थानो की अपेक्षा विचार करनेपर यहाँ २१, २६,२८,२९, ३० और ३१ प्रकृतिक छह उदयस्थान होते है। इनमेंसे २१ प्रकृतिक उदयस्थानमें यहॉ तैजस, कार्मण, अगुः रुलघु स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ,वर्णादिचार, निर्माण,तियंचगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, पचेन्द्रिय जाति, स, बादर, पर्याप्तक, सुभग और दुर्भगमेंसे कोई एक, आदेय और अनादेयमेसे कोई एक तथा यश कीर्ति और अयशः कीर्ति से कोई एक इन २१ प्रकृतियोंका उदय होता है। यह उदयस्थान अपान्तरालगतिमे ही प्राप्त होता है। तथा इसमें सुभगादि तीन युगलोमेंसे प्रत्येक प्रकृतिके विकल्पसे ८ भंग प्राप्त होते हैं । तदनन्तर जब वह जीव शरीरको ग्रहण कर लेता है तब इसके औदारिक शरीर, औदारिक आगोपाग, छह सस्थानोमेंसे कोई एक सस्थान, छह सहननोमेंसे कोई एक संहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियोका उदय और होने लगता है। किन्तु यहाँ आनुपूर्वीका उदय नहीं होता, अत. उक्त २१ प्रकृतियोमें उक्त छह प्रकृतियोंके मिलाने पर और तिर्यंचगत्यानुपूर्वीके निकाल लेने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ छह संस्थान और छह संहननोंकी अपेक्षाभंगोके विकल्प और बढ़ गये हैं, अत' पूर्वोक्त ८ भंगोंको दो बार. छहसे गुणित Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ • सप्ततिकाप्रकरण कर देने पर ८४६४६=२८८ भंग प्राप्त होते हैं। तदनन्तर इसके शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हो जाने पर पराघात तथा प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगतिमें से कोई एक इस प्रकार दो प्रकृतियोका उदय और होने लगता है अत. पूर्वोक्त २६ प्रकृतियोमे इन दो प्रकृतियोके मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ दोनो विहायोगतियोंकी अपेक्षा भंगोके विकल्पं और बढ़ गये है अत पूर्वोक्त २८८ को २से गुणित देने पर ५७६ भंग प्राप्त होते हैं। २९ प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकारसे प्राप्त होता है। एक तो जिसने श्वासोच्छास पर्याप्तिको पूर्ण कर लिया है उसके उद्योत के विना केवल उच्छासका उदय होनेसे प्राप्त होता है और दूसरे शरीर पर्याप्तिके पूर्ण होने पर उद्योतका उदय हो'जानसे होता है। सो इनमेसे प्रत्येक स्थानमें पूर्वोक्त ५७६ भग होते हैं। इस प्रकार २९ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल ११५२ भंग हुए। तथा ३० प्रकृतिक उदयस्थान भी दो प्रकारसे प्राप्त होता है। एक तो जिसने भापा पर्याप्तिको पूर्ण कर लिया है उसके उद्योतके विना स्वरकी दो प्रकृतियोमेसे किसी एक प्रकृतिके उदयसे होता है है और दूसरे जिसने श्वासोच्छ्रास पर्याप्तिको पूर्ण कर लिया । उसके उद्योतका उदय हो जाने से होता है । इनमेसे पहले प्रकारके स्थानमें ११५२ भग होते हैं, क्योकि पूर्वोक्त ५७६ भंगोको स्वरद्विकसे गुणित करने पर ११५२ ही प्राप्त होते हैं तथा दूसरे प्रकारके स्थानमै ५७६ ही भग होते हैं । इस प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थानके कुल भङ्ग १७२८ हुए । इसके आगे जिसने भाषा पर्याप्तिको भी पूर्ण कर लिया है और जिसके उद्योतका भी उदय है उसके ३१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ कुल भङ्ग ११५२ होते हैं । इस प्रकार असज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके सव उदयस्थानोके कुल भग ४९०४ होते हैं। ये जीव वैक्रिय Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासोमें भङ्गविचार २०७ लब्धिसे रहित होनेके कारण विक्रिया नहीं करते, अत. इनके वैक्रियनिमित्तक उदयविकल्प नहीं प्राप्त होते । तथा इनके भी पहलेके समान ९२,८८,८६,८० और ७८ प्रकृतिक पॉच सत्त्वस्थान होते हैं। सो २१ प्रकृतिक उदयस्थानके ८ भग और २६ प्रकृतिक उदयस्थानके २८८ भग इनमें प्रत्येक भगमें पूर्वोक्त पॉच पाँच सत्त्वस्थान होते हैं, क्यो कि ७८ प्रकृतियोंकी सत्तावाले जो अग्निकायिक और वायुकायिक जीव असझी पचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमे उत्पन्न होते हैं उनके २१ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका पाया जाना सम्भव है। किन्तु इनके अतिरिक्त शेप उदयस्थान और उनके सव भगोमे ७८ के विना शेप चार चार सत्त्वस्थान ही होते हैं। अव गाथामें की गई सूचनाके अनुसार सज्ञी पचेन्द्रिय पर्यातक जीवस्थानके वन्धादि स्थान और उनके भग बतलाना शेप है अत आगे इन्हींका विचार करते है-नाम कम के २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १ ये आठ वन्धस्थान बतलाये हैं सो सज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के ये आठों बन्धस्थान और उनके १३९४५ भाग सम्भव हैं, क्योंकि इसके चारो गतिसम्बन्धी प्रकृ तियोका बन्ध सम्भव है इसलिये तो २३ आदि वन्धम्थान इसके कहे है । तीर्थकर नाम ओर आहारकचतुष्कका भी इसके बन्ध होता है, इसलिये ३१ प्रकृतिक बन्धस्थान इसके कहा और इसके दोनो श्रेणियाँ पाई जाती है, इसलिये १ प्रकृतिक बन्धस्थान भी इसके कहा। तथा उदयस्थानो की अपेक्षा विचार करने पर इसके २०, २४, ९ ओर ८ इन चार उदयस्थानोको छोड़कर शेष सव उदयस्थान इसके पाये जाते हैं। यह तत्त्वत. जीवस्थान १२ वेंगुण स्थान तक ही पाया जाता है और २०, ९ और ये तीन उदयस्थान केवली सम्बन्धी हैं अत. इसके नहीं बताये। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ , सप्ततिकाप्रकरण, तथा २४ प्रकृतिक उदयस्थान एकेन्द्रियोके ही होता है अतः वह भी इसके नहीं बतलाया । इस प्रकार इन चार उदयस्थानों को छोड़ कर शेप:२१, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ ये आठ उदयस्थान इसके होते हैं यह सिद्ध हुआ। अब इन उदयस्थानो के भंगो का विचार करने पर इनके कुल भंग ७६७१ प्राप्त होते है क्यो किं १२ उदयस्थानोके कुल भंग ७७९१ हैं सो इनमेसे १२० भंग कम हो जाते हैं, क्योंकि, उन भंगोका सम्बन्ध संत्री पंचेन्द्रिय पर्याप्तसे नहीं हैं । कुल सत्त्वस्थान १२ हैं पर यहाँ ९ और ८ ये दो सत्त्वस्थान सम्भव नहीं, क्योकि वे केवली के ही पाये जाते है। हॉ इनके अतिरिक्त ९३, ९२, ८९, ८८, ८६,८०,७९, ७८, ७६ और ७५ ये दस सत्त्वस्थान यहाँ पाये जाते है सो २१ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानोके क्रमश ८ और २८८ भंगोंमें से तो प्रत्येक भगमें ९२, ८८, ८६, ८० और ७८ ये पाँच पाँच सत्त्वस्थान ही पाये जाते हैं। इस प्रकार चौदह जीवस्थानोमे कहां कितने बन्धादिस्थान और उनके भंग होते है इसका विचार किया। अब उनके परस्पर संवेधका विचार करते हैं-सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोके २३ प्रकृतिक बन्धस्थानमें २१ प्रकृतिक उदयके रहते हुए ९२, ८८, ८६, ८० और ७८ ये पांच सत्त्वस्थान होते है। तथा इसी प्रकार २४ प्रकृतिक उदयस्थानमें भी पांच सत्त्वस्थान होते हैं । इस प्रकार दोनो उदयस्थानोके कुल सत्त्वस्थान १० हुए.। तथा इसी प्रकार २५, २६, २९ और ३० प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले उक्त जीवोके दो दो उदयस्थानोंकी, अपेक्षा दस दस सत्त्वस्थान होते हैं। इस प्रकार कुल सत्त्वस्थान पचास हुए। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक आदि अन्य छेह अपर्याप्तकोंके पचास पचास Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासोंमें भंगविचार २० सत्त्वस्थान जानने चाहिये । किन्तु सर्वत्र अपने अपने दो दो उदयस्थाने कहने चाहिये। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके २३, २५, २६, २९ और ३० ये ही पाच वन्धस्थान होते हैं। और एक एक वन्धस्थानमें २१, २४, २५ और २६ ये चार उदयस्थान होते हैं। अत पांचको चारसे गुणा करने पर २० हुए । तथा प्रत्येक उदयस्थानमें पाच पांच सत्त्वस्थान होते हैं अतः २० को ५ से गुणा करने पर १०० सत्त्वस्थान हुए। __वादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके भी पूर्वोक्त पाच वन्धस्थान होते हैं। और एक एक बन्धस्थानमें २१, २४, २५, २६ और २७ ये पांच पाच उदयस्थान होते हैं। अतः ५ को ५ से गुणा करने पर २५ हुए। इनमेसे अन्तिम पाच उदयस्थानोमे ७८ के विना चार धार मन्वस्थान होते है जिनके कुल भग २० हुए और शेष २० उदय स्थानी मे पांच पांच सत्त्वस्थान होते हैं जिनके कुल भंग सौ हुए। इस प्रकार यहां कुल भंग १२० हुए। दोइन्द्रिय पर्याप्तकके २३, २५, २६, २७ और ३० ये पाँच वन्धस्थान होते हैं और प्रत्येक वन्धस्थानमें २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ ये छह उदयस्थान होते हैं। इनमेसे २१ और २६ इन दो उदयस्थानीमें पांच पांच सत्त्वस्थान होते हैं। तथा शेष चार उदयस्थानोंमें ७८ के विना चार चार सत्त्वस्थान होते हैं। ये कुल मिला कर २६ सत्त्वस्थान हुए। इस प्रकार पांच वन्ध Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .", सप्ततिकाप्रकरण स्थानोके १३० भंग हुए। इसी प्रकार तेइन्द्रिय पर्याप्तक के १३० भंग और चौइन्द्रिय पर्याप्तकके भी १३० भंग जानना चाहिये । - ___ असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके भी २३, २५, २६, २९, और ३० इन पांच वन्धस्थानोमेसे प्रत्येक बन्धस्थानमें विकलेन्द्रियों के समान छब्बीस छब्बीस भंग होते हैं जिनका योग १३० होता है। परन्तु २८ प्रकृतिक बन्धस्थानमें ३० और ३१ प्रकृतिक दो उदयस्थान ही होते हैं । सो यहां प्रत्येक उदयस्थानमे ९२, ८८ और ८६ ये तीन तीन सत्त्वस्थान होते हैं। इनके कुल भंग छह हुए। यहां कुल तीन सत्त्वस्थान ही क्यों होते हैं इसका कारण यह है कि २८ प्रकृतिक बन्धस्थान देवगति और नरकगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्ध करते समय ही होता है सो यहां ८० और ७८ ये दो सत्त्वस्थान सम्भव नहीं, क्यों कि देवगति और नरकगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्ध पर्याप्तकके ही होता है । इस प्रकार असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवस्थानमें कुल भंग १३६ होते हैं । तथा संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके २३ प्रकृतिक बन्धस्थानमें जिस प्रकार पहले असंज्ञीके २६ सत्त्वस्थान कहे उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये। २५ प्रकृतिक बन्धस्थानमें २१, २५, २६, २७, २८, २६,३० और ३१ये ८ उदयस्थान वतलाये हैं। सो इनमेंसे २१ और २६ इन दो में तो पांच पाच सत्त्वस्थान होते हैं। तथा २५ और २७ उदयस्थान देवोके ही होते हैं अतः इनमें ९२ और ८८ ये दो दो सत्त्वस्थान ही होते हैं। अव शेष रहे चार उदयस्थान सो प्रत्येकमें ७८ के बिना चार चार सत्त्वस्थान होते हैं। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जीवसमासोंमें भंगविचार इस प्रकार कुल यहां ३० सत्त्वस्थान होते हैं। इसी प्रकार २६ प्रकृतिक वन्धस्थानमें भी ३० सत्त्वस्थान होते हैं । २८ प्रकृतिक चन्धस्थान मे आठ उदयस्थान होते हैं। सो उनमेंसे २१, २५, २६, २७, २८, और २९ इन छह उदयस्थानोमें ९२ और ८८ ये दो दो सत्त्वस्थान होते हैं। ३० प्रकृतिक उदयस्थानमे ९२, ८८, ८६ और ८० ये चार सत्त्वस्थान होते हैं। तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थानमें ९२, ८८ और ८६ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। इस प्रकार यहा कुल १६ सत्त्वस्थान होते हैं । २९ प्रकृतिक बन्धस्थान में ३० सत्त्वस्थान तो २५ प्रकृतियोंका वन्ध करनेवालेके समान लेना। किन्तु इस वन्धस्थानमें कुछ और विशेषता है जिसे वतलाते हैं। बात यह है कि जव अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य देवगतिके योग्य २९ प्रकृतियोंका बन्ध करता है तब उसके २१, २६, २८, २९ और ३० ये पांच उदयस्थान और प्रत्येक उदयस्थानमें ९३ और ८९ ये दो सत्त्वस्थान होते है जिनका कुल जोड़ १० हुआ। इसी प्रकार विक्रिया करनेवाले संयत और सयतासयत जीवके भी २९ प्रकृतिक वन्धस्थानके समय २५और २७ ये दो उदयस्थान और प्रत्येक उदयस्थानमे ९३ और ८९ ये दो सत्त्वस्थान होते हैं। जिनका कुल जोड़ चार हुआ। अथवा आहारक संयतके भी इन दो उदयस्थानो में ९३ की सत्ता होती है और तीर्थकर की सत्ता चाले नारकी मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा ८९ की सत्ता होती है। इस प्रकार इन १४ सत्त्वस्थानोको पहलेके ३० सत्त्वस्थानोंमें मिला देने पर २९ प्रकृतिक बन्धस्थानमे कुल ४४ सत्त्वस्थान प्राप्त होते है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण इसी प्रकार ३० प्रकृतिक बन्धस्थानमे भी २५ प्रकृतिक वन्धस्थानके समान ३० सत्त्वस्थानोंका ग्रहण करना चाहिये। किन्तु यहाँ भी कुछ विशेषता है जिसे आगे बतलाते हैं। वात यह है कि तीर्थकर प्रकृतिके साथ मनुष्यगतिके योग्य ३० प्रकृतियोंका वन्ध होते समय २१, २५, २७, २८, २६ और ३० ये छह उदयस्थान और प्रत्येक उदस्थानमे ६३ और ८६ ये दो सत्त्वस्थान होते हैं जिनका कुल जोड़ १२ होता है। इन्हे पूर्वोक्त ३० भनोंमें मिला देने पर ३० प्रकृतिक बन्धस्थानमे कुल सत्त्वस्थान ४२ होते हैं। तथा ३१ प्रकतियोके वन्धमै तीर्थकर और आहारकद्विकका वन्ध अवश्य होता है अत यहाँ ६३ की ही सत्ता है। तथा एक प्रकृतिक बन्धके समय ८ सत्त्वस्थान होते हैं। सो इनमेसे ६३, ६२, ८६ और ८८ ये चार सत्त्वस्थान उपशमश्रेणीमे होते हैं और ८०, ७६,७६ और ७५ ये चार सत्त्वस्थान पक्श्रेणीम होते हैं। तथा वन्धके अभावमें संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक्के पूर्वोक्त आठ सत्त्वस्थान होते हैं।, सो इनमें से प्रारम्भके ४ उपशान्तमोह गुणस्थानमें प्राप्त होते हैं और अन्तिम ४ क्षीणमोह गुणस्थानमे प्राप्त होते हैं। इस प्रकार संबी पचेन्द्रिय पर्याप्तकके सब मिलाकर २०८ सत्त्वस्थान होते हैं। ' अब यदि द्रव्यमनके संयोगसे केवलीको भी संज्ञी मान लेते हैं तो उनके भी २६ सत्त्वस्थान प्राप्त होते हैं । यथा-केवलीके २०, २१, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१,६ और ये दस उदयस्थान होते हैं। सो इनमेसे २० प्रकृतिक उदयस्थानमें ७६ और ७५ ये दो सत्त्वस्थान होते हैं। तथा २६ और २८ प्रकृतिक उदयस्थानोंमें Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ जीवसमासोंमें भंग भी ये दो सत्त्वस्थान जानने चाहिये । २१ प्रकृतिक उठेयस्थानमें ८० और ७६ ये दो सत्त्वस्थान होते हैं। तथा यही दो २७ प्रकृतिक सत्त्वस्थानमे भी होते हैं। २६ प्रकृतिक उदस्थानमें ८०, ७६, ७६ और ७५ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं, क्योकि २८ प्रक तिक उदयस्थान तीर्थकर और सामान्य केवली दोनोंके प्राप्त होता है । अब यदि तीर्थकरके २६ प्रकृतिक उदयस्थान होगा तो ८० और ७६ ये दो सत्त्वस्थान होगे और यदि सामान्य केवलीके २६ प्रकृतिक उदयस्थान होगा तो ७६ और ७५ ये दो सत्त्वस्थान प्राप्त होंगे। इसी प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थानमें भी चार सत्वस्थान प्राप्त । होते हैं। ३१ प्रकृतिक उदयस्थानमें ८० और ७६ ये दो सत्त्वस्थान होते हैं, क्योंकि यह उदयस्थान तीर्थकर केवलीके"ही होता है। ६ प्रकृतिक उदयस्थानमें ८०,७६ और ये तीन सत्त्वस्थान होते है। इनमेंसे प्रारम्भके दो सत्त्वस्थान तीर्थकरके अयोगिकेवली गुणस्थानके आन्त्य समय तक होता है और अन्तिम सत्त्वस्थान अयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तके समयमें होता है। तया प्रकृतिक उत्यस्थानमें ७६, ७५ और ८ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। इनमेसे प्रारम्भके दो सत्त्वस्थान सामान्य केवलीके अयोगिकेवली गुणस्थानके आन्त्य समय- तक प्राप्त होते हैं और अन्तिम सत्त्वस्थान अन्तके समयमें प्राप्त होता है। इस प्रकार ये २६ सत्त्वस्थान हुए। अब यदि इन्हें पूर्वोक्त २०८ सत्त्वस्थानोमें सम्मिलित कर दिया जाय तो संझी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके कुल २३४ सत्त्वस्थान प्राप्त होते हैं। . Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ सप्ततिकाप्रकरण १४ जीवस्थानोंमे बन्धस्थान और उनके भगों का ज्ञापक कोष्ठक[ २६ ] सू० ए० म० सू० ए० प० । | वा० ए० म० | वा० ए० ५०. २५ २५ २५ १६ ६२४० ४२४० | २६ ४६३२ ६२४० ४६३२ १२४० ३० ४६३२ ५ १३६१६, ५१३६१७ | ५१३९१७ | ५१३६१७ वेइन्द्रिय अ० वेइन्द्रिय प० | तेइन्द्रिय अ० | तेइन्द्रिय ५० २५ २५ १६ ३० ३० ६२४० ६२४० ६२४० ६२४० |४६३२ | ३० | ४६३२ | ५ १३६१७ | '५ १३६१७ | ५ १३६१७ / ५,१३६१७ / ४६३२ | ४६३२ - Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासोमें भंगविचार २१५ चतरिन्द्रिय अ. चरिन्द्रिय पं० श्र० पं० म. भ.पं.प. ६२४० ४६३२ १३६१% ५१३६१७ ५ १३६१७ ६ १३६२६ स. पं० म० स० ६० प. ६२४० ४६३२ ६२४८ ४६४१ ५ १३६१७ ८ १३६४५ - - Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविकाप्रकरण१४ जीवस्थानों में उदयस्थान और उनके भङ्गों का ज्ञापक कोष्ठक [२७] । - - सू० ए०अ०सू० ए०५० वा० ए० अ० बा० ए०५० २४ .२ *** - - ४ | ७ | २ .३ | ५. २६ वेइ० अ० | वेइ० प० । तेई० अ० | तेइ०६० -- । २१ m - . . docrinor. NNN _cc m com :२०६-२० / २००२ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासोंमें भंगविचार। १० चरि० चरि० अ० cmcc-VAN ३१ - अ५० अ० अ० ५० ५०स अ०स०५०५० २११२५ १ २४ २५ २६ cc mcc.ooo Ioni २६/५७६ २६|, . Kmsong | २ ४६ २०२४ ११७६७६ १४ जीवस्थानोंमें नामकर्मके वन्धनादिस्थान और उनके मंगोका ज्ञापक कोष्ठक Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सप्ततिकाप्रकरण २४, जीवस्थान | बन्धस्थान | भग | उदयस्यान | भग | सत्तास्थान ए सू श्र२३,२५,२६, १३६१७/ २१ २६,३० ८०,७८ र ए. प.|२३,२५,२६, १३६१७/ २१, २४, |६२,८८,८६, २६, ३० ___./ २५, २६ | ८०, ७८ वा ए अ२३ २५,२६/१३६१० / २१, २४ ६२, ८६, । ८०,७८ २५.२६/१३६१७२१,२४,२५ ६२,,८६, २६,३० २ ६, २७ । | ८०,७८ वइ० अ००३.२५,२६/१३६१७, २१, २६ । २ ६२,६८,८६, २६, ३० । ८०,७८ वेइ० प०२३, २५,२६, १३६१७२१,२६,२८, २०/६२.८८६, । ८० ७८ तेइं० अ०२३,२५२६ १३६१७/ २१, २६, २ ३२,८८,८६, । ८०, ७८ तेइ० १०२३,२५,२६, १३६१७२१, २६,२८, २० ६२ ,२६, २६,३० । २६, ३० ३१ । ८०,७८ वितरि.श्र२३ २५.२६/१७१३६, २१, २६ । २ |६२, ८,८६, २६, ३० । ८०,७८ चरि. प. २३.२५,२६, १३६१७२१, २६,२८, २० ६२, ८८,८६. २९.३० २६,३०,३१ ८०,७८ अ.पं.श्र२३,२५,२६ १३६१७, २१, २६ । ४ ६२,८७,२६, २६, ३० | ८०,७८ अ. पं. प २३, २५,२६, १३६२६२१,२६,२८.४१ . २८,२६,३०॥ ८०,७८ .अ.२३, २५,२६, १३६१७, २१, २६ | ४. १६२.८८,८६, २,३० २२:२५२६ ८०,७८ स. पं.प.२३,२५,२६३ १३१४५२७.९७६७६६३६२.६६,८८ स, २६३०, ३०,३१, ६८०.७६, ७ १ . २०,६,ET : ७६७५,के,९,८ ३०/१३६१७/६३०,३५/२० / Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोमे भंगविचार २१९ १२-गुणस्थानों में संवेध भंग अव गुणस्थानाको अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके स्वामी का कथन करते हैं नाणंतराय तिविहमवि दससु दो हॉति दोसु ठाणेसुं। अर्थ-प्रारम्भके दस गुणस्थानोंमे नानावरण और अन्तराय कर्म वन्ध, उदय और सत्त्वकी अपेक्षा तीन प्रकारका है। तथा उपशान्तमोह और क्षीणमोह इन दो गुणस्थानोमे उदय और मत्त्वकी अपेक्षा दो प्रकारका है। विशेषार्थ-अभी तक नौदह जीवस्थानोमें पाठ कर्मों के बन्ध, उदय और सत्त्वस्थान तथा उनके भंगोका कथन किया । अव गुणस्थानीमें उनका कथन करते हैं-ऐसा नियम है कि ज्ञानावरणकी पाचौ प्रकृतियोंकी और अन्तरायको पांची प्रकृतियोकी वन्धव्युन्छित्ति दसवें गुणस्थानके अन्तमे तथा उदय और सत्वव्युच्छित्ति वारहवे गुणस्थानके अन्तमें होती है, अत. सिद्ध हुआ कि मिथ्यारष्टि से लेकर सूक्ष्मसम्परायतक दस गुणस्थानोमें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके पाच प्रकृतिक बन्ध, पाच प्रकृतिक उदय और पांच प्रकृतिक सत्त्व ये तीनो प्राप्त होते हैं। तथा उपशान्तमोह और क्षीणमोह इन दो गुणस्थानोमें पांच प्रकृतिक उदय और पाच प्रकृतिक सत्व ये दो ही प्राप्त होते हैं। तथा इससे यह भी जाना जाता है कि बारहवें गुणस्थानसे आगे तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमे इन दोनो कौके बन्ध, उदय और सत्त्वका अभाव है। अव गणस्थानोमें दर्शनावरण कर्मके भंग वतलाते हैं Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण :... मिच्छासाणे विइए नव चउ पण नव य संतंसा ॥३९॥ मिस्साइ नियट्टीो छचउ पण नव य संतकम्मंसा। चउबंध तिगे चउ पण नवस दुसु जुयल छस्संता ॥४०॥ उवसंते चउ पण नव खीणे चउरुदय छच्च चउ संतं । अर्थ-दर्शनावरण कर्मकी मिथ्यात्व और सास्वादनमें नौ प्रकृतियोंका वन्ध, चार या पांचका उदय और नौ की सत्ता होती है। मिश्र से लेकर अपूर्वकरणके पहले संख्यातवें भागतक छह का बन्ध, चार या पाचका उदय और नौकी सत्ता होती है। अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोमें चारका बन्ध, चार या पांच का उदय और नौकी सत्ता होती है। क्षपकके ९ औ १० इन दो गुणस्थानोंमें चारका वन्ध, चारका उदय और छहको सत्ता होती है । उपशान्त मोह गुणस्थानमे चार या पांचका उदय और नौकी सत्ता होती है। तथा क्षीणमोह गुणस्थानमें चारका उदय तथा छह और चारकी सत्ता होती है ।। (1) 'मिच्छा सासयणेसुं नवबंधुवलक्खिया उ दो भगा। मीसामो य नियट्टी ना छब्बघेण दो दो उ ॥ चठबंधे नब संते दोण्णि अपुवाउ सुहुमरागो जा। अव्वधे णव सते उवसते हुंति दो भंगा ॥ चठवधे छस्सते पायरसुहुमाणमेगुक्खवयाणं । छसु चउसु व संतेसु दोणि अवंधमि खोणस्स ॥'-पच्च० सप्त० गा० १०२-१०४ । 'गव सासणो ति बंधो छच्चेत्र अपुल्वपढमभागो ति । चत्तारि हॉति तत्तो सुहुमकसायस्थ चरिमो ति । खीणो त्ति चारि उदया पंचसु णिहासु दोसु गिटासु । एके उदयं पत्त खोणदुचरिमो त्ति पचुदया ॥ मिच्छादुवसतो ति य अणियटी खवगपढमभागो ति । एव सत्ता खोणास दुचरिमो तिय चदूवरिमे । गोकर्मः गा० ४६०-४६२॥" Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानीमें भंगविचार विशेपार्थ-दर्शनावरण कर्मकी उत्तर प्रकृतियां नौ हैं। इनमेंसे त्यानद्धित्रिकका वन्ध सास्वादन गुणस्थान तक ही होता है। तथा चक्षुदर्शनावरण आदि चारका उदय अपनी उदयव्युच्छित्ति होने तक निरन्तर बना रहता है किन्तु निद्रादि पाचका उदय कटाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता। उसमे भी एक कालमै एकका ही उदय होता है युगपत् दो या दो से अधिकका नहीं। अल इस हिमावसे मिथ्यात्व और सास्वादन इन दो गुणग्यानोमें ९ प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व तथा ९ प्रकृतिक वन्ध, पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्व ये दो भग प्राप्त होते है। इन दो गुणस्थानी से आगे मिश्रसे लेकर अपूर्वकरणके प्रथम भाग तक उदय और सत्तामें तो कोई फरक नहीं पड़ता किन्तु वन्धमे छह प्रकृतियां ही रह जाती हैं । अतः इन गुणस्थानोमें छह प्रकृतिक वन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नो प्रकृतिक सत्त्व तथा छह प्रकृतिक वन्ध, पाच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व ये दो भग प्राप्त होते हैं। यद्यपि त्यानडैित्रिकका उदय प्रमत्तसयत गुणस्थानके अन्तिम समयतक ही हो सकता है फिर भी इससे पाच प्रकृतिक उदयस्थान के कथनमें कोई अन्तर नहीं पाता । केवल विकल्प रूप प्रकृतियोमे ही अन्तर पड़ता है। छठे गुणस्थान तक निद्रादि पाचों प्रकृतिया विकल्पसे प्राप्त होती है और आगे निद्रा और प्रचला ये दो प्रई तियां ही विकल्पसे प्राप्त होती है। अपूर्वकरणके प्रथम भागमे निद्रा और प्रचलाकी वन्धन्युच्छित्ति हो जाती है, अतः आगे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक वन्धमे चार ही प्रकृतियां रह जाती है किन्तु उदय और सत्ता पूर्ववत् चालू रहती है। अत' 'अपूर्व करणके दूसरे भागसे लेकर सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक तीन गुणस्थानोमे चार प्रकृतिक वन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नौ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सप्ततिकाप्रकरण प्रकृतिक सत्त्व तथा चार प्रकृतिक वन्ध पाँच प्रकृतिकं उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व प्राप्त होते हैं। किन्तु ऐसा नियम है कि निद्रा या प्रचलाका उदय उपशमश्रेणीमें ही होता है क्षपश्रेणीमें नहीं, अतः एक तो क्षपकश्रेणीमे पांच प्रकृतिक उदयरूप भंग नहीं प्राप्त होता और दूसरे अनिवृत्ति करणके कुछ भागो के व्यतीत होने पर स्त्यानर्द्धित्रिकका सत्त्वनाश हो कर छहकी ही सत्ता रहती है, अत. अनिवृत्तिकरणके अन्तिम संख्यात भाग और सूक्ष्मसम्पराय इन दो क्षपक गुणस्थानोमे चार प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व यह एक भंग प्राप्त होता है। चाहे उपशम श्रेणीवाला हो या क्षपकश्रेणीवाला समीके दसवे गुणस्थानके अन्तमें दर्शनावरणका बन्ध विच्छेद हो जाता है इसलिये आगेके गुणस्थानोंमे बन्धकी अपेक्षा दर्शनावरण कर्मके भंग नहीं प्राप्त होते किन्तु उपशान्तमाह यह गुणस्थान उपशमश्रेणी का है अतः इसमें उदय और सत्ता उपशमश्रेणीके दसवें गुणस्थानके समान बनी रहती है और क्षीणमोह यह गुणस्थान आपकश्रेणीका है इसलिये इसमे उदय और सत्ता क्षपकरेणीके दसवे गुणस्थानके समान वनी रहती है । अत. उपशान्त मोह गुणस्थानमें चार प्रकृविक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व तथा पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व ये दो भंग प्राप्त होते हैं। और क्षीणमाह गुणस्थानमें चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्व यह भंग प्राप्त होता है। किन्तु जव क्षीणमोह गुणस्थानमें निद्रा और प्रचलाका उदय ही नहीं होता है तब इनका क्षीणमोह गुणस्थानके अन्तिम समयमे सत्त्व नहीं प्राप्त हो सकता, क्यों कि ऐसा नियम है कि जो अनुदय प्रकृतियां होती हैं उनका प्रत्येक निपेक स्तिवुकसक्रमणके द्वारा सजातीय उदयवती प्रकृतिरूप परणमता जाता है । इस हिसाबसे निद्रा और प्रचलाका अन्तिम निषेक वारहवें गुणस्थानके Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोंमें भंगविचार उपान्त्य समयमें ही चक्षुदर्शनावरण आदि रूप परणम जायगा और इस प्रकार क्षीणमोह गुणस्थानके अन्तिम समयमें निद्री और प्रचलाका सत्त्व न रह कर केवल चारकी ही सत्ता रहेगी। अत. ऊपर जो क्षीणमोह गुणस्थानमे चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्त्व यह भग बतलाया है वह क्षीणमोहके उपान्त्य समय तक ही प्राप्त होता है तथा अन्तिम समयमे चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व यह एक भग और प्राप्त होता है। इस प्रकार क्षीणमोहमें भी दो भंग होते हैं यह सिद्ध हुआ। अब गुणस्थानोमें वेदनीय आदि कर्मों के भंग बतलाते हैंवेयणियाउयगोए विभज मोहं परं चोच्छं ॥४१॥ अर्थ-गुनस्थानों में वेदनीय आयु और गोत्र कर्मके भगोका विभाग करके तदनन्तर मोहनीयका कथन करेंगे। विशेषार्थ-~~यहा ग्रन्थकारने वेदनीय, आयु और गोत्र कर्मके भगोंके विभाग करने मात्रकी सूचना की है किन्तु किस गुणस्थानमें किस कमके कितने भग होते हैं यह नहीं बतलाया है, जिनका बतलाया जाना जरूरी है। ___यद्यपि मलयगिरि आचार्यने अपनी टीकामे इन कर्मोके भगोका विवेचन किया है पर उनका यह कथन अन्तर्भाष्य सम्बन्धी गाथाओ पर अवलवित है। उन्होने स्वय अन्तर्भाष्यकी गाथाश्रीको उद्धृत करके तदनुसार गुणस्थानोमें वेदनीय, गात्र और आयु कर्मके भंग बतलाये हैं। यद्यपि सूत्रकारने वेदनीय, आयु और गोत्र इस क्रमसे विभाग करनेका निर्देश किया है किन्तु अन्तर्माष्यगाथामे पहले वेदनीय और गोत्रके भंग बतलाये हैं। अत. यहां भी इसी क्रमसे खुलासा किया जाता है। अन्तर्भाप्यमें लिखा है Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सप्ततिकाप्रकरणः: - - 'चर छस्सु दोषिण सत्तसु एगे चउ गणिसु वेयणियभंगा। गोए पण चउ दो तिसु एगट्टसु दोरिण एक्कम्मि । अर्थात् वेदनीय कर्मके छह गुणस्थानोमें चार, सातमें दो और एकमें चार भंग होते हैं। तथा गोत्र कर्मके मिथ्यात्वमे पांच, सास्वादनमें चार, मिश्र आदि तीनमे दो. प्रमत्तादि आठमें एक और अयोगिकेवली मे एक भंग होता है ।। ।।। वात यह है कि बन्ध और उदय की अपेक्षा ,साता और असाता चे प्रतिपक्षभूत प्रकृतियां हैं। इनमे से एक कालमें किसी एक का वन्ध और किसी एकका ही उदय होता है किन्तु दोनोंकी एक साथ सत्ताके पाये जानमें कोई विरोध नहीं है। दूसरे असाता का वन्ध प्रारम्भके छह गुणस्थानोंमे ही होता है आगे नहीं, अतः प्रारम्भके छह गुणस्थानोंमे निम्न चार भंग प्राप्त होते हैं । यथा(१) असाताका बन्ध, असाताका उदय और साता असाताका सत्त्व, (२) असाताका वन्ध, साताका उदय और असाता का सत्त्व (३) साताका वन्ध, असाताका उदय और साता असाताका सत्त्व तथा (४) साताका वन्ध, साताका उदय और साता असाताका सत्त्व । सातवे गुणस्थानसे तेरहवें तक बन्ध केवल साताका ही होता है किन्तु उदय और सत्त्व दोनांका पाया जाता है, अतः इन गुणस्थानो मे निम्न दो भग प्राप्त होते हैं। यथा-(१) साता का वन्ध, साताका उदय और साता असाताका सत्त्व (२) साता का वध असाताका उदय और साता असाताका सत्त्व । अयोगि केवली गुणस्थानमें साताका भी वन्ध नहीं होता अतएव वहां वन्धकी अपेक्षा कोई भंग न प्राप्त होकर उदय और सत्त्वकी अपेक्षा ही भंग प्राप्त होते हैं। फिर भी जिसके इस गुणस्थानमें असाताका उदय है उसके उपान्त्य समयमें साताका सत्त्व नाश हो जाता है और जिसके साताको उदय है उसके उपान्त्य समयमें Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानों में मंगविचार २२५ असाताका सत्त्वनाश हो जाता है अतः इस गुणस्थानमें उपान्त्य समय तक (१) साताका उदय और साता असाताका सत्त्व तथा (२) असाताका उदय और साता असाताका सत्व ये दो भग प्राप्त होते हैं और अन्तिम समयमें (३) साता का उदय और साताका सत्त्व तथा (४) असाताका उदय और असाताका मत्व ये दो भंग प्राप्त होते हैं। इस प्रकार गुणस्थानोमें वेदनीयके भगो का कथन किया। अब गोत्र कर्मके भगोका विचार करते हैं-गोत्र कर्मके विपयमें एक विशेषता तो यह है कि साता और असाताके समान बन्ध और उदयकी अपेक्षा उच्च और नीच गोत्र भी प्रतिपक्षभूत प्रकृतिया हैं। एक कालमें इनमें से किसी एक का ही बन्ध और एकका ही उदय होता है किन्तु सत्त्व दोनोका एक साथ पाया जाता है । तथा दूसरी विशेषता यह है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोके उच्चगोत्र की उद्वलना होने पर बन्ध, उदय और सत्त्व एक नीच गोत्रका ही होता है और जिनमे ऐसे अग्निकायिक और वायुकायिक जीव उत्पन्न होते हैं उनके भी कुछ काल तक बन्ध, उदय और सत्त्व नीच गोत्र का ही होता है। अब यदि इन दोनो विशेपताश्रो को ध्यानमे रख कर मिथ्यात्व गुणस्थानमें भगोका विचार करते है तो निम्न पाच भग प्राप्त होते हैं। यथा-(१) नीचका बन्ध, नीचका उदय तथा नीच और उच्च का सत्त्व (२) नीचका बन्ध, उच्च का उदय तथा नीच और उधका सत्त्व (३) उच्चका बन्ध, उचका उदय तथा उच्च और नीचका सत्व । (४) उच्चका बन्ध, नीचका उदय, तथा उच्च और नीचका सच्च । तथा (५ , नीचका बन्ध, नीचका उदय और नीचका सत्त्व । नीच गोत्रका वन्ध सास्वादन गुणस्थान तक ही होता है, क्योंकि मिश्र आदि गुणस्थानोमें एक उच्च गोत्र का ही Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सप्ततिकाप्रकरण बन्ध पाया जाता है | इससे यह मतलब निकला कि मिथ्यात्वके समान सास्वादन में भी किसी एक का बन्ध, किसी एक का उदय और दोनो का सत्व बन जाता है। इस हिसाब से यहाँ चार भंग प्राप्त होते हैं। ये भंग वे ही हैं जिनका मिध्यात्वमे क्रम नम्बर १, २, ३ र ४ मे उल्लेख कर आये हैं। तीसरे से लेकर पाँचवे तक बन्ध एक उच्च गोत्र का ही होता है किन्तु उदय और सत्त्व दोनो का पाया जाता है इसलिए इन तीन गुणस्थानोमें ( १ ) उच्चका बन्ध, उच्चका उदय और नीच उच्चका सत्त्व तथा (२) उच्च का बन्ध, नीच का उदय और नीच उच्च का सत्त्व ' ये दो भंग पाये जाते हैं। कितने ही आचार्यों का यह भी मत है कि पांचवें गुणस्थान में उच्चका वन्ध, उच्च का उदय और उच्चनीचका सच यही एक भंग होता है । इस विषय में आगमका भी वचन है । यथा 'सामन्नेणं वयजाईए उच्चागोयस्स उदो हो । ' अर्थात् 'सामान्य से संयत और संयतासंयत जातिवाले जीवो के उच्च गोत्रका उदय होता है । ' छठे से लेकर दसवे गुणस्थान तक ही उच्चगोत्र का बन्ध होता है, अतः इनमे उचका बन्ध, उच्चका उदय और उच्च नीचका सत्त्व यह एक भंग प्राप्त होता है । और ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें इन तीन गुणस्थानोमें उच्चका उदय और उच्च-नीचका सत्त्व यह एक भंग प्राप्त होता है । इस प्रकार छठेसे लेकर तेरहवें तक प्रत्येक गुणस्थान में एक भंग होता है यह सिद्ध हुआ । तथा अयोगिकेवली गुणस्थान में नीच गोत्रका सत्त्व उपान्त्य समय तक हता है, क्योकि चौदहवें गुणस्थानमें यह उदयरूप प्रकृति न ' होनेसे उपान्त्य समय मे ही इसका स्तिवुक संक्रमणके द्वारा उच्च Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोमे भंगविचार २२७ गोत्ररूपसे परिणमन हो जाता है अत. इम गुणस्थानके उपान्त्य समय तक उच्चका उदय और उच्च-नीचका सत्त्व यह एक भंग होता है । तथा अन्त समयमे उच्चका उदय और उच्चका सत्त्व यह एक भग होता है । इस प्रकार गुणस्थानोमे गोत्र कर्मके भंगोका विचार किया। अब आयुकर्म के भगोका विचार करते हैं। इस विपयमें अन्तर्भाष्य गाथा निम्न प्रकार है'अट्ठच्छाहिगवीसा सोलह वीस च बार छदोसु । दो चउसु तीसु एकक मिच्छाइसु आउगे भंगा।' अर्थान्-'मिथ्यात्वमे २८, सास्वादनमे २६, मिश्रमें १६, अवि रत सम्यग्दृष्टि में २०, देशचिरतमे १२, प्रमत्त और अप्रत्तमें ६, अपूर्वादि चारमं २ श्रीर क्षीणमोह आदि तीनमें १ इस प्रकार मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोमे आयु कर्मके भग होते हैं।' नारकियोके पाच, तिथंचोके नौ, मनुष्योंके नौ और देवोंके पाच इस प्रकार आयुकर्मके २८ भग पहले वतला आये हैं वे सव भग मिथ्यारष्टि गुणस्थानमें सम्भव हैं, अत. यहाँ मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें २८ भंग कहे। सास्वादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य नरकायुका बन्ध नहीं करते, क्योकि नरकायुका बन्ध मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही होता है, अत. उपर्युक्त सभगोमे से (१)भुज्यमान तिर्यंचायु, वध्यमान नरकायु तथा तियेच नरकायुका सत्त्व (२) भुज्यमान मनुप्यायु, वध्यमान नरकायु तथा मनुष्य-नरकायुका सत्त्व ये दो भंग कम Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ सप्ततिकाप्रकरण .. होकर सास्वादन गुणस्थानमें २६ भंग प्राप्त होते हैं। मिश्र गुणस्थान में परभव सम्बन्धी किसी भी आयुका वन्ध नहीं होता अतः यहाँ २८ भगोंमे से वन्धकालमे प्राप्त होने वाले नारकियोंके दो तिर्यंचोंके चार, मनुष्योके चार और देवीके दो इस प्रकार १२ भंग कम होकर १६ भंग प्राप्त होते हैं। अविरत सम्यग्दष्टि गुणस्थानमें तिर्यंच और मनुष्यों में से प्रत्येकके नरक, तियेच और मनुष्यायुका वन्ध नहीं होता तथा देव और नारकियोमें प्रत्येकके तिर्यंचायुका वन्ध नहीं होता, अत. २८ भंगोमे से ये ८ भंग कम होकर इस गुणम्यानमै २० भंग प्रप्त होते हैं । देशविरति तिथंच और मनुष्योके ही होती है और यदि ये परभव सम्बन्धी आयुका वन्ध करते हैं तो देवायुका ही वन्ध करते हैं अन्य आयुका नहीं, क्योकि देशविरतमे देवायुको छोड़कर अन्य श्रायुका वन्ध नहीं होता । अत' इनके आयुवन्ध के पहले एक एक ही भग होता है और आयुवन्धके कालमे भी एक एक ही भंग होता है इस प्रकार तिथंच और मनुष्य दोनोंके मिलाकर चार भंग तो ये हुए । तथा उपरत वन्ध की अपेक्षा तियेचों के भी चार भंग प्राप्त होते हैं और मनुप्याके भी चार भंग ग्राम होते है, क्योकि चारो गति सम्बन्धी आयुका वध करनेके पश्चात् तियत्त और मनुष्योंके देशविरत गुणस्थानके प्राप्त होनेमे किसी भी प्रकार की वाधा नहीं है। इस प्रकार आठ भंग ये हुए। कुल मिलाकर देशविरत गुणस्थानमे १२ भंग हुए । प्रमत्त और अप्रमत्त संयत मनुष्य ही होते हैं और ये देवायुको ही वॉधते हैं अतः इनके आयुवन्धके पहले एक भंग Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ गुणस्थानों में भंगविचार होता है और आयुवन्धके कालमें भी एक ही भग होता है। तथा उपरत वन्ध की अपेक्षा यहाँ चार भंग और होते हैं, क्योंकि चारो गति सम्बन्धी आयुवन्ध के पश्चात् प्रमत्त और अप्रयत्त सयत गुणस्थानोंके प्राप्त होनेमें कोई बाधा नहीं है। कुल मिलाकर ये छ भंग हुए। इस प्रकार प्रमत्तसंयतमें छह और अप्रमत्तसयतमें छह भंग प्राप्त होते हैं। आगे अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंमें आयुका वन्ध तो नहीं होता किन्तु जिसने देवायुका वन्ध कर लिया है ऐसा मनुष्य उपशमश्रेणी पर आरोहण कर सकता है। किन्तु जिसने देवायुको छोड़कर अन्य आयुओंका वन्ध किया है वह उपशमश्रेणि पर आरोहण नहीं करता। कर्मप्रकृतिमें भी कहा है- 'तिसु आउगेसु बढेसु जेण सेदि न आरुहइ । 'चूंकि तीन आयुओंका वन्ध करनेके पश्चात् जीव श्रोणि पर आरोहण नहीं करता। अत उपशमश्रोणिकी अपेक्षा अपूर्वकरणादि चार गुणस्थानों में दो दो भग होते हैं। किन्तु आपकोणिकी अपेक्षा अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानोमें मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्त्व यही एक भग होता है। तथा क्षीणमोह आदि तीन गुणस्थानोमे भी मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्व यही एक भंग होता है इस प्रकार किस गुणस्थानमें आयु. कर्मके कितने भग होते हैं इसका विचार किया। इस प्रकार 'वेयणियाउयगोए विभन्न' इस गाथांशका व्याख्यान समाप्त हुआ। .. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०० सप्ततिकाप्रकरण । १४ गुणस्थानोमें छह कर्मोके भंगोंका ज्ञापक कोष्ठक २२ ] गुणस्थान ज्ञानावरण दर्शनाव० / वेदनीय | आयु अन्तराय - - 1 - - मिथ्या० ع सास्वा० م c - ccc मिश्र م ... अविरत م देशवि० م प्रमत्तसं० م . . ccc अप्रमत्त० م अपूर्वक ه or or or or o अनिवृ० س . . सूक्ष्म س उपशान्त م . क्षीणमो० ه . . r सयोगिके० ه भयोगिके. ९ ه Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानों में भंगविचार २३१ अव पूर्व सूचनानुसार गुणस्थानो में मोहनीयके भंगोका विचार करते है उसमे भी पहले वन्धस्थानोके भगोको बतलाते हैंगुणठाणगेसु सु एक्केक्कं मोहबंधठाणेसु | पंचानियदिठाणे बंधोवरमो परं तत्तो ॥ ४२ ॥ अर्थ - - मिथ्यात्वादि आठ गुणस्थानों में मोहनीयके बन्धस्थानोमेसे एक एक बन्धस्थान होता है । तथा श्रनिवृत्तिकरण में पांच बन्धस्थान होते हैं । तदनन्तर अगले गुणस्थानो में वन्धका अभाव है । विशेपार्थ -- मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे एक २२ प्रकृतिक वन्ध स्थान होता है । सास्वादनमें एक २१ प्रकृतिक वन्धस्थान होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें एक १७ प्रकृतिक वन्धस्थान होता है । देशविरतमें एक १३ प्रकृतिक वन्ध स्थान होता है । प्रमतसंयत, अप्रमत्तसंयत और पूर्वकरणमे एक ९ प्रकृतिक वन्धस्थान होता है । यहाँ इतना विशेष है कि अरति और शोक की बन्धव्युच्छित्ति प्रमत्तसयत गुणस्थान में ही हो जाती है, अत श्रप्रमत्तसयत और अपूर्वकरणके नौ प्रकृतिक बन्धस्थानमें एक एक ही भग प्राप्त होता है। पहले जो ६ प्रकृतिक वन्धस्थानमें २ भग कह आये है वे प्रमत्तसंयत गुणस्थानकी अपेक्षा कहे हैं। अनिवृत्तिकरणमे ५, ४, ३, २ और १ ये पांच बन्धस्थान होते हैं। तथा गेके गुणस्थानोमे मोहनीयका बन्ध नहीं होता, अत उसका निषेध किया है । अब गुणस्थानों में मोहनीयके उदयस्थानोंका कथन करते हैंसत्ताइ दस उ. मिच्छे सासाय छाई नव उ अविरए देसे पंचाई मीसए नवक्कोसा । व ॥ ४३ ॥ - Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सप्ततिकाप्रकरण - . विरए खोवसमिए चउराई सत्त छच्चपुव्वम्मि ।' अनियट्टिबायरे पुण इक्को व दुवे व उदयंसा ॥४४॥ एणं सुहुमसरागो वेएइ अवेयगा भवे सेसा । भंगाणं च पमाणं पुवुद्दिद्रुण नायव्वं ।। ४५ ॥ अर्थ-मिथ्यात्वमे ७ से लेकर १० तक ४, सास्वादन और मिश्रमे ७से लेकर ९ तक ३, अविरत सम्यक्त्वमें से लेकर तक ४, देशविरतमे ५ से लेकर ८ तक ४, प्रमत्त और अप्रमत्तविरतमें ४ से लेकर ७ तक ४, अपूर्वकरणमे ४ से लेकर ६ तक ३ और अनिवृत्तिबादर सम्परायमें दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक इस प्रकार दो उदयस्थान होते हैं। तथा सूक्ष्मसम्पराय जीव एक प्रकृ. तिका वेदन करता है और शेष गुणस्थानवाले जीव अवेदक होते हैं। इनके भंगो का प्रमाण पहले कहे अनुसार जानना चाहिये। विशेषार्थ- मोहनीयकी कुल उत्तरप्रकृतियां २८ हैं। उनमेंसे एक साथ अधिक से अधिक १० प्रकृतियोका और कमसे कम १ प्रकृति का एक कालमें उदय होता है। इस प्रकार १ से लेकर १० तक १० उदयस्थान प्राप्त होते है किन्तु केवल ३ प्रकृतियों का (१) 'मिच्छे सगाइचउरो सासणमीसे सगाइ तिष्णुदया। छप्पंचचठरसुव्वा तिथ चउरो अविरयाईण ॥ पञ्च० सप्त० गा० २६ 'सत्तादि दसु. कस्सं मिच्छे सण ( सासण) मिस्सए गबुकस्सं । छादी य गवुकस्सं अविरदसम्मत्तमादिस्स ॥ पचादि अहणिहणा विदाराबिरदे उदीरणहाणा । एगादी तिगरहिदा सत्तकस्सा य विरदस्स ॥ धव० उद० श्रा०प०१०२२ । दसणवणवादि चउतियतिट्ठाण वसगसगादि चज । ठाणा छादि तिय च य चवीसगदा' अपुचो तिं ॥४०॥ उदयहाणं दोहं पणबंधे होदि दोण्हमेकस्स। चदुविहबंधहाणे सेसेसेय हवे ठाणं ॥४२॥ गो० कर्म Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोमें भङ्गविचार . २३३ उदय कहीं प्राप्त नहीं होता अतः ३ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं वत्तलाया और इसलिए मोहनीयके कुल उदयस्थान ६ वतलाये हैं। ४४ नम्बरकी गाथामें 'विरए खओवसमिए' पद आया है, जिसका अर्थ 'क्षायोपशमिक विरत होता है। सो इससे यहाँ प्रमत्तसयत और अप्रमत्तसयत लेना चाहिये, क्यो कि क्षायोपशमिक विरत यह सज्ञा इन दो गुणस्थानवाले जीवोकी ही है । इसके आगे जीवको या तो उपशामक सज्ञा हो जाती है याक्षपक । जो उपशमक श्रेणि पर चढता है वह उपशमक और जो क्षपक श्रेणिपर चढ़ता है वह क्षपक कहलाता है। इनमें से किस गुणस्थानमें रितनी प्रकृतियोके कितने उदयस्थान होते है इसका स्पष्ट निर्देश गाथामें किया ही है। हम भी इन उदयस्थानों की सामान्य विवेचना करते समय उनका विशेप खुलासा कर आये हैं इसलिये यहाँ इस विपय मे अधिक न लिखकर केवल गाथाश्रो के अर्थका स्पष्टीकरणमात्र किये देते है-मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे ७, ८, ९, और १० प्रकृतिक चार उदयस्थान होते हैं। यहा इनके भगोकी ८ चौबीसी प्राप्त होती हैं। सास्वादन और मिन में ७, ८, और प्रकृतिक तीन तीन उदयस्थान होते है । यहाँ इनके भगोंकी क्रमसे ४ और ४ चौवीसी प्राप्त होती हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमे ६, ७, ८ और ६ प्रकृतिक चार उदयस्थान होते हैं। यहाँ इनके भगोकी ८ चौवीसी प्राप्त होती हैं। देशविरत गुणस्थानमे ५, ६, ७ और. ८ प्रकृतिक चार उदयस्थान होते हैं। यहां इनके भंगोकी ८ चौबीसी प्राप्त होती हैं। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमे ४, Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सप्ततिकाप्रकरण. ५, ६, और ५ प्रकृतिक चार उदयस्थान होते हैं। यहां इनके . भंगोकी क्रमशः आठ चौबीसी प्राप्त होती हैं। अपूर्वकरण गुणस्थानमे ४, ५, और ६ प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं । यहाँ इनके भंगोकी चार चौबीसी प्राप्त होती हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमे दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक इस प्रकार दो उदयस्थान होते है। यहाँ दो प्रकृतिक उदयस्थानमे क्रोधादि चारमेसे कोई एक और तीन वेदो में से कोई एक इस प्रकार दो प्रकृतियोका उदय होता है। सो यहाँ तीन वेदोसे संज्वलन क्रोधादि चारको गुणित करने पर १२ भंग प्राप्त होते हैं। तदनन्तर वेदकी उदयन्युच्छित्ति हो जान पर एक प्रकृतिक उदयस्थान होता है। जो चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक बन्धके समय प्राप्त होता है। यद्यपि एक प्रकतिक उदयमें चार, प्रकृतिक बन्धकी अपेक्षा चार, तीन प्रकृतिक बन्धकी अपेक्षा तीन, दो प्रकृतिक वन्धकी अपेक्षा दो और एक प्रकृतिक बन्धकी अपेक्षा एक इस प्रकार कुल १० भंग कह आये हैं किन्तु यहां बन्धस्थानोके भेदकी अपेक्षा न करके कुल ४' भंग ही विक्षित हैं। तथा सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानमे एक सूक्ष्म लोभका उदय होता है अतः वहां एक ही भंग है। इस प्रकार एक प्रकृतिक उदय में कुल पाँच भंग होते हैं। इसके आगे उपशान्त, मोह आदि गुणस्थानोमें मोहनीयका उदय नहीं होता अत: उनमें उदयकी अपेक्षा एक भी भंग नहीं होता। इस प्रकार यहाँ उक्त गाथाओके निर्देशानुसार किस गुणस्थानमें कौन कौन उदयस्थान और उनके कितने भंग होते हैं इसका विचार Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान में भंगविचार २३५ किया । अन्तिम गाथामे जो भंगोका प्रमाण पूर्वोद्दिष्ट क्रमसे जानने की सूचना की है सो उसका इतना ही मतलव है कि जिस प्रकार पहले सामान्यसे मोहनीयके उदयस्थानोका बधन करते समय उनके भंग वतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी उनका प्रमारण समझ लेना चाहिये जिनका निर्देश हमने प्रत्येक गुणस्थानके उदयस्थान चतलाते समय किया ही है । अव मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोकी अपेक्षा दससे लेकर एक पर्यन्त गुणस्थानोमें अगली गाथा द्वारा भगोकी संख्या बतलाते हैं एक्कं छडेकारेकारसेव एक्कारसेव] नव तिनि । एए चउवीसगया बार दुगे पंच एकम्मि ॥ ४६ ॥ अर्थ-१० से लेकर ४ प्रकृतिक तकके उदयस्थानीमे क्रमसे एक, छह, ग्यारह, ग्यारह, ग्यारह, नौ और तीन चौबीसी भग होते हैं। तथा दो प्रकृतिक उदयस्थानमे १२ और एक प्रकृतिक उदयस्थानमे पाँच भंग होते हैं । विशेषार्थ दस प्रकृतिक उदयस्थान एक ही है अत इसमें भगोंकी एक चौवीसी कही। नौ प्रकृतिक उद्यस्थान छह हैं अतः इसमे भंगो की छह चौवीसी कहीं । ८७ और ६ प्रकृतिक उदयस्थान ग्यारह ग्यारह हैं अतः इनमें भगोकी ग्यारह ग्यारह चौवीसी कहीं । पाच प्रकृतिक उद्यस्थान नौ हैं अतः इनमे भगोकी नौ चौबीसी कहीं और चार प्रकृतिक उदयस्थान तीन हैं त इनमें गोकी तीन चौबीसी कहीं। तथा दो प्रकृतिक और एकप्रकृतिक ( १ ) 'एक य छक्केयार एयारेयारसेव गाव तिण्ाि । एदे चठवीसगदा चदुवीयार दुगठाणे ॥' गो० कर्म० गा० ४८१ । 1 1 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण उदयस्थानमें क्रमसे बारह और पांच भंग होते हैं इसका स्पष्टी करण पहले कर ही आये हैं, अतः इन दो उदयस्थानों में क्रमसे १२ और ५भग कहे । इस प्रकार सब उदयस्थानों में कुल मिलाकर ५२ चौवीसी और १७ भंग प्राप्त होते हैं। इन्हीं भंगोका गुणस्थानोंकी अपेक्षा अन्तर्भाष्य गाथामें निम्नप्रकारसे विवेचन किया गया है 'अट्ठग चउ चउ चउरटुगा य चउरो य होति चउवीसा। मिच्छाइ अपुव्वंता वारस पणगं च अनियट्ट ।। अर्थात-'मिथ्याष्टिसे लेकर अपूर्वकरण तक आठ गुणस्थानोमे भगोंकी क्रमसे आठ, चार, चार,आठ.आठ, आठ, आठ और चार चौवीसी होती हैं तथा अनिवत्तिकरणमें १२ और ५भंग होते हैं।' इस प्रकार भंगोंके प्राप्त होने पर १२६५ उदय विकल्प और ८४४७ पदवृन्द प्राप्त होते हैं जिनसे सब संसारी जीव मोहित हो रहे हैं, क्योकि ५२ को २४ से गुणित कर देने पर जो १२४८ प्राप्त हुए उनमे १७ और जोड़ देने पर कुल उदयविकल्पोंकी कुल संख्या १२६५ ही प्राप्त होती है। तथा १० से लेकर ४ प्रकृतिक उदयस्थान तकके सब पद ३५२ होते हैं अतः इन्हें २४ से गुणित कर देने पर ८४४८ प्राप्त हुए । तदनन्तर इनमें दो प्रकृतिक उदयस्थानके २४१२२४ और एक प्रकृतिक उदयस्थानके ५ इसप्रकार २९ और मिला देने से पदवृन्दोंकी कुल संख्या ८४७७ प्राप्त होती है। कहा भाला देने से पदवी प्रकृतिक उदयस्थान प्रकृतिक उदय 'वारसपणसट्ठसया उदयविगप्पेहिं मोहिया जीवा। चुलसीईसत्तत्तरिपयविंदसएहिं विन्नेया ।' अर्थात्-'ये संसारी जीव १२६५ उदय विकल्पोंसे और ८४७७ पद वृन्दोंसे मोहित हो रहे हैं।' गुणस्थानों की अपेक्षा उदयविकल्पों का ज्ञापक कोष्ठक-- Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासोंमें भंगविचार । ३० । गुणस्थान उदयस्थान भग मिथ्यात्व ८ चौबीसी सास्वादन ४ चौपीसी ४ चौबीसी मिश्र अविरत० ८ चौपीसी देशविरत ८ चौबीसी प्रमत्त० ८ चौवीसी ८ चौवीसी अप्रमत्त. अपूर्ण ४ चौबीसी अनिष. सूक्ष्म० १२६५ उदयविकल्प Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सप्तविकाप्रकरणं गुपयानों की अपेक्षा पदकृत्वों का बापक कोष्टक [३१] गुणनन्द गुणस्थान गुथ्य (पदः । गुणकार निध्यात्व १६३२ साता० ७०८ मिश्र अविरत १४४० देशवि० प्रमच. २०५६ . अम्मत. १०५६ - अपूर्व ४० সুল ८४७७ पदवृन्द Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगादिकमें भंगविचार १३. योग, उपयोग और लेश्याओं में संवेध भङ्ग अव योग और उपयोगादिकी अपेक्षा इन भंगोका कथन करनेके लिये आगेकी गाथा कहते हैं जोगोवयोगले साइएहिं गुणिया हवंति कायव्वा । तत्थ गुणकारी ||४७|| जे जत्थ गुणट्ठाणे हवंति ते अर्थ-इन उदयभगोको योग, उपयोग और लेश्या आदि से गुणित करना चाहिये । इसके लिये जिस गुणस्थानमें जितने योगादि हों वहाँ गुणकारकी संख्या उतनी होती है || २३६ विशेषार्थ - किस गुणस्थानमें कितने उदय विकल्प और कितने पदवृन्द होते हैं इसका निर्देश पहले कर हो आये हैं । किन्तु अभीतक यह नहीं बतलाया कि योग, उपयोग और लेश्याश्रकी अपेक्षा उनकी सख्या कितनी हो जाती है, अतः आगे इसी चातके बतानेका प्रयत्न किया जाता है । इस विषय में सामान्य नियम तो यह है कि जिस गुणस्थानमे योगादिक की जितनी सख्या हो उससे उस गुणस्थानके उदयविकल्प और पदवृन्दों को गुणित कर देने पर योगादिकी अपेक्षा प्रत्येक गुणस्थानमें उदयविकल्प और पदवृन्द आ जाते है । अतः (१) ' एव जोगुवओोगा लेसाई भेयश्री बहूमेया । जा जस्स जमिठ गुणे सस्ता सा तमि गुणगारो ॥-पञ्च० सप्त० गा० ११७ । 'उदय हाणं पयति सगसग जो जोग प्रदीहिं । गुणा यिता भेलनिदे पदसंखा पयडिसखा य म ' - गो० कर्म० गा० ४६० 1 , 3 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सप्ततिकाप्रकरण यह जानना जरूरी है कि किस गुणस्थानमें कितने योगादिक होते हैं। परन्तु एक साथ इनका कथन करना अशक्य है अतः पहले योगकी अपेक्षा विचार करते हैं--मिथ्यात्व गुणस्थानमे १३ योग और भांगोकी ८ चौवीसी होती हैं। सो इनमेंसे चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग, और वैक्रियकाययोग इन दस योगोमेसे प्रत्येक में भंगोकी आठो चौवीसी होती हैं, अतः १० से ८ को गुणित करने पर ८० चौबीसी हुई। किन्तु औदारिकमिश्रकाययोग वैक्रियमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग इनमें अनन्तानुबन्धी की उदयवाली ही चार चौबीसी प्राप्त होती हैं, क्यो कि ऐसा नियम है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेपर जीव मिथ्यात्व गुणस्थानमे जाता है उसका जव तक अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं होता तब तक मरण नहीं होता, अतः यहां इन तीन योगो मे अनन्तानुवन्धीके उदयसे रहित चार चौबीसी सम्भव नहीं। विशेप खुलासा इस प्रकार है कि जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा जीव जब मिथ्यात्वको प्राप्त होता है । तब उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका बन्ध और अन्य सजातीय प्रकृतियोका अनन्तानुवन्धीरूपसे संक्रमण तोपहले समयसे ही होने लगता है किन्तु अनन्तानुबंधीका उदय एक आवलि कालके पश्चात् होता है। ऐसे जीवका अनन्तानन्धीका उदय होने पर ही मरण होता है पहले नहीं अतः उक्त तीनो योगोमे अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित ४ चौबीसी नहीं पाई जाती। इस प्रकार इन तीनो योगोमें भंगोकी कुल चौबीसी १२ हुई। इनको पूर्वोक्त ८.० चौबीसियों में मिला देने पर मिथ्यात्व गुणा- स्थानमे, भंगोकी कुल ६२ . चौबीसी प्राप्त होती हैं। जिनके कुल भांग २२०८ होते हैं। सास्वादनमें १३ योग और भंगोंकी ४ चौबीसी होती हैं। इसलिये फुल भंगोंकी ५२ चौबीसी होनी चाहिये Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगीमें भगविचार २४१ थी । किन्तु साम्बादनके वैक्रिय मिश्रकाययोगमें नपुंसकवेदका उदय नहीं होता, अत .२ योगोंकी तो ४८ चौबीसी हुई और वैक्रिय मिश्रके ४ पोडशक हुए । इस प्रकार यहां सब भग १२१६ होते है। सम्यग्मिय्यादृष्टि गुणग्थानमें ४ मनोयोग, ४ वचनयोग औदारि काययोग और वैक्रियकाययोग ये १० योग और भगोंको ४ चौवीसी होनी हैं, अत ४ चौबीसी को १० से गुणित करने पर यहां कुल भग ६६० होते हैं। अविरतमम्यष्टि गुणस्थानमें १३ योग और भगोकी ८ चौवीसी होती हैं। किन्तु ऐसा नियम है कि चौथे गुणस्थानके वैक्रियमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगमे स्त्रीवेद नहीं होता, क्योकि अविरत सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रीवेदियोम नहीं उत्पन्न होता। इसलिये इन दो योगीमें भगोकी आठ चौवीसी प्राप्त न होकर आठ पोडशक प्राप्त होते हैं। यहा पर मलयेगिरि आचार्य लिखते है कि स्त्रीवेदी सम्यग्दृष्टि जीव वैक्रियमिभकाय योगी और कार्मण काययोगी नहीं होता यह कथन बहुलाताकी अपेक्षासे किया है। वैसे तो कदाचित् इनमें भी स्त्रीवेटके साथ सम्यग्दृष्टियोका उत्पाद देखा जाता है इसके लिये उन्होंने चूर्णिका निम्न वाक्य उद्धृत किया है । यथा 'कयाइ होन इत्यिवेयगेसु वि।' अर्थात्-'कदाचित् सम्यग्द्रष्टि जीव स्त्रीवेदियोमे भी उत्पन्न होना है।' (1) दिगम्बर परपरामें यही एक मत मिलता है कि स्त्री वेदियों में सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होता । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सप्ततिकाप्रकरण __ तथा चौथै गुणस्थानके औदारिकमित्रकाययोगमे बीवेद और नपुंचक्रवत नहीं हाता क्योंकि स्त्रीवेदी और नपुंसकवेही नियंत्र और मनुष्यों में अविरत सम्बनष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, अनः . औतारकमित्रकाययोगमें भंगोंजी ८ चौबीमी प्राप्त न होकर आठ अष्टक प्राप्त होते हैं । यहाँ पर भी मलयगिरि आचार्य अपनी , टीका लिखते हैं कि स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी सम्यानुष्टि जीव औदारिक मित्राययोगी नहीं होता यह बहुलनाकी अपेक्षाले कहा है। इस प्रकार। अविरतसन्यन्त्रष्टि गुणस्थानमें कुत्त २४० भग . प्राम हाते हैं। देशविरतमें आंदारिकभित्र, कामण काययोग और . आहारकाद्वकके बिना ११ योग और भंगाकी ८ चौवीली हानी हैं। यहाँ प्रत्येक बागमे भंगोंकी चांबीनो लन्भव है, अत. यहाँ कुद्ध भंग २११२ होने हैं। प्रमत्तसंचतमें औदारिकमिश्र और.. बामणक विना १३ योग और भंगोंकी चौरीमी होनी है। किन्तु ऐमा नियम है कि नीबदमें आहारकनाय्चोग और आहारकमिश्रकाययोग नहीं होना, क्योंकि आहारक समुद्धात चौदह पूर्ववारी जीव ही करते हैं। परन्तु नियोंके चौदह पूर्वोका वान नहीं पाया जाता । कहा भी है तुच्चा गारवबहुना बलिदिया बुन्बला य धीईए।' इय अइमसमन्वणा भूयात्रात्री य नो थीणं ।' अर्थात्-स्त्रीवेदी जीव तुच्छ,गारवबहुल, चंचल इन्द्रिय और बुद्धिस दुर्वल होते हैं अतः वे बहुन अध्ययन करने में समर्थ नहीं हैं और उनके चष्टिवाद अंगका भी बान नहीं पाया जाता।' Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगोंमें भंगविचार २४३ इसलिये ११ योगोमें तो भगोंकी ८ चौवीसी प्राप्त होती हैं किन्तु आहारक और आहाकमिश्रकाययोगमे भगोके कुल ८ षोडशक ही प्राप्त हाते हैं। इस प्रकार यहाँ कुज्ञ भग २३६८ होते हैं। अप्रमत्तसंयतमें ४ मनोयोग, ४ वचनयोग, औदारिक काययोग, वैक्रियकाययोग ओर आहारकाययोग ये ११ योग और भगोकी ८ चावीसी हाती हैं । किन्तु आहारक काययोगमें स्त्रीवेद नहीं है, अत यहाँ १० योगों में भगोकी ८ चौबीसी ओर आहारककाययोगमे ८ पोडशक प्राप्त हाते है। इस प्रकार यहा कुल भग २०४८ होते हैं। जो जाव प्रमत्तलयत गणस्थानमे वैक्रियकाययोग और आहारक काययोगको प्राप्त करके अप्रमत्तसयत हो जाता है उसके अनमत्तसयत अवस्थाके रहते हुए ये दा याग हाते हैं। वैसे अत्रमत्तलयत जीव वैक्रिय ओर आहारक समुद्धातका प्रारम्भ नहीं करता, अन इस गुणस्थानमें वोक्रय मिश्रकाययाग और आहारक मिश्रकाययोग नहा कहा। अपूर्वकरण गुणस्थानमें योग और ४ चोवासो हाता है, अन यहाँ कुन भाग ८.४ हाते हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें योग : ओर भग १६ होते हैं, अन (६ से ६ के गुणित करने पर यहा कुल १४४ भग प्राप्त होते हैं। तथा सूदन सन्दराय गुणस्थानमें याग ६ ओर भाग १ है। अा यहाँ कुल भग प्राप्त होते हैं। अब यदि उपर्युक्त दसों गुणस्थानोके कुल भग जोड दिये जाते हैं तो उनका कुल प्रमाण १४१६६ हाता है। कहा भी है चंउदस य सहस्साइ सयं च गुणहत्तर उदयमाण ।' अर्थात्- योगोफी अपेक्षा माहनीयके कुल उदय विकल्पोका प्रमाण १४१६६ होता है।' (५)पच स० सप्त. गा० १२० । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सप्ततिकाप्रकरण योगो की अपेक्षा उदयविकल्पों का ज्ञापक कोष्ठक-- __ [३२] - - गुणस्थान योग । गुणकार - - मिथ्यात्व } SX+9 = { 1 ४४२४६६ । sao २८८ - - सारवादन ४४:४%3D६६ ४४१६% ६४ ११५२ - . Re . मित्र ४४२४६६ अविरत. ८x२४=१६२ ८x१६% १२८ Exc=६४ ६६० १९२० २५६ ६४ २११२ ર૬૨૨ २५६ देशविरत ८x२४=१६२ प्रमत्तस० ८x२४ = १९२ ८x१६-१२८ अप्रमत्तसं० ८x२४=१६२ ८x१६=१२८ १९२० १२८ ४४२४ =६६ ८६४ - अनिवृत्ति १४४ सूक्ष्मसस्य - १४१६६ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासीमें भगविचार। २४५ अव योगोकी अपेक्षा पदवृन्दोका विचार अवसर प्राप्त है सो इसके लिये पहले अन्तर्भाष्य गाथा उद्धृत करते हैं। 'अट्ठो बत्तीस वत्तीसं सहिमेव वावन्ना। चोयाल चोयाल वीसा वि य मिच्छमाईसु ।' अर्थात्-'मिथ्यावृष्टि आदि गुणस्थानोमें क्रमसे अरसठ, वत्तीस, साठ, वत्तीस, साठ, वाचन, चवालीस, चवालीस और बीस उदयपन होते हैं। यहाँ उदयपदसे उदयस्थानो की प्रकृतियाँ ली गई हैं। जैसे, मिथ्यात्वर्मे १०, ६, ८ और ७ ये चार उदयस्थान हैं । सो इनमेंसे १० उदयस्थान एक है अत इसकी १० प्रकृतियाँ हुई। प्रकृतिक उदय स्थान तान है अत इसकी २७ प्रकृतियाँ हुई। ८ प्रकृतिक उदयस्थान भी तीन हैं अत इसकी २४ प्रकृतियाँ हुई । और ७ प्रकृतिक उदयस्थान एक है अत. इसकी ७ प्रकृतियाँ हुई। इस प्रकार मिथ्यात्वमे ४ उदयस्थानो की ६८ प्रकृतियाँ होती हैं। सास्वादन आदिमे जो ३२ आदि उदयपद बतलाये हैं उनका भी रहस्य इसी प्रकार समझना चाहिये । अब यदि इन आठ गुणस्थानोंके सब उदयपदोंको जोड दिया जाय तो उनका कुल प्रमाण ३५२ होता है। किन्तु इनमे से प्रत्येक उदयपदमे चौवीस चौबीस भङ्ग होते हैं अतः ३५२ को २४ से गुणित कर देने पर ८४४८ प्राप्त होते हैं। यह विवेचन अपूर्वकरण गुणस्थान तक का है अभी अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान का विचार शेष है अत इन दो गुणस्थानों के २६ भङ्ग पूर्वोक्त संख्यामे मिला देने पर कुल ८४७७ प्राप्त होते हैं। इस प्रकार यांगादिक की अपेक्षाके विना मोहनीयके कुल पदवृन्द ८४७७ होते हैं यह सिद्ध हुआ। अब जव कि हम योगोकी अपेक्षा दसो गणस्थानोम पदवृन्द लाना चाहते हैं तो हमें दो बातों पर विशेष ध्यान देना होगा। एक तो यह कि किप्त गुण Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ सप्ततिकाप्रकरण स्थानमे. पदवृन्द और योगोकी संख्या कितनी है और दूसरी यह कि उन योगोंमें से किस योगमें कितने पदवृन्द सम्भव हैं। आगे इसी व्यवस्थाके अनुसार प्रत्येक गुणस्थानमें कितने पदवृन्द प्राप्त होते हैं यह बतलाते हैं। मिथ्यात्वमे ४ उदयस्थान और उनके कुल पढ ६८ हैं यह तोहम पहले ही वतला आये हैं। सो इनमेंसे एक ७ प्रकृतिक उदयस्थान, दो आठ प्रकृतिक उदयस्थान और एक नौ प्रकृतिक उदयस्थान अनन्तानुवन्धीके उदयसे रहित हैं जिनके कुल उदयपद ३२ होते हैं और एक आठ प्रकृतिक उदयस्थान, दो प्रकृतिक उदयस्थान और एक १० प्रकृतिक उदयस्थान ये चार उदयस्थान अनंतानुबंधीके उदयसे सहित हैं जिनके कुल उदयपद ६३ होते हैं। इनमेसे पहले के ३२ उदयपद ४ मनोयोग, ४ वचनयोग, औदारिक काययोग और वैनिकाय योग इन दस योगोके साथ पाये जाते है. क्योंकि यहाँ अन्य योग सम्भव नहीं, अत इन्हें १० से गुणित कर देने पर ३२० होते हैं। और ३६ उदयपद पूर्वोक्त दस तथा बौदारिक मिश्र, वैवियमित्र और कारण इन १३ योगोके साथ पाये जाते हैं, क्योंकि ये पद पर्याप्त और अपर्याप्त दोनो अवस्थाओमें सम्भव है अत' ३६ को १३ से गणित क्र देने पर ४६८ प्राप्त होते हैं। चूं कि हमें मिथ्यात्व गुणस्थानके कुल पटवृन्द प्राप्त करना है अतः इनको इक्छा कर दें और २४ से गणित कर दें तो मिथ्यात्व गुणस्थानके कुल पदवृन्द आ जाते हैं जो ३२०+४८८=vzx २४= ८८१२ होते हैं। सास्वादनमे योग १३ और उदयपद ३२ हैं। सो १२ योगोंमें तो ये सव उदयपद सम्भव है किन्तु सारवा. दनके वैवियमिश्रमें नपुंसक्वेदका उदय नहीं होता, अतः यहाँ पुंसक्वेद के भग क्म कर देना चाहिये । तात्पर्य यह है कि Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगोंमे भगविचार ર૪૭ योगोकी अपेक्षा १२ से ३२ को गुणित करके २४ से गुणित करे और वैक्रियमिश्र की अपेक्षा ३२ को १६ से गुणित करे । इस प्रकार गुणनक्रियाके करने पर सास्वादनमे कुल पदवृन्द ६७२८ प्राप्त होते हैं। मिश्रमे ३० योग औरउ दय पद ३२ हैं। किन्तु यहाँ सव योगोमे सब उदयपद और उनके कुल भग सम्भव हैं अत' यहाँ १० से ३२ को गुणित करके २४से गुणित करने पर ७६८० पदवृद प्राप्त होते है। अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमे योग १३ और उदयपद ६० है। सो यहाँ १० योगोमे तो सब उदयपट और उनके कुल भग सम्भव हैं अत १० से ६० को गुणित करके २४ से गुणित कर देने पर १० योगो सबंधी कुल भग १४४०० प्राप्त होते हैं। किन्तु वैनियमिश्र काययोग और कार्मणकाययोगमें स्त्रीवेदका उदय नहीं होता अत' यहाँ स्त्रीवेदसंवधी भंग नहीं प्राप्त होते, इसलिए यहाँ २ को ६० से गुणित करके १६ से गुणित करने पर उक्त दो दो योगों संबंधी कुल भंग १९२० प्राप्त होते हैं। तथा औदारिकमिश्रकाययोगमें बीवेट और नपुंसक्वेदका उदय नहीं होनेसे दो योगी संबंधी भाग नहीं प्राप्त होते, इसलिये यहाँ ६० से ८ को गुणित करने पर औदारिकमिश्र काययोगकी अपेक्षा ४८० ६ भग प्राप्त होते हैं। इस प्रकार चौथे गुणस्थानोमे १३ योग संबंधी कुल पदवृन्द १४४००+ १९२०+ ४८०%१६८०० होते हैं । देशविरत गुणस्थानमे योग ११ और पद ५२ है । किन्तु यहाँ सब योगों मे सव उदयपद और उनके भंग सम्भव हैं अत यहाँ ११ से ५२ को गुणित करके २४ से गुणित करने पर कुल भग १३७२८ होते Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૮ सप्तर्तिकाप्रकरण है। प्रमत्तसंयत में योग १३ और पद ४४ हैं। किन्तु आहारकद्विक मे स्त्रीवेद का उदय नहीं होता इसलिये ११ योगों की अपेक्षा तो ११ को ४४ से गणित करके २४ से गुणित करे और आहारकद्विक की अपेक्षा २ से ४४ को गुणित करके १६ से गुणित करे। इस प्रकार क्रिया के करने पर प्रमत्तसंयतमें कुल पदवृन्द १३०२४ प्राप्त होते है। अप्रमत्त सयतमे योग ११ और पद ४४ हैं किन्तु आहारक काययोगमें स्त्रीवेदका उदय नहीं होता इसलिय १० योगोंकी अपेक्षा १० से ४४ को गणित करके २३ से गणित करे और आहारकाययोग की अपेक्षा ४४ से १६ को गुणित करे । इस प्रकार करने पर अनमत्त संयतमे कुल परवृन्द ११२६३ होते हैं। अपूर्वकरणमें योग : और पद २० होते हैं, अतः २० से ६ को गुणित करके २४ से गुणित करने पर यहाँ कुल पदवृन्द ४३२० प्राप्त होते हैं। अनिवृत्तिकरणमें योग ६ और भङ्ग २८ हैं। यहाँ योगपट नहीं हैं, अत पढ न कह कर भंग कहे हैं। सो से २८ को गुणित कर देने पर अनिवृत्तिकरणमें २५२ पदवृन्द होते हैं। तथा सूक्ष्मसम्परायमे योग है और भग १ हैं । अत ६ से १ को गुणित करने करने पर ६ भंग होते हैं । अव प्रत्येक गुणस्थानके इन पदवृन्दों को जोड़ देने पर सव पदवृन्दोंकी कुल संख्या ६५७१७ होती है । कहा भी है 'सत्तरसा सत्तसया पणनउइमहस्स पयसंखा।' . अर्थात्-'योगोंकी अपेक्षा मोहनीयके सव पदवृन्द पचाननवे हजार सातसौ सत्रह होते हैं।' (३) पन्च० सप्त० गा० १२० । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ योगोमे भगविचार योगो की अपेक्षा पदवृन्दो का ज्ञापक कोष्ठक [३३] गुणस्थान उदयपद गुणकार गुणनफल - - मिथ्यात्व ११२३२ ७६८० सास्वादन १२१६ ५१२ मिश्र ७६८० । । अविरत. १४४०० १९२० ४८० २३७०८ देशवि० प्रमत्तसंयत ११६१६ १४०८ अप्रमत्तस० १०५६० ७०४ ४३२० - अपूर्वक अनिवृत्ति सूक्ष्मस. - ६५७१७ पदवृन्द Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सप्ततिकाप्रकरण अव उपयोगोंकी अपेक्षा उदयस्थानोका विचार करते हैंमिथ्यादृष्टि और सास्वादनमे मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुदर्शन,और अचक्षुदर्शन ये पांच उपयोग होते हैं। मिश्रमे तीन मिश्र ज्ञान तथा चक्षु और अचक्षुदर्शन इस प्रकार ये पाच उपयोग होते हैं। किन्तु अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत इनमें प्रारम्भके तीन सम्यग्ज्ञान और तीन दर्शन ये छह उपयोग होते है । तथा प्रमत्तसे लेकर सूक्ष्मसम्पराय तक पॉच गुणस्थानोमे मन पर्ययज्ञान सहित सात उपयोग होते हैं। यह तो हुई गुणस्थानोमें उपयोग व्यवस्था । अब किस गुणस्थानमें कितने उदयस्थान भंग होते हैं यह जानना शेप है सो इसका कथन पहले पृष्ठांकमे कर ही आये हैं अत. वहॉसे जानलेना चाहिये । इस प्रकार जिस गणस्थानमे जितने उपयोग हों उनसे उस गुणस्थानके उदयस्थानोको गुणित करके अनन्तर भंगोसे गुणित कर देने पर उपयोगोकी अपेक्षा उस उस गुणस्थानके कुल भग आ जाते हैं। यथा-मिथ्यात्व और सास्वादनमें क्रमसे ८और ४ चौवीसी तथा ५ उपयोग हैं अत ८+४ = १२ को ५से. गुणित कर देने पर ६० हुए । मिश्रमे ४ चौबीसी और ५ उपयोग हैं, अतः४ को ५ से गुणित कर देने पर २० हुए । अविरत सम्यरदृष्टि और देशविरतमे आठ आठ चौवीसी और ६ उपयोग हैं, अतः ८+८=१६ को छहसे गुणित कर देने पर ९६ हुए । प्रमत्त, अप्रमत्त और अपूर्वकरणमें आठ, आठ और ४ चौबीसी और ७ उपयोग हैं अतः ८++४-२० को सातसे गुणित कर देने पर १४० Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगोंमे भंगविचार हुए । तथा इन सवका जोड़ ३१६ हुआ । इनमें से प्रत्येक चौवीसी में २४, २४ भग होते हैं अत इन्हें २४ से गुणित कर देने ७५८४ होते हैं । तथा दो प्रकृतिक उदयस्थानमें १२ भंग और एक प्रकृतिक उदयम्थानमें ५भग होते हैं जिनका कुल जोड़ १७ हुआ । सो इन्हें वहाँ सम्भव उपयोगोंकी संख्या से गुणित करदेने पर ११९ होते है। अब इन्हें पूर्व राशिमें मिला देने पर कुल भग ७७८३ होते हैं । कहा भी है 'उदयाणुवओगेसु सयसयरिसया तिउत्तरा होति ।' अर्थात्-'मोहनीय के उदयस्थान विकल्पोंको वहा सम्भव, उपयोगोंसे गुणित करने पर उनका कुल प्रमाण ७७०३ होता है।' विन्तु एक मत यह भी पाया जाता है कि सम्यग्मिथ्याष्टि गुणस्थान में अवधिदर्शनके साथ छह उपयोग होते हैं, अत इस मतके स्वीकार करने पर इस गुणस्थानमे ६६ भग बढ़ जाते हैं जिससे कुल भंगोकी संख्या ७७६६ प्राप्त होती है। इस प्रकार ये उपयोग गुणित उदयस्थान भग जानना चाहिये। (१) पञ्च० सप्त० गा० ११८ । (0) गोम्मटसार कर्मकाण्डमें योगों की अपेक्षा उदयस्थान १२६१३ और पदवृन्द ८८६४५ वतलाये हैं। तथा उपयोगों की अपेक्षा उदयस्थान ७७६ और पदवृन्द ५१०८३ बतलाये हैं। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ सप्ततिकाप्रकरण उपयोगो की अपेक्षा उदयविकल्पो का ज्ञापक कोष्ठक ।,३४ - - - गुणस्थान उपयोग गुणकार गुणनफल (उदयविकल्प) मिथ्यात्व 5X28 ६६० सास्वादन : ४४२४ ४८० मिश्र ४४२४ ४८० अविरत. ८x२४ r देशविरत ur ८x२४ प्रमत्तवि० ८x२४ १ अप्रमत्तः १ ८x२४ १३४४ ६७२ १. ४४२४ अपूर्व अनिवृ० १ २७ । सूक्ष्म० - ७७०३ उदयविकल्प सूचना-एक मत यह है कि मिश्र गुणस्थान में अवधिदर्शन भी होता है. अतः इसकी अपेक्षा प्राप्त हुए ६६ भंग ७७०३ भनी में मिला देने पर दूसरे मत की अपेक्षा, कुल उदयविकल्प ७७६E होते हैं। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगोंमे भगविचार २५३ अव उपयोगों से गुणित करने पर पदवृन्दोका कितना प्रमाण होता है यह बतलाते हैं - मिथ्यात्वमे ६५, सास्वादन में ३२ और मिश्रमे ३२ उदयस्थानपद हैं जिनका जोड़ १३२ होता है अब इन्हें यहाॅ सम्भव ५ उपयोगो से गुणित करने पर ६६० हुए । अविरतसम्यग्दृष्टि ६० और देश विरतमे ५२ उदयस्थान पद हैं जिनका जोड़ १२ होता है । इन्हें यहाँ सम्भव ६ उपयोगोसे गुणित करने पर ६७२ हुए। तथा प्रमत्तमे ४४ अप्रमत्तमे ४४ और पूर्वकरण में २० उदयस्थान पद हैं जिनका जोड १८० होता है। अब इन्हें यहाँ सम्भव ७ उपयोगोसे गुणित करने पर ७५६ हुए। तथा इन सबका जोड़ २०८८ हुआ । इन्हें भगों की अपेक्षा २४ से गुणित कर देने पर आठ गुणस्थानोके कुल पदवृन्दोका प्रमाण ५०११२ होता है । तदनन्तर दो प्रकृतिक उदयस्थानके पदवृन्द २४ और एक प्रकृतिक उदयस्थानके पदवृन्द ५ इनका जोड़ २६ हुआ । सो इन्हें यहाँ सम्भव ७ उपयोगोसे गुणित कर देने पर २०३ पदवृन्द और प्राप्त हुए जिन्हें पूर्वोक्त पदवृन्दोमें सम्मिलित कर देने पर कुल पदवृन्दोंका प्रमाण ५०३१५ होता है । कहा भी है 'पन्नास च सहस्सा तिन्नि सथा चेह पन्नरसा ।' अर्थात् - 'मोहनीयके पदवृन्दोको वहाँ सम्भव उपयोगोंसे गुणित करने पर उनका कुल प्रमाण ५०३१५ होता है ।' किन्तु जब मतान्तरकी अपेक्षा मिश्र गुणस्थानमें ६ उपयोग स्वीकार कर लिये जाते हैं तब इन पदवृन्दोका प्रमाण ५१००३ हो जाता है, क्योकि तब १४३२४ २४ = ७६८ भंग बढ़ जाते हैं । (१) पन्च० सप्त० ग्रा० ११८ 1. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण उपयोगो की अपेक्षा पदवृन्दो का ज्ञापक कोष्ठक [३५] - गुणस्थान उपयोग उदयपद गुणकार गुणनफल मिथ्यात्व ८१६० ३८४० सास्वादन मिश्र ३८४० अविरत० ८६४० देशविरत ७४ - प्रमत्तवि० 66 6 6 6 mm xxs ७३६२ अप्रमत्त० ७३६२ अपूर्व० ३३६० अनिवृ० ५०३१५ सूचना-मतान्तर से मिश्र गुणस्थान में अवधिदर्शन के स्वीकार कर लेने पर ७६८ भग और प्राप्त होते हैं। अत इस अपेक्षा से कुल पदवृन्द ५११८३ होते हैं। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याओमें भगविचार २५५ अब लेश्याओसे गुणित करने पर उदयस्थान विकल्प कितने होते हैं इसका विचार करते हैं मिथ्यात्वसे लेकर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक स्थानमें छहो लेश्याएं हैं। देशविरत आदि तीन गुणस्थानोंमें तीन शुभ लेश्याएँ हैं। तथा मिथ्यात्व आदि किस गुणस्थानमें कितने चौबीसी होती है यह पहले वतला हो आये हैं तदनुसार मिथ्यात्वमे ८ सास्वादन में ४ मिश्रमे ४ और अविरत सम्यग्दृष्टि में ८ चौबीसी हुई जिनका जोड २४ हुआ। अव इन्हें ६ से गुणित कर देन पर १४४ हुए । देशविरतमे ८ प्रमत्तमें ८ और अप्रमत्तमें ८ चौबीसी हैं जिनका जोड़ २४ हुआ। अब इन्हे इसे गुणित कर देने पर ७२ हुए । तथा अपूर्वकरण ४ चौबीसी हैं। किन्तु यहाँ एक ही लेश्या है अत ४ ही प्राप्त हुए । तथा इन सवका जोड़ २२० हुआ। अव इन्हें २४ से गुणित कर देने पर, आठ गुणम्थानोके कुल उदयस्थान विकल्प ५२८० होते है। तदनन्तर इनमें दो प्रकृतिक उदयस्थानके १२ और एक प्रकृतिक उदयस्थानके ५ इस प्रकार १७ भंगोंके मिला देने पर कुल उदयस्थान विकल्प ५२६७ होते है। ये लेश्याओकी अपेक्षा उदयस्थान विकल्प कहे। (१) गोम्मटसार कर्मकाण्डमें लेश्याओं की अपेक्षा उदयविकल्प ५२९७ और पदबन्द ३८२३७ बतलाये हैं। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ सप्ततिकाप्रकरण लेश्याओ की अपेक्षा उदयविकल्पो का ज्ञापक कोष्ठक [ ३६ ] गुणस्थान लेश्या. गुणकार गुणनफल - - मिथ्यात्व EX२४ ११५२ सास्वादन ४४२४ ३७६ मिश्र० ४४२४ ५७६ अविरत० ८x२४ देशवि० ८४२४ पृ७६ प्रमत्त० ८x२४ RAJAST अप्रमत्त० ८x२४ ५७६ अपूर्व० ४४२४ com अनिवृ० ५२६७ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याओं में भंगविचार श्याओ की अपेक्षा पदवृन्द बतलाते हैं मिथ्यात्व के ६८ सास्वादनके ३२ मिश्रके ३२ और अविरत सम्यग्दृष्टिके ६० पढीका जोड़ १६२ हुआ । सो इन्हें यहाँ सम्भव ६ लेश्याओ से गुणित कर देने पर ११५२ होते हैं । देशविरतके ५२ प्रमत्तके ४४ और अप्रमत्तके ४४ पढोका जोड १४० हुआ । सो इन्हें यहाँ सम्भव ३ लेश्याओ से गुणित कर देने पर ४२० होते हैं । तथा अपूर्वकरणमे पद २० हैं । किन्तु यहाँ एक ही लेश्या है अत इनका प्रमाण २० ही हुआ । इन सबका जोड १५६२ हुआ । अव इन्हें भंगो की अपेक्षा २४ से गुणित कर देने पर आठ गुणस्थानोके कुल पदवृन्द ३८२०८ होते हैं । तदनन्तर इनमे दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक पदवृन्द मिला देने पर कुल पदवृन्द ३८२३७ होते हैं । कहा भी है ति गहीरणा तेवन्ना सया य उदयारण होति लेसाग । अडतीस सहस्साइ पयारण सय दो य सगतीसा ॥' २५७ अर्थात् - 'मोहनीयके उदयस्थान और पदवृन्दोको लेश्याओसे गुणित करने पर उनका कुल प्रमाण क्रमसे ५२६७ और' ३८२३७ होता है। (१) पञ्चस ० सप्त० गा० ११७ । १७ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण लेश्याओं की अपेक्षा पदवृन्दों का जापक कोष्ठक [३७ ] गुणस्थान देश्या उदयपद गुणकार गुणनफज मिथ्यात्व દહર सान्त्रादन R ४६०८ मित्र ४६०८ अविरत० ८६४० देशविरत ३७४४ प्रमत्त ३१६८ । अपूर्व স্বনিম্ন ३८२३७ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोंमे मोहनीयके सत्त्वस्थान २५९ इस प्रकर मोहनीयके प्रत्येक गुणस्थान सम्बन्धी उदयस्थान विकल्प और पदवृन्दोंको वहाँ सम्भव योग, उपयोग और लेश्याओंसे गुणित करने पर उनका कुल प्रमाण कितना होता है इसका विचार किया। १४. गुणस्थानों में मोहनीयके संवैधभंग अब सत्तास्थानोका विचार क्रम प्राप्त हैतिराणेगे एगेगं तिग मीसे पंच चउसु नियट्टिए तिनि । एक्कार वायरम्मी सुहमे चउ तिन्नि उपसंते ॥४८॥ अर्थ-मोहनीय कर्मके मिथ्यात्वमें तीन, सास्वादनमे एक, मिश्रमें तीन, अविरत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानोमें पॉच पाँच, अपूर्वकरणमे तीन अनिवृत्तिकरणमें ग्यारह, सूक्ष्मसम्परायमें चार और उपशान्तमोहमें तान सत्त्वस्थान होते हैं । विशेषार्थ-किस गुणस्थानमें कितने सत्त्वस्थान होते हैं और उनके वहाँ होनेका कारण क्या है इसका विचार पहले कर आये हैं। यहाँ सकेनमात्र किया है। मिथ्यात्वमें २८, २७ और २६ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। सास्वादनमें २८ प्रकृतिक एक हो सत्त्वस्थान हाता है। मिश्र २८, २७ ओर २४ ये तीन सत्त्वस्थान हाते है। अविरत सम्यम्हष्टि आदि चार गुणस्थानों से प्रत्येकमे २८, ०४, २३, २२ और २१ ये पाँच सत्त्वस्थान होते हैं । अपूर्वकरणमें २८, २३ ओर २१ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। अनिवृत्तिकरणमें २८, २९, २१, १३, १२, ११,५,४, ३,२ और १ ये ग्यारह सत्त्वस्थान होते हैं। सूक्ष्मसम्परायमें २८ २४, २१, और १ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं। (१) तिण्णेगे एगेग दो मिस्से चदुसु पण णियट्रोए । तिणि य थूलेकारं हमे चत्तारि तिणि उबसते ॥ -गा० कर्म० गा० ५०६ । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सप्ततिकाप्रकरण तथा उपशान्तमोहमें २८, २४ और २, ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। यह उक्त गाथाका सार है। अब प्रसगानुसार संवेधभंगोंका विचार करते हैं - मिथ्यात्वमे २२ प्रकृतिक बन्धस्थान और ७, ८, ९ तथा १० प्रकृतिक चार उद्यम्यान हैं। सो इनमेंसे ७ प्रकृतिक उदयस्थानमें एक २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान ही होता है किन्तु शेष तीन उदयस्थानोमें २८, २७ और २६ ये तोनों सत्त्वस्थान सम्भव हैं। इस प्रकार मिथ्यात्वमें कुल सत्त्वथान १० हुए। नावाननमें २१ प्रकृतिक वन्धस्थान और ७, ८ और इन तीन उदयल्यानोंके रहते हुए प्रत्येकौ २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान है। इस प्रकार यहाँ ३ सत्त्वस्थान हुए। मिश्रौ १७ प्रकृतिक वन्धम्थान तथा ७.८ और ६ इन तीन उदयस्थानोके रहते हुए प्रत्येकी २८, २७ और २४ ये तीन सत्त्वत्थान होते हैं। इस प्रकार यहाँ कुल ९ सत्त्वस्थान हुए। अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमे एक १७ प्रकृतिक वन्धन्धान तथा ६७,८ और ये चार उदयस्थान होते हैं। सो इनमे से ६ प्रकृतिक उदयस्थानमे ८, २४ और २१ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। और ८ मेंसे प्रत्येक उदयस्थानमें २८, २४, २३, २२ और २१ ये पॉच-पाँच सत्वस्थान होते हैं। तथा ६ प्रकृतिक उदयस्थानमें २८, २४, २३ और २२ ये चार सत्वस्थान होते हैं। इस प्रकार यहाँ कुल १७ सत्त्वस्थान हुए। देशविरतमे १३ प्रकृतिक बन्धस्थान तथा ५,६,७ और ८ चे चार उदयम्थान होते हैं। सो इनमेंसे ५ प्रकृतिक उदयस्थानमें २४, २१ और २१ चे तीन सत्त्वस्थान होते हैं। ६ और ७ मेसे प्रत्येक उन्यस्थानमें २८, २४, २३, २२ और २१ चे पाँच-पाँच सत्त्वस्थान होते हैं तथा आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें २८, २४, २३ और २२ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोंमें मोहनीयके सवेध भंग २६१ इस प्रकार यहाँ कुल सत्त्वस्थान १७ हुए। प्रमत्तविरत में ९ प्रकृतिक वन्धस्थान तथा ४, ५, ६और ७ ये चार उदयस्थान होते हैं। सो इनमेंसे ४ प्रकृतिक उदयस्थानमें २८, २४ और २१ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। ५और ६ मेसे प्रत्येक उदयस्थानमे २८, २४ २३. २२ और २१ ये पाँच-पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। तथा सात प्रकृतिक उदग्रस्थानमे २८, २१, २३ और २२ ये चार मत्त्वस्थान होते हैं। इस प्रकार यहाँ कुल १७ सत्त्वस्थान हए । अप्रमत्त सयतमे भी इसी प्रकार सत्रह सत्त्वस्थान होते हैं। अपूर्वकरणमें ९ प्रकृतिक वन्धस्थान और ४,५ तथा ६ इन तीन उदयस्थानोंके रहते हुए प्रत्येक में २८, २४ और २१ ये तोन-तीन सत्त्वस्थान होते हैं । इस प्रकार यहाँ कुल सत्वस्थान ६ हुए। अनिवृत्तिकरणमे ५ ४,३,२ और १ प्रकृतिक पाँच वन्धस्थान तथा २ और १ प्रकृतिक दो उदयस्थान हाते है सो इनमेंसे ५ प्रकृतिक वधस्थान और २ प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए २८, २४, २१, १३, १२ और ११ ये छह सत्त्वस्थान होते है। चार प्रकृतिक वन्धस्थान और एक प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए २८, २४, २१, ११, ५ और ४ ये छह सत्त्वस्थान होते हैं। तीन प्रकृतिक वन्धस्थान और एक प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए २८, २४ २१ ४ और ३ ये पाच सत्त्वस्थान होते है। २ प्रकृतिक वन्धस्थान और एक प्रकृतिक उदयम्यानके रहते हुए २८, २४, २१, ३ और २ ये पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। एक प्रकृतिक वन्धस्थान और एक प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए २८, २३, २१ २ और १ ये पाँच सत्वस्थान होते है। इस प्रकार यहाँ कुल २७ सत्त्वस्थान हुए। सूक्ष्मसम्परायमें बन्धके अभावमें एक प्रकृतिक उदयस्थानके रहते 'हुए २८, २४, २१ ओर १ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं। तथा उपशान्त मोह. गुणस्थानमें बन्ध और उदयके विना २८, २४ सत्वस्थान रहते हुए २८, २०२७ सत्वस्थान के रहते Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सप्ततिकाप्रकरण और २१ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। किस बन्धस्थान और उदयस्थानके रहते हुए कितने सत्त्वस्थान होते हैं इसकी विशेष कथनी पहले ओघप्ररूपणाके समय कर आये है, अतः वहाँसे जान लेना चाहिये । इस प्रकार मोहनीय की प्ररूपणा समाप्त हुई। १५. गुणस्थानों में नामकर्म के संवेध भंग - अब गुणस्थानोमे नामकर्मके बन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोका विचार करते हैंछण्णव छक्कं तिग सत्त दुगं दुग तिग दुगं तिगष्ट चऊ । दुग छच्चउ दुग पण चउ चउ दुग चउ पणग एग चऊ ॥४१॥ एगेगम एगेगमट्ट छउमत्थ केवलिजिणाणं । एग चऊ एग चऊ अट्ठ चउ दु छक्कमुदयंसा ॥५०॥ अर्थ- नामर्मके क्रमसे मिथ्यात्वमें छह, नौ, छह; सास्वादनमें तीन, सात, दो; मिश्रमे दो, तीन, दो; अविरत सम्यग्दृष्टिमें तीन, पाठ, चार देशविरतमे दो, छह, चार; प्रमत्तविरतमे दो, पाँच, चार, अप्रमत्तविरतमे चार, दो, चार, अपूर्वकरणमे पाँच, एक, चार; अनिवृत्तिकरणमें एक, एक, आठ और सूक्ष्म सम्परायमे एक, एक, आठ बन्ध, उदय और सत्त्वस्थान होते हैं। छद्मस्थ जिनके क्रमसे उपशान्तमोहमें एक, चार तथा क्षीणमोहमें एक, चार उदय और सत्वस्थान होते हैं। तथा केवली जिनके सयोगिकेवली गुणस्थानमे आठ, चार और अयोगिकेवली गुणस्थानमे दो, छह क्रमसे उदय और सत्त्वस्थान होते हैं। (१) 'छण्णव छत्तिय सग इगि दुग तिग दुग तिणि अट्ट चत्तारि । दुग दुग चदु दुग पण चदु चदुरेयचदू पणेयचदू ॥ एगेगमट्ठ एगेगमट्ट चदुमट्ठ केवलिजिणाएं । एग चदुरेग चदुरो दो चदु दो छक्क बधउदयसा ॥' -गो० कर्म, गा० ६६३-६९४ । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानों में नामकर्मके बन्धादि स्थान २६३ विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में किस गुणस्थान में नामकर्मके कितने बन्ध, उदय और सत्त्वस्थान होते हैं यह बतलाया है । अब आगे विस्तारसे उन्हींका विचार करते हैं - मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें २३,३५ २६, २८, २९ और ३० ये छह बन्धस्थान होते है | इनमेसे २३ प्रकृतिक बन्धस्थान अपर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवके होता है। इसके वादर और सूक्ष्म तथा प्रत्येक और साधारण के विकल्पसे चार भन होते हैं । २५ प्रकृतिक वन्धस्थान पर्याप्त एकेन्द्रिय तथा अपर्याप्त दोइन्द्रिय तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय, तिर्यंच पचेन्द्रिय और मनुष्यगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवोके होता है । सो इनमेसे पर्याप्तक एकेन्द्रियके योग्य बन्ध होते समय २० भंग होते हैं और शेपकी अपेक्षा एक एक भग होता है । इस प्रकार २५ प्रकृतिक वन्धस्थानके कुल २५ भंग हुए । २६ प्रकृतिक बन्धस्थान पर्याप्त एकेन्द्रियके योग्य बन्ध करनेवाले जीवके होता है । इसके १६ भंग होते हैं । २८ प्रकृतिक वन्धस्थान देवगति या नरकगतिके योग्य प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले जीवके होता है । सो देवगतिके योग्य २८ प्रकृतियोंका बन्ध होते समय भंग होते हैं और नरकगति के योग्य प्रकृतियो का बन्ध होते समय १ भग होता है । इस प्रकार २८ प्रकृतिक वन्धस्थानके कुल नौ भंग होते हैं । २६ प्रकृतिक बन्धस्थान पर्याप्त दोइन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, तिर्यच पचेन्द्रिय और मनुष्यगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवोंके होता है। सो पर्याप्त disन्द्रिय, तीनइन्द्रिय और चार इन्द्रियके योग्य २६ प्रकृतियोंका बन्ध होते समय प्रत्येकको अपेक्षा आठ, आठ भंग होते हैं । तिर्यचपंचेन्द्रियके योग्य २९ प्रकृतियोका बन्ध होते समय ४६०८ भंग होने हैं। तथा मनुष्यगतिके योग्य २९ प्रकृतियोंका बन्ध Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सप्ततिकाप्रकरण होते समय भी ४६०८ भंग होते हैं। इस प्रकार यहाँ २९ प्रकृतिक वन्धस्थानके कुल भंग ९२४० होते हैं। तीर्थकर प्रकृतिके साथ देवगतिके योग्य २९ प्रकृतिक बम्धस्थान मिथ्याष्टिके नहीं होता, क्योकि तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध सम्यक्त्वके निमित्तसे होता है, अतः यहाँ देवगतिके योग्य २६ प्रकृतिक वन्धम्थान नहीं कहा । तथा ३० प्रकृतिक बन्धस्थान पर्याप्त दोइद्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय और तिर्यंच पचेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले जीवोके होता है। सो पर्याप्त दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय और चार इन्द्रियके योग्य ३० प्रकृतियोका वध होते समय प्रत्येकके आठ-आठ भग होते हैं। और तिर्यंच पंचेन्द्रियके योग्य ३० प्रकृतियोका वन्ध होते समय ४६०८ भंग होते हैं। इस प्रकर यहाँ ३० प्रकृतिक वधस्थानके कुल भंग ४६३२ होते हैं। यद्यपि तीर्थकर प्रकृतिके साथ मनुष्यगतिके योग्य और आहारकद्विकके साथ देवगतिके योग्य ३० प्रकृतियोंका वन्ध होता है पर ये दोनो ही स्थान मिथ्याष्टिके सम्भव नही, क्योकि तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध सम्यक्त्वके निमित्तसे और आहारकद्विकका वन्ध सयमके निमित्तसे होता है। कहा भी है ___ 'समत्तगुणनिमित्त तित्थयरं सजमेण आहार ।' अर्थात्-'तीर्थकरका वन्ध सम्यक्त्वके निमित्तसे और आहारक द्विकका वन्ध सयमके निमित्तसे होता है।' अतः यहाँ मनुष्यति और देवगतिके योग्य ३० प्रकृतिक वन्धस्थान नहीं कहा। - इसी प्रकार अन्तर्भाष्य गाथामे भी मिथ्याष्टिके २३ प्रकृतिक आदि बन्धस्थानोके भंग बतलाये हैं। यथा'चउ पणवीसा सोलह नव चत्ताला सया य वाणउया। वत्तीयुत्तरछायालसया मिच्छस्स वन्धविही ।।' हा। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोमें नामकर्मके बन्धादि स्थान २६५ अर्थात्–'मिथ्यादृष्टि जीवके २३ २५, २६, २८, २६ और ३० प्रकृतिक वन्त्रस्थानके क्रमसे ४,२५, १६, ६, ६२४० और ४६३२ भग होते हैं ।' मिथ्यादृष्टि जीवके ३१ और १ प्रकृतिक बन्धस्थान सम्भव नहीं, त उनका यहाँ विचार नहीं किया । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उदयस्थान ६ होते हैं । जो इस प्रकार हैं - २१, २४, २५, २६, २७, २८.२६. ३० और ३१ । इनका नाना जीवोकी अपेक्षा से पहले विस्तारसे वर्णन किया ही है उसी प्रकार यहाँ भी समझना । केवल यहाँ आहारकसयत, वैक्रियसयत और केवलीसम्बधी भग नहीं कहना चाहिये, क्योंकि ये मिथ्यादृष्टि जीवके नहीं होते है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे इन उदयस्थानोके भग क्रमश ४१, ११, ३२, ६००, ३१, ११६६, १७८१, २६१४ और १९६४ होते हैं । जिनका कुल जोड़ ७७७३ होता है। वैसे इन उदयस्थानोके कुल भग ७७६१ होते है जिनमें से केवली ८, आहारक साधुके ७ और उद्योत सहित वैक्रिय मनुष्यके ३ इन १८ भगोके कम कर देने पर ७७७३ भग प्राप्त होते हैं । तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे ९२, ८६, ८८, ८६, ८० और ७८ ये छह सत्त्वस्थान होते हैं । मिथ्यात्वमे आहारक चतुष्क और तीर्थंकरकी एक साथ सत्ता नहीं होती, अत यहाँ ६३ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं कहा । ६२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान चारो गतियोंके मिथ्यादृष्टि जीवके सम्भव है, क्योंकि आहारक चतुष्ककी सत्तावाला किसी भी गतिमें उत्पन्न होता है । मिथ्यात्वमें ८६ प्रकृतियोंकी सत्ता सबके नहीं होती किन्तु नरकायुका बन्ध करनेके पश्चात् वेद सम्यष्टि होकर जो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करता है और जो अन्त समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होकर नरकमें जाता Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सप्ततिकाप्रकरण है उसके अन्तर्मुहूर्त कालतक मिथ्यात्वमें ८६ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है । प्रकृतियोंकी सत्ता चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि जीवोंके सम्भव है क्योंकि चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि जीवोंके प्रकृ-तियोंकी सत्ता होनेमें कोई बाधा नहीं है । ८६ और ८० प्रकृतियोंकी सत्ता उन एकेन्द्रिय जीवोंके होती है जिन्होंने यथायोग्य देवगति या नरकगतिके योग्य प्रकृतियों की उद्बलना की है। तथा ये जीव जब एकेन्द्रिय पर्यायसे निकलकर विकलेन्द्रिय तिर्यंचपंचेन्द्रिय और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तब इनके भी सब पर्याप्तियों के पर्याप्त होनेके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त कालतक ८६ और ८० प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है । किन्तु इसके आगे वैक्रिय शरीर आदि का बन्ध होने के कारण इन स्थानोंकी सत्ता नहीं रहती । ७८ प्रकृतियों की सत्ता उन अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके होती है जिन्होंने मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी उद्बलना कर दी है। तथा जब ये जीव मरकर विकलेन्द्रिय और तिर्यच पंचेन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न होते हैं तब इनके भी अन्तर्मुहूर्त कालतक ७८ प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है । इस प्रकार सामान्यसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में बन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोंका कथन करके अब उनके संवेधका विचार करते हैं २३ प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके पूर्वोक्त ही उदयस्थान सम्भव हैं । किन्तु २१, २५. २७, ६८, २९ और "३० इन छह उदयस्थानो में देव और नारकियों सम्बन्धी जो भंग हैं. यहाँ नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि २३ में अपर्याप्त एकेन्द्रियोंके योग्य प्रकृतियोंका बन्ध होता है, परन्तु देव अपर्याप्त एकेन्द्रियों के.. योग्य प्रकृतियों का बन्ध नहीं करते, क्योंकि देव अपर्याप्त एकेन्द्रियों-. में उत्पन्न नहीं होते। उसी प्रकार नारकी भी २३ - प्रकृतियोंका Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोंमें नामकर्मके संवेध भग २६७ बन्ध नहीं करते क्योकि नारकियोंके सामान्यसे ही एकेन्द्रियोके योग्य प्रकृतियोका बन्ध नहीं होता। अत यह सिद्ध हुआ कि २३ प्रकृतिक बन्धस्थानोमें देव और नारकियोके उदयस्थान सम्बन्धी भग नहीं प्राप्त होते । तथा यहाँ १२, ८,८६, ८० और ७८ ये पाँच सत्त्वस्थान होते है। सो२१, २४, २५ और २६ इन चार उदयस्थानोमें उक्त पाँचों ही सत्त्वस्थान होते हैं। तथा २७, २८, २९, ३० और ३१ इन पॉच उदयस्थानोमें ७८ के विना पूर्वोक्त चार, चार सत्त्वस्थान होते हैं। इस प्रकार यहाँ सव उदयस्थानोकी अपेक्षा कुल ४० सत्त्वस्थान होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि २५ प्रकृतिक उदयस्थानमें ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोके ही होता है। तथा २६ प्रकृतिक उदयस्थानमें ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोके भी होता है और जो अग्निकायिक तथा वायुकायिक जीव मरकर विकलेन्द्रिय और तिर्यच पंचेन्द्रियोमे उत्पन्न होते है कुछ काल तक उनके भी होता है । २५ और २६ प्रकृतिक बन्धस्थानोमें भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि देव भी अपने सव उदयस्थानोंमे रहते हुए पर्याप्त एकेन्द्रियके योग्य २५ और २६ प्रकृतिक स्थानोंका वन्ध करता है। परन्तु इसके २५ प्रकृतिक बन्धस्थानके वादर, पर्याप्त और प्रत्येक प्रायोग्य पाठ ही भग होते हैं बाकीके १२ भग नहीं होते, क्योकि देव सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्तकोमें नहीं उत्पन्न होता, इससे उसके इनके योग्य प्रकृतियोका बन्ध भी नहीं होता। इस प्रकार यहाँ भी चालीस, चालीस सत्त्वस्थान होते हैं। २८ प्रकृतियोका वध करनेवाले मिथ्याष्टिके ३० और ३१ ये दो उदयस्थान होते हैं। इनमेसे ३० प्रकृतिक उदयस्थान तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य दोनोके Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सप्ततिकाप्रकरण होता है और ३१ प्रकृतिक उदयस्थान तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवोके ही होता है । इसके ९, ८६, और ८६ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं सो इनमें से ३० प्रकृतिक उदयस्थानमें चारों सत्त्वस्थान होते हैं । उसमें भी ८९ प्रकृतिक सत्त्वस्थान उसीके जानना चाहिये जिसके तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता है और जो मिथ्यात्वमे आकर नरकगतिके योग्य २८ प्रकृतियोंका वन्ध करता है। शेष तीन सत्त्वस्थान प्रायः सब तिर्यंच और मनुष्यो के सम्भव हैं तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थानमें ८९ को छोड़कर शेष तीन सत्त्वस्थान पाये जाते है । ८६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान तीर्थकर प्रकृति सहित होता है परन्तु तिर्यंचो मे तीर्थकर प्रकृतिका सत्त्व सम्भव नही, त ३१ प्रकृतिक उदयस्थान में ८९ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका निषेध किया है। इस प्रकार २८ प्रकृतिक वन्धस्थानमें ३० और ३१ इन दो उदयस्थानो की अपेक्षा ७ सत्त्वस्थान होते हैं । देवगति प्रायोग्य २६ प्रकृतिक बन्धस्थानको छोड़कर शेष विकलेन्द्रिय, तिर्यच पचेन्द्रिय और मनुष्यगतिके योग्य २६ प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके सामान्यसे पूर्वोक्त ९ उदयस्थान और ९२, ८, ५, ६, ८० तथा ७८ ये छह सत्त्वस्थान होते हैं | इनमेसे २१ प्रकृतिक उदयस्थानमे ये सभी सत्त्वस्थान प्राप्त होते हैं । उनमे भा ८९ प्रकृतिक सरवस्थान उती जीवके होता है जिसने नरकायुका बन्ध करनेके पश्चात् वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके तीर्थकर प्रकृतिकां बन्ध कर लिया है । तदनन्तर जो मिथ्यात्व में जाकर और मरकर नारकियों में उत्पन्न हुआ है । तथा ९२ और प्रकृतिक सत्त्वस्थान देव, नारकी, मनुष्य, विकलेन्द्रिय तिर्यच पंचेन्द्रिय और एकेन्द्रियोंको अपेक्षा जानना चाहिये । ८६ और ८० प्रकृतिक सत्त्वस्थान विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और एकेन्द्रियो की अपेक्षा जानना चाहिये । " Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोंमें नामकर्मके संवैध भंग २६९ तथा ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और तिर्यच पंचेन्द्रियोकी अपेक्षा जानना चाहिये । २४ प्रकृतिक उदयस्थानमें ८६ को छोड़कर शेप ५ सत्त्वस्थान होते हैं। जो सब एकेन्द्रियोकी अपेक्षा जानना चाहिये, क्योकि एकेन्द्रियोको छोडकर शेप जीवोंके २४ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता।२५ प्रकृतिक उदयस्थानमें पूर्वोक्त छहो सत्त्वस्थान होते हैं। सो इनका विशेप विचार २१ प्रकृतिक उदयस्थानके समानजानना चाहिये । २६ प्रकृतिक उदयस्थानमे ८९ को छोडकर शेप पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। यहाँ ८८ प्रकृतिक सत्वस्थानके नहीं प्राप्त होनेका कारण यह है कि मिथ्यात्वमें उस जीवके यह सत्त्वस्थान होता है जो नारकियोंमें उत्पन्न होनेवाला है पर नारक्यिोके २६ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता । २७ प्रकृतिक उदयम्थानमे ७९ के विना शेप ५ सत्त्वस्थान होते हैं। ८६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान किसके होता है इसका व्याख्यान तो पहलेके समान जानना चाहिये । ९२ और ८८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान देव, नारकी, मनुप्य, विकलेन्द्रिय, तियेच पचेन्द्रिय और एकेन्द्रियोकी अपेक्षा जानना चाहिये। तथा ८६ और ८० सत्त्वस्थान एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिथंचपचेन्द्रिय और मनुप्योकी अपेक्षा जानना चाहिये । यहाँ ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान इसलिये सम्भव नहीं है, क्योकि २७ प्रकृतिक उदयस्थान अग्निकायिक और वायु कायिक जीवोको छोड़कर आतप या उद्योतके साथ अन्य एके न्द्रियोके होता है या नारकियोंके होता है पर इनके ७८ की सत्ता नहीं पाई जाती। २८ प्रकृतिक उदयस्थानमें ये ही पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। सो इनमेंसे ९२, ८६ और ८८ का विवेचन पूर्ववत् है। तथा ८६ और ८० ये सत्त्वस्थान विकलेन्द्रिय, नियंचपचेन्द्रिय और मनुष्योके जानना चाहिये । २६ प्रकृतिक Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० सप्ततिकाप्रकरण उदयस्थानमे भी इसी प्रकार ५ सत्त्वस्थान जानना चाहिये। ३० प्रकृतिक उदयस्थानमे ९२, ८८, ८६ और ८० ये ४ सत्त्वस्थान होते हैं। सो ये चारो ही विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्योकी अपेक्षा जानना चाहिये। नारकियोंके ३० प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता अतः यहाँ ८९ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं कहा । तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थानमे भी ये ही चार सत्त्वस्थान होते हैं जो विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियोकी अपेक्षा जानना चाहिये। इस प्रकार २६ प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके ४५ सत्त्वस्थान होते हैं। तथा मनुष्य और देवगतिके योग्य ३० प्रकृतिक बन्धस्थानको छोड़कर शेष विक. लेन्द्रिय और तिर्यंच पचेन्द्रियके योग्य ३० प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके सामान्यसे पूर्वोक्त ६ उदयस्थान और ८९ को छोड़कर पाँच-पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। यहाँ ८९ प्रकृतिक सत्त्वस्थान सम्भव नहीं क्योकि ८६ प्रकृतिक सत्त्व स्थानवाले जीवके तिर्यंचगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्ध नहीं होता। यहाँ २१, २४, २५, २६ इन चार उदयस्थानोमे उन पाँचो सत्त्वस्थानोका कथन तो पहलेके समान करना चाहिये । अब शेष रहे २७, २८, २९, ३० और ३१ ये पाँच उदयस्थान सो इनमेंसे प्रत्येकमें ७के बिना शेष चार सत्त्वस्थान होते हैं। इस प्रकार ३० प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले मिथ्यारष्टि जीवके कुल ४० सत्त्वस्थान होते । इस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीवके बन्ध, उदय और सत्ताका संवेघ समाप्त हुआ। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोमें नामकर्मके संवेध भाग २७१ मिथ्यात्वमे नामकर्मके बन्धादिस्थानोके सवेधका ज्ञापक कोष्ठक [३८] - बन्धस्थान भग । उदयस्थान भग सत्तास्थान २३ ५ ६०० 2016MARADAAMRAPAN ६२,८८,८६,८०,७८ ६२,८८,८६,८०,७८ २३ ९२८८८६, ०,७८ ६०० ५२,८८,८६,८०,७८ २२ । ९०,८८,८६,८० ११८२ १२.८६,८० १७६४ ९२,८८,८६८० २९०६ ६२,८८८६,८० ६२,८८,८६,८० ४० ६२,८८,८६,९०,७८ ९२८८,८६८०,७८ ६२८८,८६८०,७८ ६२८८२,८०७८ ६२५९,८६,८० ६२८८,८६८० ५२.८८८६८० ६२८८,,८० ६२,८६८६,८० ६२.८८९६,८०,७८ ६२८८८८०,७८ ६२,८८५६८०,७८ ६२,८८,८६,८०,७८ ३० ९२,८८,८६,८० ११९८ ६२,८८,८६,८० १७८० ६२,८८,८६,८० २९१४, ६२,८८,०० । ११६४। ६२,८८,५६,९० १२६८ ११६४ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सप्ततिकाप्रकरण बन्धस्थान भग उदयस्थान भंग सत्तास्थान - - ५७६ १५७६ - . - ६२४० ६.८० १२८८ ९२,८८ ९२,८ ૨૮૮ ९२, २८९० ६२,८६,८,१६ ११५२/ ६२,८८,८६ ४१ । ६२,८६,८८,८६,८०,७८ ९२८८,८६८०७८ ३२ ६२,८६,८३,८०,७८ ६०० ६२,८६,८८८८०७८ ३. ९२,८६,८८,६,८० | १२६ ६२,९०,८८,६८० १७८१ / ९२८६,८८६,८० २६१४ | १०,८६,८८,८६८० ११६४२८८८८,८६, ४१ ।२,९०,८८,६,८०,७८ ११ । ६२,८८,८६,८०,७८ ६२८६,८,६८०,७८ ६२८८८६,८०७८ ६२,८६,८८६८० ११६६६२,८६,८८६८० २६ १७८१ | १२८६,८८,६८० २६१४] ६२,८६,८८,८६,८० ११६४] ६२८८६८० १३. ।४६३८८ २३३ ।। - - - - - |४६३२ AAI २३१२ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानों में नामकर्मके संवैध भंग सास्वादनमे बन्धस्थान तीन हैं -२८, २६ और ३० । इसमेंसे २८ प्रकृतिक बन्धस्थान दो प्रकार का है नरक गति प्रायोग्य और देवगति प्रायोग्य । सास्वादन जीवों के नरकगति प्रायोग्य का तो वन्ध होता नहीं। देवगति प्रायोग्य का होता है सो उसके वन्धक पर्याप्त तिर्यंच पचेन्द्रिय और मनुष्य होते हैं। इसके आठ भंग होते हैं। यद्यपि २६ प्रकृतिक वन्धस्थानके अनेक भेद हैं किन्तु सास्वादन में बंधने योग्य इसके दो भेद हैं-तियंच गतिप्रायोग्य और मनुष्यगतिप्रायोग्य । सो इन दोनो को सास्वादन एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, तिथंच पचेन्द्रिय, मनुष्य, देव और नारकी जीव वाँधते हैं । यहाँ इसके कुल भग ६४०० होते हैं, क्योंकि यद्यपि सास्वादन तिथंचगतिप्रायोग्य या मनुष्यगति प्रायोग्य २६ प्रकृतियों को बांधते हैं तो भी वे हुडसस्थान और सेवात सहनन का वन्ध नहीं करते, क्योंकि इन दो प्रकृतियो का बन्ध केवल मिथ्यत्व गुणस्थान मे ही होता है, अत. यहाँ पाँच सहनन, पाँच सस्थान प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति युगल, स्थिर अस्थिर युगल, शुभअशुभ युगल,सुभग-दुभंगयुगल,सुस्वर दुःस्वरयुगल,आदेय-अनादेययुगल और यश.कीर्त-अयश कीर्ति युगल इस प्रकार इनके परस्पर गुणित करने पर ३२०० भग होते है । ये ३२०० भंग तिर्यंचगतिप्रायोग्यके भी होते हैं और मनुष्यगति प्रायोग्यके भी होते है। इस प्रकार कुल भंग ६४०० हुए । तथा यद्यपि ३० प्रकृतिक बन्धस्थानके अनेक भेद हैं किन्तु सास्वादनमे बँधने योग्य यह एक उद्योतसहित तिथंचगति प्रायोग्य ही है। जिसे सास्वादन एकेन्द्रिय, १८ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ सप्ततिकाप्रकरण विकलेन्द्रिय, तिर्यच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव और नारकी जीव 6 बांधते हैं। इसके कुल भंग ३२०० होते है । इस प्रकार सास्वादनमें तीन बन्धस्थान और उनके भंग ९६०८ होते हैं । अन्तर्भाष्य गाथामें भी कहा है 'अ य सय चोवट्ठि बत्तीस सया य सासणे भैया । अट्ठावीसाईसुं सव्वाणट्ठहिंग छरणाउई ॥' अर्थात् - 'सास्वादनमे २८ आदि बन्धस्थानोंके क्रमसे ८, ६४०० और ३२०० भेद होते हैं । तथा ये सब मिल कर ९६०८ होते हैं ।' सास्वादनमे उदयस्थान ७ हैं - २१, २४, २५, २६, २६, ३० और ३१ । इनमेसे २१प्रकृतियोका उदय एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंचपंचेन्द्रिय, मनुष्य और देवोके होता है। नारकियोमे सास्वादन सम्यदृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते अतः सास्वादन मे नारकियोके २१ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं कहा। एकेन्द्रियोके २१ प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए बादर और पर्याप्तकके साथ यशःकीर्तिके विकल्पसे दो भंगही सम्भव हैं, क्यो कि सूक्ष्म और अपर्याप्तकोमें सास्वादन जीव नहीं उत्पन्न होता और इसीलिये विकलेन्द्रिय, तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्योके प्रत्येक और अपर्याप्तकके साथ जो एक एक भंग होता है वह वहां सम्भव नहीं है। हां शेष भंग सम्भव. हैं । जो विकलेन्द्रियोंके दो, दो इस प्रकार छह तिर्यंचपंचेन्द्रियोंके ८, मनुष्योंके और देवोंके ८ होते हैं। इस प्रकार २१ प्रकृतिक " 7 + Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोमें नामकर्मके संवेध भग २७५ उदयस्थानके कुल मिला कर ३२ भग हुए । २४ प्रकृतिक उदयस्थान उन्हीं जीवोके होता है जो एकेन्द्रियोंमे उत्पन्न होते हैं। सो यहा इसके वादर और पर्याप्तकके साथ यशःकीर्ति और अयश. कीर्तिके विकल्पसे दो ही भग होते हैं, शेप भग नहीं होते, क्योंकि सूक्ष्म, साधारण अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न हाता । सास्वादनमें २५ प्रकृतिक उदयस्थान उसीके प्राप्त होता है जो देवोमें उत्पन्न होता है । सो इसके यहा स्थिर-अस्थिर, शुभ अशुभ ओर यश.कोर्ति-अयश कौतिके विकल्पसे ८ भग होते है। २६ प्रकृतिक उदयस्थान उन्हींके होता है जो विललेन्द्रिय, तिर्यंचपचेन्द्रिय और मनुष्योमें उत्पन्न होते हैं। इस स्थानमें अपर्याप्तकके साथ जो एक एक भग पाया जाता है वह यहाँसम्भव नहीं है, क्योंकि अपर्याप्तकोंमे सास्वादन सम्यग्दृष्टि जोव नहीं उत्पन्न होते । किन्तु शेप भग सम्भव है । जो विकलेन्द्रियोके दो, दोइस प्रकार छह, तिर्यंचपचेन्द्रियोके २८८ ओर मनुष्योके २८ होते हैं। इस प्रकार यहा २६ प्रकृतिक उदयस्थानमें कुल मिलाकर ५८२ भाग होते हैं । यहा २७ ओर २८ प्रकृतिक उदयस्थान सम्भव नहीं है, क्यो कि वे नवीन भव ग्रहणके एक अन्तर्मुहूर्त कालके जाने पर हाते हैं। किन्तु सास्वादनभाव उत्पविके बाद अधिकसे अधिक कुछ कम ६ श्रावलिकाल तक ही प्राप्त होता है। अत उक्त दोनो स्थान सास्वादनसम्यग्दृष्टिके नहीं होते यह सिद्ध हुआ। २६ प्रकृतिक उदयस्थान प्रथम सम्यक्त्वसे च्युत होनेवाले पर्याप्तक स्वस्थानगत देव और नारकियोंके प्राप्त होता है। २६ प्रकृतिक Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ . ..सप्ततिकाप्रकरण . . उदयस्थानमे देवोंके ८ और नारकियोके १ इस प्रकार इसके यहां कुल भंग होते हैं। सास्वादनमें ३० प्रकृतिक उदयस्थान प्रथम सम्यक्त्वसे च्युत होनेवाले पर्याप्तक तिथंच और मनुष्योके या उत्तर विक्रियामें विद्यमान देवोंके होता है। ३. प्रकृतिक उदयस्थानमे तिर्यंच और मनुष्योमेंसे प्रत्येकके १५२ और देवोंके ८ इस प्रकार कुल २३१२ भंग होते हैं। तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थान प्रथम सम्यक्त्वसे च्युत होनेवाले पर्याप्तक तिर्यंचोके होता है। यहां इसके कुल भंग ११५२ होते हैं । इस प्रकार सास्वादन में ७ उदयस्थान होते हैं । अन्तर्भाष्य गाथामें भी इनके भंग निम्न प्रकारसे गिनाये है 'बत्तीस दोन्नि अट्ठ य वासीस सया य पंच नव उदया। बारहिगा तेवीसा वावन्नेक्कारस सया य ॥' अर्थात्-'सास्वादनमें २१, २४, २५, २६, २९, ३० और ३१ इन उदयस्थानोके क्रमसे ३२, २, ८, ५८२, ९, २३१२ और ११५२ भंग होते हैं।' तथा सास्वादनमे दो सत्तास्थान होते हैं- ६२ और ८८ । इनमें से जो आहारक चतुष्कका बन्ध करके उपशमश्रेणीसे च्युत होकर सास्वादन भावको प्राप्त होता है उसके ६२ की सत्ता पाई जाती है अन्यके नहीं। ८ की सत्ता चारो गतियोके सास्वादन जीवोके पाई जाती है। इस प्रकार सास्वादनमे वन्ध. उदय और सत्त्वस्थानोंका विवेचन समाप्त हुआ। .अव इनके संवेधका , विचार करते हैं-२८ प्रकृतियोका बन्ध Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोंमे नामकर्मके सवेध भंग २७७ करनेवाले सास्वादनके २ उदयस्थान होते हैं - ३० और ३१ । यह नियम है कि सास्वादन जीव देवगति प्रायोग्य ही २८ का वन्ध करता है नरकगति प्रायोग्य २८ का नहीं। उसमें भी करणपर्याप्त सास्वादन जीव ही देवगतिप्रायोग्यको बांधता है, अत यहा ३० और ३१ इन दो उदयस्थानोंको छोड़कर शेप उदयस्थान सम्भव नहीं। अब यदि मनुष्योकी अपेक्षा ३० प्रकृतिक उदयस्थानका विचार करते है तो वहा १२ और ८८ ये दोनों सत्तास्थान सम्भव हैं। और यदि तिर्यच पचेन्द्रियोकी अपेक्षा ३० प्रकृतिक उदयस्थानका विचार करते हैं तो वहा १८ यह एक ही सत्तास्थान सम्भव हैं, क्योकि ६२ की सत्ता उसीके प्राप्त होती है जो उपशमश्रेणिसे च्युत होकर सास्वादनभावको प्राप्त होता है किन्तु तिर्यचौमें उपशमश्रोणि सम्भव नहीं अत. यहां उनके ९२ प्रकृतिक सत्तास्थानका निपेध किया। तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थानमे ८८ की ही सत्ता रहती है, क्यो कि ३१ प्रकृतिक उदयस्थान तिर्यंचोके ही प्राप्त होता है। तिर्यंच पचेन्द्रिय और मनुष्योके योग्य २९ का वन्ध करनेवाले सास्वादन जीवोके पूर्वोक्त सातो ही उदयस्थान मन्भव है। सो इनमेस और सब उदयस्थानोमे तो एक ८८ की ही सत्ता होती है किन्तु ३० के उदयमे मनुष्योके ६२ और ८८ ये दोनो ही सत्तास्थान सम्भव हैं। २६ के समान ३० प्रकृतिक वन्धस्थानका भी कथन करना चाहिये । इस प्रकार सास्वादनमे कुल ८ सत्तास्थान होते है। इस प्रकार सास्वादनमे बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंका संवेध समाप्त हुआ। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ' सप्ततिकाप्रकरण . सास्वादनमें नामकर्मके वन्ध, उदय और,सत्तास्थानोंके संवेधका ज्ञापक कोष्ठक . .. [३९] - वन्धस्थान | भग उदयस्थान सत्तास्थान - ६२, २३१२ ११५२ २६ [६४०० AAAAA ३२०० A | ३ | ४६०८ | १६ | ११६५८ | १६ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानो में नामकर्मके संवैध भंग २७९ मिश्र गुणस्थान में बन्धस्थान २ हैं - २८ और २९ । इनमें से २८ प्रकृतिक बन्धस्थान तिर्यच और मनुष्योंके होता है, क्योंकि ये मिश्र गुणस्थान में देवगतिके योग्य प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं। इसके यहाँ ८ भग होते हैं । तथा २६ प्रकृतिक बन्धस्थान देव और नारकियोके होता है, क्योकि ये मिश्र गुणस्थानमें मनु। ष्य गतिके योग्य प्रकृतियोका ही बन्ध करते हैं। इसके भी आठ ही भग होते हैं। दोनो स्थानोंमें ये ८ भग स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीर्ति - अयश कीर्त्तिके विकल्प से प्राप्त होते हैं । यहाँ उदयस्थान तीन होते हैं - २९, ३० और ३१ | २६ प्रकृतिक उदयस्थान देव और नारकियोके होता है। इस स्थानके देवो के ८ और नारकियोंके १ इस प्रकार ९ भंग होते है । ३० प्रकृतिक उदयस्थान तिर्यंच और मनुष्योंके होता है । इसमें तिर्यंचोंके ११५२ और मनुष्योके १९५२ इस प्रकार कुल २३०४ मंग होते हैं । ३१ प्रकृतिक उदयस्थान तिर्यच पचेन्द्रियोंके ही होता है । इसके यहाँ कुल भग ११५२ होते हैं । इस प्रकार मिश्रमें तीनों उदयस्थानोंके भग ३४६५ होते हैं । तथा मिश्र में सत्तास्थान २ होते हैं - ६२ और प । इस प्रकार मिश्रमें बन्ध, उदय और सत्तास्थानो का विवेचन समाप्त हुआ । अब इनके संवेधका विचार करते हैं-२८ प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टिके २ उदयस्थान होते हैं--३० और ३१ । तथा प्रत्येक उदयस्थानमें ६२ और ८८ ये दो दो सत्तास्थान होते Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सप्ततिकाप्रकरण, हैं। २९ प्रकृतियोंका बन्ध करनेवालेके एक २९ प्रकृतिक ही उदय- ' स्थान होता है। यहाँ भी ९२ और ८८ ये दो सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार मिन गुणस्थानमें तीन उदयस्थानो की अपेक्षा छह सत्तास्थान होते है । इस प्रकार मिश्रमें बन्ध, उदय और सत्तास्थानोका संवेध समाप्त हुआ। मिश्रमें नामकर्मके बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंके संवेधका ज्ञापक कोष्ठक[४०] - - बन्धस्थान भग उदयस्थान भग सत्तास्थान - २३०४ ६२, ११५२ । ६२, ५८ - - - • २६ । २६ ६२.८८ - १६ ३४६५ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोंमें नामकर्मके सवेध भग २८१ अविरति सम्यग्यदृष्टि गुणस्थानमें तीन बन्धस्थान हैं -- २८, २६ और ३० | देवगतिके योग्य प्रकृतियों का बन्ध करनेवाले अविरत सम्यदृष्टि तिर्यच और मनुष्योके २८ प्रकृतिक वन्धस्थान होता है । इसके आठ भग हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य शेप गतियोके योग्य प्रकृतियोंका वन्ध नहीं करते इसलिये यहाँ -नरक गतिके योग्य २८ प्रकृतिक वन्धस्थान नहीं प्राप्त होता । २९ प्रकृतिक वन्धस्थान दो प्रकारसे होता है। एक तो तीर्थंकर प्रकृतिके साथ देवगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले मनुष्योके होता है । इसके भी आठ भग होते हैं। दूसरा मनुष्यगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले देव और नारकियो के होता है । यहाँ भी वे ही आठ भंग होते हैं । तथा तीर्थकर प्रकृतिके साथ मनुष्यगतिके योग्य प्रकृतियोंक्का बन्ध करनेवाले देव और नारकियोंके ३० प्रकृतिक बन्धस्थान होता है। इसके भी वे ही आठ भंग होते है । यहाँ उदयस्थान ८ होते हैं - २१, २५, २६, २७, २८, २२, ३० और ३१ । इनमेसे २१ प्रकृतियोका उदय नारकी, तिर्यच पचेन्द्रिय मनुष्य और देवोके जानना चाहिये। क्योकि जिसने श्रायुकर्मके बन्धके पश्चात् क्षायिकसम्यग्दर्शन को प्राप्त किया है उसके चारो गतियो मे २१ प्रकृतिक उदयस्थान सम्भव है । किन्तु अविरत सम्यदृष्टि जीव अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न नहीं होता अतः यहाँ अपर्याप्तक सम्बन्धी अंगोको छोड़ कर शेष भग पाये जाते हैं । जो तिर्यच पंचेन्द्रियो के ८, मनुष्योंक्रे म, देवोके म और नारकियोका १ इस 1 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सप्ततिकाप्रकरण प्रकार २५ होते हैं। २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान देव और नारकियोके तथा विक्रिया करनेवाले तिर्यंच और मनुष्योंके जानना चाहिये । यहाँ जो २५ और २७ प्रकृतिक स्थानोंका नारकी और देवाको स्वामी बतलाया है सो यह नारकी वेदकसम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही होता है और देव तीनमें से किसी भी सम्यग्दर्शनवाला होता है। चूर्णि में भी कहा है'पणवीस-मत्तवीसोदयादेवनेरइए विउव्वियतिरिय-मणुएय पडुच्च। नेरइगो खड़गवेयगसम्मदिट्ठी देवो तिविहसम्मट्टिी वि ।' ___अर्थात्-'अविरति सम्यम्हष्टि गुणस्थानमें २५ और २७ प्रकृतिक उदयन्यान देव, नारकी और विक्रिया करने वाले तिर्यच और मनुष्योंके होता है । सो ऐमा नारकी या तो क्षायिक सम्यस्वष्टि होता है या वेदक सम्यम्हष्टि किन्तु देवके तीन सम्यग्दर्शनोंमें से कोई एक होता है।' ___२६ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि या वेदक सम्यग्दष्टि तिथंच और मनुष्योके होता है । औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव तिर्यच और मनुप्योमें उत्पन्न नहीं होता, अतः यहाँ तीनों प्रकारके सम्यरहष्टियोंके होता है ऐसा नहीं कहा। उसमें भी तिर्यंचोंके मोहनीय की २२ प्रकृतियों की सत्ता की अपेक्षा ही यहाँ वेदक सम्यक्त्व जानना चाहिये। २८ और २९ प्रकृतियोंका उदय चारों गतिके अविरत सम्यग्दृष्टि जीवांके होता है। ३० प्रकृतिक उदयस्थान तिथंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देवोंके होता है। तथा ३१ प्रकृतिक इद्यस्थान तिर्वच पंचेन्द्रियोके ही होता है। . Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानों में नामकर्मके संवेध भंग २८३ यहाँ सत्तास्थान चार हैं-३, ६२,८९ और ८८। सो जिस अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण जीवने तीर्थकर और आहारकके साथ ३१ प्रकृतियोंका बन्ध किया और पश्चात् मर कर अविरत सम्यग्दृष्टि देव हो गया उसके ६३ की सत्ता है। जिसने पहले आहारक चतुष्कका बन्ध किया और तदनन्तर परिणाम बदल जानेसे मिथ्यात्वमें जाकर जो चारों गतियोमें से किसी एक गतिमें उत्पन्न हुआ उसके उस गतिमे पुनः सम्यग्दर्शनके प्राप्त हो जानेपर प्रकृतिकसच्चस्थान चारोगतियोंमें वन जाता है। किन्तु देव और मनुप्योके मिथ्यात्वको विना प्राप्त किये ही इस गुणस्थानमे ९० की सत्ता बन जाती है। ८६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि देव, नारकी और मनुष्योंके होता है। क्योंकि इन तीनो गतियोंमें तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध होता रहता है। तीर्थकर प्रकृति की सत्तावाला जीव तिर्यचॉमे नहीं उत्पन्न होता है अतः यहाँ तियेचीका ग्रहण नहीं किया। तथा ८८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान चागे गतिके अविरत सम्यदृष्टि जीवोके होता है । इस प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोका चिन्तन किया। अब इनके संवेधका विचार करते हैं-०८ प्रकृतियोंका वन्ध करनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीवके तिर्यंच और मनुष्योकी अपेक्षा पूर्वोक्त आठों उदयस्थान होते हैं। उसमें भी २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान विक्रिया करनेवाले तिर्यंच और मनुष्योके ही होते हैं शेप छह सामान्यके होते हैं। इन उदयस्थानोमे से प्रत्येक Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण उदयस्थानमे १२ और ८८ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। २६ प्रकृतिक बन्धस्थान दो प्रकारका है-देवगतिप्रायोग्य और मनुष्यगतिप्रायोग्य । इनमेंसे देवगति प्रायोग्य तीर्थकर प्रकृति सहित है, अतः इसका बन्ध मनुष्य ही करते हैं । किन्तु मनुष्योके उदयम्थान सात हैं-२१, २५ २६, २७, २८, २६ और ३०, क्योंकि मनुष्योके ३१ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता। यहाँ भी प्रत्येक उदयस्थानमे' ९३ और ८९ ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। तथा मनुष्य गतियोग्य २६ प्रकृतियोको देव और नारको बाँधते हैं। सो इनमेसे नारकियोके २१, २५, २७, २८ और २६ ये पाँच उदयस्थान होते हैं। तथा देवोके पूर्वोक्त पाँच और ३० ये छह उदयस्थान होते हैं। सो इन सव उदयस्थानोमे ६२ और ८८ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। तथा मनुष्यगतिके योग्य ३० को देव और नारकी बाँधते हैं । सो इनमें से देवोके पूर्वोक्त छह उदयस्थान होते हैं और उनमेसे प्रत्येकमें ६३ और ८६ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। नारकियोके उदयम्थान तो पूर्वोक्त पाँचों हो होते हैं किन्तु इनमे सत्तास्थान ८६ प्रकृतिक एक एक ही होना है, क्योकि तीर्थंकर और आहारक चतुष्क की युगपत् सत्तावाले जीव नारकियोंमें नहीं उत्पन्न होते । इस प्रकार २१ से लेकर ३० तक प्रत्येक उदयस्थानमे सामान्यसे ९३, ९२, ८६ और ८८ ये चार-चार सत्तास्थान होते हैं और ३१ प्रकृतिक उदयस्थानमे १२ और ८८ ये दो सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमे सामान्यसे कुल ३० सत्तास्थान हुए। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोमें नामकर्मके संवैध भग २८५ अविरत सम्यग्दृष्टिके बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंके सवेधका ज्ञापक कोष्ठक[४१ ] बन्धस्थाना भग उदयस्थान भग सत्तास्थान - - ६२ पर ५७६ १६ ११७६ १७५२ २८८८ ११५२ १७ १७ १२, १८ ६२, पप १२, १२,५८ ६२, ४२,45 ६३, ६२,८६, ८ ६३, ६२, ९, म ६३, ६२, ६३, ६२, ६३, ६२, ६३, ६२, ६३, ६२, ६३ ८६ ६३, ८९ २८८ ६०१ ५०१ ममम dow225 .ދޯ ގުދޯ ގުއޯ އޯ ބާ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ सप्ततिकाप्रकरण " अव देशविरतमें बन्ध, उदय और सत्तास्थानोका विचार करते हैं-देशविरतमें वन्धस्थान दो हैं-२१ और २६ । इनमेंसे २८ प्रकृतिक बन्धस्थान तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्योंके होता है। इतना विशेष है कि इस गुणस्थानमें देवगति प्रायोग्य प्रकतियोका हो वन्ध होता है। तथा इस स्थानके ८ भंग होते हैं। इसमे तीर्थकर प्रकृतिके मिला देने पर २६ प्रकृतिक बन्धस्थान होता है जो मनुष्योके ही होता है, क्योकि तियंचोके तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध नहीं होता। इस स्थान के भी आठ भग होते हैं। ___यहाँ उदयस्थान ६ होते हैं-२५, २७, २८, २९, ३० और ३१ । इनमेसे प्रारम्भके ४ उदयस्थान विक्रिया करनेवाले विर्यच और मनुष्योके होते हैं। मनुष्योके इन चारो उदयस्थानोमें एक एक ही भग होता है। किन्तु तिर्यंचोंके प्रारम्भके दो उदयस्थानो का एक एक भग होता है और अन्तिम दो उदयस्थानोके दो दो भग होते है। ३० प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ तिथंच और मनुष्योके और विक्रिया करनेवाले तिर्यंचोके होता है । सो यहाँ प्रारम्भके दो में से प्रत्येकके १४४ भग होते है । जो छह सहनन छह संस्थान, सुस्वर-दुःस्वर और प्रशस्त-अप्रस्त विहायोगतिके विकल्पसे प्राप्त होते हैं तथा अन्तिमका १भग होता है । इस प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थानके कुल २८८ भग हाते है । तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थान तिर्यंचोके ही होता है। यहाँ भी १४४ भग होते हैं। इस प्रकार देशविरतमें सब उदयस्थानोके कुल ४४३ भग हाते है। सत्तास्थान यहाँ चार होते हैं-९३, ६२, ८६ और ८८ । जो तीर्थकर और आहारक चतुष्कका बन्ध करके दशविरत हो जाता है उसके ९३ की सत्ता होती है। तथा शेष का विचार सुगम है। इस प्रकार देशविरतमे बन्ध, उदय और सत्तास्थानो का विचार किया। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोंमें नामकर्मके संवेध भंग २८७ अब इनके सवेधका विचार करते हैं-यदि देशविरत मनुष्य २८ प्रकृतियोका वन्ध करता है तो उसके २५, २७, २८, २९ और ३० ये पॉच उदयस्थान और इनमेंसे प्रत्येकमें ९२ और ८८ ये दो सत्तास्थान होते हैं। किन्तु यदि तिर्यच २८ प्रकृतियोंका बन्ध करता है तो उसके ३१ सहित छह उदय स्थान और प्रत्येकौ ९२ और ८८ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। तथा २६ प्रकृतियो का बन्ध देशविरत मनुष्यके होता है। अत इसके पूर्वोक्त पॉच उदयास्थान और प्रत्येक उदयस्थानमें ९३ और ८६ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार देशविरतके सामान्यसे प्रारम्भके ५ उयस्थानों में चार चार और अन्तिम उदयस्थानमें दो कुल मिलाकर २२ सत्तास्थान होते हैं। देशविरतमै बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंके सवेधका ज्ञापक कोष्ठक। [४२ 1 बन्धस्थान भग उदयस्थान भंग । सत्तास्थान ६२८८ 00mm ६२,८ ६२,८८ ६२. - २६ | ८ ६३.८४ ६३,८९ ६३, AAAAA - Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ । सप्ततिकाप्रकरण: प्रमत्तसंयतके दो बन्धस्थान होते हैं-२८ और २६ । सो इनका विशेष स्पष्टीकरण देशविरतके समान जानना चाहिये। ___यहाँ उदयस्थान पाँच होते हैं-२५, २७, २८ २९ और ३० । ये सब उदयस्थान आहारक संयत और वैक्रियसंयत जीवोके जानना चाहिये। किन्तु ३० प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ संयतोके भी होता है। इनमेंसे वैक्रिय संयत और आहारकसयतोके अलग-अलग २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थानोमेंसे प्रत्येकके एक एक २८ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानोके दो दो और ३० प्रकृतिक उदयस्थानका एक एक इस प्रकार कुल १४ भंग होते है। तथा ३० प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ जीवोके भी होता है सो इसके १४४ भंग और होते है। इस प्रकार प्रमत्त संयत के सब उदयस्थानो के कुल १५८ भग होते हैं। तथा यहां सत्तास्थान चार होते हैं-९३, ६२, ८६ और ८८। इस प्रकार प्रमत्तसंयतमे बन्ध उदय और सत्तास्थानोका विचार किया। अब इनके संवेधका विचार करते हैं--प्रकृतियोका बन्ध करने वालेके पूर्वोक्त पांचो उदयस्थानोमेसे प्रत्येकमें १२ और ८८ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। उसमे भी आहारक संयतके नियमसे १२ की ही सत्ता होती है, क्यों कि आहारक चतुष्ककी सत्ताके विना आहारक समुद्धात की उत्पत्ति नहीं हो सकती किन्तु वैक्रियसयतके ९२ और दोनों की सत्ता सम्भव है। जिस प्रमत्त संयतके तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता है वह २८ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता, अतः यहां ६३ और ८९ की सत्ता नहीं प्राप्त होती। तथा २९ प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले प्रमत्तसंयतके पांचो उदयस्थान सम्भव हैं और इनमेंसे प्रत्येकमे ९३ और ८९ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। विशेष इतना है कि आहारकके ९३ की और बैक्रियके दोनो Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानों में नामकर्मके संवेधभंग | २८६ की सत्ता होती है । इस प्रकार प्रमत्तसंयत के सब उदयस्थानोमे पृथक् पृथक् चार-चार सत्तास्थान प्राप्त होते है जिनका कुल प्रमाण २० होता है । इस प्रकार प्रमत्तसयतके बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंके सवेधका विचार किया । प्रत्तसयतके बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंके सवेधका ज्ञापक कोष्ठक [ ४३ ] बन्धस्थान भग २८ २६ ម tr Η हृदयस्थान २७ ܪܢ २६ ३० २६ २७ २८ ३० मग R २ ४ १४६ २ 11 ४ ४ १४६ 4 सत्तास्थान ६२,८५ ६२८८ ६२, ६२, प १२, ६३, ८६ ६३, ८ ६३,८६ ६३, ८६ ९३, ८९ 1 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण अप्रमत्तसंयतके चार बन्धस्थान होते हैं-२८, २९, ३० और ३. । तीर्थकर और आहारक द्विकके विना २८ प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। इसमें तीर्थकर प्रकृतिके मिलाने पर २९ प्रकृतिक वन्धस्थान है। तीर्थकरको अलग करके आहारक द्विकके मिलाने पर ३० प्रकृतिक बन्धस्थान होता है और तीर्थकर तथा आहारक द्विक इनके मिलाने पर ३१ प्रकृतिक बन्धस्थान होता है । इन सव वन्धस्थानोमें एक एक ही भंग होता है, क्योंकि अप्रमत्तसंयतके अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिका बन्ध नहीं होता। यहां उदयस्थाने दो होते हैं-२९ और ३० । जिसने पहले प्रमत्तसंयत अवस्थामें आहारक या वैक्रिय समुद्धातको करके पश्चात् अप्रमत्तस्थानको प्राप्त किया है। उसके २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके यहां दो भंग होते हैं, एक वैक्रियकी अपेक्षा और दूसरा आहारककी अपेक्षा । इसी प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थानमें भी दो भंग होते हैं। तथा ३० प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ जीवके भी होता है सो इसकी अपेक्षा यहां १४४ भंग होते हैं। इस प्रकार अप्रमत्तसंयतके दो उदयस्थानोंके कुल १४८ भंग होते हैं। तथा यहां पहलेके समान ६३, ६२,८९ और ८८ ये चार सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार अप्रमत्त संयतके वन्ध, उदय और सत्तास्थानोका विचार किया। (१) गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ७०१ में अप्रमत्तसंयतके ३० प्रकृतिक एक ही उदयस्थान मतलाया है। कारण यह है कि दिगम्वर परपरामें यही एक मत पाया जाता है कि आहारक समुद्धातको करनेवाले जीवको स्वयोग्य पर्याप्तियोंके पूर्ण हो जाने पर भी सातवाँ गुणस्थान प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार दिगम्बर परंपराके अनुसार वैक्रिय समुद्घातको करनेवाला जीव भी अप्रमत्तसंयत गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता । यही सवव है कि कर्मकाण्डमें अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान ही बतलाया है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानो में नामकर्मके सवेधभग । २९१ इनके संवेधका विचार करते हैं - २८ प्रकृतियोका बन्ध करनेवालेके उदयस्थान दोनो होते हैं किन्तु सत्तास्थान एक प्रकृतिक ही होता है । २६ प्रकृतियोका बन्ध करनेवालेके उदयस्थान दोनो होते हैं किन्तु सत्तास्थान एक ८६ प्रकृतिक ही होता है । ३० प्रकृतियोका बन्ध करनेवालेके भी उदयस्थान दोनो होते हैं किन्तु सत्तास्थान दोनों के एक ६२ प्रकृतिक हो होता है । तथा ३ / प्रकृतियों का बन्ध करने वालेके उदयस्थान दोनो होते हैं किन्तु सत्तास्थान एक ९३ प्रकृतिक ही होता है । यहा तीर्थकर या आहारक द्विक इनमे से जिसके जिसकी सत्ता होती है वह नियमसे उसका बन्ध करता है इसलिये एक एक बन्धस्थानमें एक एक सत्तास्थान कहा है | यहाँ कुल सत्तास्थान ८ होते हैं । इस प्रकार अप्रमत्तसयत के बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंके संवेधका विचार किया । अप्रमत्तसयतके बन्ध, उदय और सत्तास्थानांके सवेधका ज्ञापक कोष्टक [ ४४ ] बन्धास्थान | २८ २६ ३० ३१ भग १ १ ? उदयस्थान २६ ३० २६ ३० २९ ३० २९ ३० -) भग ६४५ R ६४५ १ १४६ २ १४६ सत्तास्थान जा τ द ६२ ६२ ६३ ૩ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ सप्ततिकाप्रकरण अपूर्वकरणमें पांच बन्धस्थान होते है-२८,२९,३०,३१ और। इनमेंसे प्रारम्भके चार बन्धस्थान अप्रमत्तसंयतके समान जानना चाहिये, किन्तु जब देवगति प्रायोग्य प्रकृतियोकी वन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है तव केवल एक यश कीर्तिका ही बन्ध होता है अतः यहा १ प्रकृतिक बन्धस्थान भी होता है। ___ यहा उदयस्थान एक ३० प्रकृतिक ही होता है। जिसके छह सस्थान, सुस्वर-दुःस्वर और दो विहायोगतिके विकल्पसे २४ भंग होते हैं। किन्तु कुछ प्राचार्योंका मत है कि उपशमश्रेणिकी अपेक्षा अपूर्वकरणमे केवल वज्रर्पभनाराच संहननका उदय न होकर प्रारम्भके तीन संहननोमेसे किसी एकका उदय होता है, अतः इन आचार्यों के मतसे यहां ७२ भंग प्राप्त होते है। इसी प्रकार अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसम्पराय और उपशान्तमोह गुणस्थानमे भी जानना चाहिये। यहा सत्तास्थान चार होते हैं-६३, ९२, ९६ और ८८ | इस प्रकार अपूर्वकरणमे बन्ध, उदय और सत्तास्थानोका विचार किया। अब इसके संवेधका विचार करते हैं-२८, २९, ३० और ३१ प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले जीवके ३० प्रकृतिक उदय रहते हुए क्रमसे ८८, ८६, ६२ और ६३ प्रकृतियोकी सत्ता होती है। तथा एक प्रकृतिका वन्ध करने वाले के ३० प्रकृतियोका उदय रहते हुए चारो सत्तास्थान होते हैं क्योकि जो पहले २८,२६,३० या ३१ प्रकृतिक स्थानका वन्ध कर रहा था उसके देवगतिके योग्य प्रकतिथोकी वन्धव्युच्छित्ति होनेपर एक प्रकृतिका वध होता है किंतु उसके (१) दिगम्बर परपरामें यही एक मत पाया जाता है कि उपशमश्रेणिमें प्रारंभके तीन सहनोंमेंसे किसी एक संहननका उदय होता है। इसकी पुष्टि गोम्मटसार कर्मकाण्डकी गाथा नम्बर २६६ से होती है। - Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानों में नामकर्मके सवेधभग २६३ सत्तास्थान उसी क्रमसे रहे आते हैं जिस क्रमसे वह पहले वॉधता था। अर्थात् जो पहले २८ प्रकृतियोंका बन्ध करता था उपके ८८ की, जो २६ का वध करता था उसके ८६ की, जो ३० का वन्ध करता था उसके ९२ की और जो ३१ का बन्ध करता या उसके ६३ की सत्ता रही आती है। इसलिये एक प्रकृतिक वन्धम्थानमे चारों सत्तास्थान प्राप्त होते हैं। अपूर्वकरणमे बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंके सवेधका ज्ञापक कोष्ठक[४५] पन्धास्थान मग उदयस्थान भग सत्तास्थान २८ १ ३० | २४ या ७२ ९ । ३० | २४ या ७२ । ३० । १ ३० । २४ या ७२ - - २४ या ७२ २४ या ७२ ८८,८८, ६२, ९३ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण अनिवृत्ति वादसम्पराय में एक यश कीर्तिका ही वन्ध होता है, ऋत' यहां एक प्रकृतिक एक ही वन्यस्थान है। उदयस्थान भी एक ३० प्रकृतिक ही है। सत्तास्थान ८ हैं - ६३.९२, ८६, ८, ८०, ७६, ७६ और ७५ । इनमेसे प्रारम्भके चार उपशमश्रेणिमें होते हैं और जब तक नाम कर्म की तेरह प्रकृतियोंका क्षय नहीं होता तब तक क्षपकश्रेणीमें भी होते हैं । तथा उक्त चारों स्थानोंकी सत्तावाले जीवो के १३ प्रकृतियों के क्षय होने पर क्रमसे ८, ७६, ७६ और ७५ प्रकृतियोकी सत्ता प्राप्त होती है। अर्थात् ६३ की सत्तावालेके १३ के नय होने पर ८० की, ६२ की सत्तावालेके १३ के क्षय होने पर ७६ की, = की सत्तावालेके १३ के दाय होने पर ७६ की और 3 २९४ की सत्तावालेके १३ के क्षय होने पर ७५ की सत्ता शेष रहती हैं । इस प्रकार यहाँ आठ सत्तास्थान होते है । यहां वन्धस्थान और उद्यस्थानों में भेद नहीं होनेसे संवेध सम्भव नहीं है अतः उसका पृथक्से कथन नहीं किया। तात्पर्य यह है कि यद्यपि यहां सत्तास्थान आठ है पर वन्धस्थान और उदयस्थान एक एक ही है, अतः संवैधका पृथक्से कथन करनेकी आवश्यकता नहीं है । सूक्ष्मसम्परायमें भी यशःकीर्तिरूप एक प्रकृतिक एक वन्धस्थान ३० प्रकृतिक एक उदयन्थान और पूर्वोक्त आठ सत्तास्थान होते हैं । चिन्तु ६३ आदि प्रारम्भके ४ सत्तास्थान उपशमश्रेणिमें होते हैं और शेष ४ नृपश्रेणिमें होते हैं। यहां शेष कथन अनिवृत्ति वादर सम्परायके समान है । उपशान्तमोह आदि गुणस्थानोंमें बन्धस्थान नहीं है किन्तु Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानो नामकर्मके संवेधभंग | २६५ उदयस्थान और सत्त्वस्थान ही हैं। तदनुसार उपशान्तमोहमें एक तीस प्रकृतिक उदयस्थान और ६३, ६२, ८६ और ये चार सत्त्वस्थान होते हैं । क्षीणमोहमें एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान और ८०, ७६, ७६ और ७५ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं । यहा उदयस्थानमें इतनी विशेषता है कि यदि सामान्य जीव क्षपक श्रेणि पर आरोहण करता है तो उसके मतान्तरसे जो ७२ भग बतला आये हैं वे न प्राप्त होकर २४ भग ही प्राप्त होते है, क्योकि इसके एक वर्षभनाराच सहननका ही उदय होता है । यही बात क्षपकणिके पिछले अन्य गुणस्थानोंमें भी जानना चाहिये । तथा यदि तीर्थकर की मत्तावाला होता है तो उसके प्रशस्त प्रकृतियोंका ही सर्वत्र उदय रहता है इसलिये एक भंग होता है । इसी प्रकार सत्ता - स्थानोमे भी कुछ विशेषता है । बात यह है कि यदि तीर्थंकर प्रकृतिकी सत्तावाला जीव होता है तो उसके ८० और ७६की सत्ता रहती है और इतर जीव होता है तो उसके ७६ और ७५ की सत्ता रहती है । यही बात यथासम्भव सर्वत्र जानना चाहिये । यद्यपि पहले जो कथन कर आये हैं उससे ये सब नियम फलित हो जाते हैं । फिर भी विशेष जानकारी के ख्यालसे यहां इनका विशेषरूपसे उल्लेख किया है । सयोगिकेवलीके उदयस्थान आठ हैं - २०, २१, २६, २७, २८, २६, ३० और ३१ । तथा सत्तास्थान चार हैं- ८०, ७६, ७६ और ७५ । सो इनका और इनके संवेधका विचार पहले कर ये हैं वहां से जान लेना चाहिये । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सप्ततिकाप्रकरणं . सयोगिकेवलोके उदय और सत्तास्थानोके संवेधका ज्ञापक कोष्ठक [४६ ] । बन्धस्थान भग उदयस्थान भंग सत्तास्थान - - ७६,७५ ८०,७६ ७६,७५ ७९,७५ 1८०.७६,७६,७१ २५/८०,७६,७६,७५ १/८०,७६ अयोगिकेवलोके उदयस्थान. दो है- और ८। सो इनमेसे ६ का उदय तीर्थकरकेवलीके और आठका उदय सामान्य केवलीके होता है। ___ सत्तास्थान छह हैं-८०, ७६, ७६, ७५, ६ और ८! इनमेसे प्रारम्भके चार सत्तास्थान उपान्त्य समय तक होते हैं और अन्तिम दो सत्तास्थान अन्तिम समयमे होते हैं। इस प्रकार इग गुणस्थानमें उदयम्थान और सत्तास्थानको विचार किया। अब संवेधका विचार करते हैं-आठके उदयमें ६, ७५ और Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोमें नामकर्मके सवेधभग। ८ ये तीन सत्तास्थान प्राप्त होते हैं। इनमेंसे आदिके दो उपान्त्य समय तक होते हैं और ८ प्रकृतिक सत्तास्थान अन्तिम समयमें होता है। तथा नौके उदयमे ८०, ७६ और ये तीन सत्तास्थान , होते हैं। सो यहा भी प्रारम्भके दो उपान्त्य समय तक होते है । और अन्तिम मत्तास्थान अन्तके समयमें होता है । अयोगिकेवलोके उदय और सत्तास्थानोके सवेधका बापक कोष्ठक [ ४७ ] वन्धस्थान भग उदयस्थान | मग सत्तास्थान - - ___ इस प्रकार गुणम्थानोमें बन्ध उदय और सत्तास्थानोका विचार समाप्त हुआ। अब गति आदि मार्गणाओमें इन बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंका विचार अवसर प्राप्त है । उसमें भी पहले गतिमार्गणामे उनका कथन करते हैं दो छेकष्ट चउक्कं पण नव एक्कार छक्कगं उदया। नेरइआइसु संता ति पंच एकारस चउक्कं ।। ५१ ॥ (1) 'दो छकह चउक णिरयादिसु णामवंधठाणाणि । पण णव एगार पणय नि पच यारस चउक च ॥'-गो० कर्म० गा० ७१० । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सप्ततिकाप्रकरण अर्थ-नारकी श्रादिके, क्रमसे दो, छह, आठ और चार, वन्धस्थान ; पाँच, नौ, ग्यारह और पाँच उदयस्थान तथा तीन, पाँच, ग्यारह और चार सत्त्वस्थान होते हैं। विशेषार्थ- इस गाथामें, किस गतिमें कितने वन्ध, उदय और सत्त्वस्थान होते है इसका निर्देश किया है। तदनुसार आगे इसीका विशेष खुलासा करते है-नरकगतिमे दो बन्धस्थान हैं२९ और ३० । इनमेंसे २९ प्रकृतिक बन्धस्थान तिर्यंचगति और मनुष्यगति प्रायोग्य दोनों प्रकार का है। तथा उद्योत सहित ३० प्रकृतिक वन्धस्थान तिर्यंचगति प्रायोग्य है और तीर्थकर सहित ३० प्रकृतिक वन्धस्थान मनुष्यगति प्रायोग्य है । तिर्यंचगतिमें छह बम्धस्थान हैं-२३, २५, २६, २८, २६ और ३० । इनका विशेप खुलासा पहलेके समान यहाँ भी करना चाहिये। किन्तु केवल यहाँ पर २९ प्रकृतिक बन्धस्थान तीर्थंकर सहित और ३० प्रकृतिक बन्धस्थान आहारकद्विक सहित नहीं कहना चाहिये क्योकि तिर्यंचोंके तीर्थकर और आहारकद्विक का बन्ध नहीं होता। मनुष्यगतिके आठ बन्धस्थान हैं-२३, २५, २६, २८, २६, ३०, ३१ और १ । सो इनका भी विशेप खुलासा पहलेके समान यहाँ भी करना चाहिये। देवगतिमै चार वन्धस्थान है-२५, २६, २६ और ३० । इनमेंसे २५ प्रकृतिक वन्धस्थान पर्याप्त, वादर और प्रत्येकके साथ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिमार्गणामें नामकर्मके संवेधभग। २९९ एकेन्द्रियके योग्य प्रकृतियांका वन्ध करनेवाले देवोके जानना चाहिये । तथा इसमे आतप या उद्योतके मिला देने पर २६ प्रकतिक बन्धस्थान होता है। यहाँ २५ प्रकृतिक वन्धम्थानके भग और २६ प्रकृतिक वन्धस्थानके १६ भग होते हैं। २६ प्रकृतिक वन्धस्थान मनुष्यगति प्रायोग्य या नियंचगति प्रायोग्य दोनो प्रकार का है। तथा उद्योत सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान तिर्यंचगति प्रायोग्य है, और तीर्थकर प्रकृति सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान मनुष्यगति प्रायोग्य है। अव उदयस्थानोका विचार करते हैं-नरकगतिमे पाँच उदयस्थान हैं-२१, २५, २७, २८ और २६ । तिर्यंचगतिमें नौ उदयस्थान है ---२१, २४, २५, २६, २७, २८, २६, ३० और ३१ । मनुष्यगतिमें ग्यारह उदयस्थान हैं-२०, २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६, और ८ । देवगतिमें छह उदयस्थान हैं-२१, २५, २७, २८, २६ और ३०। । ___अव सत्तास्थानोको बतलाते है-नरकगतिमे तीन सत्तास्थान हैं-९२, ८६ और ८८ । तिर्यंचगतिमें पाँच सत्तास्थान है-६२, 4८,८६, ८० और ७८ । मनुष्यगतिमे ग्यारह सत्तास्थान हैं-६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७६, ७६, ७५, ९ और छ । देवगतिम चार सत्तास्थान है-~६३, ९२, ८९ और ८८ । अव नरक गतिमे संवेधका विचार करते हैं-पंचेद्रिय तिर्यंचगतिके योग्य २९ प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले नारकियोके पूर्वोक्त Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० सप्ततिकाप्रकरणः पाँच उदयस्थान होते हैं। और इनमेंसे प्रत्येक उदयस्थानमें ९२ और ८८ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। तिर्यंचगतिप्रायोग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवके तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध नहीं होता, अत यहाँ ८९ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं कहा। मनुष्यगति प्रायोग्य २६ प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले नारकीके तो पूर्वोक्त पाँचो उदयस्थान होते हैं। और प्रत्येक उदयस्थान में १२, ८६. और ८८ ये तीन तीन सत्ताम्थान होते हैं । तीर्थकर प्रकृति की सत्तावाला मनुष्य नरकम उत्पन्न होकर जब तक मिथ्यादृष्टि रहता है तब तक उसके तीर्थकरके बिना २६ प्रकृतियोका बन्ध होता है, अतः २६ प्रकृतिक बन्धथानमें ८८ की सत्ता बन जाती है। तथा नरकगतिमे ३० प्रकृतिक वन्धस्थान दो प्रकार से प्राप्त होता है एक उद्योत सहित और दूसरा तीर्थकर सहित । जिसके उद्योत सहित ३० प्रकृतिक वन्धस्थान होता है उसके उदयम्थान तो पूर्वोक्त पाँचो होते हैं किन्तु मत्तास्थान प्रत्येक उदयस्थानमें दो दो होते हैं १२ और ८८ । तथा जिसके तीर्थकर सहित ३० प्रकृतिक वन्धस्थान होता है उसके पाँचो उदयस्थानोमे से प्रत्येक उदयस्थानमे प्रकृतिक एक एक सत्तास्थान ही सम्भव है। इस प्रकार नरकगतिमें सब वन्धस्थान और उदग्रस्थानोंकी अपेक्षा ४० मत्तास्थान । प्राप्त होते हैं। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिमार्गणामे नामकर्मके सवेधभंग नरकगतिमें नामकर्मके बन्ध, उदय और सत्ताम्थानांके मवेधका ज्ञापक कोष्टक [४८ ] i অলংকাল | পণ | কয়ন | মন सत्तास्थान M er ९२, ८२, ८८ २, ८६, ८८ ६२,८९. દર ૮૬ ૮૮ २२१ - - ४६१६ woman ९२ ८९८ १२, ८६, २,८६, १J१२,८६,८८ - -- नियंचगनिमे २३ प्रकृनियोका बन्ध करनेवाले तिर्यचके यद्यपि पूर्वोक्त नी ही उदयस्थान होते है। फिर भी इनमसे प्रारम्भके २१, २४, ०५ श्रीर ०६ इन चार उज्यस्थानों में से प्रत्येक १२, ८८, ८०, ८० और ७८ चे पाँच पाँच सत्तास्थान होते हे और अन्तके पाँच उदयस्थानोममे प्रत्येकी ७८ के विना चार चार सत्तास्थान होते हैं, क्योकि २७ प्रकृतिक श्रादि उदयाथानामे नियमसे मनुष्यद्विककी सत्ता सम्भव है, अत इनमें ७५ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं पाया जाता । इसी प्रकार २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक बन्ध. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्रकरण स्थानवाले जीवोंके भी कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेपता है कि मनुष्यगति प्रायोग्य २६ प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले जीवके सब उदयस्थानोंमेम के विना चार चार सत्तास्थान ही सम्भव हैं, क्योंकि जो मनुष्य द्विकका वन्ध कर रहा है उसके ७८ प्रकृतिक सनान्यान सम्भव नहीं । २८ प्रकृतिक वन्धस्थानवाले जीवके आठ उदयम्यान होते हैं २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ । इसके चौवीस प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता, क्योकि २४ प्रकृतिक उदयस्थान एकेन्द्रियोंके ही होता है पर एकेन्द्रियोंके २८ प्रकृतिक बंधस्थान नहीं होता। इन उदयस्थानोंमेसे २१,२६,२८, २९ और ३० ये पाँच उदयस्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि या मोहनीय को २२ प्रकृतियो की सत्तावाले वेदक सम्यग्दृष्टियोके होते हैं। तथा इनमेंसे प्रत्येक उदग्रस्थानमें १२ और न ये दो दो सत्तास्थान होते हैं । २५ और २७ ये दो उदयस्थान विक्रिया करनेवाले तिर्यंचोके होते हैं। यहाँ भी प्रत्येक उदयस्थानमें ९२ और ८८ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। तथा ३० और ३१ ये दो उदयस्थान सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुए सम्यग्दृष्टि या मिथ्यावष्टि तिर्यंचोंके होते हैं। सो इनमेसे प्रत्येक उदयस्थानमें १२, १८और ६ ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। किन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि ८६ प्रकृतिक सत्वस्थान मिथ्यावष्टियोके ही होता है सम्यग्दष्टियोंके नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि तियचोंके नियमसे देवद्विकका वन्ध सम्भव है। इस प्रकार यहाँ सब वन्धस्थान और सब उदयस्थानों की अपेक्षा २१८ सत्वस्थात होते हैं, क्योंकि ऊपर बतलाये अनुमार २३, २५, २६, २१ और ३० इन पाँच वन्वस्थानोमेंसे प्रत्येकमें चालीस चालीस और २८ प्रकृतिक वन्धस्थानमें अठारह सत्तास्थान प्राप्त होते हैं जिनका कुल जोड़ २१८ होता है। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिमार्गणामें नामकर्मके संवेधभंग ३०३ तिर्यचगतिमें नाम कर्म के वन्ध,उदय और सत्तास्थानोंके सवेधका ज्ञापक कोष्ठक [४९ ] वन्यस्यान भग उदयस्यान भंग सत्तास्थान ३११ ५९८ १९८० १७५४ | ११६४ ६२,८८,८६,८०,७८ ६२,८८,८६,८०,७८ ९२८८,८६,८०,७८ ९२,८८,८६,८०,७८ ९२,८८,८६८० ६२,८८,८६,८० ९२,८८,८६,८० ६२,८,६,८० ६२,८८,८६,९० ६२,८८,८६,८०,७२ ९२.८,६८०,७८ ६२,८८,९६,८०,७८ ६२,८८,६,८०,७८ ६२,८८,५६,९० ६२,८८,५६,९० ९२,,६,८० ६२,,,८० ६२,८८,८६,८० ६२,८८,८६,९०,७८ ६२,८७,८६,९०,७८ ६२,८६,८०,७८ ६२,८८,८१,८०,७८ ९२,८८,८६,८० ६२,८,८६,८० ६२,८८,८६,८० ६२,८८,८६,९० ३२,८८,८६० Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ सप्ततिकाप्रकरण बन्धस्थान भंग उदयस्थान| भंग सत्तास्थान २१ १९२ २६ - | ६२,१८ ६२८८ ९२,८ ९२,८८ ६२८८ | ११६८ ९२,८८ १७३६ १२,१८,६ ११५२६२,८८,८६ ६२,८८,८६,८०,७८ ११ / ९२,८८,८६८०,७८ १५ ६२,८८,८६८०,७८ . ३११ / १२,९८,८६,८०,७८ १४ | ९२,८८,५६,९० ५६८ ६२,८८,८६८० ११८० ९२,८५६८० १७५४ ६२,८८,८६,८० ११६८ ६२,८६८६,८० २३ (३२,,८६,८० ११ । ६२,८६८६८०,७८ १५ । ६२८८,८६,८०,७८ ३११६२,८८,८६,५०७८ १४ । ६२,८८,८६८० १८६२,८८,८६,८० ११८०६२,८८,६८० १७५४६२,८८,८६,८० 1 ११६४/६२.८८,८६८० Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिमार्गणामे नामकर्मके सवेध भंग ३०५ मनुष्यगतिमें २३ का बन्ध करनेवाले मनुष्यके २१, २२, २६, २७, २८, २६ और ३० ये सात उदयस्थान होते हैं। इनमेंसे २५ और २७ ये दो उदयस्थान विक्रिया करनेवाले मनुष्यके होते हैं। किन्तु आहारक मनुष्यके २३ का बन्ध नहीं होता, अत यहाँ ये याहारकके नही लेना चाहिये। इन दो उदयस्थानोमेंसे प्रत्येकमे १२ और ८८ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। तथा शेप पाँच उदयस्थानीमें से प्रत्येकी १२, ८८, ८६ और ८० ये चार चार सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार २३ प्रकृतिक वन्धस्थानमें २४ सत्तास्थान होते हैं। इसी प्रकार २५ और २६ प्रकृतिक बन्धस्थानोमें भी चोवीस चौबीस सत्तास्थान जानना चाहिये । मनुष्यगति प्रायोग्य और तिर्यंचगति प्रायोग्य २६ ओर ३० प्रकृतिक वन्धस्थानोमें भी इसी प्रकार चौवीस चोवीस सत्तास्थान होते हैं। २८ प्रकृतिक वन्धस्थानमे २१, २५, २६, २७, २८, २९ और ३० ये सात उदयस्थान होते हैं। इनमेंसे .१ और २६ ये दो उदयस्थान सम्यग्दृष्टिके करण अपर्याप्त अवस्थामें होते हैं । २५ और २७ ये दो उदयम्थान वैक्रिय या आहारक सयतके तथा २८ और २९ ये दो उदयस्थान विक्रिया करनेवाले, अविरतसम्यग्दृष्टि और आहारक सयतके होते है । तथा ३० प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टि या मिथ्याष्टियोके होता है। इन सब उदयस्थानोमे ६२ और ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। इसमें भी आहारक संयतके १२ प्रकृतिक एक सत्तास्थान ही होता है। किन्तु नरकगतिप्रायोग्य २८ प्रकृतियोका बन्ध करनेवालेके ३० प्रकृतिक उदयस्थान मे ६२, ८६, ८८ और ८६ ये चार मत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार २८ प्रकृतिक बन्धस्थानमे १६ सत्तास्थान होते हैं। तथा तीर्थकर प्रकृतिके माथ देवगतिप्रायोग्य २६ प्रकृतियोका बन्ध करनेवालेके २० Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ सप्ततिकाप्रकरण २८ प्रकृतिक, बन्धस्थानके समान सात उदयस्थान होते हैं। किन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि ३० प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टियोंके ही कहना चाहिये, क्योकि २९ प्रकृतिक बन्धस्थान तीर्थकर प्रकृति सहित है और तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्यग्दृष्टिके ही होता है। इन सब उदयस्थानोमेसे प्रत्येकमे ६३ और ८६ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। इसमें भी आहारक संयतके ६३ की ही सत्ता होती है । इस प्रकार तीर्थकर प्रकृति सहित २६ प्रकृतिक बन्धस्थानमें चौदह सत्तास्थान होते हैं। तथा आहारकद्विक सहित ३० का बन्ध होने पर २६ और ३० ये दो उदयस्थान होते हैं। इसमेसे जो आहारक संयत स्वयोग्य सर्व पर्याप्ति पूर्ण करनेके बाद अंतिमकालमे अप्रमत्त । सयत होता है उसकी अपेक्षा २६ का उदय लेना चाहिये, क्योकि अन्यत्र २६ के उदयमें आहारकद्विकके बन्ध का कारण भूत विशिष्ट संयम नहीं पाया जाता। इससे अन्यत्र ३० का उदय होता है। सो इनमेंसे प्रत्येक उदयस्थानमे ६२ की सत्ता होती है। ३१ प्रकृतिक बन्धस्थानके समय ३० का उदय और ६३ की सत्ता होती है । तथा एक प्रकृतिक बन्धस्थानके समय ३० का उदय और ९३, ६२, ८९,८८, ८०, ७६, ७६ और ७५ ये आठ सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार २३, २५ और २६ के वन्धके समय चौबीस चौवीस सत्तास्थान २८ के बन्धके समय सोहल सत्तास्थान, मनुष्यगति और तियेचगतिके योग्य २६ और ३० के बन्धमें चौबीस चौबीस सत्तास्थान, देवगति प्रायोग्य तीर्थकर प्रकृतिके साथ २६ के बन्धमें चौदह सत्तास्थान, ३१ के बन्धमें एक सत्तास्थान और एक प्रकृति बन्धमें आठ सत्तास्थान इस प्रकार मनुष्यगतिमे कुल १५६ सत्तास्थान होते हैं। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिमार्गणामे नामकर्मके सवेध भग ३०७ मनुष्यगतिमे नामकर्मके वध, उदय और सत्तास्थानोंके सवेधका ज्ञापक कोष्ठक [ ५० ] वन्धस्थान उदयस्थान भग सत्तास्थान ६२,८८,८६,८० ६२, ८८,८६,८० ६२, 4, २०६ ५८४ ५८४ १९५२ ६२, ८८, ८६, ८० - ६२,८८, ६२, ८ ६२, पर, ६२. १२, १२, ८, ६२.८८, ६२, ८८ ८६, ८० Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ सप्ततिकाप्रकरण वन्धस्थान उदयस्थान भंग मत्तास्थान - -- ८२,८८ २८ wamirme m ५८४ - Mu ६२ ८६ ८८,८६ ३, ६२,८९ ,०८० ६३, ६२ ८९, ३, ६२,८९,८,८६,८० ५८७ ५८७ ६३, ६२.८९, , २,८९ ३. १२.८९ Rom CS ८६ ५८४ ५८६ २,८,८६, ८० ११५४१,८६, ८० १४४ ६३ - - - -- - - ६३, ६२,८६, ८८ ८०,७९, ६, ७५ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिमार्गणामें नामकर्मके सवेध भग ३०९ । देवगतिमे २५ का बन्ध करनेवाले देवोके देवोंसम्बन्धी छहों उदयस्थान होते हैं। जिनमेसे प्रत्येकमे ९२ और ८८ ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। इसी प्रकार २६ और २९ का बन्ध करनेवाले देवीके भी जानना चाहिये । उद्योतसहित तिथंचगतिके योग्य ३० का बन्ध करनेवाले देवोके भी इसी प्रकार छह उदयस्थान ओर प्रत्येक उदयस्थानमै ९२ और ८८ ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। परन्तु तीर्थकर प्रकृतिसहित ३० का वन्ध करनेवाले देवोके छह उदयस्थानोमेंसे प्रत्येक उदयस्थानमे ६३ ओर ८६ ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार यहाँ कुल ६० सत्त्वस्थान होते हैं। 'देवगतिमें नामकर्मके बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंके ' सवेधका ज्ञापक कोष्ठक [ ५१ ] बन्धस्थान मग उदयस्थान भंग सत्तास्थान - म Man Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सप्ततिकाप्रकरण वन्धस्थान उदयस्थान सत्तास्थान - AAAAAAAA001 ६९५८ 10 ६२.८८ ४६१६ | ६३, ९२,८९,८ ६२, ९२, ८,८ ६३, ९२,८९ । ६३, ९२, ८६, ८८ ६३,९२,८६,८८ ६३ ९२,८९, अब इन्द्रिय मार्गणामे बन्ध उदय और सत्तास्थान तथा उनके संवेधका कथन करनेके लिये आगेकी गाथा कहते हैंइगे विगलिंदिय सगले पण पंच य अट्ठ बंधठाणाणि । पण छककारुदया पण पण चारस य संताणि ॥५२॥ अर्थ-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पचेन्द्रियके क्रमसे पाँच (१) 'इगि विगले पण वंधो अढवीसुणा उ अह इयरमि । पंच छ एक्का सदया पण पण बारस उ सताणि ।' पष्च. सप्त० गा० १३० 'एगे वियले सयले पण पण अट्ट पच छक्केगार पण । पण तेर बधादी सेसादेसे वि. इदि रोयं ।।' जो० कम गा० ७११ । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियमार्गणामें नामकर्मके संवेध भंग ३११ पाँच और आठ बन्धस्थान, पॉच, छह और ग्यारह उदयस्थान तथा पॉच पाँच और बारह सत्तास्थान होते हैं। विशेपार्थ-किस इन्द्रियवालेके कितने कितने वन्ध, उदय और सत्तास्थान होते हैं इस वातका निर्देश इस गाथामे किया है। आगे इसका विशेष खुलासा करते हैं कुल वन्धस्थान आठ हैं उनमेसे एकेन्द्रियोके २३, २५, २६, २६ और ३१ ये पाँच वन्धस्थान होते हैं। विकलेन्द्रियोमेसे प्रत्येकके एकेन्द्रियोके कहे अनुसार ही पाँच-पाँच बन्धस्थान होते हैं। तथा पचेन्द्रियोके २३ आदि बाठो बन्धस्थान होते है। कुल उदयस्थान १२ हैं उनमेसे एकेन्द्रियोंके २१, २४, २५, २६ और २७ ये पाँच उदयस्थान होते है। विकलेन्द्रियोमेसे प्रत्येकके २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ ये छह-छह उदयस्थान होते हैं। तथा पचेन्द्रियोके २०, २१, २५, २६, २७, २८, ०६. ३०, ३१. ६ और ८ ये ग्यारह उदयस्थान होते है। कुल सत्तास्थान वारह है जिनमेसे एकेन्द्रियोंके तथा विकलेन्द्रियोमेसे प्रत्येकके ६२, ८८, ८६, ८० और ७८ ये पाँच सत्तास्थान होते हैं। और पचेन्द्रियोके बारहो सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार किसके कितने और कौन कौन बन्ध, उदय, सत्तास्थान होते हैं इसका कथन किया। अब इनके मदेधका विचार करते हैं-२३ प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले एकेन्द्रियोके प्रारम्भके चार उदयस्थानोमेसे प्रत्येक उदयस्थानमे पॉच-पाँच सत्तास्थान होते हैं तथा २७ प्रकृतिक उदयस्थानमे ७८ को छोडकर चार सत्तास्थान होते है। इस प्रकार २३ प्रकृतिक बन्धस्थानमै २४ सत्तास्थान हुए। इसी प्रकार २५, २६, २६ और ३० इन वन्धस्थानोमे भी उदयस्थानोंकी अपेक्षा चौवीस चौबीम सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार एकेन्द्रियोके ये सब सत्तास्थान १२० होते हैं। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ सप्ततिकाप्रकरण एकेन्द्रियोंमे नाममके बध, उदय और सत्तास्थानोका ज्ञापक कोष्ठक [ ५२ ] - बधस्थान भग उदयस्थान, भग सत्तास्थान - २१ । ६२,८८,८६,८२,७८ ९२,८८,८६,८०७८ ६२,८८,८६, ८०,७८ ९२,८८,८६८०,७८ ६२.८८ ८६,८० ६२,८,८६, ८०,७८ ६२,८८,८६, ८०, ७८ ९२.८८६,८०,७५ ६२,८८,८६,८०,७८ | ९२ ८८ ८६, ८० ६२,८८,६,८०,७८ ९२, ८८, ८६ ८० ७८ ६२, ८८८८०, ७८ ६२८८ ८६ ८०, ७८ ६२ ९८६, ८० ६२,८८,८६,८०,७८ ९२, ८८,५६,८०,७८ ९२, ८८, ८६,८०७८ ६२,८८,८६,८०७८ १२,८८,८६,८० | ६२,८८.८६, ८०.७५ ६२ ८८,८६८०,७८ १२, ८८, ८६ ८० ७८ ,९२, ८८,८६८०७८ । ६२.८,८६,५० a- meml 6%ERGmai ३० ४६३२ २६ ६ - - - - - - - - Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियमार्गणामे नामकर्मके सवेध भग ३१३ विकलेन्द्रियोमें २३ का वन्ध करनेवाले जीवोके २१ और २६ के उदयमे पाँच-पाँच सत्तास्थान होते हैं। तथा शेष चार उदयस्थानोमेंसे प्रत्येकमे ७८ के विना चार-चार सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार २३ प्रकृतिक बन्धस्थानमे २६ सत्तास्थान हुए। इसी प्रकार २५, २६, २६ और ३० इन बन्धस्थानोमें भी अपनेअपने उदयस्थानोकी अपेक्षा छब्बीस-छब्बीस सत्तास्थान होते है। इस प्रकार विकेन्द्रियोके १३० सत्तास्थान होते हैं। विकलेन्द्रियोमेंसे प्रत्येकमे बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंके सवेधका ज्ञापक कोष्ठक [५३ ] - बंधस्थान | भग उव्यस्थान | भग - - et aduwa.cjo www.. सत्तास्थान | २, ८८,८०,८०,७४ ६२, ८८, ८६,८०,७८ ६२ ८८,८६,८० ८८, ८६,८० ८६८० ६२,८८ ८६,८० ८६, ८०,७८ ८६, ८०, ७८ - - se BUFFFFFFFE Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ साततिकाप्रकरण बंधस्थान भग उदयस्थान भग सत्तास्थान - २६ । १६ MAYAM م م م م ة ه ६२,८८, ८६,८०,७८ ६२, ८८, ८६,८०,७८ ६२. ८८, ८६,५० ६२,८८, ८६ ८० १२, ८८,८६, ८० ६२, ८८, ८६,८० २६ । ९२४० ८८ ८६,८०,७८ ६२ १८,८६ ८०,७८ ६२,८८, ८६,८० ६२,८८.८६८० ६२,८८,८६,८० ६२,८८, ८६ ८० ३० ४६३२ - dad wwe. ६२, ८८, ८६,८०,७८ ६२. ८८, ८६,८०,७८ ६२ ८८,८६, ८० ६२,८८, ८६,८० ६२, ८८ ८६,८० | ६२, ८८,८६.८० P Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियमार्गणामे नामकर्मके सवेध भग ३१५ पचेन्द्रियोमे २३ का बन्ध करनेवालेके २१, २६, २८, २६, ३० और ३१ ये छह उदयस्थान होते हैं। इनमेंसे २१ और २६ इन दो उदयस्थानॉमे पूर्वोक्त पाँच पाँच और शेप चार उदयस्थानोमें ७८ के विना चार-चार सत्तास्थान होते हैं। कुल मिलाकर यहाँ २६ सत्तास्थान हुए। २५ और २६ का वध करनेवालेके २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ ये आठ-आठ उदयस्थान होते है। इनमेंसे २१ और २६ इन उदयस्थानोमेसे प्रत्येकमे पाँच पाँच सत्तास्थान होते है जो पहले वतलाये ही हैं । २५ और २७ इन दोमे १२ और ८८ ये दो दो सत्तास्थान होते है। तथा शेप २८ आदि चार उदयस्थानोमे ७८ के विना चार-चार सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार २५ और २६ इन दो वन्धस्थानोमें तीस तीस सत्तास्थान होते हैं। २८ प्रकृतियोका बन्ध करनेवालेके २१, २५, २६, २७, २८, २६ ३० और ३१ ये आठ उदयस्थान होते हैं। ये सब उदयस्थान तिथंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य सम्बन्धी लेना चाहिये, क्योंकि २८ का वन्ध इन्हींके होता है। यहाँ २१ से लेकर २६ तक छह उदयस्थानोमेसे प्रत्येकमे ६२ और ८८ ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। ३० के उदयमे ६२, ८६, ८८ और ८६ ये चार सत्तास्थान होते हैं। यहाँ ८९ की सत्ता उस मनुष्यके जानना चाहिये जो तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ताके साथ मिथ्याष्टि होते हुए नरक्गतिके योग्य २८ का वध करता है। तथा ३१ के उदयमें ६२,८८ और ८६ ये तीन सत्तास्थान होते है। ये तीनो सत्तास्थान तिथंच पचेन्द्रियोकी अपेक्षा कहे हैं, क्योकि अन्यत्र पचेन्द्रियके ३१ का उदय नहीं होता। उसमें भी ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान मिथ्यादृष्टि तियेच पचेन्द्रियोके होता है सम्यग्दृष्टि तिथंच पचेन्द्रियोके नहीं, क्योकि सम्यग्दृष्टि तिर्यंचोके नियमसे देवद्विकका Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ . सप्ततिकाप्रकरण वन्ध होने लगता है, अतः उनके ८६ की सत्ता सम्भव नहीं। इस प्रकार २८ प्रकृतिक बन्धस्थानमें कुल १६ सत्तास्थान होते है। २९ का बन्ध करनेवालेके ये पूर्वोक्त आठ उदयस्थान होते हैं। इनमेंसे २१ और २६ के उदयमें ६२,८८, ८६, ८०, ७८, ९३ और ८९ ये सात-सात सत्तास्थान होते हैं। यहाँ तियेंचगति प्रायोग्य २६ का बन्ध करनेवालोके प्रारम्भके पाँच मनुष्यगतिप्रायोग्य २६ का वन्ध करनेवालोंके प्रारम्भके चार और देवगति प्रायोग्य २६ का बन्ध करनेवालोके अन्तिम दा सत्तास्थान होते हैं। २८, २६ और ३० के उदयमे ७८ के विना पूर्वोक्त छह-छह सत्तास्थान होते हैं। ३१ के उदयमें प्रारम्भके चार और २५ तथा २७ के उदयमें ६३, ६२, ८६ और ८८ ये चार-चार सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार २९ प्रकृतिक वन्यस्थानमे ४४ सत्तास्थान होते हैं। ३० का वन्ध करनेवालेके २६ के बन्धके समान वे ही आठ उदयस्थान और प्रत्येक उदयस्थानमें उसी प्रकार सत्तास्थान होते हैं। किन्तु यहाँ इतनो विशेपता है कि २१ के उदयमें पहले पाँच सत्तास्थान तिर्यंचगतिप्रायोग्य ३० का वन्ध करनेवालेके होते हैं और अन्तिम दो सत्तास्थान मनुष्यगतिप्रायोग्य ३० का वध करनेवाले देवोंके होते हैं। तथा २६ के उदयमे ९३ और ८९ ये दो सत्तास्थान नहीं होते, क्योकि २६ का उदय तियच और मनुष्योके अपर्याप्तक अवस्थामें होता है, परन्तु उस समय देवगतिप्रायोग्य या मनुष्यगति प्रायोग्य ३० का वन्ध नहीं होता, अत यहाँ ९३ और ८९ की सत्ता नहीं प्राप्त होती। इस प्रकार तीस प्रकृतिक बन्धस्थानमें कुल ४२ सत्तास्थान प्राप्त होते हैं। तथा ३१ और १ का बन्ध करनेवालेके उदयस्थानी और सत्तास्थानोंका सवेध मनुप्यतिके समान जानना चाहिये । उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार इन्द्रियोंकी अपेक्षा संवेधका कथन समाप्त हुआ। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिमार्गणामें नामकर्मके सवेधभग ३१७ पचेन्द्रियोमें नाम कर्म के बन्ध,उदय और सत्तास्थानोके सवेधका ज्ञापक कोष्ठक [ ५४ ] -- बन्धस्थानी भग उदयस्थानभग सत्तास्थान - - - - - - - -- - - - 984*&kas Kiss ## २१ । १८ १२,८८,८६,८०,७८ । ५७८ १२,८८,८६,८०,७८ ११५२ ९२९८८६,० १७२८१ ९२,८८,८६,८० १८८० ९०,८८,८६,८० ८८८६,८० २६ २,८८,९६८०,७८ ९२८८ १७८ ६२८८,८६८०,७८ ६२८७, ६२८८,८६,० १७४४ ६२,८८,८६८० चन्द १२. ८८६८० ६२८,८६,८० ह२,८८,६,८०,७८ ६२.८ ५७८ १२.५६,८०,७८ ६२, ११६८ ९२,८८,८६,८० १७४४ १२,८८,८६,८० २८८ ६२.८,८६,८० ६२,८८,८६० - - २६ १६ - ११६ - Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ वन्धस्थान भंग उदयस्थान भंग २१ १६ २५ ५७६ ११५६ १७२८ २८८० ६२,८६,८८,८६ ६२,८८,८६ ११५६ २७ १२,८५,८६,८०, ७८, ६३, ८६ ६९३,६२,८६ ८८ ५७८६२,८८८६,८०,७८,६३,८६ ६६३, ९२, ८६, ८८ ११६६६३,९२,८६,८८,८६,८० १७४५ ६३,६२,८६,८८,८६,८० २८८५ | ६३९२८६,८८,८६,८० ६२,८८,८६,८० २७६३,६२,८६,८६,८०,७८ ६६३,६२,८६,८८ ५७६ ६२,८६८०,७८ ६३६२,८६,८५ ११५६ ११६६ ] ६३,६२,८६,८८,८६ ८० १७४५ | ६३,६२,८६८५.८६८० २८५५ ६३,६२,८६,८८,८६८० ११५६ | ६३,६२,८६,८८,८० १४४ | ३ १४४ २८ २६ ३० ३१ Ov १ m ६२४८ ४६४१ सप्ततिकाप्रकरण १ १ && ३० ३१ २१ २५ २६ २७ २८ २६ ३० ३१ २१ २५ २६ ३० ३१ ३० ३० सत्तास्थान ६२,५५ ६२८५ ९२,८५ ९२,५५ ६२८८ ९२८८ ६३,६२,८६,८८,८०,७६, ७६,७५ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ अनुयोगोंमें उक्त कथनकी प्रतिज्ञा ३१९ अब ग्रन्थकार बन्धादिस्थानोके आठ अनुयोग द्वारोमे कथन करनेकी सूचना करनेके लिये आगेकी गाथा कहते हैं इय कम्मपगइठाणाइ सुगु बंधुदयसंतकम्माणं । गइआइएहिं अहसु चउप्पगारेण नेयाणि ॥५३॥ अर्थ-ये पूर्वोक्त वन्ध, उदय और सत्तासम्बन्धी कर्मप्रकृतियोंके स्थान सावधानीपूर्वक गति आदि मार्गणास्थानोंके साथ आठ अनुयोग द्वारोमें चार प्रकारसे जानना चाहिये। विशेषार्थ - यहाँ तक ग्रन्थकारने ज्ञानावरण आदि आठ कर्मोंकी मूल और उत्तर प्रकृतियोके वन्ध, उदय और सत्तास्थानोका सामान्यरूपसे तथा जीवस्थान, गुणस्थान, गति और इन्द्रियमार्गणामे निर्देश किया । किन्तु इस गाथामे उन्होंने गति आदि मार्गणाओके साथ आठ अनुयोगद्वारोंमें उनको घटित करनेकी सूचना की है। साथ ही उन्होंने केवल प्रकृतिरूपसे घटित करनकी सूचना नहीं की है, किन्तु प्रकृतिके साथ स्थिति अनुभाग और प्रदेशरूपसे भी घटित करनेकी सूचना की है। बात यह है कि ये वन्ध, उदय और सत्तारूप सब कर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके भेदसे चार चार प्रकारके हैं। जिस कर्मका जो स्वभाव है वही उसकी प्रकृति है। यथा नानावरणका स्वभाव ज्ञानको आवृत करनेका है आदि । विवक्षित कर्म जितने कालतक आत्मासे लगे रहते हैं उतने कालका नाम स्थिति है। कर्मों में जो फल देनेकी, हीनाधिक शक्ति पाई नाती है उसे अनुभाग कहते हैं। तथा कर्मदलकी प्रदेश संज्ञा है। मार्गण शब्दका अर्थ अन्वेषण करना है, अत यह अर्थ हुआ कि जिनके द्वारा या जिनमें जीवोका अन्वेषण Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० सप्ततिकाप्रकरण किया जाता है उन्हें मार्गणा कहते हैं । मार्गणाके चौदह भेद हैं - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद. कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार | पुरानी परम्परा यह है कि जीवसम्बन्धी जिस किसी विशेष अवस्थाका वर्णन पहले सामान्यरूपसे किया जाता रहा है । तदनन्तर उसका विशेष चिन्तन चौदह मार्गणा ओके द्वारा आठ अनुयोगद्वारोंमे किया जाता रहा है । अनुयोगद्वार यह अधिकारका पर्यायवाची नाम है । ऐसे अधिकार यद्यपि पहले विपयविभागकी दृष्टिसे होनाधिक किये जाते रहे हैं । परन्तु मार्गणाओका विस्तृत विवेचन आठ अधिकारोमें ही पाया जाता है इसलिये वे मुख्यरूपसे आठ ही लिये जाते रहे हैं । इन अधिकारोके ये नाम हैं- सत् संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व | भागाभाग नामके एक अधिकारका निर्देश और पाया जाता है, परन्तु वह अल्पबहुत्व से भिन्न नहीं है । इसलिये उसे अलग से नहीं गिनाया। मालूम होता है कि ग्रन्थकारने भी उसे पृथक् न मानकर ही आठ अधिकारोकी सूचना की है । इन अधिकारोका अर्थ इनके नामोसे ही स्पष्ट है । अर्थात् सदनुयोगद्वारमें यह बतलाया जाता है कि विवक्षित धर्म किन मार्गणाओ है और किनमें नहीं । सख्या अनुयोगद्वारमे उस विवक्षित धर्मवाले जीवोकी संख्या बतलाई जाती है। क्षेत्र अनुयोगद्वार में विवक्षित धर्मवाले जीवोका वर्तमान निवासस्थान बतलाया जाता है । स्पर्शन अनुयोगद्वार में उन विवक्षित धर्मवाले जीवोंने जितने क्षेत्रका पहले स्पर्श किया हो, अब कर रहे हैं और आगे करेंगे, उस सबका समुच्चयरूपसे निर्देश किया जाता है । काल अनुयोगद्वार में विवक्षित धर्मवाले जीवोंकीजघन्य' व उत्कृष्ट स्थितिका विचार किया जाता है । अन्तर ฯ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ अनुयोगोमें उक्त कथनकी प्रतिज्ञा ३२१ शब्द विरह या व्यवधानवाची है अतः इस अनुयोगद्वारमे यह बतलाया जाता है कि विवक्षित धर्मका सामान्यरूपसे या किस मार्गणामें कितने कालतक अन्तर रहता या नहीं रहता। भाव अनुयोगद्वारमें उस विवक्षित धर्मके भावका विचार किया जाता है और अल्पवहुत्व अनुयोगद्वारमे उसके अल्पवहुत्वका विचार किया जाता है। प्रकृतमें ग्रन्थकार सूचना करते हैं कि इसी प्रकार बन्ध, उदय और सत्तारूप कर्मोंका तथा उनके अवान्तर भेद-प्रभेदोका प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूपसे गति आदि मार्गणाओके द्वारा आठ अनुयोगद्वारोमे विवेचन कर लेना चाहिये। यहाँ गाणमें जो 'इति' शब्द आया है वह पहले वणन किये गये विपयका निर्देश करता है। जिससे उक्त अर्थ ध्वनित होता है। किन्तु इस विषयमे मलयगिरि आचार्यका वक्तव्य है कि यद्यपि आठो कर्मोंके सदनुयोगद्वारका वर्णन गुणस्थानोमें सामान्यरूपसे पहले किया ही है परन्तु सख्या आदि सात अनुयोगद्वारीका व्याख्यान कर्मप्रकृतिप्राभृत आदि ग्रन्थोको देखकर करना चाहिये। किन्तु वे कर्मप्रकृतिप्राभृत आदि ग्रन्थ वर्तमानकालमै उपलब्ध नहीं हैं इसलिये इन संख्यादि अनुयोगद्वारोका व्याख्यान करना कठिन है। फिर भी जो प्रत्युतपन्न मति विद्वान् हैं वे पूर्वापर सम्बन्धको देखकर उनका अवश्य व्याख्यान करें। इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि उक्त गाथामें जिस विपयकी सूचना की गई है उस विषयका Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ . सप्तविकाप्रकरण प्रतिपादन करनेवाले अन्य वर्तमानकालमें नहीं पाये जाते हैं। अब उदयसे उतीरगामें विशेषताके बतलानेके लिये आगेकी गाथा कहते हैं उदयस्सुदीरणाए सामित्ताओ न विजइ विसेसो । मोत्तूण य इगुयालं सेमाणं सन्चपगईणं ।।५४ ।। अर्थ-इकतालीस प्रकृतियाँको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोके उच्य और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेपता नहीं है। विशेषार्थ-काल प्रान कर्मपरमाणुओंके अनुभव करनेको उदय कहते हैं और उड्यावलिके वाहिर स्थित कर्म परमाणुओंको कपायसहित या कपायरहित योग संबावाले वीर्यविशेषके द्वारा उन्यावलिमें लाकर उनका उदयप्राप्त कर्म परमाणुओंके साथ अनुभव करने को उदीरणा कहते हैं इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्मपरमाणुओं का अनुभवन उदय और उद्दीपणा इन दोनॉन लिया गया है। यदि इनमे अन्तर है तो कालत्राप्त और अकालप्राप्त कर्मपरमाणुओका है । उदयमें काल प्राप्त कर्मपरमाणु रहते हैं और उदीरणामें अकाल १. दिगम्बर परम्परामें मोहनीयका अविका वर्णन कसायपाहुइनें और आने को बन्धन अधिकच वर्णन महारन्वमें मिलता है। ओ पूर्वोक सूचनानुसार सांगोपांग है। पटसन्दागममें मी यथायोग्य वर्णन मिलता है। जो जिज्ञासु इस विषयको गहराईको सममाना चाहते हैं वे उत्त प्रन्यों का स्वाध्याय अवश्य करें। (१) 'उदयरसुदीरणस्स य मामित्तादो ण विचदि सियो गो० वर्म-' गा.१५८ ।' उदो उदोणाए तुल्लो मोत्तण एचत्तालं । भावरणविग्रसंत्रसपलोमरेए य दिष्टिगं ।' कर्म प्र० उद० गा० । - Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ उदीरणाकी विशेषता प्राप्त कर्मपरमाणु रहते हैं। तो भी सामान्य नियम यह है कि जहाँ जिस कर्मका उदय होता है वहां उसको उदीरणा अवश्य होती है। किन्तु इसके सात अपवाद हैं-पहला यह है कि जिनका म्वोदयसे सत्त्वनाश होता है उनकी उदीरणाव्युच्छित्ति एक श्रावलि काल पहले हो जाती है और उदयव्युच्छित्ति एक आवलि काल बाद होती है। दूसरा अपवाद यह है कि वेदनीय और मनुष्यायुकी उदीरणा प्रमत्तसयत गुणस्थान तक ही होती है जब कि इनका उदय अयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है। नीसरा अपवाद यह है कि जिन प्रकृतियोंका अयोगिकेवली गुणम्थानमें उदय है उनकी उदीरणा सयोगिकेवली गुणस्थान तक हो होती है । चोथा अपवाद यह है कि चारो आयुकर्मोंका अपने . अपने भवकी अन्तिम आवलिमें उदय ही होता है उदीरणा नहीं। पांचवाँ अपवाद यह है कि निद्रादिक पाचका शरीर पर्याप्तिके वाद इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने तक उन्य हो होता है उदीरणा नहीं होती। छठा अपवाद यह है कि अतरकरण करनेके बाद प्रथम स्थितिमे एक श्रावलि काल शेष रहने पर मिथ्यात्वका, क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवालेके सम्यक्त्वका और उपशमश्रोणिमें जो जिस वेदके उदयसे उमशश्रेणि पर चढ़ा है उसके उस वेदका उदय ही होता है उदीरणा नहीं । तथा सातवा अपवाद यह है कि उपशम श्रेणिके सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानमे भी एक श्रावलिकाल शेप रहने पर सूक्ष्म लोभका उदय ही होता है उदीरणा नहीं। अव यदि इन सात अपवादवाली प्रकृतियोका मकलन किया जाता है तो वे कुल ४१ होती हैं। हो सबब है कि ग्रन्थकारने ४१ प्रकृतियोको छोड़कर शेप सब प्रकृतियोके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेपता नहीं चतलाई है। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ सप्ततिकाप्रकरण सवाल यह था कि ग्रन्थकारन वन्धस्थान और सत्तास्थानोके साथ उदयस्थानोका और इन सबके संवेधका तो विचार किया पर उदीरणास्थानोको क्यो छोड़ दिया। इसी सवालको ध्यानमें रखकर ग्रन्थकार ने उक्त गाथाका निर्देश किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन ४१ प्रकृतियोके कारण जो थोड़ा बहुत उदयसे उदीरणामें अन्तर आता है उसे सम्हालते हुए उदीरणाका कथन उदयके समान ही करना चाहिये। अब आगे जिन ४१ प्रकृतियोमे विशेषता है उनका निर्देश करनेके लिये आगेकी गाथा कहते है नाणंतरायदसगं देसणनव वेयणिज मिच्छत्तं । सम्मत्त लोभ वेयाउगाणि नव नाम उच्चं च ॥५५॥ अर्थ - ज्ञानावरण और अन्तरायकी दस दर्शनावरणकी नौ, वेदनीयकी दो, मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, लोभ संज्वलन, तीनवेद, चार घायु, नाम कर्मकी नौ और उच्चगोत्र ये इकतालीस प्रकृतियां हैं जिनके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा विशेषता है। विशेषार्थ-ज्ञानावरण की पांच, अन्तरायकी पांच और दर्शनावरणकी चार इन चौदह प्रकृतियोकी क्षीणमोह गुणस्थानमें एक आवलि काल शेप रहने तक उदय और उदीरणा बराबर होती रहती है। परन्तु एक आवलि कालके शेप रह जाने पर तदनन्तर उक्त १४ प्रकृतियोका उदय ही होता है। उदीरणा नहीं होती, क्योकि "उदयावलिगत कर्मदलिक सब करणोके अयोग्य हैं' इस नियमके अनुसार उनकी उदीरणा नही होती। शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवोंके शरीर पर्याप्तिके समाप्त होनेके अनन्तर समयसे लेकर जब तक इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है तब तक निद्रादिक पांचका Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदीरणाकी विशेषता ३२५ उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती। इसके अतिरिक्त शेष कालमें उदय और उदीरणा एक साथ होती है और इनका विच्छेद भी एक साथ होता है। साता और असाता वेदनीयकी उदय और उदीरणा प्रमत्तसयत गुणस्थान तक एक साथ होती है किन्तु अगले गुणस्थानोमे इनका उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती। प्रथम सम्क्त्व को उत्पन्न करनेवाले जीवके अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थितिमें एक प्रावलि प्रमाण कालके शेष रहने पर मिथ्यात्वका उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती। क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जिस वेदक सम्यग्दृष्टि जीवने मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय करके सम्क्त्वकी सर्व अपवर्तनाके द्वारा अपवर्तना करके अन्तर्मुहूंत प्रमाण स्थिति शेप राखी है। तदनन्तर उदय और उदीरणाके द्वारा उसका अनुभव करते हुए जब एक आवलि स्थिति शेष रह जाती है तव सम्यक्त्व का उदय हो होता है उदीरणा नहीं होती। तीन वेदोमेंसे जिस वेदसे जीव श्रेणिपर चढ़ता है उसके अन्तरकरण करनेके बाद उम वेढकी प्रथम स्थितिमे एक प्रावलि प्रमाण कालके शेप रहने पर उदय ही होता उदीरणा नहीं होती। चारों ही आयुओका अपने अपने भवकी अन्तिम श्रावलि प्रमाण कालके शेष रहने पर उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती किन्तु मनुष्यायुमे इतनी और विशेषता है कि इसका प्रमत्तसयत गुणम्थानके वाद उदय ही होता है उदीरणा नहीं हाती। (१) दिगम्बर परपरामें निद्रा और प्रचलाकी उदय और सत्त्वव्युच्छित्ति क्षीणमोह गुणस्थानमें एक साथ बतलाई है, इसलिये इस अपेक्षासे इनमें से जिस उदयगत प्रकृतिकी उदयव्युच्छित्ति और सत्त्वव्युच्छित्ति एक साथ हागो उसकी उदयव्युच्छित्तिके एक श्रावलिकाल पूर्व ही उदीरणा व्युच्छित्ति हो जायगी। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सप्ततिकाप्रकरण तथा मनुष्यगति. पंचेन्द्रियजाति, स, बादर पर्याप्त, सुभग. आदेय, यश कीर्ति और तीर्थकर इन नौ नाम कर्मकी प्रकृतियोंका और उच्चगोत्रका सयोगिकेवली गुणस्थान तक उदय और उदीरणा दोनो होते हैं। किन्तु अयोगिकेवली गुणस्थानमें इनका उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती। इस प्रकार पिछली गाथामे उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा जिन इकतालीस प्रकृतियोकी विशेषताका निर्देश किया वे इकतालीस प्रकृतियाँ कौन हैं इसका इस गाथासे ज्ञान हो जाता है। साथ ही विशेपताके कारणका भी पता लग जाता है जैसा कि पूर्व में निर्देश किया ही है। अब किस गुणस्थानमे कितनी प्रकृतियोका बन्ध होता है इमका विचार करते है तित्थंगराहारगविरहियाओं अज्जेइ सव्वपगईओ ।। मिच्छत्तवेयगो सासणो वि इगुवीससेसाओ ॥५६॥ अर्थ--मिथ्यादृष्टि जीव तीर्थकर और आहारकद्विकके विना शेष सब प्रकृतियोका बन्ध करता है। तथा सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव उन्नीसके विना एक्सौ एक प्रकृतियोंका बन्ध करता है ॥५६॥ विशेषार्थ--यद्यपि पाठो कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं। फिर भी वन्ध की अपेक्षा १२० प्रकृतियों ली जाती हैं। इसका मतलब यह नहीं कि शेष २८ प्रकृतियों छोड़ दी जाती हैं। किन्तु इसका यह कारण है कि पाँच बन्धन और पाँच संघात पॉच शरीरके अविनाभावी है जहाँ जिस शरीरका वन्ध होता है वहाँ उस बंधन और संघातका अवश्य बन्ध होता है अतः वन्धमें (१) सत्तरसुत्तरमेगुतरं तु~ ॥ पन्च. सप्त० गा. १४३ । 'सत्तर मेकग्गस्यं ॥-मो० कर्म० गा १०३ । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोमे प्रकृतिबन्ध ३२७ पाँच वन्धन और पाँच सघातको अलग नहीं गिनाया, इसलिये १४८ मैसे इन दसके घट जानेसे १३८ रही। वर्णादिक चारके अवान्तर भेद २० हैं किन्तु यहाँ अवान्तर भेदोकी विवक्षा नहीं की गई है अत १३८ मेंसे २०-४=१६ के घटा देने पर १२२ रहीं । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनो बन्धप्रकृतियाँ नहीं है, क्योकि सम्यक्त्व गुणके द्वारा ही जीव मिथ्यात्वदलिकके तीन भाग कर देता है जो अत्यन्त विशुद्ध होता है उसे सम्यक्त्व मन्ना प्राप्त होती है । जो कम विशुद्ध होता है उसे सम्यग्निथ्यात्व सजा प्राप्त होती है और इन दोनोके अतिरिक्त शेप भाग मिथ्यात्व कहलाता है। अत १२२ मेमे इन दो अवन्ध प्रकृतियोंके घट जानेसे वन्ध योग्य १२० प्रकृतियाँ रहती हैं। किन्तु तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध सम्यक्त्व गुणके नाथ होता है और आहारकद्विकका बन्ध संयमगुणके माथ होता है, अत मिथ्यात्व गुणस्थानमे इन तीन प्रकृतियोका बन्ध न होकर शेष ११७ प्रकृतियोका बन्ध होता है। मास्वादन गुणस्थानमें १०१ प्रकृतियोका बन्ध होता है गाथामे जो यह कहा है उसका आशय यह है कि मिथ्यात्व गुणके निमित्तसे जिन मोहल प्रकृतियोका बन्ध मिथ्यात्वमें होता है उनका वध सास्वादनमें नहीं होता। वे सोलह प्रकृतियाँ ये है-मिथ्यात्व, नपुंमकवेद, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, एकेन्द्रिय जाति, दो इन्द्रिय जाति, तीन इन्द्रिय जाति, चार इन्द्रिय जाति, , हुण्डसंस्थान, सेवात संहनन, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्तक । अत मिथ्यात्वमे वधनेवाली ११७ प्रकृतियोंमेंसे उक्त १६ प्रकृतियोके घटा देने पर साम्वादनमें १०१ का बन्ध होता है। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ छोपाल से मीसो तेवरण देसविर सप्ततिका प्रकरण विरयसम्मो तियालपरिसेसा । विरओ सगवण्णसेसाओ ॥५७॥ अर्थ - - सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव छियालीसके बिना ७४ का, अविरत सम्यग्दृष्टि जीव तेतालीस के बिना ७७ का, देशविरत त्रेपनके विना ६७ ६ा और प्रमत्तविरत सत्तावन के बिना ६३ का बन्ध करता है | विशेषार्थ - -- इस गाथामे मिश्रादि चार गुणस्थानोंमें, कहाँ कितनी प्रकृतियोका बन्ध होता है इसका निर्देश किया है । आगे उसका विस्तार से खुलासा करते हैं। अनन्तानुबन्धीके उदयसे २५ प्रकृतियोंका बन्ध होता है परन्तु मिश्र गुणस्थानमे अनन्तानुवन्धीका होता नहीं. यहाँ बन्धमें २५ प्रकृतियाँ और घट जाती हैं । वे २५ प्रकृतियाँ ये हैं—स्त्यानर्द्वित्रिक, अनन्तानुवन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, तिर्यंचायु, मध्यके चार सम्थान, मध्यके चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दु.स्वर, अनादेय और नीचगोत्र । साथ ही यह नियम है कि मिश्र गुणस्थान मे किसी भी आयुका वन्ध नहीं होता । इसलिये यहाँ मनुष्या और देवायु ये दो आयु और घट जाती है । नरकायु की बन्धव्युच्छित्ति पहले और तिर्यचायुकी बन्धव्युच्छिति दूसरे में हो जाती है अत यहाँ इन दो आयुमो के घटनेका प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार साम्बादन में नहीं बधनेवाली १६ प्रकृतियों में इन २५+२= २७ प्रकृतियोके मिला देने पर ४६ प्रकृतियाँ होती हैं जिनका मिश्र गुणस्थानमे बन्ध नही होता । (१) 'चोहारी सगसयरी । सतट्टी तिगसट्ठी ॥ पञ्च० सप्त० गा० १४३ | चउसत्ततरि सर्गाट्ट तेी ॥ - गो० कर्म० गाथ १०३ । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोंमें प्रकृतिबन्ध ३६९ किन्तु यहाँ इनके अतिरिक्त ७४ प्रकृतियोका वन्ध अवश्य होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि ४३ के विना ७७ का वध करता है इसका यह आशय है कि अविरतसम्यग्दृष्टि जीवके मनुष्यायु, देवायु और तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्भव है अतः यहाँ १२० मेसे ४६ न घटाकर ४३ ही घटाई है और इस प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टिके ७७ का बन्ध बतलाया है। देशविरतमे ५३ के बिना ६७ का बन्ध होता है। इसका यह आशय है कि अप्रत्याख्यानावरणके उदयसे जिन दस प्रकृतियोका बन्ध अविरत सम्यग्दृष्टिके होता हे उनका वन्ध देशविरतके नहीं हाता, अत चौथे गुणस्थानमें जिन ४३ प्रकृतियोको घटाया है उनमे इन १० प्रकृतियोके मिला देने पर देशविरतमें बन्धके अयोग्य ५३ प्रकृतियाँ हो जाती हैं और इनसे अतिरिक्त रहीं ६७ प्रकृतियोका वहाँ बन्ध होता है । अप्रत्याख्यानावरणके उदयसे बँधनेवाली वे १० प्रकृतियॉ ये हैंअप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, ओदारिकशरीर, औदारिक आंगोपाग और बज्रर्पभनाराच सहनन । तथा प्रमत्तविरतमें ५७ के विना ६३ का बन्ध होता है ऐसा कहनेका यह तात्पर्य है कि प्रत्याख्यानवरणके उदयसे जिन प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका देशविरत गुणस्थान तक बन्ध होता है उनका प्रमत्त विरतके नहीं होता, अत जिन ५३ प्रकृतियों को देशविरतमें वधनेके अयोग्य बतलाया है उनमें इन चारके और मिला देने पर प्रमत्त विरतमें ५७ प्रकृतिया बँधनेके अयोग्य होती हैं और इस प्रकार यहाँ ६३ प्रकृतियोका बन्ध प्राप्त होता है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० सप्ततिकाप्रकरण इगु'सट्ठिमप्पमत्तो बंधइ देवाउयस्स इयरो वि । अट्ठावण्णमपुब्यो छप्पण्णं वा वि छब्बीसं ।। ५८ ॥ अर्थ-अप्रमत्तसयत जीव उनसठ प्रकृतियो । बन्ध करता है। यह देवायुका भी बन्ध करता है। तथा अपूर्वकरण जीव अट्ठावन, छापन और छब्बीस प्रकृतियोका बन्ध करता है। विशेषार्थ-पिछली गाथाओंमें किस गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियोका बन्ध नहीं होता इसका मुख्यरूपसे निर्देश किया है। किन्तु इस गाथासे उस क्रमको बदलकर अब यह बतलाया है कि किस गुणस्थानमे कितनी प्रकृतियोका बन्ध होता है । यह तो पहले। ही बतला आये हैं कि प्रमत्त विरतमें ६३ प्रकृतियोका बन्ध होता है। उनमेसे असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्ति इन छह प्रकृतियो को घटा कर आहारकद्विक मिला देने पर अप्रमत्त संयतके ५६ प्रकृतियोका बन्ध प्राप्त होता है । यहाँ छह प्रकृतियां तो इसलिये घटाईं क्योकि इनका बंध प्रमत्तसंयत तक ही होता है और आहारकद्विकको इसलिये मिलाया, क्योंकि छठे गुणस्थान तक ये अवन्धयोग्य प्रकृतियां थीं किन्तु सातवेसे इनका बन्ध सम्भव है । यद्यपि ५६ प्रकृतियोमे देवायु भी सम्मिलित है फिर भी ग्रंथकारने 'अप्रमत्तसंयत देवायुका भी बन्ध करता है। इस प्रकार जो पृथक् निर्देश किया है उसका टीकाकार यह अभिप्राय ' बतलाते हैं कि देवायुके बन्धका प्रारम्भ प्रमत्तसंयत ही करता है यद्यपि ऐसा नियम है फिर भी यह जीव देवायुका वन्ध करते हुए (१) गुणसट्ठी अट्ठवण्णा य ॥ निदादुगे छवण्णा छब्बीसा णाम तीस विरममि ॥' पन्च० सप्त० गा० १४-१४४ 'बधा वढवण्णा दुवोस ।' गो० कर्म० गा० १.३॥' , छह प्रकृतियां तो लयतके ५६ प्रकृतिमादा कर आहारकाम और Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोमे प्रकृतिबन्ध ३३१ अप्रमत्तसयत भी हो जाता है और इस प्रकार अप्रमत्न सयत भी देवायुका बन्धक होता है। परन्तु अप्रमत्त सयत गुणस्थानमें देवायु का बन्ध होता है इससे यदि कोई यह समझे कि अप्रमत्त संयत भी देवायुके वधका प्रारभ करता है सो उसका ऐसा समझना ठीक नहीं है । इस प्रकार इसी वातका ज्ञान करानेके लिये ग्रंथकारने 'अप्रमत्त सयत भी देवायुका बन्ध करता है' यह वचन दिया है। अब इन ५९ प्रकृतियोमेंसे देवायुका बन्ध विच्छेद होजाने पर अपूर्वकरण गुणस्थानवाला जीव पहले सल्यातवें भागमे ५८ प्रकृतियोका बन्ध करता है। तदनन्तर निद्रा और प्रचलाका वन्धविच्छेद हो जाने पर सख्यातवें भागके शेष रहने तक ५६ प्रकृतियो का बन्ध करता है। तदनन्तर देवगति, देवानुपूर्वी, पचेन्द्रिय जाति, वैक्रियशरीर, वैवियागोपाग, आहारक शरीर आहारक आगोपग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसस्थान, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छास, प्रशस्त विहायोगति, त्रम, वादर, पर्याप्त. प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण और तीर्थकर इन ३० प्रकृतियोका बन्धविच्छेद होजाने पर अन्तिम भागमे २६ प्रकृतियोका बन्ध करता है। वांबीसा एगूणं बंधइ अट्ठारसंतमनियट्टी। सत्तर सुहमसरागो सायममोहो सजोगि शि॥ ५९ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिवादर जीव २२ का और इसके बाद क्रम में एक एक कम करते हुए २१, २०, १९ और १८ का वध करता (१) 'हासरईमयकुच्छाविरमे बावीस पुन्वमि ॥ पुवेयकोहमाइसु अवज्झमाणेसु पच ठाणागि । वारे सुहमे सत्तरस पगतिओ सायमियरेसु ' पञ्च० सप्त. गा० १४४-१४५। 'दुवीस सत्तारसेकोघे ॥' गो० कर्म० गा० १.३. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ सप्ततिकाप्रकरण है। सूक्ष्मसम्पराय जीव १७ का वध करता है। तथा मोहरहित ( उपशान्त मोह और क्षीणमोह ) जीव और सयोगिकेवली एक साता प्रकृति का बन्ध करता है। विशेषार्थ-यद्यपि अपूर्वकरणमे २६ से कमका बन्ध नहीं होता फिर भी इसके अन्त समयमें हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चारका बन्धविच्छेद होकर अनिवृत्तिकरणके पहले भाग में २२ का वन्ध होता है। तथा इसके पहले भागके अन्तमे पुरुष वेदका, दूसरे भागके अन्तमे क्रोधसंज्वलनका तीसरे भागके अन्तमे मानसंज्वलन का, चौथे भागके अन्तमें मायासंज्वलनका वन्धविच्छेद हो जाता है इसलिये दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें भागमें क्रमसे इसके २१, २०, १९ और १८ प्रकृतियोका बन्ध होता है । बन्ध की अपेक्षा अनिवृत्तिकरणके पांच भाग हैं। इसलिये पांचवे भागके अन्तम जब लोभ संज्वलनका बन्धविच्छेद होता है तब इस गुणस्थानवाला जीव सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानवाला हो जाता है, अतः इसके १७ प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है। किन्तु इस गुणास्थानके अन्तमे ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की चार, अन्तराय की पाँच, यशःकोर्ति और उच्चगोत्र इन सोलह प्रकृतियोका बन्धविच्छेद हो जाता है, अतः उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली जीव एक सातावेदनीय का बन्ध करते है। किन्तु सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमे साताका भी बन्धविच्छेद हो जाता है इसलिये अयोगिकेवली बन्धके कारणोंका अभाव हो जानेसे कर्मवन्धसे रहित हैं। यद्यपि यह 'बात उक्त गाथामें नहीं बतलाई तो भी उक्त गाथामें जो यह निर्देश किया है कि एक साताका बन्ध मोहरहित और सयोगिकेवली जीव 'करते है, इससे बन्धके मुख्य कारण कपाय और योगका अयोगिकेवली गुणस्थानमें अभाव होनेसे जाना जाता Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानोंमें प्रकृतिवन्ध ३३३ है कि अयोगीके रंचमात्र भी कर्मका वन्ध नहीं होता। इस प्रकार किस गुणस्थानवालेके कितनी प्रकृतियोका बन्ध होता है और कितनी प्रकृतियोका बन्ध नहीं होता इसका चार गाथाओ द्वारा विचार किया । अव उक्त कथनका सक्षेप में ज्ञान करानेके लिये - कोष्ठक देते हैं गुणस्थान मिथ्यादृष्टि सास्वादन मिश्र [ ५५ ] बन्धयोग १२० प्रकृतियाँ } अविरत सम्यग्दृष्टि देशविरत बन्ध ११७ १०१ ७४ ७७ ६७ अवन्ध ३ १६ 35 દ ४३ ५३ बन्धविच्छेद १६ २५ O १० 18 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ -सप्ततिकाप्रकरण - - • गुणस्थान प्रबन्ध बन्धविच्छेद प्रमत्तविरत - प्रप्रमत्तविरत ६१ अपूर्वकरण प्र० भा० . वि. भा० , ४० भा० ६४ VIRAR भनिवृत्तिक० प्र० भा० द्वि. भा. तु. भा घ. भा. १०१ प.मा. सूक्ष्म सम्पराय . १७ १०२ - - उपशान्तमोह ११६ क्षीणमोह ११६ सयोगिवली अयोगिफेवली .१२०, Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति आदिमें प्रकृतिसद्भावनाकी सूचना ३३५ एसो उ बंधसामित्रोधो गइयाइएसु वि तहेव । - ओहायो साहिज्जा जत्थ जहा पगडिसम्भावो ॥ ६०॥ अर्थ-यहाँ तक ओघसे बन्धस्वामित्वका कथन किया । गति आदिक मार्गणाओंमें भी जहाँ जितनी प्रकृतियोका बन्ध होता हो तदनुसार वहाँ भी ओघके समान बन्धस्वामित्वका कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-पिछली चार गाथाओंमें किस गुणस्थानवाला कितनी प्रकृतियोंका बन्ध करता है और कितनी प्रकृतियोका बन्ध नहीं करता इसका विधि और निषेध द्वारा कथन किया है । इससे यद्यपि आंघसे बन्ध स्वामित्वका ज्ञान हो जाता है फिर भी गति आदि मार्गणाओमे कहा कितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है और कितनी प्रकृतियोका वन्ध नहीं होता इसका ज्ञान होना शेष रह जाता है। ग्रन्थकारने इसके लिये इतनी ही सूचना की है कि जहाँ जितनी प्रकृतियोका बन्ध होता हो इसका विचार करके ोधके समान मार्गणास्थानोमे भी वन्धस्वामित्वका कथन कर लेना चाहिये । सो इस सूचनाके अनुसार यह आवश्यक हो जाता है कि यहाँ मार्गणास्थानोंमें भी वन्धका विचार किया जाय । किन्तु तीसरे वर्म ग्रन्थमे इसका विस्तार से विचार किया है। जिज्ञासु जन उसे वहाँसे जान सकते हैं अतः यहाँ इसका विचार नहीं किया जाता । गाथामें जो ओघ पद आया है वह सामान्यका पर्यायवाची है और इससे स्पष्टतः गुणस्थान की सूचना मिलती है क्योंकि सर्वप्रथम गुणस्थानोंमें ही बन्धस्वामित्वका विचार कर आये हैं। अब किस-गतिमें कितनी प्रकृतियोंकी सत्ता होती है इसका कथन करनेके लिये आगे की गाथा कहते हैं। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ सप्ततिका प्रकरण तित्थगर देव निरयाउगं च तिसु तिसु गईसु बोद्धव्यं । . वसेसा पयडीओ हवंति सव्वासु वि गईसु ॥ ६१ ॥ अर्थ - तीर्थकर नाम कर्म, देवायु और नरकायु इनकी सत्ता 1 तीन तीन गतियोमे ही होती है। तथा इनके अतिरिक्त शेष सब प्रकृतियोकी सत्ता सभी गतियोमे होती हैं। विशेषार्थ - देवायुका बन्ध तो तीर्थकर प्रकृतिके वन्धके पहले भी होता है और पीछे भी होता है किन्तु नरकायुके सम्बन्धमे यह नियम है कि जिस मनुष्यने नरकायुका बन्ध कर लिया है वह सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थकर प्रकृतिका भी बन्ध कर सकता है । इसी प्रकार तीर्थकरकी सत्ता वाले देव और नारकी नियमसे मनुष्यायुका ही बन्ध करते है यह भी नियम है त तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता तिर्यंचगतिको छोड़कर शेप तीन गतियोंमे ही पाई जाती है । इसी प्रकार नारकी देवायुका और देव नरकायुका चन्ध नहीं करते ऐसा नियम है अत. देवायुकी सत्ता नरकगति को छोड़ कर शेष तीन गतियोंमें पाई जाती है और नरकायुकी सत्ता देवगति को छोड़कर शेष तीन गतियोंमें पाई जाती है यह सिद्ध हुआ । तथा इससे यह भी निष्कर्ष निकल आता है कि इन तीन प्रकृतियो के अतिरिक्त शेप सब प्रकृतियो की सत्ता सब गतियो में होती है । इस गाथाके उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि नाना जीवोकी अपेक्षा नरकगति में देवायुके विना १४७ की सत्ता होती है । तिर्यचगति में तीर्थ+र प्रकृतिके बिना १४७ की सत्ता होती है | मनुष्यगति १४८ की ही सत्ता होती है और देवगतिमे नरकायुक्रे विना १७ की सत्ता होती है । " अव उपशमश्रेणि का कथन करते हैं - Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाका विचार पढमकसायचउक्कं दसणतिग सत्तगा वि उवसंता। अविरतसम्मत्तानो जाब नियट्टि त्ति नायव्वा ॥ ६२ ॥ अर्थ--प्रथम कषायकी चौकड़ी और तीन दर्शनमोहनीय ये सात प्रकृतियाँ अविरत सम्यग्दृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण तक नियमसे उपशान्त हो जाती हैं। तात्पर्य यह है कि अपूर्वकरणको छोड़कर शेप उपर्युक्त गुणस्थावाले जीव इनका यथायोग्य उपशम करते हैं किन्तु अपूर्वकरणमें ये नियमसे उपशान्त ही प्राप्त होती हैं। विगेपार्थ--श्रेणियाँ दो हैं उपशमश्रेणि और क्षपकणि । उपशमश्रेणिमे जीव चारित्र मोहनीय कर्मका उपशम करता है और क्षपकणिमें जीव चारित्रमोहनीय और यथासम्भव अन्य कोका क्षय करता है। इनमेंसे जव जोव उपशमश्रेणिको प्राप्त करता है तब पहले अनन्तानुवन्धी चतुष्कका उपशम करता है। तदनन्तर दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोका उपशम करके उपशमश्रेणिके योग्य होता है। यहाँ ग्रन्थकारने इस गाथामें उक्त सात प्रकृतियोके उपशम करनेका निर्देश करते हुए पहले अनन्तानुवन्धी चतुष्कके उपशम करनेकी सूचना की है अत पहले इसीका विवेचन किया जाता है जिसके चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक काययोग इनमेसे कोई एक योग हो, जो पीत, पद्म और शुक्ल इनमेंसे किसी एक लेश्यावाला हो, जो साकार उपयोगवाला हो, जिसके आयु कर्मके विना सत्तामें स्थित शेष सात कर्मोकी स्थिति अन्त कोडाकोड़ी सागरके भीतर हो, जिसकी चित्तवृत्ति अंतर्मुहूर्त पहलेसे उत्तरोत्तर निर्मल हो, जो परावर्तमान अशुभ प्रकृतियोको छोड़कर ૨ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ सप्ततिकाप्रकरण शुभ प्रकृतियोका ही बन्ध करने लगा हो, जिसने अशुभ प्रकृतियोंके सत्तामें स्थित चतुःस्थानी अनुभागको द्विस्थानी कर लिया हो, जिसने शुभ प्रकृतियोके सत्तामे स्थित द्विस्थानी अनुभागको चतुःस्थानी कर लिया हो और जो एक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर । अन्य स्थितिबन्धको पूर्व पूर्व स्थितिवन्धकी अपेक्षा उत्तरोत्तर पल्यके सख्यातवे भाग कम बाँधने लगा हो ऐसा अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत या अप्रमत्तविरत जीव ही अनन्तानुबन्धी चतुष्कको उपशमाता है। जिसके लिये यह जीव यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामके तीन करण करता है। जिसके ऊपर बतलाये अनुसार तीन भेद हैं। यथाप्रवृत्तकरणमें करणके पहलेके समान अवस्था बनी रहती है अतः इसे यथाप्रवृत्तकरण कहते है। इसका दूसरा नाम पूर्वप्रवृत्त करण भी है। अपूर्वकरणमें स्थितिबन्ध आदि बहुतसी क्रियाये होने लगती है इसलिये इसे अपूर्वकरण कहते हैं। और अनिवृत्तिकरणमें समान कालवालोको विशुद्धि समान होती है इसलिये इसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। अब इसी विषयको विशेष स्पष्टीकरणके साथ बतलाते हैं यथाप्रवृत्त करणमे प्रत्येक समय उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि होती है। और शुभ प्रकृतियोंका बन्ध' आदि पूर्ववत् चालू रहता है। किन्तु स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रम नहीं होता क्यो कि यहाँ इनके योग्य विशुद्धि नहीं पाई जाती । तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा इस करणमे प्रति समय असख्यात लोक प्रमाण परिणाम होते हैं जो छह स्थान पतित होते हैं। हानि और वृद्धिकी अपेक्षा ये छह स्थान दो प्रकारके हैं। (१) दिगम्बर परम्परामें अधःप्रारकरण संशा मिलती है। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तानुवन्धीकी उपशमना .३३६ अनन्त भागहानि, असख्यात भागहानि, सख्यातभागहानि, सख्यातगुण हानि, असख्यात गुणहानि और अनन्तगुणहानि ये हानिरूप छह स्थान हैं। तथा अनन्त भागवृद्धि, असख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्वि, सख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्तगण वृद्धि ये वृद्विरूप छह स्थान हैं। शिय यह है कि जब हम एक जीवको अपेक्षा विचार करते हैं तब पहले समयके परिणामोसे दूसरे समयके परिणाम अनन्तगुणी विशुद्धिको लिये हुए प्राप्त होते हैं इत्यादि । और जब नाना जीवोंकी अपेक्षा विचार करते हैं तब एक समयवर्ती नाना जोवोंके परिणाम छह स्थान पतित प्राप्त होते हैं। तथा यथाप्रवृत्तकरणके पहले समयमें नाना जीवोकी अपेक्षा जितने परिणाम होते हैं, उनसे दूसरे समयमें विशेष अधिक होते हैं । दूसरे समयसे तीसरे समयमें और तीसरे समयसे चौथे समयमें इसी प्रकार अन्त तक विशेप अधिक विशेष अधिक परिणाम होते हैं। इसमें भो पहले समयमें जघन्य विशुद्धि सबसे थाड़ी होती है। इससे दूसरे समयमें जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। इससे तीसरे समयमें जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। इस प्रकार यथाप्रवृत्त करणके सख्यातवें भागके प्राप्त होने तक यही क्रम चालू रहता है। पर यहाँ जो जघन्य विशुद्धि प्राप्त होती है उससे पहले समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगणी होती है। तदनन्तर पहले ममयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे यथाप्रवृत्तकरणके सख्यातवें भागके अगले समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। पुन इससे दूसरे समयकी उत्कृष्ट विशुद्वि अनन्तगुणी होती है। पुन इससे यथाप्रवृत्त करणके सख्यातवें भागके आगे दूसरे समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। इस प्रकार यथाप्रवृत्त करणके अन्तिम समयमे जघन्य विशुद्विस्थानके प्राप्त होने तक ऊपर और Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '३४० सप्ततिकाप्रकरण नीचे एक एक विशुद्धि स्थानको अनन्तगुणा करते जाना चाहिये। पर इसके आगे जितने उस्कृष्ट विशुद्धिस्थान शेष रह गये हैं केवल उन्हे उत्तरोत्तर अनन्तगुणा करना चाहिये । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालमे यथाप्रवृत्त करणको समाप्त करके दूसरा अपूर्वकरण होता है इसमें प्रति समय असख्यात लोक प्रमाण परिणाम होते हैं जो प्रति समय छह स्थान पतित होते हैं। इसमें भी पहले समयम जघन्य विशुद्धि सबसे थोड़ी होती है जो यथाप्रवृत्त करणके अन्तिम समयमे कही गई उत्कृष्ट विशुद्धिसे अनन्तगणी होती है। पुन: इससे पहले समयमे हो उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है।। तदनन्तर इमले दूसरे समयमै जघन्य विशुद्धि अनन्तगणी होती है। पुन इससे दूसरे समयमे उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । इस प्रकार अपूर्वकरणका अन्तिम समय प्राप्त होने तक प्रत्येक समयमे उत्तरोत्तर इसी प्रकार क्थन करना चाहिये। तथा इसके पहले समयमै ही स्थितिघात, रसघात गुणश्रेणि, गुणमंक्रम और अपूर्व स्थिति वन्ध ये पांच कार्य एक साथ हो जाते हैं। स्थितिघातमें सत्तामे स्थित स्थितिके अग्रभागसे अधिकसे अधिक सैकड़ी सागर प्रमाण और कमसे कम पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिखएडका अन्तर्मुहर्त कालके द्वारा घात किया जाता है । यहाँ जिस स्थितिका आगे चल कर घात नहीं होगा उसमें प्रति समय दलिकोका निक्षेप किया जाता है और इस प्रकार एक अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर उस स्थितिखण्डका घात हो जाता है। तदनन्तर इसके नीचके दूसरे पल्यके सख्यातवे भागप्रमाण स्थितिखण्डका उक्त प्रकारसे घात किया जाता है। इस प्रकार अपूर्व करणके कालमें उक्त क्रमसे हजारों स्थिविखण्डौंका घात होता है जिससे पहले समयकी स्थितिसे, अन्तके समयकी स्थिति संख्यातगुणी हीन रह जाती है। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तानुवन्धीकी उपशमन रसघातमें अशुभ प्रकृतियोंका सत्तामें स्थित जो अनुभाग है उसके अनन्तवें भाग प्रमाण अनुभाग को छोड़ कर शेपका अन्तमुहूर्तकालके द्वारा घात किया जाता है । तदनन्तर जो अनन्तवाँ भाग अनुभाग शेष बचा था उसके अनन्तवे भागको छोड कर शेषका अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा घात किया जाता है। इस प्रकार एक एक स्थितिखण्डके उत्कीरण कालके भीतर हजारो अनुभागखण्ड खपा दिये जाते हैं। गुणश्रेणिमें अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिको छोडकर ऊपरकी स्थितिवाले दलिशेमेसे प्रति समय कुछ दलिक लेकर उदयवलिके ऊपरकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिमे उनका निक्षेर किया जाता है । क्रम यह है कि पहले समयमें जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं उनमेंसे सबसे कम दलिक उदयावलिके ऊपर पहले समयमें स्थापित किये जाते हैं। इनसे असख्यातगणे दलिक दूसरे समयमे स्थापित किये जाते हैं । इनसे असख्यातगुणे दलिक तीसरे समयमें स्थापित किये जाते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूतेकाल के अन्तिम समय तक उत्तरोत्तर असख्यातगुणे असख्यातगुणे दलिकोका निक्षेप किया जाता है। यह प्रथम समयमे ग्रहण किये गये दलिकोकी निक्षेपविधि है। दूसरे आदि समयोमे जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं उनका निक्षेप भी इसी प्रकार होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि गुणश्रेणिकी रचनाके पहले समयमें जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं वे सबसे थोड़े होते हैं। दूसरे समयमें जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं वे इनसे असख्यातगुणे होते हैं। इसी प्रकार गणश्रेणि करणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक तृतीयादि समयोमें जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं वे उत्तरोत्तर अस ख्यातगणे होते हैं। यहाँ इतनी विशेषता और है कि अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणका काल जिम.प्रकार उत्तरोत्तर व्यतीत होवा Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ।' सप्ततिकोप्रकरण जाता है तदनुसार गुणश्रेणिके दलिकोका निक्षेप अन्तर्मुहूर्तके उत्तरोत्तर शेष बचे हुए समयोमें होता है अन्तर्मुहूर्तसे ऊपरके समयोमे नहीं होता। उदाहरणार्थ-मान लोगुणश्रेणिके अन्तर्मुहूर्तका प्रमाण पचास समय है और अपूर्णकरण तथा अनिवृत्तिकरण इन दोनोके कालका प्रणाम चालीस समय है। अब जो जीव अपूर्वकरणके पहले समयमै गुणश्रेणिकी रचना करता है वह गुणश्रेणीके सब, समयोंमे दलिकोका निक्षेप करता है। तथा दूसरे समयमें उनचास समयोमे दलिकोका निक्षेप करता है। इस प्रकार जैसे जैसे अपूर्वकरणका काल व्यतीत होता जाता है वैसे वैसे दलिकोका निक्षेप कमती कमती समयोमें होता जाता है। गुणसंक्रम प्रदेशसंक्रमका एक भेद है। इसमे प्रति समय उत्तरोत्तर असख्यात गुणित क्रमसे अवध्यमान अनन्तानुवन्धी आदि अशुभ प्रकृतियोके कर्म दलिकोका उस समय बंधनेवाली सजातीय प्रकृतियोमे सक्रमण होता है। यह क्रिया अपूर्वकरणके. पहले समयसे ही प्रारम्भ हो जाती है। तथा अपूर्वकरणके पहले समयसे ही जो स्थितिवन्ध होता है वह अपूर्व अर्थात् इसके पहले होनेवाले स्थितिबन्धसे वहुत थोड़ा होता है। इसके सम्बन्धमे यह नियम है कि स्थितिवन्ध और स्थितिघात इन दोनोंका प्रारम्भ भी एक साथ होता है और इनकी समाप्ति भी एक साथ होती है इस प्रकार इन पाँच कार्योंका प्रारम्भ अपूर्वकरणमे एक साथ होता है। अपूर्वकरणके समाप्त होने पर अनिवृत्तिकरण होता है। इसमें प्रविष्ट हुए जीवीके जिस प्रकार शरीरके आकार आदिमे फरक दिखाई देता है उस प्रकार उनके परिणामोंमें फरक नहीं होता। अर्थात् समान समयवाले एक साथमें चढ़े हुए जीवोंके परिणाम समान ही होते हैं। और भिन्न समयवाले Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तानुबन्धीकी उपशमना ३४३ । जीवोंके परिणाम सर्वथा भिन्न ही होते हैं। तात्पर्य यह है कि अनिवृत्तिकरणके पहले ममयमें जो जीव हैं, थे और होगे उन सबके परिणाम एक से ही होते हैं। दूसरे समयमें जो जीव हैं, थे और होंगे उनके भी परिणाम एकसे ही होते हैं। इसी प्रकार तृतीयादि समयों में भी समझना चाहिये । अनिवृत्तिकरणके इसलिये जितने समय हैं उतने ही इसके परिणाम होते हैं न्यूनाधिक नहीं । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके प्रथमादि समयों में जो विशुद्धि होती है द्वितीयादि समय में वह उत्तरोत्तर अनतगुणी होती है । पूर्णकरणके स्थितिघात आदि पाची कार्य अनिवृत्तिकरणमें भी चालू रहते हैं। इसके अन्तर्मुहूर्त कालमेंसे सख्यात भागोके वीत जाने पर जब एक भाग शेप रहता है तब अनन्तानुबन्धीचतुष्क के एक श्रावलिप्रमाण नीचेके निपेकोको छोड कर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निपकोका अन्तरकरण किया जाता है। इस क्रियाके करनेमें न्यूतन स्थितिबन्ध के कालके बराबर समय लगता है । एक आवलि या अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नीचेकी और ऊपर की स्थितिको छोड़कर मध्यमे से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ढलिकोंको उठाकर उनका वधनेवाली अन्य सजातीय प्रकृतियोमं प्रक्षेप करनेका नाम अन्तरकरण है । यदि उदयवाली प्रकृतियोका अन्तरकरण किया जाता है तो उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण छोड़ दी जाती है और यदि अनुदयवाली प्रकृतियोका अन्तरकरण किया जाता है तो उनकी नीचेकी स्थिति श्रवलिप्रमाण छोड़ दी जाती है। चूकि यहा अनन्तानुवन्धी चतुधकका अन्तर करण करना है। किन्तु उसका चौथे आदि गुणस्थानों में उदय नहीं होता इसलिये इसके नीचेके आवलि प्रमाण दलिकोको छोडकर ऊपर के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दलिकोंका अन्तरकरण किया जाता है । अन्तरकरणमे अन्तरका अर्थ व्यवधान और करण का अर्थ किया है। तदनुसार जिन प्रकृतियोका अन्तर Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ - सप्ततिकाप्रकरण करण किया जाता है उनके दलिकोंकी लड़ीको मध्यसे भंग कर दिया जाता है। इससे दलिकोकी तीन अवस्थाएँ हो जाती हैंप्रथम स्थिति, सान्तर स्थिति और उपरितन या द्वितीय स्थिति । प्रथम स्थितिका प्रमाण एक प्रावलि था एक अन्तर्महूर्त होता है। इसके बाद सान्तर स्थिति प्राप्त होती है। यह दलिकोसे शून्य अवस्था है। इसका भी प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद द्वितीय स्थिति प्राम होती है। इसका प्रमाण दलिकोकी शेप स्थिति है। अन्तरकरण करनेके पहले दलिकोकी लड़ी ०००००००००००००००० इस प्रकार अविच्छिन्न रहती है। किन्तु अन्तरकरण कर लेने पर उसकी अवस्था ०००००००००००००० इस प्रकार हो जाती है। यहाँ मध्यमे जो शून्य स्थान दिखाई देता है वहाँ के कुछ दलिकोको यथा सम्भव बंधनेवाली अन्य सजातीय प्रकृतियोमे मिला दिया जाता है। इस अन्तरस्थान से नीचेकी स्थितिको प्रथम स्थिति और ऊपरकी स्थितिको द्वितीय स्थिति कहते हैं। उदयवाली प्रकृतियोंके अन्तर करण करनेका काल और प्रथम स्थितिका प्रमाण समान होता है। किन्तु अनुदयवाली प्रकृतियोकी प्रथम स्थितिके प्रमाणसे अन्तरकरण करनेका काल बहुत बड़ा होता है। अन्तरकरण क्रियाके चालू रहते हुए उदयवाली प्रकृतियोंकी प्रथम स्थितिका एक एक दलिक उदयमे आकर निर्जीर्ण होता जाता है और अनुदयवाली प्रकृतियोकी प्रथम स्थितिके एक एक दलिकका उदयमे आनेवाली सजातीय प्रकृतियोमे स्तिवुक संक्रमणके द्वारा संक्रम होता रहता है। प्रकृतमे अनन्तानुबन्धीके उपशमका अधिकार है, किन्तु यहा इसका उदय नहीं है अतः इसके प्रथम स्थितिगत प्रत्येक दलिकका भी स्तिवुक सक्रमणके द्वारा पर प्रकृतियोमे सक्रमण होता रहता है। इस प्रकार अन्तरकरणके हो जाने पर दूसरे समयमे अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी द्वितीय स्थितिवाले दलि Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना ३४५ कोका उपशम किया जाता है, पहले ममयमें थोड़े दलिकोंका उपशम किया जाता है। दूसरे समयमें उससे अमख्यातगुणे दलिकोका उपशम किया जाता है। तीसरे समयमे इससे भी अमख्यानगुणे दलिकोका उपशम किग जाता है अन्तर्मुहूर्त कालतक इसी प्रकार असत्यातगुणं अमल्यातगुणे दलिकोका प्रति ममय उपशम किया जाता है। इतने समयमे समस्त अनतानुवन्धी चतुप्फका उपशम हो जाता है । जिम प्रकार धूलिको पानीसे सींच सींच कर दुरमटसे कूट देने पर वह जम जाती है उसी प्रकार कर्मरज भी विशुद्विरूपी जल से सींच मींच कर अनिवृत्तिकरणरूपी दुरमटके द्वारा कूट दिये जाने पर सक्रमण, उदय, उदीरणा निधत्ति और निकाचनाके प्रायोग्य हो जाती है। इसे ही अनन्तानुवन्धीका उपशम कहते हैं। किन्तु अन्य आचार्योका मत है कि अनन्तानुवन्धी चतुष्कका उपशम न होकर विसयोजना ही होती है। विसयोजना क्षपणाका दूसरा नाम है। किन्तु विसयोजना और क्षपणामे केवल इतना अन्तर है कि जिन प्रकृनियोकी विसयोजना होती है उनकी पुन मत्ता प्राप्त हो जाती है। किन्तु जिन प्रकृतियोंकी नपणा १कर्मप्रकृतिमें अनन्तानुवन्धीकी उपशमनाका स्पष्ट निषेध किया है। वहाँ वतलाया है कि चाये, पाँचवें और छठे गुणस्थानवर्ती ययायोग्य चारों गतिक पर्याप्त नाव तीन करणोंके द्वारा अनन्तानुवन्धी चतुष्कका विसयोजन करते हैं । किन्तु विसयोजन करते समय न तो अन्तरकरण होता है और न अनन्तानुवन्धी चतुष्कका उपशम ही होता है बठगइया पजत्ता तिन्नि वि सयोजणा वियोजति । करणेहि नाहिं सहिया नारकरयां उत्समो वा ।' दिगम्बर परम्परामें कपण्ययाहुद, उसकी चूर्णि, पट्खडागम और लब्धि Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण होती है उनकी पुनः सत्ता नहीं प्राप्त होती । अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना अविरत सम्यग्वष्टि गुणास्थानसे लेकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान तक किसी एक गुणस्थानमें होती है। चौथे गुणम्थानमें चागं गतिके जीव अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना करते हैं। पाँचवें गुणस्थानमें तिथंच और मनुष्य अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हैं । तथा छठे और सातवें गुणस्थानमे मनुष्य ही अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हैं। इसके लिये भी पहलेके समान तीन करण किये जाते हैं। इतनी विशेषता है कि विसंयोजनाके लिये अन्तरकरणकी आवश्यकता नहीं होती। किन्तु आवलि प्रमाण दलिकोको छोड़कर ऊपरके सव दृलिकोका अन्य मजातीय प्रकृतिरूपसे संक्रमण करके विनाश कर दिया जाता है और आलि प्रमाण दलिकाका वेद्यमान प्रकृतियों में सक्रमण करके उनका विनाश कर दिया जाता है। इस प्रकार अनन्तानन्धीकी उपशमना और विसंयोजनाका विचार करके अब दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी उपशमनाका विचार करते हैं। इस विपयमें यह नियम है कि मिथ्यात्वका उपशम तो मिथ्याष्टि और सम्यग्वष्टि जीव करते हैं किन्तु सारमें भी अनन्तानुवन्धीके विसंयोजनवाले मतका ही उल्लेख मिलता है। इतना ही नहीं किन्तु कर्मप्रकृतिके समान कसायपाहुडकी चूर्णिमें भी अनन्तानुवन्धीके उपशमका ग्पष्ट निषेध किया है। हॉ दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिकामें भी उपशमवाला मत पाया जाता है। और गोम्मप्सार कर्मकाण्डसे इस बातका अवश्य पता लगता है कि वे अनन्तानन्धीके उपशमवाले मतसे परिचित थे। १- दिगम्बर परम्परा के सभी कार्मिक प्रन्यों में इस विषयमें जो निर्देश किया है उसका भाव यह है कि मिथ्याटि.एक मिथ्यात्वं का, मिथ्याल और Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनमोहनीयकी उपशमना ३४७ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उपशम वेदकमम्यग्दृष्टि जीव ही करते हैं। इसमें भी चारो गतिका मिथ्याडष्टि जीव जव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है तब मिथ्यात्वका उपशम करता है। मिथ्यात्वके उपशम करनेकी विधि पूर्ववत् है। किन्तु इतनी विशेपता है कि इसके अपूर्वकरणमे गुणसक्रम नहीं होता किन्तु स्थि तिघात, रसघात, स्थितिवन्ध और गुणश्रेणि होती है। मिथ्यादृष्टि के नियमसे मिथ्यात्वका उदय होता है इसलिये इसके गुणश्रोणिकी रचना उदयसमयसे लेकर होती है। अपूर्णकरणके वाट अनिवृत्तिकरणमं भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इसके सख्यात भागोके बीत जाने पर जब एक भाग शेप रह जाता है तब मिथ्यात्वके अन्तर्मुर्तप्रमाण नीचेके निपेकोको छोडकर इससे कुछ अधिक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ऊपरके निषेकोका अन्तरकरण किया जाता है। इस क्रियामे न्यूतन स्थितिबन्धके समान अन्तमुहूर्त काल लगता है। यहाँ जिन दलिकोका अन्तरकरण किया जाता है उनमेंसे कुछ को प्रथम स्थितिमें और कुछ को द्वितीय स्थितिमें डाल दिया जाता है, क्योकि मिथ्यादृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनोंका या मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृति इन तीनोंका तथा सम्यग्दृष्टि द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय तीनोंका उपशम करता है । जो जीव सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वमें जाकर वेदक काल को उल्लघनकर जाता है वह यदि सम्यक्त्व की उद्वलना होने के काल में ही उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो उसके तीनों का उपशम होता है। जो जीव सम्यक्त्वकी उद्वलना के बाद सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वलना होते खमय यदि उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है तो उसके मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्व इन दो का उपशम होता है और जो मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि होता है उसके एक मिथ्यात्व का ही उपशम होता है। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ सप्ततिकाप्रकरण मिथ्यात्वका परप्रकृति रूपसे संक्रमण नहीं होता। इसके प्रथम स्थितिमें एक प्रावलिप्रमाण काल शेष रहने तक प्रथम स्थितिके दलिकोंकी उदीरणा होती है किन्तु द्वितीय स्थितिके दलिकांकी उदीरणा प्रथम स्थितिमें दो प्रावलि प्रमाण काल शेष रहने तक ही होती है । यहाँ द्वितीय स्थितिके दलिको की उदीरणाको आगाल कहते हैं। इस प्रकार यह जीव प्रथम स्थितिका वेदन करता हुया जत्र प्रथम स्थितिके अन्तिम स्थानस्थिति दलिकका वेदन करता है तब वह अन्तरकरण के ऊपर द्वितीय स्थितिम स्थित मिथ्यात्वके दलिकोको अनुभागके अनुसार तीन भागामें विभक्त कर देता है। इनमेंसे सबसे विशुद्ध भागको सम्यक्त्व कहते है । अर्ध विशुद्ध भागको सम्यग्मिथ्यात्व कहते है और सबसे अविशुद्ध भागको मिथ्यात्व कहते है । यहाँ प्रथम स्थितिके समाप्त होने पर मिथ्यात्वके दलिकका उदय नहीं होनेसे औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। किन्तु इस सम्यक्त्वसं जीव उपशमणि पर न चढ़कर द्वितीयोपशमसम्यक्त्वसे चढ़ता है। जो वेदक्सम्यम्हष्टि जीव अनन्तानुवन्धी कपाय और तीन दर्शनमोहनीयका उपशम करके उपशम सम्नक्त्वको प्राप्त होता है उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । इनमेंसे अनन्तानन्धीके उपशम होनेका कथन तो पहले कर आये हैं अब यहाँ दर्शन मोहनीयके उपशम होनेकी विधि को संक्षेपमें बतलाते हैं। जो वेदक सम्यष्टि जीव सयममे विद्यमान है वह दर्शनमाहनीयकी तीन प्रकृतियोका उपशम करता है। इसके यथाप्रवृत्त आदि तीन करण पहले के समान जानना चाहिये। किन्तु अनिवृत्तिकरणके संख्यात भागांके बीत जाने पर अन्तरकरण करते समय सम्यक्त्वकी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थापित की जाती है, क्योकि यह वेद्यमान प्रकृति है। तथा सम्यग्मिथ्यात्व Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ चारित्रमोहनीयकी उपशमना और मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति आवलिप्रमाण स्थापित की जाती है, क्योकि वेढकसम्यग्दृष्टिके इन दोनोंका उदय नहीं होता। यहाँ इन तीनोंप्रकृतियोंके जिन दलिकोका अन्तरकरण किया जाता है उनका निनेप सम्यक्त्वकी प्रथम स्थितिमें होता है। इसी प्रकार इस जीवके मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके दलिकका सम्यक्त्वकी प्रथम स्थितिके दलिकमें स्तिवुक संक्रमके द्वाग सक्रमण होता रहता है। और सम्यक्त्वकी प्रथम स्थितिका प्रत्येक दलिक उन्यमे आ आकर निर्जीण होता रहता है । इस प्रकार इसके सम्यक्त्वकी प्रथम स्थितिके क्षीण हो जाने पर द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। इस प्रकार द्विनीयोपशमको प्राप्त करके चारित्र मोहनीयका उपशम करनेके लिये पुन यथाप्रवृत्त आदि तीन करण करता है। करणोका स्वरूप तो पूर्ववत् ही है। किन्तु यहाँ इतनी विशेपता है कि यथाप्रवृत्त करण अप्रमत्तसयत गुणस्थानमें होता है अपूर्वकरण अपूर्वकरण गुणस्थानमे होता है। और अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें होता है । यहाँ भी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें स्थितिघात आदि पहले के समान होते हैं। किन्तु इतनी विशंपता है कि चौथेसे लेकर सातो गुणस्थान तक जो अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण होते हैं उनमे उसी प्रकृतिका गुणसक्रम होता है जिसके सम्बन्धमे वे परिणाम होते हैं। किन्तु अपूर्वकरणमें नहीं बंधनेवाली सपूर्ण अशुभ प्रकृतियोका गुणसक्रम होता है। अपूर्णकरणके कालमेसे सख्यातवॉ भाग वीत जान पर निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियो की वन्धव्युच्छित्ति होती है। इसके बाद जव हजारो स्थिति खएडोका धान हो लेता है तव अपूर्वकरण का सख्तात बहुभाग काल व्यतीत होता है और एक भाग शेष रहता है । इस बीचमें Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० सप्ततिकाकरण देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रिय आंगोपांग, आहारक आंगोपांग वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, निर्माण और तीर्थकर इन तीस नामकर्मको प्रकृतियोकी वन्धब्युच्छित्ति होती है। तदनन्तर स्थितिखण्डपृथक्त्वके जाने पर अपूर्वकरणका अन्तिम समय प्राप्त होता है। इसमें हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी बन्धव्युच्छित्ति, छह नोकषायो की उदयव्युच्छित्ति तथा सब कर्मोंकी देशोपशमना, निधत्ति और निकाचना करणोकी व्युच्छित्ति होती है। इसके बाद अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें प्रवेश करता है। इसमें भी स्थितिघात आदि कार्य पहलेके समान होते हैं। अनिवृत्तिकरणके संख्यात बहु भाग कालके बीत जाने पर चारित्रमोहनीयकी इक्कीस प्रवृतियोका अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण करते समय चार सज्वलनोमेंसे जिस सज्वलनका और तीन वेदो मेंसे जिस वेदका उदय है उनकी प्रथम स्थितिको अपने अपने उदयकाल प्रमाण स्थापित करता है और अन्य उन्नीस प्रकृ. तियोंकी प्रथम स्थितिको एक आवलिप्रमाण स्थापित करता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उदयकाल सबसे थोड़ा है। पुरुषवेदका उदयकाल इससे संख्यातगुणा है। संज्वलनक्रोधका उदयकाल इससे विशेष अधिक हैं। संज्वलन मानका उदयकाल इससे विशेष अधिक है। संज्वलनमायाका उदयकाल इससे विशेष अधिक है और संज्वलन लोभका उदयकाल इससे विशेष अधिक है। पञ्चसंग्रहमें कहा भी है'थीअपुमोदयकाला संखेजगुणो उ पुरिसवेयस्स । तत्तो वि विसेसअहियो कोहे तत्तो वि जहकमसो ।' Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रमोहनीयको उपशमना ३५१ अर्थात्- 'खीवेद और नपुंसक वेदके कालसे पुरुषवेदका काल संख्यात गुणा है। इससे क्रोधका काल विशेष अधिक है। आगे भी इसी प्रकार यथाक्रम विशेष अधिक काल जानना चाहिये ।' नो सज्वलन क्रोधके उदयसे उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके जवतक अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और प्रत्यारख्यानावरण क्रोधका उपशम नहीं होता है तब तक संज्वलन क्रोधका उदय रहता है । जो संन्वलन मानके उदयसे उपशम श्रेणि पर चढ़ता है, उसके जबतक अप्रत्याख्यानावरण मान और प्रत्याख्यानावरण मानका उपशम नहीं होता है तब तक सज्वलन मानका उदय रहता है । जो संम्वलन मायाके उदयसे उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके जब तक अप्रत्याख्यानावरण माया और प्रत्याख्यानावरण मायाका उपशम नहीं होता है तबतक सन्चलन मायाका उदय रहता है । तथा जो सब्वलन लोभके उदयसे उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके जब तक अप्रत्याख्यानावरण लीभ और प्रत्याख्यानावरण लोभका उपशम नहीं होता है तबतक सब्बलन लोभका उदय रहता है। जितने कालके द्वारा स्थितिखण्डका घात करता है या अन्य स्थितिका बन्ध करता है, उतने ही कालके द्वारा अन्तरकरण करता है, क्योकि इन तोनोका आरम्भ और समाप्ति एक साथ होती है । तात्पर्य यह है कि जिस समय अन्तरकरण क्रियाका आरम्भ होता है । उसी समय अन्य स्थितिखण्डके घातका और अन्य स्थितिबन्धका भी आरम्भ होता है और अन्तरकरण क्रिया के समाप्त होने के समय ही इनकी समाप्ति भी होती है । इस प्रकार अन्तरकरणके द्वारा जो अन्तर स्थापित किया जाता है उसका प्रमाण प्रथम स्थितिसे संख्यातगुणा है । अन्तरकरण करते समय जिन कर्मोंका बन्ध, और उदय होता है उनके अन्तरकरण सम्बन्धी दलिकोंको प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थितिमें क्षेपण करता है । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ सप्ततिकाप्रकरण जैसे पुरुपवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला पुरुपवेदका । जिन ' कर्मोंका अन्तरकरण करते समय उदय ही होता है. बन्ध नहीं, होता; उनके अन्तरकरण सम्बन्धी दलिकोंको प्रथम स्थितिमें ही क्षेपण करता है द्वितीय स्थितिमें नहीं जैसे स्त्रीवेटके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला स्त्रीवेदका । अन्तरकरण करनेके समय जिन कर्मोका उदय न होकर केवल वन्ध ही होता है उसके अन्तरकरण सम्बन्धी दलिकोको द्वितीय स्थितिमें ही क्षेपण करता है, प्रथम स्थितिमें नहीं। जैसे सज्वलन क्रोधके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला शेष संज्वलनोंका । किन्तु अन्तरकरण करनेके समय जिन कर्मोका न तोवन्ध ही होता है और न उदय हो उनके अन्तरकरणसम्बन्धी दलिकोका अन्य सजातीय वधनेवाली प्रकृतियोंमें क्षेपण करता है। जैसे दूसरी और तीसरी कपायोका। अन्तरकरण करके नपुंसकवेदका उपशम करता है। पहले समयमें सवसे थोड़े दलिकोका उपशम करता है 'दूसरे समयमे असख्यातगुणे दलिकोका उपशम करता है। तीसरे समयमें इससे असंख्यातगुणे दलिकोंका उपशम करता है। इस प्रकार अन्तिम समय प्राप्त होने तक प्रति समय असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे दलिकोका उपशम करता है। तथा जिस समय जितने दलिकोका उपशम करता है उस समय उससे असंख्यातगुणे दलिकोका परप्रकृतियोमे क्षेपण करता है। किन्तु यह क्रम उपान्त्य समय तक ही चालू रहता है। अन्तिम समयमें तो जितने दलिकोका पर प्रकृतियोंमे संक्रमण होता है उससे असख्यातगुणे दलिकोका उपशम करता है। इसके बाद एक अन्तर्मुहूर्तमें स्त्रीवेदका उपशम करता है। 'इसके बाद एक अन्तर्मुहूर्तमे हास्यादि छहका उपशम करता है.। हास्यादिश्छहका उपशम होते ही पुरुपवेदके 'बन्ध, और उदीरणाका तथा प्रथम स्थितिका विच्छेद हो जाता है। किन्तु आगाल प्रथम Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रमोहनीयकी उपशमना ३५३ स्थितिमें दो आवलिका काल शेप रहने तक ही होता है। तथा इसी समयसे छह नोकपायोंके दलिकोंका पुरुषवेद में क्षेपण न करके मज्वलन क्रोधादिकमें नेपण करता है। हास्यादि छहका उपशम हो जाने के बाद एक समय कम दो आवलिझाकालमें सकल पुरुपवेदका उपशम करता है। पहले समयमे सबसे थोडे दलिगोका उपशम करता है। दूसरे ममयमे असख्यातगुणे दलिकोका उपशम करता है । तीमरे ममयमै इससे अमख्यातगुणे दलिकोका उपशम करता है। दो ममय कम दो आवलियोंके अन्तिम समय तक इसी प्रकार उपशम करना है। तथा दो समय कम दो आवलि काल तक प्रति समय यथाप्रवृत्त सक्रमके द्वारा पर प्रकृतियोंमे दलि कोका निक्षेप करता है। पहले ममयमे बहुत दलिकोका निक्षेप करता है। दूसरे समयमें विशेप हीन दलिकोका निक्षेप करता है। नीमरे समयमै इससे विशेष हीन दलिकोंका निक्षेप करता है । अन्तिम ममय तक इसी प्रकार जानना चाहिये । जिस समय हास्यादि छहका उपशम हो जाता है और पुरुपवेदकी प्रथम स्थिति नीण हो जाती है उसके अनन्तर समयसे अप्रत्याच्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध और सज्वलन क्रोधके उपशम करनेका एक साथ प्रारम्भ करता है। नथा संज्वलन क्रोधकी प्रथम स्थितिमें एक समय कम तीन आवलिका शेष रह जानेपर अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और प्रत्याख्यानावरण क्रोधके दलिकोका संज्वलन क्रोधमें निनेप न करके संज्वलन मानादिकमें निक्षेप करता है । तथा दो श्रावलि कालके शेष रहने पर आगाल नहीं होता है किन्तु केवल उदीरणा ही होती है। और एक श्रावलिश कालके शेप रह जाने पर संज्वलन क्रोधके बन्ध, उदय और उदीरणाका विच्छेद हो जाता है और अप्रत्याख्यानावरण क्रोध तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोधका उपशम हो जाता है। उस Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण समय सज्वलन क्रोधकी प्रथम स्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकोको और उपरितन स्थितिगत एक समय कम दो श्रावलिका कालके द्वारा बद्ध दलिकोको छोड़कर शेष दलिक उपशान्त हो जाते है। तदनन्तर प्रथम स्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकोका स्तिबुकसक्रमके द्वारा क्रमसे संज्वलन मानमें निक्षेप करता है और एक समयकम दो आवलिकालमै बद्ध दलिकोका पुरुपवेदके समान उपशम करता है और परप्रकृतिरूपसे संक्रमण करता है । इस प्रकार अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोधके उपशम होनेके बाद एक समय कम दो आवलिका कालमें संज्वलन क्रोधका उपशम हो जाता है। जिस समय संज्वलन क्रोधके वन्ध, उदय और उदीरणाका विच्छेद होता है उसके अनन्तर समयसे लेकर संज्वलन मानकी द्वितीय स्थितिसे दलिकोको लेकर उनकी प्रथम स्थिति करके वेदन करता है। प्रथम स्थिति करते समय उदय समयमें सबसे थोड़े दलिकोंका निक्षेप करता है। दूसरे समय असंख्यातगुणे दलिकोंका निक्षेप करता। तीसरे समयमै इससे असंख्यातगुणे दलिकोका निक्षेप करता है। इस प्रकार प्रथम स्थितिके अन्तिम समय तक उत्तरोत्तर असख्यातगुणे दलिकोका निक्षेप करता है। प्रथम स्थिति करनेके प्रथम समयसे लेकर अप्रत्याख्यानावरणमान, प्रत्याख्यानावरणमान और संज्वलनमानके उपशम करनेका एक साथ प्रारम्भ करता है। सज्वलन मानकी प्रथम स्थितिमे एक समय कम तीन आवलिका कालके शेष रहने पर अप्रत्याख्यानावरण मान और प्रत्याख्यानावरण मानके दलिकोका संज्वलन मानमें प्रक्षेप न करके संन्वलन माया आदिमें प्रक्षेप करता है। दो आवलिकाके शेष रहने पर आगाल नहीं होता किन्तु केवल उदीरणा ही होती है। एक आवलिका कालके शेष रहने पर सज्वलनमानके वन्ध, Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रमोहनीयकी उपशमना ३५५ उदय और उदीरणाका विच्छेद हूं। जाता है। तथा अप्रत्याख्यानावरमान और प्रत्याख्यानावरणमानका उपशम हो जाता है । उस समय सज्वलनमानकी प्रथम स्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकों और उपरितन स्थितिगत एक समय कम दो श्रावलिका कालमें बद्ध दलिकोको छोडकर शेप दलिक उपशान्त हो जाते हैं । तदनन्तर प्रथम स्थितिगत एक श्रावलिका, प्रमाण दलिकोका स्तिवक मक्रमके द्वारा क्रमसे सज्वलन मायामें निक्षेप करता है और एक समय कम दो आवलिकाकालमें वद्ध ढलिकोका पुरुषवेदके ममान उपशम करता है और परप्रकृति - रूपसे सक्रमण करता है । इस प्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान और प्रत्याख्यानावरण मानके उपशम होनेके बाद एक समय कम st आवलिका कालमें सज्वलन मानका उपशम हो जाता है । जिस समय सज्वलन मानके बन्ध उदय और उदीरणाका विच्छेद हो जाता है उसके अनन्तर समयसे लेकर सज्वलन मायाकी द्वितीय स्थितिसे दलिको को लेकर उनकी प्रथम स्थिति करके are करता है । तथा उसी समयसे लेकर अप्रत्याख्यानावरण माया प्रत्याख्यानावरण माया और सज्वलन मायाके उपशम करनेका एक साथ प्रारम्भ करता है । सज्वलन मायाकी प्रथम स्थिति में एक समय कम तीन आवलिका कालके शेप रहने पर श्रप्रत्याख्यानावरण माया और प्रत्याख्यानावरण मायाके इलिकोका सन्चलन मायामे प्रक्षेप न करके सज्वलन लोभमें प्रक्षेप करता है । दो आवलिका शेप रहने पर आगाल नहीं होता किन्तु केवल उदीरणा ही होती है। एक आवलिका वालके शेप रहने पर संचलन मायाके बन्ध, उदय और उदीरणाका विच्छेद हो जाता है तथा प्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण मायाका उपशम हो जाता है । उस समय संज्वलन मायाकी प्रथम स्थिति Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ सप्ततिकाप्रकरण न एक आवलिका प्रमाण दलिकोंको और उपरितन स्थितिगत एक समय कम दो आवलिका कालमे बद्ध दलिकोंको छोड़कर शेप दलिक उपशान्त हो जाते हैं । तदनन्तर प्रथम स्थितिगत एक चावलिका प्रमाण दलिकोंका स्तिवक संक्रमके द्वारा क्रमसे संचलन मायामें निक्षेप करता है और एक समय कम दो चावलिका कालमें बद्ध दलिकोंका पुरुषवेदके समान उपशम करता है और परप्रकृतिरूपसे संक्रमण करता है । इस प्रकार J प्रत्याख्यानावरण माया और प्रत्याख्यानावरण मायाके उपशम होनेके बाद एक समय कम दो आवलिका कालमें सन्चलन मायाका उपशम हो जाता है। जिस समय संज्वलन मायाके बन्ध, उदय और उदीरणाका विच्छेद होता है उसके अनन्तर समयसे लेकर सज्वलन लांभवी द्वितीय स्थितिसे दलिकोको लेकर उनकी लोभवेदक कालके तीन भागों में से दो भाग प्रमाण प्रथम स्थितिकरके वेदन करता है । इनमें से पहले विभागका नाम अश्वकर्ण करण काल है और दूसरे त्रिभागका नाम किट्टीकरणकाल है। अश्वकरण कालमें पूर्वस्पर्धकोंसे दलिकोको लेकर अपूर्व स्पर्द्धक करता है । बात यह हैं कि जीव प्रति समय अनन्तानन्त परमाणुओं के बने हुए स्कन्धोको कर्मरूपसे ग्रहण करता है । इनमेंसे प्रत्येक स्कन्धमें तो सबसे जघन्य रसवाला परमाणु है उसके रसके बुद्धिसे छेद करने पर सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभाग प्रति - च्छेद प्राप्त होते हैं । अन्य परमाणुमें एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होने हैं । अन्य परमाणुसे दो अधिक विभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सिद्धांके अनन्तवें भाग अधिक रसके अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होने तक प्रत्येक परमाणुमें रसका एक एक अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ाते जाना चाहिये ! T Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रमोहनीयकी उपशमना ३५७ यहाँ जघन्य रसवाले जितने परमाणु होते हैं उनके समुदाय को एक वर्गणा कहते हैं। एक अधिक रसवाले परमाणुओंके ममुदायको द सरी वर्गणा कहते हैं। दो अधिक रसवाले परमाणोके समुदायको तीसरी वर्गणा कहते है। इस प्रकार कुल वर्गणाए सिद्धोंके अनन्तवे भागप्रमाण या अभव्योसे अनन्तगुणी प्राप्त होती हैं। इन सब वर्गणाओके समुदायको एक स्पर्धक कहते हैं। दूसरे आदि स्पर्धक भी इसी प्रकार प्राप्त होते है। किन्तु इतनी विशेपता है कि प्रथम आदि स्पर्धकोंकी अन्तिम वर्गणाके प्रत्येक वर्गमें जितने अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं दूसरे आदि स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके प्रत्येक वर्गमे सब जीवोसे धनन्तगुणे रसके अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं। और फिर अपनेअपने स्पर्द्ध ककी अन्तिम वर्गणा तक रसका एक एक अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ता जाता है। ये सव स्पर्धक संसारी जीवोंके प्रारम्भसे ही यथायोग्य होते हैं इसलिये इन्हें पूर्वस्पर्द्धक कहते हैं। किन्तु यहाँ पर उनमेसे दलिकोको ले लेकर उनके रसको अत्यन्त हीन कर देता है। इसलिये उनको अपूर्वस्पर्धक कहते हैं। तात्पर्य यह है कि ससार अवस्थामे इम जीवने बन्धकी अपेक्षा कभी भी से स्पर्धक नहीं किये थे किन्तु विशुद्धिके प्रकर्पसे इस समय करता है इस लिये ये अपूर्वस्पर्धक कहे जाते हैं। यह क्रिया पहले त्रिभागमें की जाती है। दूसरे त्रिभागमें पूर्णस्पर्द्ध को और अपूर्णस्पर्द्वकोमेंसे दलिकोको ले लेकर प्रति समय अनन्त किट्टियाँ करता है। अर्थात् पूर्णस्पर्द्ध को और अपूर्णस्पर्द्ध कोंसे वर्गणाओको ग्रहण करके और उनके रसको अनन्तगुणा हीन करके रसके अविभाग प्रतिच्छेदोमें अन्तराल कर देता है । जैसे, मानलो रसके अविभाग प्रतिच्छेद सौ, एकसौ एक और एकसौ दो थे अब उन्हें घटा कर क्रमसे पॉच, पन्द्रह और पञ्चीस कर दिया। इसीका नाम किटटी Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० नमतिकाप्रकरण करण है। किट्टी करण कालके अन्तिम समयमें अप्रत्याख्याना वरण लोभ प्रत्याख्यानावरण लोमका उपशम करता है। नया उसी समय संज्वलन लोभका बन्धविच्छेद होना है और वादा संचलनके उदय तथा उदीरणाके विच्छेदके साथ नौ गुणम्या नका अन्त हो जाता है। इसके बाद सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान होता है। इसका काल अन्नमुहत है। इसके पहले समयमें उपरिनन स्थितिमेंसे कुछ किट्टियाँको लेकर सूक्ष्मसम्पराय कालके वरावर उनकी प्रथम स्थिति करके वेदन करता है और एक समय कम ही आवलिकामें बंधे हुए सूक्ष्म अवस्थाको प्राम शेष दृनिकोंग उपशम करता है । तदनन्तर मूत्मसम्पराय गुणन्यान अन्तिम समयमे मंचलन लोभका उपशम हो जाता है और उसी समय बानाबरणनी पाँच दर्शनावरणकी चार, अन्नरायकी पाँच, यशाचीनि और उच्चगोत्र इन सोलह प्रकृतियोंकी अन्यत्र्युछिनि होती है। इसके बाद दमरे समयमें ग्यारहवाँ गुणल्यान उपशान्त कषाय होता है। इसमें मोहनीयकी मत्र प्रकृतियाँ उपशान्त रहती हैं। उपशान्तकयायका जघन्य काल' एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। इसके बाद इसका नियनसे पतन होता है। पतन दो प्रकारस होता है भवनयस और अद्धाजयसे । आयुके समाप्त हो जाने पर जो पतन होता है उसे भवन्यसे होनेवाला पनन कहते हैं। यहाँ भवका अर्थ पर्याय है और नयका अर्थ विनाश ! तथा उपशान्नपायके भालके समाप्त हो जाने पर जो पतन होता है उसे अद्धाक्षयसे होनेवाला पतन कहते हैं। जिसका भवक्षयसे पतन होता है उसके अनन्तर समयमें अविरतमुन्यष्टि गुणन्यान होता है और उसके पहले समयमें ही वन्वादिक सब करणोंका प्रारम्भ हो जाता है। जिलग अद्धाञ्जयसे पतन होना है.वह निस क्रमसे चढ़ता है। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनमोहनीयकी क्षपणा ३५ उसी क्रमसे गिरता है। इसके जहाँ जिस कारणकी व्युच्छित्ति हुई वहाँ पहुंचने पर उस करणका प्रारम्भ होता है। यह जीव प्रमत्त सयत गुणस्थानमें जाकर रुक जाता है। कोई कोई देशविरति और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको भी प्राप्त होता है तथा कोई सास्वादनभावको भी प्राप्त होता है। साधारणत एक भवमें एक बार उपशमश्रेणिको प्रात होता है। कदाचित् कोई जीव दो वार भी उपशमश्रेणिको प्राप्त होता है इससे अधिक बार नहीं। जो दो बार उपशमणिको प्राप्त होता है उसके उस भवमें क्षपकणि नहीं होती। जो एक बार उपशमणिको प्राप्त होता है उसके क्षपकोणि होती भी है। ___ यद्यपि ग्रन्थकारने मूल गाथामें अनन्तानुवन्धीकी चार और दर्शनमोहनीयकी तीन इन सात प्रकृतियोका उपशम कहाँ और किस क्रमसे होता है इतना ही निर्देश किया है पर प्रसगसे यहाँ अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना और चरित्र मोहनीयकी उपशमनाका भी विवेचन किया गया है। इस प्रकार उपशमश्रोणिका कथन समाप्त हुआ। अब क्षपकरणिके कथन करनेकी इच्छासे पहले क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति कहाँ किस क्रमसे होती है इसका निर्देश करते हैं पढमकसायचउक्कं एत्तो मिच्छत्तमीससम्मत्तं । अविरय देसे विरए पमत्ति अपमत्ति खीयंति ॥६३।। अर्थ-अविरतसम्यदृष्टि देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत इन चार गुणस्थानोमेंसे किसी एकमे अनन्तानुवन्धी चारका और तदनन्तर मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्वका क्रमसे क्षय होता है। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण विशेपार्थ-उपशमणिमें मोहनीयकी प्रकृतियोंका उपशम किया जाता है और आपकोणिमें उनका क्षय किया जाता है। तात्पर्य यह है कि उपशमणिमे प्रकृतियोकी सत्ता तो बनी रहती है किन्तु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दलिकोका अन्तरकरण हो जाता है और द्वितीय स्थितिमें स्थित दलिक संक्रमण आदिके अयोग्य हो जाते हैं इसलिये अन्तमुहूर्त काल तक उनका फल नहीं प्राप्त होता। किन्तु नपक्रोणिमे उनका समूल नाश हो जाता है। कदाचित् यह कहा जाय कि बन्धादिक के द्वारा उनकी पुनः सत्ता प्राप्त हो जायगी मो भी बात नहीं, क्योंकि ऐसा नियम है कि सम्यग्दृष्टिके जिन प्रकृतियोंका समूल क्षय हो जाता है उनका न तो बन्ध ही होता है और न तद्प अन्य प्रकृतियोका सक्रम ही, अतः ऐसी प्रकृतियोंकी पुन. सत्ता, सम्भव नहीं। हाँ अनन्तानुवन्धी चतुष्क इस नियमका अपवाद है इसीलिये उसका क्षय विसयोजना शब्दके द्वारा कहा जाता है। क्षपकोणिका आरम्भ आठ वर्षसे अधिक आयुवाले, उत्तम संहननके धारक, चौथे पाँचवें छठे या सातवे गुणस्थानवर्ती जिनकालिक मनुप्यके ही होता है अन्यके नहीं। सबसे पहले वह अनन्तानुवन्धी चतुतकी विसयोजना करता है। तदनन्तर मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, और सम्यक्त्वकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है। इसके लिये यथाप्रवृत्त आदि तीन करण होते है। इनका कथन पहले कर ही आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अपूर्वकरणके पहले समयमै अनुदयरूप मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके दलिकोका गुणसंक्रमके द्वारा सम्यक्त्वमे निक्षेप किया जाता है। तथा अपूर्वकरणमे इन दोनोका उद्वलना सक्रम भी होता है। इसमें सबसे पहले सबसे बड़े स्थितिखण्डकी उद्वलना की जाती है। तदनन्तर एक एक विशेप कम स्थितिखण्डोकी उद्वलना की जाती है। यह क्रम Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ दर्शनमाहनीयकी क्षपणा अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक चालू रहता है। इससे अपूर्वकरणके पहले समयमे जितनी स्थिति हाती है अन्तिम समयमें उमसे सख्यातगुण होन अर्थात् सख्यातवा भाग स्थिति रह जाती है। इसके बाद यह अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करता है। यहाँ भी स्थितिघात आदि कार्य पहलेके सनान चालू रहते है। अनिवृत्तिकरणके पहले समयमें दर्शनत्रिककी देशोपशमना, नित्ति और निवाचनाका विच्छेद हो जाता है। अनिवृत्तिकरणके पहले समयसे लेकर हजारो स्थितिखण्डोंका घात हो जाने पर दर्शन त्रिककी स्थितिसत्ता असन्जीके योग्य शेप रहती है । इसके बाद हजार पृथकत्व प्रमाण स्थिति खण्डोका घात हो जाने पर चौइन्द्रिय जीवके योग्य स्थितिसत्ता शेप रहती है। इसके बाद उक्त प्रमाण स्थितिखण्डोंका घात हो जाने पर तीन इन्द्रिय जीवके योग्य स्थिति सत्ता शेप रहती है। इसके बाद पुन उक्त प्रमाण स्थितिखण्डोका घात हो जाने पर दो इन्द्रिय जीवके योग्य स्थितिसत्ताशेप रहती है। इसके बाद पुन उक्त प्रमाण स्थितिखण्डोका घात हो जाने पर एकेन्द्रिय जीवके योग्य स्थितिसत्ता शेष रहती है। इसके वाढ पुनरपि उक्त प्रमाण स्थितिखण्डोंका घात हो जाने पर पल्यके असख्यातवे भागप्रमाण स्थितिमत्ता शेप रहती है । तदनन्दर तीनों प्रकृतियोकी स्थितिके एक भागको छोड़कर शेप बहुभागका घात करता है। तदनन्तर पुनरपि एक भागको छोड़कर शेप बहु भागका घात करता है। इस प्रकार इस क्रमसे भी हजारो स्थितिखडी का घात करता है, तदनन्तर मिथ्यात्वकी स्थितिके असख्यात भागोंका तथा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके सख्यात भागोका घात करता है। इस प्रकार प्रभूत स्थितिखडोके व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्वके दलिक आवलिप्रमाण शेप रहते हैं। तथा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके दलिक पल्यके असख्यात भागप्रमाण शेष रहते हैं। तिकेपि भी Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ सप्ततिकाप्रकरण उपर्युक्त इन स्थितिखडोका घात करते समय मिथ्यात्वसम्बन्धी दलिकीका सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्व में निक्षेप किया जाता है । सम्यग्मिथ्यात्व सम्बन्धी दलिकोका सम्यक्त्वमें निक्षेप किया जाता है और सम्यक्त्वसम्बन्धी दलिकोका अपने कम स्थितिवाले दलिकोमें ही निक्षेप किया जाता है। इस प्रकार जव मिथ्यात्वके एक अवलिप्रमाण दलिक शेष रहते है तब उनका भी स्तिबुकसंक्रमके द्वारा सम्यक्त्वमे निक्षेप किया जाता है । तदनन्तर सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके असंख्यात भागोका घात करता है और एक भाग शेप रहता है । तदनन्तर जो एक भाग बचता है उसके असंख्यात भागोका घात करता है और एक भाग शेष रहता है। इस प्रकार इस क्रमसे कितने ही स्थितिखंडोंके व्यतीत हो जाने पर सम्यग्मिथ्यात्वकी भी एक अवलिप्रमाण और सम्यक्त्वकी आठ वर्षप्रमाण स्थिति शेष रहती है। इसी समय यह जीव निश्चयनयकी दृष्टिसे दर्शनमोहनीयका क्षपक माना जाता है । इसके बाद सम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिखंडकी उत्कीरणा करता है । उत्कीरणा करते समय दलिकका उदय समय से लेकर निक्षेप करता है । उदय समयमे सबसे थोड़े दलिकोका निक्षेप करता है । दूसरे समय में असंख्यातगुणे दलिकोका निक्षेप करता है। तीसरे समय में असंख्यातगुणे दलिकोंका निक्षेप करता है । इस प्रकार यह क्रम गुणश्र णीशीर्ष तक चालू रहता है । इसके आगे अन्तिम स्थिति प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर कम कम दलिकोका निक्षेप करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अनेक स्थितिखडोकी उत्कीरणा करके उनका अधस्तन स्थिति मे निक्षेप करता है । इसके यह क्रम द्विचरम स्थितिखण्ड के प्राप्त होनेतक चालू रहता है । किन्तु द्विचरम स्थितिखंड से अन्तिम स्थितिखड संख्यातगुणा बड़ा होता है । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनमोहनीयकी क्षपणा ३६३ जव यह जीव सम्यक्त्वके अन्तिम स्थितिखंडकी उत्कीरणा कर चुकता है तब उसे कृतकरण कहते हैं । इस कृतकरणके काल में यदि कोई जीव मरता है तो वह चारो गतियोंमेंसे परभवसम्बन्धी के अनुसार किसी भी गतिमें उत्पन्न होता है । इस समय यह शुक्ल लेश्याको छोड़कर अन्य लेश्याको भी प्राप्त होता है । इस प्रकार दर्शनमोहनीयकी क्षमरणाका प्रारम्भ मनुष्य ही करता है किन्तु उसकी समाप्ति चारो गतियोमे होती है । कहा भी है'पट्टवगो उ मणूसो निट्टवगो चउसु वि गईसु ॥' अर्थात्- 'दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ मनुष्य ही करता है किन्तु उसकी समाप्ति चारो गतियो में होती है ।' यदि बद्धायु जीव क्षपक शिका प्रारम्भ करता है तो अनन्तानुवन्धी चतुष्कका क्षय हो जानेके पश्चात् उसका मरण होना भी सम्भव है । उस अवस्था में मिथ्यात्वका उदय हो जानेसे यह जीव पुन अनन्तानुबन्धीका बन्ध और सक्रमद्वारा मंचय करता है क्योंकि मिथ्यात्वके उदयमें अनन्तानुबन्धीका सत्त्व नियमसे पाया जाता है । किन्तु जिसने मिथ्यात्वका क्षय कर दिया है वह पुन अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सचय नहीं करता । सात प्रकृतियोका क्षय हो जाने पर जिसके परिणाम नहीं बदले हैं वह मरकर नियमसे देवोमे उत्पन्न होता है किन्तु जिसके परिणाम बदल जाते हैं वह परिणामानुसार अन्य गति में भी उत्पन्न होता है । वद्धायु होने पर भी यदि कोई जीव उस समय मरण नहीं करता तो सात प्रकृतियोका क्षय होने पर वह वहीं ठहर जाता है चारित्रमोहनीयके क्षयका यत्न नहीं करता । जो वद्वायु जीव सात प्रकृतियोका क्षय करके देव या नारकी होता है वह नियमसे तीसरी पर्यायमे मोक्षको प्राप्त होता है और जो मनुष्य या तिर्यच होता है वह असख्यात वर्षकी Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ सप्ततिकाप्रकरण आयुवाले मनुष्यों और तिर्यचोंमें ही उत्पन्न होता है इसलिये वह नियमसे चौथे भवमे ही मोक्षको प्राप्त होता है । अव यदि श्रद्धायु जीव क्षपकश्रेणिका आरम्भ करता है तो वह सात प्रकृतियोका क्षय हो जाने पर चारित्रमोहनीय कर्मके क्षय करनेका यत्न करता है चूंकि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला मनुष्य श्रद्धा ही होता है इसलिये इसके नरकाय देवायु और तिर्यंचायुका सत्त्व तो स्वभावत ही नहीं पाया जाता है । तथा चार अनन्तानुवन्धी और तीन दर्शनमाहनीयका क्षय पूर्वोक्त क्रमसे हो जाता है अत चरित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके उक्त इस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे नहीं होता यह सिद्ध हुआ। जो जीव चरित्रमोहनीयकी क्षपणा करता है उसके भी यथाप्रवृत्त आदि तीन करण होते हैं । यहाँ यथाप्रवृत्तकरण सातवें गुणस्थान में होता है । और आठवे गुणस्थानकी पूर्वकरण और नौ गुणस्थानकी श्रनिवृत्तिकरण संज्ञा है । इन तीनों करणीका खुलासा पहले कर आये हैं इसलिये यहाँ नहीं किया जाता है । यहाँ पूर्ण करामें यह जीव स्थितिघात आदिके द्वारा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कपायकी आठ प्रकृ तियोका इस प्रकार क्षय करता है जिससे नौवें गुणम्थानके पहले समय में उनकी स्थिति पल्यके असंख्यातत्रे भागप्रमाण शेष रहती है। तथा अनिवृत्तिकरण के संख्यात वहुभागोके बीत जाने पर स्त्यानर्द्धिन्त्रिक, नरकगति, नरकानुपूर्वी तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी. एकेन्द्रिय जानि, द्वीन्द्रियजाति, तीनेन्द्रियजाति, चार इन्द्रियजाति, स्थावर, श्रातप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियोकी स्थिति की उलना संक्रमके द्वारा उदूलना होने पर वह पल्यके असख्याती भागमात्रं शेष रह जाती है । तदनन्तर गुणसंक्रमके द्वारा उनका प्रति समय वध्यमान प्रकृतियोंमें प्रक्षेप करके उन्हें 1 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रमोहनीयको क्षपणा ३६५ पूरी तरहमे नीण कर दिया जाता है । यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कपायकी आठ प्रकृतियोंके जयका प्रारम्भ पहले ही कर दिया जाता है तो भी इनका क्षय होनके पहले मध्यमें ही उक्त स्त्यानचि आदि मोहल प्रकृतियोका क्षय हो जाता है और इनके क्षय होने के पश्चात् अन्तमुहर्तमे उक्त आठ कपायोका जय होता है। किन्तु इस विपयमें किन्हीं आचार्यो का सा भो मत है कि यद्यपि सोलह कपायोके क्षयका प्रारम्भ पहले कर दिया जाता है तो भी आठ कपायोका क्षय हो जाने पर ही उक्त सोलह प्रकृतियोका क्षय होता है। इसके पश्चात् नौनोकपाय और चार सज्वलन इन तेरह प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण करनेके वाद नपुसकवेदके उपरितन न्थितिगत दलिकोका उद्घलना विधिसे क्षय करता है। और इस प्रकार अन्तर्मुहर्त में उसकी पल्यके असख्यातवें भागप्रमाण स्थिति शेप रह जाती है । तत्पश्चात् इसके दलिकोका गुणसक्रमके द्वारा बँधनेवाली अन्य प्रकृतियोमे निक्षेप करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तमें इसका समूल नाश हो जाता है। यहाँ इतना विशेप जानना चाहिये कि जो जीव नपुसकवेदके उदयके साथ आपकश्रेणि पर चढ़ता है वह उसके अधस्तन दलकोका वेदन करते हुए क्षय करता है। इस प्रकार नपुसकवेदका क्षय हो जाने पर अन्तमुहूर्तमें इसी कमसे स्त्रीवेदका क्षय किया जाता है। तदनन्तर छह नोकपायोके क्षयका एक साथ प्रारम्भ किया जाता है। छह नोकपायोंके नयका प्रारम्भ कर लेनेके पश्चात् इनका सक्रमण पुरुपवेदमें न होकर संज्वलन क्रोध होता है और इस प्रकार इनका क्षय कर दिया जाता है। जिस समय छह नोकषायोका क्षय होता है उसी समय पुरुपवेदके बन्ध, उदय और उदीरणाकी व्युच्छित्ति होती है तथा एक समय कम दो आवलिप्रमाण समय Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण प्रबद्धको छोड़कर पुरुपवेदके शेप दलिकोंका क्षय हो जाता है। यहाँ पुरुषवेदके उदय और उदीरणाकी व्युच्छित्ति हो चुकी है इसलिये यह अपगतवेढी हो जाता है। किन्तु यह कथन जो जीव पुरुपवेदके उदयसे क्षपकोशि पर आरोहण करता है उसकी अपना जानना चाहिये। किन्तु जो जीव नपुमकवेदके उदयसे नपकरण पर चढ़ता है वह स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका एक माथ क्षय करता है । तथा इसके जिस समय स्त्रीवेद और नपुंकवेदका क्षय होता है उसी समय पुरुपवेदकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। और इसके बाद वह अपगतवेनी होकर पुरुपवेद और छह नोकपायांका एक साथ क्षय करता है। अब यदि कोई जीव खोवेदके उदयमे नपकनीणि पर चढ़ता है तो वह नपुंसक वेदका क्षय हो जानेके पश्चात् त्रीवेदका क्षय करता है। किन्तु इसके भी बीवेदके नय होनेके समय ही पुरुषवेदकी अन्धन्युच्छित्ति होती है । और इसके बाद अपगतवेदी होकर पुरुपवेद और छह नोक्रपायोका एक साथ तय करता है। अब एक ऐसा जीव है जो पुरुपवेदके उदयसे क्षपकरण पर चढ़कर क्रोध कपायका वेदन कर रहा है तो उसके पुरुपवेदकी उदयन्युच्छित्तिके पश्चात् क्रोधकाल तीन भागोंमें बॅट जाता हैअश्वर्ण करणकाल, किट्टीकरणकाल और किट्टीवेदनकाल । घोड़क कानको अश्वकरण कहते हैं। यह मूलमें बड़ा और अपरकी और क्रमस घटता हुआ होता है। इसी प्रकार जिस करणमें क्रोबसे लेकर लोभ तक चारों संज्वलनोंका अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणाहीन हो जाता है उस करणकी अश्वकर्णकरण सना है। अन्यत्र इमके आदोलकरण और उद्वर्तनापवर्तनकरण ये दो नाम और मिलते हैं। किट्टीका अर्थ कश करना है अत. जिस करणमें पूर्व स्पर्धकों और अपूर्व स्पर्धकॉमेंसे दलिकोंको ले लेकर उनके Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रमोहनीयकी क्षपणा अनुभागको अनन्तगुणाहीन करके अन्तरालसे स्थापित किया जाता है उसकी किट्टीकरण संज्ञा है। और इन किट्टियोंके वेदन करनेको किट्टीवेदन कहते हैं। इनमेंसे जब यह जीव अश्वकर्णकरणके कालमें विद्यमान रहता है तब चारो सज्वलनोकी अन्तर करणसे ऊपरकी स्थितिमें प्रति समय अनन्त अपूर्व स्पर्धक करता है। तथा एक समय कम दो प्रावलिका प्रमाण कालमें बद्ध पुरुषवेदके दलिकोको इतने ही कालमें क्रोधसज्वलनमे सक्रमण कर नष्ट करता है। यहाँ पहले गुणसक्रम होता है और अन्तिम समयमें सर्वसक्रम होता है। अश्वकर्णकरणकालके समाप्त हो जाने पर किट्टीकरणकालमे प्रवेश करता है। यद्यपि किट्टियाँ अनन्त हैं पर स्थूलरूपसे वे वारह होती हैं। जो प्रत्येक कषायमे तीन तीन प्राप्त होती हैं। किन्तु जो जीव मानके उदयसे आपकश्रेणिपर चढ़ता है वह उद्वलनाविधिसे क्रोधका क्षय करके शेष तीन कषायोंकी नौ किट्टी करता है। यदि मायाके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है तो क्रोध और मानका उद्वलनाविधिसे क्षय करके शेप दो कषायोंकी छह किट्टियाँ करता है। और यदि लोभके उदयसे जीव क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है तो उद्वलनाविधिसे क्रोधादिक तीनका क्षय करके लोभकी तीन किट्टी करता है। इस प्रकार किट्टी करणके कालके समाप्त हो जाने पर क्रोधके उदयसे क्षपकणि पर चढ़ा हुआ जीव क्रोधकी प्रथम किट्टीकी द्वितीय स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक पावलिका प्रमाण कालके शेष रहने तक उसका वेदन करता है। तत्पश्चात् दूसरी किट्टीकी दूसरी स्थितिमें स्थित दलिकका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाण कालके शेप रहने तक उसका वेदन करता है। तत्पश्चात् तीसरी किट्टी Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ सप्ततिकाप्रकरण की दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाणकालके शेप रहने तक उसका वेदन करता है । तथा इन तीनों किट्टियोंके वेदनकालके समय उपरितन स्थितिगत दलिकका गुणसंक्रमके द्वारा प्रति समय सज्वलनमानमें निक्षेप करता है। तथा जब तीसरी किट्टीके वेदनका अन्तिम समय प्राप्त होता है तब संज्वलन क्रोधके बन्ध, उदय और उदीरणाकी एक साथ व्युच्छित्ति हो जाती है। इस समय इसके एक समय कम दो आवलिका प्रमाण कालके द्वारा बँधे हुए दलिकोंको छोड़कर शेषका अभाव हो जाता है। तत्पश्चात् मानकी प्रथम किट्टीकी दूसरी स्थितिमें स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और एक अन्तर्मुहूर्त कालतक उसका वेदन करता है। तथा मानकी प्रथम किट्टीके वेदनकालके भीतर ही एक समय' कम दो आवलिका प्रमाण कालके द्वारा क्रोधसंज्वलनके बन्धका संक्रमण भी करता है । यहाँ दो समय कम दो आवलिका कालतक गुणसंक्रम होता है और अन्तिम समयमे सर्व संक्रम होता है। इस प्रकार मानकी प्रथम किट्टीका एक समय अधिक एक आवलिका शेप रहने तक वेदना करता है और तत्पश्चात् मानकी दूसरी किट्टीकी दूसरी स्थितिमें स्थित दलिकका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका कालके शेप रहने तक उसका वेदन करता है। तत्पश्चात् तीसरी. किट्टीकी दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका कालके शेष रहनेतक उसका वेदन करता है। इसी समय मानके बन्ध उदय और उदीरणाकी व्युच्छित्ति हो जाती है तथा सत्तामें केवल एक समय कम दो आवलिकाके द्वारा बँधे हुए दलिक' शेष रहते Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६९ चारित्रमोहनीयकी क्षपणा हैं शेषका अभाव हो जाता है। तत्पश्चात् मायाकी प्रथम किट्टी की दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और एक अन्तर्मुहूर्त कालतक उसका वेदन करता है। तथा मानके वन्धादिश्के विच्छिन्न हो जाने पर उसके दलिकका एक समय कम दो श्रावलिकाकालमें गुणसक्रमके द्वारा मायामें निक्षेप करता है। मायाकी प्रथम किट्टीका एक समय अधिक एक आवलिका शेप रहने तक वेदन करता है तत्पश्चात् मायाकी दूसरी किट्टीकी दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और उसका एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाण कालके शेप रहनेतक वेदन करता है । तत्पश्चात् मायाकी तीसरी किट्टीकी दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और उसका एक समय अधिक एक आवलिका कालके शेप रहने तक वेदन करता है। इसी समय मायाके वन्ध, उदय और उदीरणाकी एक साथ व्युच्छित्ति हो जाती है तथा सत्तामें केवल एक समय कम दो श्रावलिकाके द्वारा बँधे हुए दलिक शेष रहते हैं शेषका अभाव हो जाता है। तत्पश्चात् लोभकी प्रथम किट्टीकी दूसरी स्थितिमें स्थित दलिकका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और एक अन्तर्मुहूर्त कालतक उसका वेदन करता है। तथा मायाके वन्धादिकके विच्छिन्न हो जाने पर उसके नवीन बंधे हुए दलिकका एक समय कम दो आवलिका कालमें गुणसक्रमके द्वारा लोभमे निक्षेप करता है। तथा मायाकी प्रथम किट्टीका एक समय अधिक एक श्रावलिका कालके शेष रहने तक ही वेदन करता है। तत्पश्चात् लोभकी दूसरी किट्टीकी दूसरी स्थितिमें स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका कालके शेष रहने तक उसका वेदन Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० सप्ततिकाप्रकरण करता है। जब यह जीव दूसरी किट्टीका वेदन करता है तब तीसरी किट्टीके दलिककी सूक्ष्म किट्टी करता है यह क्रिया भी दूसरी किट्टीके वेदनकालके समान एक समय अधिक एक आवलिका कालके शेप रहने तक चालू रहती है। जिस समय सूक्ष्म किट्टी करनेका कार्य समाप्त होता है उसी समय सज्वलन लोभका बन्धविच्छेद, बादर कपायके उदय और उदीरणाका विच्छेद तथा अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थानके कालका विच्छेद होता है। तदनन्तर सूक्ष्म किट्टीकी दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और उसका वेदन करता है। इसी समयसे यह जीव सूक्ष्म सम्पराय कहा जाता है । सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानके काल में एक भागके शेष रहने तक यह जीव एक समय कम दो आवलिकाके द्वारा बँधे हुए सूक्ष्म किट्टी गत दलिकका स्थिति घातादिकके द्वारा प्रत्येक समयमें क्षय भी करता है। तदनन्तर जो एक भाग शेष बचा है उसमें सर्वापवर्तनाके द्वारा संज्वलन लोभका अपवर्तन करके उसे सूक्ष्मसम्परायके कालके बरावर करता है। यह सूक्ष्म सम्परायका काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है। यहाँसे आगे संज्वलन लोभके स्थितिघात आदि कार्य होना बन्द हो जाते है, किन्तु शेष कर्मोंके स्थितिघात आदि कार्य बराबर होते रहते हैं। सर्वापवर्तनाके द्वारा अपवर्तित की गई इस स्थितिका उदय और उदीरणाके द्वारा एक समय अधिक एक आवलिका कालके : शेष रहने तक वेदन करता है। तत्पश्चात् उदीरणाका विच्छेद हो जाता है और सूक्ष्म सम्परायके अन्तिम समय तक सूक्ष्म लोभका केवल उदय ही रहता है। सूक्ष्मसम्परायके अन्तिम समयमें ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी चार, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और अन्तरायकी पाँच इन सोलह प्रकृतियोका बन्ध Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रमोहनीयकी क्षपणा ३७१ विच्छेद तथा मोहनीयका उदय और सत्ताविच्छेद हो • जाता है। ___अब पूर्वोक्त अर्थका सकलन करनके लिये आगेकी गाया कहते हैं पुरिसं कोहे कोहं माणे माणं च छुहइ मायाए । मायं च छुहह लोहे लोहं सुहुमं पि तो हणइ ॥६४॥ अर्थ-पुरुपवेटका क्रोध, क्रोधका मानमे, मानका मायामें मोर मायाका लोभमें सक्रमण करता है। तथा सूक्ष्म लोभका स्वोदयसे घात करता है। विशंपार्थ -पुरुपवेदकी वन्धादिककी व्युच्छित्ति हो जाने पर उनका गुण सक्रमणके द्वारा सज्य जन क्राधमें मक्रमण करता है । सज्वलन क्राधके बन्धादिकको व्युच्छित्ति हा जाने पर उसका सज्वलन मानमें सक्रमण करता है । सचलन मानके बन्धादिककी व्युच्छित्ति हो जाने पर उसका सज्वलन मायाम मंक्रमण करता है। सज्जलन मायाके भी बन्धादिक की व्युच्छित्ति हो जाने पर उनका सज्वलन लोभमें सक्रमण करता है। तथा सज्वलन लोभके वन्धादिककी व्युच्छित्ति हो जाने पर मूक्ष्म किट्टीगत लोभका विनाश करता है। लोभका पूरी तरहसे तय हो जाने पर तदनन्तर समयमें क्षीणकपाय होता है। इसके क्षीणकपायके कालके बहुभागके व्यतीत होनेतक शेप कर्मोके स्थितिघात आदि कार्य पहलेके समान चालू रहते हैं। किन्तु क्षाणकपायके कालका जब एक भाग शेष रह जाता है तब (१) 'कोह च छुहइ माणे माण मायाए णियमा छुहह । माय च छुहर लोहे पडिलोमो संकयो त्यि ।।' क. पा. (क्षपणाधिकार ) Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ सप्ततिकाप्रकरण ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी चार, अन्तरायकी पाँच और निद्राद्विक इन सोलह प्रकृतियो की स्थितिका सर्वापवर्तनाके द्वारा अपवर्तन करके उसे क्षीण कषायके शेष रहे हुए कालके बरावर करता है । केवल निद्राद्विककी स्थितिको स्वरूपकी अपेक्षा एक समय कम रहता है । सामान्य कर्मकी अपेक्षा तो इनकी स्थिति शेष कर्मों के समान ही रहती है। क्षीणकपायके सम्पूर्ण काल की अपेक्षा यह काल यद्यपि उसका एक भाग है तो भी उसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त होता है । इनकी स्थिति क्षीणकपायके कालके बरावर होते ही इनमें स्थितिघात आदि कार्य नहीं होते किन्तु शेप कर्मों के होते हैं । निद्राद्विकके विना उपर्युक्त शेप चौदह प्रकृतियों का एक समय अधिक एक श्रावलि कालके शेप रहने तक उदय और ' उदीरणा दोनों होते हैं । तदनन्तर एक आवलि काल तक केवल उदय ही होता है । क्षीणक पायके उपान्त्य समयमें निन्द्राद्विकका स्वरूप सत्ताकी अपेक्षा क्षय करता है और अन्तिम समय में शेष चौदह प्रकृतियोका क्षय करता है । इसके अनन्तर समयमे यह जीव सयोगिकेवली होता है । वह लोकालोकका पूरी तरह ज्ञाता द्रष्टा होता है । जगमे ऐसा कोई पदार्थ नहीं, न हुआ और न होगा जिसे जिनदेव नहीं जानते हैं। अर्थात् वे सबको जानते और देखते हैं । इस प्रकार सयोगिकेवली जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृसे कुछ कम पूर्वकोटि काल तक विहार करते हैं । यदि उनके वेदी आदि तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म की स्थिति से अधिक होती है तो उनकी स्थिति आयुर्म के वरावर करने के लिये अन्तमें वे समुद्धात करते हैं और यदि शेष तीन कर्मोंकी स्थिति आयुकर्म के बराबर होती है तो वे समुद्धात नहीं करते । मूल शरीरको न छोड़कर आत्मप्रदेशोंका शरीर से बाहर निकलना समुद्धात कहलाता है। इसके Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुसद्धातोंका निर्देश ३७३ सात भेद हैं-वेदना समुद्घात. कपायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात, तैजससमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात, आहारकसमुद्घात और केवलिसमुद्घात । तीव्र वेदनाके कारण जो समुद्घात होता है उसे वेदनासमुद्धात कहते हैं। क्रोधादिकके निमित्तसे जो समुद्धात होता है उसे कषायसमुद्धात कहते हैं । मरणके पहले उस निमित्तसे जो समुद्घात होता है उसे मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं। जीवो अनुग्रह या विनाश करने में समर्थ तैजस शरीरको रचनाके लिये जो समुद्घात होता है उसे तैजससमुद्घात कहते हैं। वैक्रियशरीरके निमित्तसे जो समुद्घात होता है उसे वैक्रियसमुद्घात कहते हैं। आहारकशरीरके निमित्तसे जो समुद्घात होता है उसे आहारकममुद्घात कहते हैं। तथा वेदनीय आदि तीन अघातिकर्मों की स्थिति आयुकर्मके वरावर करनेके लिये केवली जिन जो समुद्घात करते हैं उसे केवलिसमुद्घात कहते हैं। इसमें आठ समय लगते हैं। पहले समयमें अपने शरीरका जितना वाहुल्य है तत्प्रमाण श्रात्मप्रदेशोंको ऊपर और नीचे लोकके अन्तपर्यन्त रचते हैं इसे दण्डसमुद्घात कहते हैं। दूसरे समयमें पूर्व और पश्चिम या दक्षिण और उत्तर दिशामें कपाटरूपसे आत्मप्रदेशोको फैलाते हैं। तोसरे समयमें उनका मन्थान समुद्घात करते है। चौथे समयमें लोकमे जो अवकाश शेष रहता है उसे भर देते हैं । पाँचवें समयमें सकोच करते हैं । छठे समयमें मन्थानका सकोच करते हैं। सातवें समयमें पुन. कपाट "अवस्थाको प्राप्त होते हैं और आठवें समयमें स्वशरीरस्थ हो जाते हैं। जो केवली समुद्घातको प्राप्त होते हैं वे समुद्घातके पश्चात् और जो समुद्घातको नहीं प्राप्त होते वे योगनिरोधके योग्य कालके शेप रहने पर योगनिरोधका प्रारम्भ करते हैं। इसमें सबसे पहले वादर काययोगके द्वारा वादर मनोयोगको रोकते हैं। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ सप्ततिकाप्रकरण तत्पश्चात् बादर वचनयोगको रोकते हैं। इसके बाद सूक्ष्म काययोगके द्वारा बादर काययोगको रोकते हैं। तत्पश्चात् सूक्ष्म मनोयोगको रोक्ते है। तत्पश्चात् सूक्ष्म वचनयोगको रोकते हैं। तत्पश्चात् सूक्ष्म काययोगको रोकते हुए सूक्ष्म क्रिया प्रतिपात ध्यानको प्राप्त होते हैं। इस ध्यानकी सामर्थ्यसे आत्मप्रदेश संकुचित होकर निश्छिद्र हो जाते है। इस ध्यानमे स्थितिघात आदिके द्वारा सयोगी अवस्थाके अन्तिम समय तक आयुकर्मके सिवा भवका उपकार करनेवाले शेप सब काँका अपवर्तन करते है जिससे सयोगिकेवलीके अन्तिम समयमें सव कर्मोंकी स्थिति अयोगिकेवली गुणस्थानके कालके बरावर हो जाती है। यहाँ इतनी विशेपता है कि जिन कर्मोंका अयोगिकेवलीके उदय नहीं होता उनकी स्थिति स्वरूपकी अपेक्षा एक समय कम हो जाती है किन्तु कर्म सामान्यकी अपेक्षा उनकी भी स्थिति अयोगिकेवली गुणस्थानके कालके बरावर रहती है। सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें कोई एक वेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कामण शरीर, छह सस्थान, पहला संहनन, औदारिक आंगोपांग, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात उच्छास, शुभ अशुभविहायोगति, प्रत्येक, स्थिर अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर और निर्माण इन तीस प्रकृतियोके उदय और उदीरणाका विच्छेद करके उसके अनन्तर समयमे वे अयोगिकेवली हो जाते हैं। अयोगिकेवली गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है। इस अवस्थामें वे भवका उपकार करनेवाले कर्मोंका क्षय करनेके लिये व्युपरतक्रियाप्रतिपाति ध्यानको करते हैं। वहाँ स्थिति घात आदि कार्य नहीं होते। किन्तु जिन कर्मोंका उदय होता है उनको तो अपनी स्थिति पूरी होनेसे अनुभव करके नष्ट कर देते हैं। तथा जिन प्रकृतियोका उदय नहीं होता उनका स्तिबुक संक्रम Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोगिकेवलीके कार्य ३७५ के द्वारा प्रतिसमय वेद्यमान प्रकृतियोमें संक्रम करते हुए अयोगिकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समय तक वेद्यमान प्रकृतिरूपसे वेदन करते हैं। अब अयोगिकेवलीके उपान्त्य समयमें किन प्रकृतियोका क्षय होता है इसे अगली गाथाद्वारा बतलाते है देवगइसहगयाओ दुचरमसमयभवियम्मि खीयंति सविवागेयरनामा नीयागोयं पि तत्थेव ॥६॥ अर्थ-अयोगी अवस्थाके उपान्त्य समयमे देवगतिके साथ बँधनेवाली प्रकृतियोका क्षय होता है। तथा वहीं पर जिनका अयोगी अवस्थामें उदय नहीं है उनका तथा नीचगोत्र और किसी एक वेदनीयका भी क्षय होता है। विशेषार्थ-जैसा कि पहले वतला आये हैं कि अयोगी अवस्थामे जिन प्रकृतियोका उदय नहीं होता उनकी स्थिति अयोगिकेवली गुणस्थानके कालसे एक समय कम होती है और इसलिये उनका उपान्त्य समयमे चय हो जाता है। किन्तु वे प्रकृतिया कौनकौन हैं इमका विचार वहाँ न करके प्रकृत गाथामे किया गया है। यहाँ बनलाया है कि जिन प्रकृतियोका देवतिके साथ बन्ध होता है उनकी, नामकी जिन प्रकृतियोका अयोगी अवस्थामें उदय नहीं होता उनकी तथा नीचगोत्र और किसी एक वेदनीयकी अयोगिकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समयमें सत्त्वव्युच्छित्ति हो जाती है। देवगतिके साथ बंधनेवाली प्रकृतियाँ दस हैं जो निम्नप्रकार हैं-देवगति, देवानुपूर्वी वैक्रियशरीर, वैक्रियवन्धन, वैक्रियसघात. वैक्रिय गोपाग, आहारक शरीर आहारकबन्धन, आहारकसंघात, आहारकागोपाग | गाथामें नामकर्मकी, Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ सप्ततिकाप्रकरण जिन प्रकृतियोंका अनुदयल्पसे संकेत किया है वे पंतालीस हैं। यथा-औदारिक शरीर, औदारिकवन्धन, औदारिकसंघात, तेजसगरीर. तेजसवन्धन तेजससंघात, कार्मण शरीर, कार्मणबन्धन, कार्मणसंघात, छह संस्थान, छह संहनन, औदारिक प्रांगोपांग वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, मनुष्यानुपूर्वी, परघात, उपघात, अगुनलघु. प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगवि,प्रत्यक, अपर्याप्त, उच्चास, थिर. अन्थिर शुभ अशुभ, सुस्वर, दुस्वर, दुर्भग, अनाय, अयश. कीर्ति और निर्माण | इनके अतिरिक्त नीचगोत्र और कोई एक वेदनीय ये दो प्रकृतियां और हैं। इस प्रकार कुल सत्तावन प्रकृतियाँ है जिनका अयोगी अवस्थाके उपान्त्य समयमें न्य हो जाता है। यहाँ वर्णादिक चारके अवान्तर भेद नहीं गिनाये इसलिये सत्तावन प्रकृतियाँ कही है। अब यदि इनमें वर्णादिक चारके स्थानमें उनके अवान्तर भेद सम्मिलित कर दिये जांच तो उपान्त्य समयमें तय होनेवाली प्रकृतियों की संख्या तिहत्तर हो जाती है। यद्यपि गाथामें किसी एक वेदनीयका नामोल्लेख नहीं किया है फिर भी गाथामें जो 'अपि' शब्द आया है उसके वलसे उमका ग्रहण हो जाता है। अब अयोगिकंवली गुणत्यानमें किन प्रकृवियोंचा उदय होता है यह बतलानेके लिये अगली गाथा कहते हैं___ अन्नयरवेयणीयं मणुयाउय उच्चगोय नव नामे । एइ अजोगिजिणो उनोस जहन्न एक्कारं ॥६६॥ __ अर्थ-अयोगी जिन स्कृष्ट से किसी एक वेदनीय, मनुघ्यायु, उच्चगोत्र और नामकर्मकी नो प्रकृतियां इस प्रकार इन बारह प्रकृतियोंका वंदन करते हैं। तथा इनमेंने तीर्थकर प्रकृतिके क्रम हो जाने पर जयलरूपसं ग्यारह प्रकृतियोंका वेदन करते हैं। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगकेवली कार्य ३७ विशेषार्थ - यह नियम है कि सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमे किसी एक वेदनीयकी उदय व्युच्छित्ति हो जाती है | यदि साताकी उदयव्युच्छित्ति हो जाती है तो अयोगी अवस्थामें असाताका उदय रहता है और यदि असाताकी उदयव्यच्छित्ति हो जाती है तो आयोगी अवस्थामे साताका उदय रहता है इसी बात को ध्यान में रखकर गाथामें 'अन्यतर वेदनीय' कहा है । दूसरे गाथामें उत्कृष्टरूपसे बारह और जघन्य रूपसे ग्यारह प्रकृतियोके उदय बतलानेका कारण यह है कि सब जीवोंके तीर्थकर प्रकृतिका उदय नहीं होता । जिन्होने तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया होता है उन्हींके उसका उदय होता है अन्यके नहीं, अत' अयोगी अवस्था में अधिक से अधिक वारह और कमसे कम ग्यारह प्रकृतियोका उदय बन जाता है । बारह प्रकृतियो का नामोल्लेख गाथामें किया ही है । अव अगली गाथा द्वारा अयोगी अवस्थामें उदय योग्य नामकर्मकी नौ प्रकृतिया बतलाते हैं मणुयगह जाइ तस वायरं च पजतसुभगमाइज । जसकित्ती तित्थयरं नामस्स हवंति नव एया ॥६७॥ ऋर्थ मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति और तीर्थकर ये नामकर्मकी नौ प्रकृतिया हैं जिनका प्रयोगी अवस्था में उदय होता है । मनुष्यानुपूर्वीकी सत्ता उपान्त्य समयतक होती है या अन्तिम समय तक आगे अगली गाथा द्वारा इसी मतभेदका निर्देश करते हैंतच्चापुव्विसहिया तेरस भवसिद्धियस्स चरिमम्मि । संतं सगमुकोसं जहन्नयं बारस हवंति ॥ ६८ ॥ - Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ सप्ततिकाप्रकरण अर्थ -- तद्भव मोक्षगामी जीवके अन्तिम समयमे उत्कृष्टरूपसे मनुष्यानुपूर्वी सहित तेरह प्रकृतियोकी और जघन्यरूपसे बारह प्रकृतियो की सत्ता होती है । विशेपार्थं - पहले यह बतला आये हैं कि जिन प्रकृतियोंका अयोगी अवस्थामें उदय नहीं होता उनकी सत्त्वव्युच्छित्ति उपान्त्य समय में हो जाती है । मनुष्यानुपूर्वीका उदय प्रथम, दूसरे और चौथे गुणस्थानमें ही होता है अतः सिद्धः हुआ कि इसका उदय योगी अवस्थामें नहीं हो सकता और इसलिये पूर्वोक्त नियम के अनुसार इसकी सत्त्व व्युच्छित्ति अयोगी अव स्थाके उपान्त्य समयमे वतलाई है । किन्तु अन्य आचार्यों का मत है कि मनुष्यानुपूर्वीकी सत्त्वव्युच्छित्ति प्रयोगी अवस्थाके अन्तिम समय में होती है । उपर्युक्त गाथामे इसी मतभेदका निर्देश किया गया है। पूर्वोक्त कथनका सार यह है कि सप्ततिका प्रकरणके कर्ताके मतानुसार मनुष्यानुपूर्वीका उपान्त्य समयमें क्षय हो जाता है इसलिये अन्तिम समयमें उद्यागत वारह या ग्यारह प्रकृतियोका हो सत्त्व पाया जाता है । तथा कुछ अन्य आचार्योंके मतानुसार अन्तिम समयमें मनुष्यानुपूर्वीका सत्त्व और रहता है ' अन्तिम समयमे तेरह या बारह प्रकृतियोका सत्त्व पाया जाता है । अन्य आचार्य मनुष्यानुपूर्वीका सत्त्व अन्तिम समयमें क्यो मानते हैं, आगे अगली गांथा द्वारा इसी बातका उल्लेख करते हैं - Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतभेदका उल्लेख Bioc मग सहगया भवखित्त विवागजीववाग चि । defणयन्नयरुवं च चरिमभवियस्स खीयंति ॥ ६९॥ अर्थ- मनुष्यगति के साथ उदयको प्राप्त होनेवालीं भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियाँ तथा कोई एक वेदनीय और उच्चगोत्र कुल मिला कर ये तेरह प्रकृतियाँ तद्भव मोक्षगामी जीवके अन्तिम समयमें क्षयको प्राप्त होती हैं। विशेषार्थ- - इस गाथा में बतलाया है। मनुष्यतके साथ उदयको प्राप्त होनेवाली भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी तथा कोई एक वेदनीय और उच्चगोत्र इन प्रकृतियो का प्रयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमे क्षय होता है । जो प्रकृतियों नरकादि भवकी प्रधानतासे अपना फल देती है वे भवविपाकी कही जाती हैं। जैसे चारो आयु । जो प्रकृतियाँ क्षेत्रकी प्रधाननासे अपना फल देती हैं वे क्षेत्रविपाकी कहलाती हैं। जैसे चारों आनुपूर्वी । जो प्रकृतियाँ अपना फल जीवमे देती हैं उन्हें जीवविपाकी प्रकृतियाँ कहते है। जैसे पाँच ज्ञानावरण आदि । प्रकृतमे भवविपाकी मनुष्यायु है । क्षेत्रविपाकी मनुष्यानुपूर्वी है। जीवविपाकी पूर्वोक्त नामकर्मकी नौ प्रकृतियों हैं। तथा इनके अतिरिक्त कोई एक वेदनीय और उच्चगोत्र ये दो प्रकृतियाँ और हैं। ( 1 ) गोम्मटसार कर्मकाण्डमें एक इसी मतका उल्लेख है कि मनुष्यानुपूर्वी की चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें सस्वव्युच्छित्ति होती है । यथा 'उदयगवार णराणू तेरस चरिमम्हि वोच्छिण्णा ॥ २४० ॥ किन्तु धवला प्रथम पुस्तकमें सप्ततिका के समान दोनों ही मतोंका उल्लेख किया है। देखो धवला प्रथम पु० पृ० २९४ । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. বিকাৰ্য इस प्रकार ये कल तेरह कृतियाँ हैं जिनका जय भवत्तिहिक जीव के अन्तिम समयमें होता है। पूर्वोक्त स्थानमा सार यह है कि मनुष्यानुपूर्वीचा जब भी उदय होता है तो वह मनुष्यगति के साथ ही होता है अतः उसका जय भी मनुष्यगतिके साथ ही होता है। इस व्यवन्याके अनुसार भवसिद्धिको अन्तिम समयमें तेरह या तीर्थकर ऋनिके विना बारह का नय होता है। किन्तु अन्य आचार्योंच्चा नत है कि मनुश्यानुपूर्वीचा अयोगी अवस्था में उदय नहीं होता अत: उसका अगंगी स्वस्थाके आन्न्य समयमें ही न्य हो जाता है। नी प्रकृतियाँ उजयवाली होती हैं उनका न्तिबुक मंकन नहीं होता अतएव उनके दलिक न्वन्वरूपसे अपने अपने उदयके अन्तिम समयमें दिगई देते हैं और इसलिये उनका अन्तिम समयमें जुत्ताविच्छेद होता है यह बात तो युक्त है, परन्तु चारों अनुपूर्वी क्षेत्र विपानी प्रकृतियाँ हैं उनका लक्ष्य केवल अपान्तराल गान में ही होता है इसलिये भवस्य जीवके उनका उच्य सन्भव नहीं और इसलिये मनुष्यानुपूर्वीच अयोना अवन्या अन्तिम नमयने सत्ताविच्छेद न होकर हिचरन ममग्न ही उनका सनाविच्छेद हो जाता है। पहले द्वित्ररन सनयनें जो मचावन रतियांका सचविच्छेन और अन्तिम समयमें जो वाह या तार्थ प्रकृतिक बिना ग्यारह प्रकृतियोंका चरिच्छेद बतलाया है वह इसी मतके अनुसार बतलाया है। इस बार अगगी वस्याले अन्तिमसमयमें कोचा नमूल नाश हो जानेचे पश्चात् क्या होता है इसका अगली नाथा द्वारा विचार करते हैं अह सुइयमयलजगसिहरमस्यनिस्वमसहावसिद्धिसुहं । अनिहणमबाबाई तिरयणसारं अणुहवंति ॥ ७० ॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसुखका निर्देश ३८१ अर्थ-कर्मोका क्षय होजानेके पश्चात् जीव एकान्त शुद्ध, सम्पूर्ण, जगमे जितने सुख हैं उन सबमें प्रधान, रोगरहित, उपमा रहित, स्वाभाविक, नाशरहित, वाधारहित और रत्नत्रयके सारभूत सिद्धि सुख का अनुभव करते हैं। विशेषार्थे इस गाथामे जब आत्मा आठो कर्मोंका क्षय हो जानेके पश्चात् मुक्त हो जाता है तब उसे कैसे सुखकी प्राप्ति होती है इसका विचार किया गया है। गाथामे सिद्धि सुखके नौ विशेपण दिये हैं। पहला विशेषण शुचिक है। मलयगिरि आचार्यने इसका अर्थ एकान्त शुद्ध किया है। भाव यह है कि ससारी जीवका सुख राग द्वेप से मिला हुआ रहता है। किन्तु सिद्ध जीवोके राग द्वषका सर्वथा अभाव हो गया है इसलिये उनके जो सुख होता है वह शुद्ध आत्मासे उत्पन्न होता है उसमें वाहरी वस्तुका सयोग और वियोग तथा उसमें इष्टानिष्ट क्ल्पना कारण नहीं पडती। दूसरा विशेपण सकल है जिसका अर्थ सम्पूर्ण होता है। बात यह है कि समार अवस्थामे जीवके कर्मोंका सम्बन्ध बना रहता है इसलिये एक तो इसे आत्मीक सुखकी प्राप्ति होती ही नहीं और कदाचित् सम्यग्दर्शनादिके निमित्तसे आत्मीक सुखकी प्राप्ति होती भी है तो भी व्याकुलताका अभाव न होनेसे वह किचिन्मात्रामे ही होती है किन्तु सिद्ध जीवोके सब बाधक कारण दूर होगये हैं अत: उन्हें पूर्ण सिद्धिजन्य सुख प्राप्त होता है। तीसरा विशेषण जगशिखर है। जिसका अर्थ है जगमें जितने सुख हैं सिद्ध जीवोंका सुख उन सबमें प्रधान है, वात यह है कि श्रात्माके अनन्त अनुजीवी गुणोमे सुख भी एक गुण है। अब जब तक यह जीव संसारमें वास करता है तब तक उसका वह गुण धातित रहता है । कदाचित् प्रकट भी होता है तो स्वल्पमात्रामे प्रकट होता है। किन्तु सिद्ध जीवोंके प्रतिबन्धक कारयोंके Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ सप्ततिकाप्रकरण दूर हो जानेसे पूरा सुख गुण प्रकट हो जाता है इसलिये जगमें जितने भी प्रकारके सुख हैं उनमे सिद्ध जीवोका सुख प्रधानभूत है यह सिद्ध होता है। चौथा विशेषण रोगरहित है । रोगादि दोपो की उत्पत्ति शरीरके निमित्तसे होती है। पर सिद्ध जीव शरीर रहित है। उनके शरीर प्राप्तिका निमित्त कारण कर्म भी दूर हो गया है, अतः सिद्ध जीवोका सुख रोगादि दोपोसे रहित है यह सिद्ध होता है। पाँचवॉ विशेपण निरुपम आया है। बात यह है कि प्रत्येक गुण धर्म दूसरे गुणधर्मोसे भिन्न हैं। उसके स्वरूप निर्णयके लिये हम जो कुछ भो दृष्टान्त देकर शब्दो द्वारा उसे मापने का प्रयत्न करते हैं उस मापने को उपमा कहते हैं। उप अर्थात् उपचारसे या नजदीकसे जा माप करने की प्रक्रिया है उसे उपमा कहते हैं। भाव यह है कि प्रत्येक गुणधर्म और उसकी पर्याय दूसरे गुणधर्मोसे या उसी विवक्षित गुणधर्मकी अन्य पर्यायसे भिन्न है अतः थोड़ी बहुत समानताको देखकर दृष्टान्त द्वारा उसका परिज्ञान कराया जाता है इसलिये इस प्रक्रियाको उपमामें लिया जाता है। परन्तु यह प्रक्रिया उन्हीं में घटित हो सकती है जो इन्द्रियगोचर है। सिद्ध परमेष्ठीका सुख तो अतीद्रिय है इसलिये उपमा द्वारा उसका परिज्ञान नहीं हो सकता। उसे यदि कोई भी उपमा दी जा सकती है तो उसीकी दी जा सकती है। संसारमे तत्सदृश ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसकी उसे उपमा दी जा सके इसलिये सिद्ध परमेष्ठीके सुखको अनुपम कहा है। छठा विशेपण स्वभावभुत है। इसका यह आशय है कि जिस प्रकार संसारी सुख कोमल स्पर्श, सुस्वादु भोजन, वायुमण्डल को सुरभित करनेवाले नाना प्रकार के पुष्प, इत्र, तैल आदि के गन्ध, रमणीय रूपका अवलोकन, मधुर संगीत आदिके निमित्तसे उत्पन्न होता है सिद्ध सुखकी वह बात नहीं है किन्तु वह आत्मा Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ अन्तिम वक्तव्य का स्वभाव है। सातवाँ विशेपण अनिधन है। इसका यह भाव है कि सिद्ध पर्याय की प्राप्ति हो जानेके पश्चात् उसका कभी नाश नहीं होता। उसके स्वाभाविक अनन्त गुण सदा स्वभावरूप से स्थिर रहते हैं। उनमें सुख भी एक गुण है अत उसका भी कभी नाश नहीं होता। आठवॉ विशेषण अव्यावाध है। जो अन्यके निमित्तसे होता है या अस्थायी होता है उसीमे वाधा उत्पन्न होती है। परन्तु सिद्ध जीवोका सुख न तो अन्यके निमित्त मे ही उत्पन्न होता है और न कुछ काल तक ही टिकनेवाला है। वह तो आत्माका अनरायी और सर्वदा व्यक्त रहनेवाला धर्म है इसलिये उसे अन्यावाघ कहा है। आखिरी विशेषण निरत्नसार है। आखिर ससारी जीव रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र की आसना किस लिये करता है। इसीलिये ही कि इसकी उपासना द्वारा वह निराकुल अवस्थाको प्राप्त करना चाहता है। सुखकी अभिव्यक्ति निराकुलतामें ही है । यही सबब है कि यहाँ सुखको रत्नत्रयका सार बतलाया है। उपमंदार गाथादुरहिगम-निउण-परमत्थ-रुहर-बहुभंगदिठिवाया। अत्था अणुसरियव्या बंधोदयसंतकम्माणं ॥७१।। अर्थ-दृष्टिवाद अङ्ग अति कष्ट से जानने योग्य है, सूक्ष्म बुद्विगम्य है, यथावस्थित अर्थका प्रतिपादन करने वाला है आह्नादकारी है और अनेक भेदवाला है। जो वन्ध, उदय और सत्तारूप कर्माको विशेषरूपसे जानना चाहते हैं उन्हें यह सब इससे जानना चाहिये। विशेषार्थ-ग्रन्थकर्ता ने यह ध्वनित किया है कि यद्यपि हमने यह मप्ततिका प्रकरण दृष्टिवाद अङ्गके आधारसे लिखा है फिर भी वह दुरधिगम है । सब कोई उसका सरलतासे अध्ययन नहीं कर सकते। जिनकी बुद्धि सूक्ष्म है वे ही उसमें प्रवेश पावे Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ सप्ततिकाप्रकरण हैं। माना कि उसमें यथावस्थित अर्थका ही सुन्दरतासे प्रतिपादन किया गया है पर उसके अनेक भेद प्रभेद हैं अत: पूरी तरह उसका मथन करना कठिन है । इसलिये हमसे जितना वन सका उसके अनुसार उसका अध्ययन करके यह ग्रन्थ निबद्ध किया है। जो विशेष अर्थके जिज्ञासु हैं वे उसका अध्ययन करें और उससे बन्ध, उदय और सत्तारूप कर्मों के भेद प्रभेदोंको समझ लें। अब अपनी लघुताता को दिखलानेके लिये आचार्य अगली गाथा कहते हैं जो जत्थ अपडिपुन्नो अत्थो अप्पागमेण बद्धो त्ति । तं खमिउण बहुसुया पूरेऊणं परिकहंतु ॥ ७२ ।। अर्थ--चू कि मैं अल्प आगम का नाता हूँ या यह आगम का संक्षेप है इसलिये मैंने जिस प्रकरणमें जितना अपरिपूर्ण अर्थ निवद्ध किया है वह मेरा दोष है अतः बहुश्रुत जन मेरे दोपको क्षमा करके और उस अर्थ की पूर्ति करके कथन करे। विशेषार्थ--इस गाथामें अपनी लघुता प्रकट करते हुए आचार्य लिखते हैं एक तो मैं अल्पज्ञ हूँ या यह ग्रन्थ आगमका संक्षेप हैं। इस कारणसे बहुत सम्भव है कि इस ग्रन्थमे मैंने जो विषय विवेचन की शृङ्खला वाँधी है वह स्खलित हो। यद्यपि यह जान बूझकर नहीं किया गया है पर ऐसा होना सम्भव है अतः यह मेरा अपराध है। किन्तु जो वहुश्रुत जन हैं वे मेरे इस दोषको भूल जायें । यदा कदाचित् न भूल सकें तो नमा करें। और जिस प्रकरणमें जो कमी दिखाई दे उसे पूरा कर ले। * हिन्दी व्याख्या सहित सप्ततिकाप्रकरण समाप्त * Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दीव्याख्यामहित सप्ततिकाप्रकरणके परिशिष्ट Page #468 --------------------------------------------------------------------------  Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सप्ततिका प्रकरण की गाथाओं का अकारादि अनुक्रम १५६ २३२ १ २६२ श्रवणत्तीसेछारम अगमत्तगछच्चर अह य बारलअहविहसत्तछअहसु एगविगप्पो असु पचसु एगे अन्नयरवेयणीयं मह सुइयसयल १५६ | एग वियालेक्कारस६५ / एग सुहममरागो ऐगेगमह एगेग१५, एगेगमेगतीमे एसो उ वधसामित्त १६० कह बंधतो यह MM ३७६ ३८. गुणठाणगेसु असु १३१ ३३० १३५ इग विगलिंदिय पगले इगुसटिमप्पमत्तो इत्तो चम्बधाई इय कम्मपगइ चर पणवीसा सोलस चत्तारमाइ नव ३१९ २६२ ३२२ छण्णव छक्क तिग उव्यावीसे चठ छायालसेसमीसो उढयस्सुटीरणाए स्वरयवधे चव 'त्यसते चर पण ३२८ २३६ ૩૮૪ ६४ एकगठक्ककारसएक छठेकारका एक व दो व चउरो जोगोवओगलेसा जो जत्य अपदिपुलो २३५ ६२ | तच्चाणुपुचिसहिया Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } ३८८ तिण्णेगे एगेगं तित्थगर देवरिया तित्थगराहारग दुई गुन तिने यावी तिविगप्पपगहू तेरससु जीव तेरे नव चउ तेवीस पण्णवीसा दसनवपन्नरसाई दस बावीसे नव दुरहिगमनित्रणदेवग इस गयाओ दो च नवसीयसहि नवपंचाणउस नवपचोदयता द पंचविच विसुं न नाणंतराय तिविहनाणंतराय सगं प सप्ततिकाप्रकरण पृ० २५६ पढम कसाय- ३३६ पठम कसाथ ३२६ पणदुग पणगं १६० | पुरिस कोहे कोह १०७ १८१ १८२ १८४ १२४ १२३ ७८ ३८३ ३७५ २९७ १०२ ६८ ૧૬ ૨ २१९ ३२४ १०७ वधस् य संतस्ल बंधोदयसतसा बावीसा एकूण ब म मणुयगड़ जाइ मणुयगइ सह मिस्साइ नियट्टीभो व वावीस एकवीसा fare भोaafor वीयावरणे नवबंध वीसिगवीसा वड स सत्तट्ठवघअडुमत्ते अपज्जत्ता सतस्स पगइठालाई सत्ताई दस व मिच्छे सिद्धएहिं महत्थं पृ० પહ ३३७ १६५ ३७१ २८ २६ ३३१ ३७७ ३७५ २२० د. १७ २३२ ૩૨ १३९ १९ १९५ L ૨૩૧ , | Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ अन्तर्भाष्य गाथा-सूची पज्जत्तगमन्नियरे अन चटक्क च वेयणियभंगा। मतग तिगं च गोए पत्तेयं जीवठाणेसु ॥ १ ॥ पज्जत्तापज्जत्ता समणे पज्जत्त अमण सेसेसु । अठावीसं दसग नवग पणग च आवस्स ॥२॥ च: छस्सु दोषिण सत्तसु एगे चड गुणिसु वेयणियमगा। गोप पण चट दो तिसु एगऽसु दोषिण एम्मि ॥ ३ ॥ अठच्छाहिगवीला सोलम वीस च वार छ दोसु । दो चउसु तीसु एक्क मिच्छाइसु आउगे भगा ॥ ४ ॥ वारसपणसमया उदयविगप्पेहि मोहिया जीवा । चुलसीईसत्तत्तरिपबिंदसएहि विनेया ॥५॥ अट्ठा चर चर चरगा य चतरो य होति चवीसा । मिच्छाइ अपुवत्ता वारस पणग च अनिय? ॥ ६ ॥ भटही बत्तीस बत्तीस सठिमेव पावन्ना । चोयाल चोयालं वीसा दि य मिच्छभाईसु ॥ ७॥ घउ पणत्रीमा मोलम नत्र चत्ताला मया य वाणग्या । बत्तीसुत्तरछायालसया मिच्छस्स बन्धविही ॥४॥ भट्ट य सय चोवहिं बत्तीस सपा य सासणे भेया। अट्ठावीसाईसु सन्वाणऽहिंग छण्णई ॥ ९ ॥ बत्तीस दोन्नि अह य बासीयसया य पंच नच उदया। घारहिगा तेवीसा बावन्नेक्कारस सया य॥ १०॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ अनुवाद तथा हिन्दी टिप्पण में उद्धत अवतरणाका अकारादि अनुक्रम उदघृत वाक्य पृ. उदरत वाक्य पृष्ट १.५ २४५ १३१ अच्छाहिगवीसा श्रदा एक्क एक्कक अब चव चर अट्ठी बत्तीप्त अट्ठय सयचोटिंठ अडचउरेक्कावीसं अणदसणपुसित्थी श्रा श्रासाण वा वि गच्छेज्जा पृ० । ६४ | कयाइ होल इत्यि | कपायवनान्त, २६६ गुणतीसे तीसे विय २७४ | गइथा पजत्ता घर छस्सु दोणि चपदस य सहचउ पणवीसा सोलह चरवीसविहत्ती केव. चतुर्विधबन्धकस्या२५१ चतुर्विधवन्धक चरितुवसमण का १७३ / चत्तारि वीस सोलस १११, ३४४ २२४ २४३ ३७९ ९२ उदयगवार णराणू उदयाणुवभोगेसुं उवसमसम्माइट्ठी स्वसंतिमओ न मिच्छो ११४ १२७ एक्कवीसाए विहत्ती एगट अ विगलिएगेदियदएसु एगवीला तिरिक्खेसु. ७२ | छब्बीसविहत्ती केव१२६ १४२ / लस्स तित्यगराहार११५/ जे वेयइ ते बघह - Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ उदर वाक्य पृष्ट णवरि वारसाह विहत्ती ३ परिशिष्ट पृष्ट । उहत वाक्य पणवीससत्तवीलोपणुवीसयम्मि एक्को पन्नास च सहस्सा १४४ ब ૨૭ बत्तीस दोनि अछ य वारसपणसठसया भ | भूदयलिभयवंतस्सु २०२ १३३ २५३ २७६ २३६ तिग तिग दुग चउछ तिगहीणा तेवन्ना तित्याहारा जुगव तिदुइगिणग्दी पदी विसु भाउगेसु पन्द्रसु तुच्छा गारवबहुला तेजवाजवज्जो १६० २० ૨૪૨ १६६ मनकरणं केवलिणो १०५ द्विकोदये चतुर्विशतिदुगमेगं च य स देवा नारगा वा ९५ यतो युग्मेन वेदेन । ११६ | वीसादीणं भंगा इगिवेविषयछक्क उव्व. १५६ १६६ नो सुहमतिगेण जसं १२६ २४८ पंचण्ड वि केइ पंचह विहन्तिो पजत्तसनियर पजत्तापजत्तग पठ्यगो उमणूसो सत्तरसा सससया सत्तावीसाए विह११० समत्तगुणनिमिर १८५ सामन्नेण वयजाईए १८७ ११९, ३६३ । हुर्ड असपत्त व १६४ ૨૨૬ " ३० - Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ दिगम्बर परम्पराकी सित्तरी [दिगम्बर परम्परामें प्राकृत पंचसंग्रहका सित्तरी एक प्रकरण है। टममें मायगाथाओंके साथ इस प्रकरणी पाँचसीसे कुछ अधिक गाथाएँ है। पाठकों की जानकारी के लिये मलपकरण यहाँ दिया जा रहा है। इससे उन्हें दोनों परम्पराओं के सित्तरी प्रकरणमें कहाँ कितना अन्तर है इस वातके जानने में सुविधा होगी। इस सित्तरीके मूलरूपने निश्चित करने का यह अन्तिम प्रयत्न न होकर प्रथम प्रयत्न है, पाठक 'इतना ध्यान रखें। ] सम्पादक मिटुपदेहि महत्व बंधोदयमंतपयदिडाणानि । वोच्छं सुण सम्वेवं णिरसद निटिव्वादादो ॥ १॥ कदि वर्धती वेदि कदि कदि वा पढिठाणकामंसा । मूलुत्तरपयढीसु य भंगवियप्या दु बोहवा ॥२॥ अहिवहसत्तबधगेमु अष्टेव न्दयकम्मंसा । एगविहे तिविगप्पो एगविगप्यो भवं धम्मि ॥३॥ सतहवंच अट्टोटयंस तेरससु जीवठाणेतु । एल्छन्मि पंच मंगा दो मंगा होति केवलिणो॥४॥ महमु एयवियप्पो छासु वि गुणपिणदेसु दुधियप्यो । परोयं पत्तेयं बंधोदय तामागं ॥2॥ (१) मेरे मित्र पं० हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्रीको कृपासे पंचाग्रह को हमें एक ही प्रति मिल सकी। प्रयत्न करने पर भी हम इसरी प्रति प्राप्त नहीं कर सके । इसलिये नहाँ मूल गाथा शब्द या व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धि प्रतीत हुई वहाँ हमने ययासम्मव उसका सुधार कर दिया है । -सम्पादक Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ ४ परिशिष्ट बंधोदयकम्मंसा णाणावरणतराइए पच। पंधोवरमे वि तहा वदयमा हॉति पंचेव ॥ ६ ॥ णम छक्क पत्तारि य सिपिण य ठाणाणि ६सणावरणे । बंधे सते टए दोणि य चत्तारि पच वा होति ॥ ७ ॥ समयमधे सते मता णव होति छच खीणम्मि | वीणते संतुदया घर तेसु चारि पंच वा उदयं ॥८॥ गोदेसु सत्त भगा भह य भगा हवति वेयणिए । पण णव पण व सपा पारचाके वि कमसो दु॥६॥ रासमेधावीस गत्तारस तेरसेव नव पच । घर तिय दुय च एय बाणाणि मोहम्स ॥ १०॥ उम्बावीसे घर इगयोपे सत्तरम तेर दो दोसु। णवधए यि टोणि य पुगेगमदो पर भगा ॥ ११ ॥ एक व दो य चत्तारि तटो एगाधिया दसुक्यास्सा। ओघेश मोहणिजे उदयद्वाणाणि णव होति ॥ १२॥ पठयमत्तयरमयचत्तियदुयएयअहियवीसा य । तेरम वारेयारं एत्तो पचादि एगण ॥ १३ ॥ सतस्स पयदिठाणाणि ताणि मोहस्म होति पण्णरस । बंधोदयसते पुणु भंगवियप्पा बहु जाणे ॥ १४ ॥ यावीसादिसु पंचसु दमादि वदया हवति पंचेव । सेमे दु दोणि एग एगेगमदो पर णेयं ॥ १५ ॥ णवपचाणदिसपहुदयविगप्पेहि मोहिया जीवा । जणत्तरिएयत्तरिपयवधमएहि विष्णेया ॥ १६ ॥ श्रादतियं वावीसे इगिवीसे अनीस कम्ममा । सत्तरस तेरम णव बंधए अडचउतिगदुगेगहियवीसा ॥१७॥ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ सप्ततिकाप्रकरण पंचविहे अडचउएगहियवीसा तेरवारसेगारें। चउविहबधे सता पहिया होति ते चेव ॥ १८ ॥ सेसेषु अबंधम्मि य संता अडचउरएगहियवीसा । ते पुण अहिया णेया कमसो चातियदुगेगेण ॥ १९ ॥ दसणवपण्णरसाइ बंधोदयसंतपयडिठाणाणि । भणियाणि मोहणिजे इत्तो णाम पर वोच्छं ॥ २० ॥ तेवीसं पणुवीसं छब्बीस अवीस मुगुतीस । तीसेक्कतीसमेगं बघाणाणि णामस्स ॥२१॥ इगिवीसं चउवीसं एतो इगितीसयं ति एयहिय । उदयट्ठाणाणि तहा णघ भट्छ य होति णामस्स ॥ २२ ॥ तिदुइगिणसदि णादि भहच दुगहियमसीदिमसीदि च । उणसीदि अत्तरि सत्तत्तरि दल य णव संता ॥ २३ ॥ भठेगारस तेरस बधोदयसंतपयडिठाणाणि । ओघेणादेसेण य जत्थ जहासभवं विभजे ॥ २४ ॥ णव पचोदयसंता तेवीसे पचवीस छब्बीसे । अउचठरठवीसे णव सत्तुगुतीस तीसम्मि ॥२५॥ एगेगं इगितीसे एगेगुदय संतन्मि । उवरयबंध चपदस वेदयसतम्मिाणाणि ॥२६॥ तिवियप्पपयडिहाणा जीवगुणसण्णिदेसु ठाणेसु । भंगा पजियव्वा जत्थ जहा पयडिसंभवो हवह ॥ २७ ॥ तेरससु जीवसंखेवएसु गाणंतराय तिवियप्पो । एक्कम्मि तिदुविगप्पो करण पडि एत्य अविगप्पो । २८ ।। तेरे णव चट पणयं णव संता एयम्मि तेरह वियप्पा । वीयणीयोगोदे विभज मोहं पर वोच्छं ॥ २६॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ परिशिष्ट असु पंचसु एगे एय दुय दस य मोहबधगए । तिय च णव उदयगटे तिय तिय पण्णरस सतमिम ॥ ३०॥ सरोव भपजत्ता सामी तह सुहुम वायरा चेव । विगलिंदिया तिनि दुतहा असण्णी य सगी य ॥ ३१ ॥ पणय दुय पणय पणय चटु पण बधुदय सत पणयं च । पण छक्क पणय छ छक्क पणय अ मेयारं ॥ ३२॥ णाणावरणे विग्धे वधोदयसंत पच ढाणाणि ।। मिच्छाइ दसगुणेसु खीणुवसंतेमु पच सतुदया ॥ ३३ ॥ णव उक्क पत्तारि य तिणि य ठाणाणि दसणावरणे । बधे सते उदए दोषिण य चनारि पच वा होति ॥ ३४ ॥ अवरयबंधे सते सत णव होति उच्च वीणमिम । खीणते संतुदया चर तेसु चयारि पच वा उदय ॥ ३५॥ वायाल तेरसुतरसदं च पणुबीसय वियाणाहि । वेदणियाउगगोदे मिच्छाइ अजोगिण भगा ॥ ३६ ॥ गुणाठाणपसु अठ्ठ एगेग वधपयदिठाणाणि । पंचणियटिठठाणे वधोवरमो पर तत्तो ॥ ३७॥ सत्ताइ दस : मिच्छे सासायण मीसए णवुक्कोसा। छादी अविरदसम्मे देसे पचादि अछेव ॥ ३८ ॥ विरए खयोवसमिए चउरादि सत्त प्रक्कसं छ णियष्टिम्मि । अणियट्टिवायरे पुण एक्को वा दो व उदयंसा ॥३९॥ एगं सुहुमसरागो वेदेदि अवेदया भवे सेसा । भंगाण च पमाणं पुन्वुहिठेण णायव ।। ४० ॥ एक्क य छक्केगार एगारेगारसेव णव तिणि । एदे घरवीलगदा वारस दुगे पंच एगम्मि || ११॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण जे जत्य गुणा उदया जाओ य हवति तत्य पयढीओ। जोगोवओगलेसादिएहि जिह जोगते गुणिजाहि ॥ १२ ॥ लिगेगे एगेगं दो मिस्से पच चदुणियहोए तिणि । तस वादरम्मि सुहुमे चत्तारि य तिषिण उबसते ॥ ३ ॥ छण्णव उत्तिय यत्त य एग दुय तिय दुतिय पहुँ। दुध दुभ चउ दुब पण चर चदुरेग चदुपणगेग चढुंगा एगेगमठ एगेगमछदुमत्य केवलिजिणाणं ।। एग चदुरेग चदुरो दो चहु दा मुदयसा ।। ४५ ॥ दो छक्कचठक्क' गिरयादिसु पयडिबंधठाणाणि । पण एव दमयं पणय ति पच वारे चक्क च ।। ४६ ।। इगि वियलिदिर सयले पण पर अड़ बवठाणाणि । पण हक्क दस ५ उदए पण पण तेरे दु संतम्मि ।। ४७ ।। इय कम्मपयडिठाणाणि सुटु वधुव्यसंतकम्माण । गदिआदिएर असु घटप्पयारेण याणि ॥ १० ॥ उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तानो ण विनति विमेसो । मोत्तूण य इगिटालं सेलाणं सवपयडीणं ॥ ४६ ।। गाणंतरायदसयं दंसण णव चेरणीय मिच्छत्तं । सम्मत्त लोम वेगाउगाणि गव णाम उच्च च ॥ ५० ॥ तित्ययराहारविरहियाउ अलेदि सन्त्रपयहोओ। मिच्छत्तवेदओ सासणो य गुवीससेसाओ ।। ५१ ॥ छायाललेस मित्सो अविरयसम्मो विदालपरिससा । तेवण्णा देसविरदो विरदो सगवण सेमाओ ।। ५२ ॥ गुमटिङ्मप्पमत्तो बंघह देवाटगं च इयरो वि। अटहावएणमपुछो उप्पणं चावि छन्वीसं ।। ५३ ॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ វិ । परिशिष्ट वासीसा एगण बंधह अहारसंच अणियष्टी। सत्तरस सुहुममरामओ सायमरसेहो दु सजोई दु॥५४॥ एसो दु बंधसामित्तोपो गदिक्षादिएसु वोहन्यो । ओघाश्रो साहेज्जो जत्थ जहा पयढिसमवो होइ ॥ ५५ ॥ तित्थयरदेवणिरयाउगं च तीसु वि गढीसु वोहव्व । अवसेसा पयडीमो हवनि सव्वासु वि गदीम् ॥ ५६ ॥ पढमकसायचठक्कं दसणनिय सतया दु' उवसंता। अविरयसम्म सादी जाव णियहि त्ति णायव्वा ॥ ५७ ॥ सत्तावीसं सुहुमे भट्ठावीस च मोहपयडीओ। ववसतवीयराए स्वसता होति णायव्वा ॥ ५८ ॥ पढमकसायचउक्क एसो मिच्छत्त मिस्स सम्मत् । अविरद सम्मे देसे विरद अपमत्ते य खीयति ॥ ५९ ॥ भणियहिवायरे थीणगिद्धितिग गिरय तिरियणामाभो । संखेजदिमे सेसे तप्पाओग्गा य खीयति ॥ ६॥ एतो हणदि कसायव्यं च पच्छा णसय इत्थी । तो णोकसायछक्कं पुरिसवेदम्मि सछुहइ ॥ ६१॥ पुरिस कोहे कोहं माणे माण च छुहइ मायाए । माय च छुहद लोहे लोह सुहमम्मि तो हणइ ॥ १२॥ वीणकसायदुचरिमे णिहा पयला य हणइ छदुमत्यो । णाणतरायदसयं दसणवत्तारि चरिमम्हि ॥ ६३ ।। देवगइसहगयाओ दुचरिमभवसिद्धियम्हि खीयंति । सविवागेदरमणुयगइ णाम णीचं पि एत्येव ॥ ६४ ॥ अण्णयरवेयणीयं मणुयाज उच्चगोय णाम णव | चेदेदि भजोगिजिणो धक्कस्य जहण्णमेयार ॥६५॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ सप्ततिकाप्रकरण मणुयगई पंचिदिय वस वायरणाम सुमगमादिज्जं । पन्ज जसकित्ती तित्ययरं णाम णव हॉति ।। ६६ ॥ मणुयाणुपुब्बिसहिया तेरसमवसिद्धियस्स चरमते । संतस्स दु उक्कस्सं जहण्णयं बारसा होति ॥ ६७ ॥ मणुयगइसहगयाओ भवखेत्तविवायजीववागा य । वेदणियण्णदरच चरिमे भवसिद्धियस्स खीयंति ॥ ६८॥ अह सुठियसयलजयसिहरमरयणित्वमसहावसिद्धिसुखं । अणिहगमवावाहं तिरयणसारं अणुइवति ॥ ६ ॥ दुरधिगमणिटणपरमहरुडरबहुभंगदिदिठदादाओ। भत्या अणुमरियम्वा बंधोदयसंतनम्माण ॥ ५० ॥ जो एत्य भपदिपुण्णो अत्यो अप्पागमेण रहो चि । तं खमिजण बहुसुया पूरेजणं परिकाहंतु ॥ ७१ ॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. अनुवादगत पारिभाषिक शब्दोंका कोश ૨૪રૂ ३७३ ५,१०,१३ ३२० ३२० अनिवृत्तिकरण अनुमाग अनुयोगद्वार अन्तर ( अनु०) अन्तकरण अपूर्वकरण प्रवन्धकाल अल्पवहुत्व अग्रेणिगत ३४२ । करण ३१९ कपायसमुद्धात काल ३२१, ३४३ काल भनुयोगद्वार ३४३ केवलिसमुद्धात क्षपकश्रेणि क्षय क्षेत्र अनुयोगद्वार क्षेत्रविपाकी રૂ૭રૂ ३३७ ८५ ३२० श्रा ३४८ आगाल आहारसमुद्धात ३७३ गुणश्चेणि गुणसक्रय गुणस्थान ३४२ ३,३२२ ३७९ उदय उदयविकल्प उदयस्थान उदीरणा उपरतबन्धकाल उपशमश्रेणि ९ जीवविपाकी ३२२ | जीवसमास ४३-४३ ३३७ / तैजससमुद्धात ३७३ (१) यहाँ ऐसे ही शब्दोंका सग्रह किया गया है जिनकी परिभाषा है । जिनके विषयमें विशेष कुछ कहा गया है। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाप्रकरण दण्डसमुद्रात द्वितीयस्थिति द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ३७३ / यत्रतत्रानुपूर्वी ३४४ यथाप्रवृत्तकरण ६२ रसघात ३४१ ८१,३४५ ३७३ ३५३ पतग्रहप्रकृति पद पदवृन्द पश्चादानुपूर्वी पूर्वानुपूर्वी प्रकृति प्रकृतिपिकल्प प्रकृतिस्थान प्रथमस्थिति ३४४ ३ प्रदेश विसंयोजना वेदनाममुद्धात वैक्रियसमुद्धात श ३१९ श्रेणिगत १०० सत्ता सत्तास्थान ३१६ सदनुणोगद्वार सम्यक्त्व सम्यमिथ्यात्व सान्तरस्थिति सिद्धपद सिद्धिसुग्व सख्या अनुयोगद्वार सवेध ३२१ स्पर्शन अनुयोगद्वार ३७३ स्थान स्वामी ३२० स्थिति 1३५८ | स्थितिघात ३४० ३४८ ३,४४ १२,३ वन्ध वन्धकाल बन्धस्थान भ भवविपाकी भावभनुयोगद्वार ३८१ ३७९ मारणान्तिक समुद्धांत मार्गण मार्गणा मिथ्यात्व ३१६ ६,१०,१३ ३१९ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सप्ततिका अनुवाद, टिप्पणी तथा प्रस्तावनामें उपयुक्त ग्रन्थोंकी सूची तथा संकेत विवरण अ० पच सं० -- अमितगतिका पचसंग्रह, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई । 钻 श्राप्तमीमांसा - जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता | श्री० नि० - आवश्यक नियुक्ति, आगमोदय समिति सूरत । क० पा० } कसायपाहुड, अप्रकाशित । कसाय० क० पा० चु० कलाय चु० कसाय० चुपि कमायपाहुड चुणि, अप्रकाशिन 1 कर्म प्रकृति कर्मप्र० उद० -- कर्मप्रकृति उदय कर्मप्र० उ०—- कर्मप्रकृति उदारणा कमंप्र० उप० - कर्मप्रकृति उपशमना कर्म प्र० बन्धोद० - फर्मप्रकृति बन्धोदयसव f सुक्काबाई ज्ञानमन्दिर भोई। कर्मस्तव -- आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल भागरा । गो० कर्म० - गोम्मटसार कर्मकाण्ड, रायचन्द्र जैन, शास्त्रमाला चम्बई । गोमट्ठसार जीवकाण्ड 99 चूर्णि - पूर्णिसहिता सित्ती, पाटन गुजरात । जयध० --- जयधवला अप्रकाशित । 59 37 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ सप्ततिकाप्रकरण जी० चू० द्वा०1 जीवस्थान चूलिका स्थानसमुत्कीर्तन जैन साहित्योजी० चू० । द्वारक फण्ड अमरावती । त० सू०- तत्वार्थसूत्र सूरत । द्रव्य०-द्रव्यसंग्रह , धवला- ) अप्रकाशित धव० उद० आ० धवला उदय, आरा प्रति अप्रकाशित धव० उदी० आ०) , उदीरणा, " " पंचसंग्रह प्राकृत-अप्रकाशित । पंचसंग्रह सप्ततिका, मुक्कावाई ज्ञानमन्दिर उभोई पञ्चसं० सप्तति पं० क० ग्रंक-पंचम फर्मग्रन्थ, श्रात्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मंडल आगरा। पंचास्तिकाय-रायचन्द्र शास्त्रमाला वम्बई। प्रकरणरत्नाकर-प्रकाशक श्री भीमसी माणक बम्बई । प्रज्ञापनाप्रमेयकमलमार्तण्ड-निर्णयसागर प्रेस, बम्बई । प्रवचनसार-रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बई । मल० सप्त० टी०-मलयगिरि सप्तति टीका, श्री जैन आत्मानन्द सभा भावनगर । मोक्षमार्गप्रकाश-मनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला बम्बई। राजवार्तिक-तत्वार्थ राजवार्तिक, जैन सिद्धान्तप्रकाशनी संस्था कलकत्ता। रामचरितमानस-बनारस । विशेषणवती-श्वेताम्बर सस्था रतलाम | Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६परिशिष्ट ४०३ वि० भाष-विशेषावश्यक, भाष्य श्वेताम्बर सस्था रतलाम । वृत्ति-सप्ततिकाझी मलयगिरि वृत्ति, जैन आत्मानन्द सभा भावनगर । शतक । ६ मणि शतकप्रकरण, राजनगरस्थ वीर समाज । शतक्चूर्णि समयप्राभृत-रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला बम्बई । सर्वार्थसिद्धि-मल्लिसागर दि. जैन ग्रन्थमाला मेरठ । सुभापितरत्नसंदोह-निर्णयसागर प्रेस, बम्बई । गा०-गाथा, प०-पत्र, पृ०-पृष्ठ, श्लो०-श्लोक, सू०-सूत्र । Page #486 --------------------------------------------------------------------------  Page #487 -------------------------------------------------------------------------- _