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लौटफर मेसाणा में ही करीब डेढ वर्ष तक वे धार्मिक अध्यापन कराते रहे। फिर वे अहमदाबाद पहुंचे। जहाँ जाकर उन्होंने कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह श्रादि कर्मविषयक श्राफर अन्यों का गहरा आकलन किया।
हीराभाई ने श्राचार्य मलयगिरिकृत टीका सहित पंचसंग्रह का गुजराती अनुवाद करके विक्रम संवत् १९९२ में प्रथमखण्ड में प्रकाशित किया
और उसका दूसरा खण्ड विक्रम संवत् १९९७ में प्रकाशित किया। इस अनुवाद के द्वारा वे कर्मशास्त्र के सभी जिज्ञासुत्रों तक पहुँच गये।
अाज उनकी उम्न ५७ वर्ष की है। उन्होंने प्रथम से ही ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके उसे अभी तक सुचारु रूप से निभाया है। वे प्रकृति से इतने भद्र और सरलचेता है; जिसे देखकर मैं तो अनेक वार अचरज में पड़ गया हूँ। मन, वचन और कर्म में एकरूपता कैसी होती है या होनी चाहिये, इसके वे एक सजीव अादर्श हैं। वे कर्मशास्त्र के पारगामी होकर मी अन्य वैसे विद्वानों की तरह अकर्म या सेवाग्राही नहीं है। जब देखो तब वे कार्यरत ही दिखाई देते हैं और दूसरों की भलाई करने या यथा-सम्भव दूसरे के बतलाये काम कर देने में विलकुल नहीं हिचकिचाते । उनको जाननेवाला कोई भी चाहे वह स्त्री हो या पुरुष-हीराभाईहीरामाई जैसे मधुर सम्बोधन से निःसकोच अपना काम करने को कहता है
और हीराभाई-मानों लघुता और नम्रताकी मूर्ति हो-एक सी प्रसन्नता से दूसरों के काम कर देते हैं।
वे मात्र श्वेताम्बरीय कर्मशास्त्रों के अध्ययन में ही संतुष्ट नहीं रहे। ज्यो ज्यों दिगम्बरीय कर्मशास्त्र विषयक अन्य प्रसिद्ध होते गये त्यो त्यों उन्होंने उन सभी ग्रन्यों का आकलन करने का भी यथा सम्भव प्रयत्न क्रिया